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Monday, July 11, 2016

Knowledge of Route

In most of the cases, a medical representative is supposed to be independent in-charge of his whole territory. He usually goes to nearby towns and villages by two-wheeler. But if the distance is more than 50 km, then public transport is preferred. Since the medical representative needs to frequently travel to different markets in his territory, he is usually aware of the routes, availability of modes of public transport, convenient timings of going to a particular market, safe timings of staying in or coming back from a particular market, etc. But first line managers are taught to never believe in what the representative says. This incident is related to such misunderstanding between a medical representative and his first line manager.

The medical representative was a new recruit and was working at Ranchi as base town. The manager was based at Patna and was on a two day visit to Ranchi. He planned to cover Hazaribagh and Ramgarh in a single day. Hazaribagh is about 100 km from Ranchi and Ramgarh is about 40 km in between. Usually, representatives go to Ramgarh and return to the base town on the same day. They go to Hazaribagh and stay there for a couple of days to finish the work. The medical representative told his manager that it was not possible to cover both the markets in a single working day. He also told that once it becomes late evening in Ramgarh, it is difficult to find a mode of conveyance to go back to Ranchi. But the manager was hell bent on imposing his will. 

So, they proceeded to Hazaribagh by a bus. They started early in the morning and reached Hazaribagh by 10 AM. After finishing the work at about 4 PM, they boarded a bus for Ramgarh. By the time, they reached Ramgarh, there were a few buses and jeeps to be seen near Ramgarh Bus Stand. It was already dark and there was power cut in the town. The manager was roaming in the bus stand; enquiring about the next bus or jeep for Ranchi. All the while, he was hurling all kinds of de-motivating words at the medical representative. Because of his restless attitude, the manager could not see a taut rope in his path and entangled his feet in the rope. The manager fell on the ground with his face smeared with mud. He was furious at his best and began hurling abuses at the medical representative. The medical representative helped his manager to stand on his feet. He tried to calm down the manager and took him to a nearby dhaba. After washing the mud from his face and cloth, the manager proceeded to search for a hotel room so that they could spend the night at Ramgarh.

The meager allowance they were getting did not permit them to hire a decent hotel. They ended up in a shabby room which was full of cobwebs and dust. The mattress was full of bugs and had a nauseating smell. The hotel’s staff gave a filthy blanket to them. The medical representative offered the manager to enjoy the full warmth of the solitary blanket. He said he would manage with his jacket.


They spent the sleepless night at the ramshackle hotel. Next day, both of them returned to Ranchi. Being a new recruit, the medical representative was so angry that he took a day off. The manager had to cool his heels in his hotel room throughout the day. Finally, in the evening he boarded the train to be back to Patna. 

फैट टैक्स

सरकार का खजाना हमेशा खाली ही रहता है। खर्चे जो बढ़ गए हैं। प्रधानमंत्री को जरूरी काम से बार-बार देश से बाहर जाना होता है; वो भी पूरा एक हवाई जहाज लेकर। अब हवाई जहाज का माइलेज किसी मोटरसाइकिल की तरह तो है नहीं। इसलिए तेल का खर्चा बहुत बढ़ जाता है। उनके अलावा बहुत सारे मंत्री-संतरी भी देश और विदेश का भ्रमण किया करते हैं। साथ में नौकरशाहों की एक बड़ी फौज को वेतन भी देना होता है जो सातवें वेतन आयोग के बाद और भी बढ़ गया है। ऐसे में सरकार को हमेशा नए-नए उपाय खोजने पड़ते हैं कि किस तरह से टैक्स का कलेक्शन बढ़ाया जाए। कभी-कभी प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री लोगों से अपील करते हुए धमकी भी देते हैं कि तीस सितंबर तक अपना छुपा हुआ धन दिखा दें नहीं तो कड़ी से कड़ी सजा मिलेगी। अब आप ही बताइए कि कोई आदमी इतने जतन से छुपाए हुए धन का खुलासा आसानी से कैसे कर दे। बहरहाल, अभी हाल ही में केरल की नई चुनी हुई सरकार ने पिज्जा और बर्गर जैसे फास्ट फूड पर फैट टैक्सलगाने का मन बना लिया है। ऐसा कहा गया है कि इससे लोगों को जंक फूड खाने से रोका जा सकेगा और फिर मोटापे जैसी समस्या से मुक्ति मिल जाएगी। देसी ज्ञानियों की मानें तो हर विदेशी फूड जंक फूड होता है और हर देसी फूड हेल्दी फूड होता है।

लेकिन योगा डे की सफलता से अभिभूत होकर और बाबा रामदेव से प्रेरित होकर भारत सरकार ने सोचा है कि अब हर उस व्यंजन पर फैट टैक्सलगाया जाएगा जिससे मोटापा बढ़ने का खतरा हो। उसके बाद आपको कोई भी आदमी ऐसा नहीं मिलेगा जो यह दावा कर सके कि वह खाते पीते घर से आता है। सरकार के इस फैसले से हर घर में खलबली मच सकती है। इसके कुछ उदाहरण नीचे दिये गये हैं।

उदाहरण 1:

“अरी अम्माँ, आज खाने में क्या बना रही हो?”

“आज तो मैं बिरयानी बना रही हूँ। लेकिन डर है कि कहीं टैक्स विभाग वाले छापा न मार दें। अब बिरयानी की खुशबू तो पूरे मोहल्ले में फैलेगी। इससे हमारे पड़ोसी को पता चल जाएगा कि हमारे यहाँ बिरयानी बनी है और उन्हें न्योता तक नहीं मिला। हो सकता है कि गुस्से में वे 100 नम्बर डायल करके पुलिस को इत्तला कर दें।“

उदाहरण 2:

“भाग्यवान आज खाने में क्या बना है?”

“आज तो मैंने दलिया बनाया है।“

“तुमने मेरा फेवरीट आलू के पराठेऔर पनीर बटर मसाला क्यों नहीं बनाया?”

“तुम्हारी अकल घास चरने गई है। सुना नहीं इस तरह के डिश बनाने पर फैट टैक्सदेना पड़ता है? आजकल तो टैक्स विभाग वालों को ये अधिकार दे दिया गया है कि जब चाहें किसी के घर पर छापा मार सकते हैं। इसलिए दलिया और खिचड़ी खाकर संतोष करो।“

उदाहरण 3:

“अरे सुना तुमने? वर्मा जी की इज्जत मुहल्ले में कितनी बढ़ गई।“

“क्यों क्या हुआ?”

“कल उनके घर टैक्स विभाग वालों ने रात बारह बजे छापा मार दिया। वे लोग आधी रात को चिकन टिक्का, लच्छा पराठा, दाल मखनी और गाजर का हलवा खा रहे थे। उन्होंने इसके लिए फैट टैक्सनहीं भरा था। फिर क्या था, टैक्स की चोरी के आरोप में उन्हें हवालात ले जाया गया। मोहल्ले के बाकी लोग तो उनसे जलने लगे हैं। कहते हैं कि हमें तो दाल भी नसीब नहीं होती और ये चिकन टिक्का और लच्छा पराठा खा रहे हैं।“

“मुझे नहीं चाहिए ऐसी इज्जत जिसमें हवालात जाने का खतरा हो।“


“हाँ ठीक कहते हो। हम जब छुट्टियों में लंदन घूमने जाएँगे तो वहाँ जाकर चिकन टिक्का का मजा लेंगे। सुना है चिकन टिक्का तो इंगलैंड की नेशनल डिश हो गई है।“ 

Sunday, July 10, 2016

DM Is Coming

First line managers are called by different names in different companies. Some of the designations for front line managers can be quite fancy. The front line managers in Pfizer are called DM which is a short form for District Manager. Coincidentally, the abbreviated form DM is also used for an important post in the Indian Administrative Services. The District Magistrate is an important person in districts and is considered to be very powerful person. In colloquial terms; he is often called as DM Sahib. This incident is related to the much revered term ‘DM’ in mofussil towns of India. This was shared by one of my colleagues during a sales meeting.

A PSO was going to some interior market along with his DM aka District Manager. They reached the nearby railway station only to find that the train was overcrowded. Even the first class coach was jampacked. They discovered that it was some auspicious day of a Hindu festival and people were going to a nearby bathing ghat to wash their sins.

The DM (of Pfizer) was scared to see the crowd and wanted to change the tour plan. He preferred to go back so that they could work in relative calm of the base town. But the PSO appeared to be unperturbed and insisted on proceeding as per the tour programme. The DM was not sure how to get in the train. The PSO found an ingenious way to solve the seemingly huge problem.

He went near the door of the first class coach and began to shout, “DM sahib is coming! DM sahib is coming! Make way for the DM.”


When the crowd in the compartment heard these words it apparently went into some sort of trance. People began to make way for the DM. Even a couple of policemen; present there; began shoving the people to make way for the DM. The DM (of Pfizer) followed the PSO the way a kid follows his mother. Both of them easily found their way inside the compartment. To their utter surprise, they also found that two seats were made vacant for them to sit comfortably. 

असली डॉक्टर

उस समय मेरा ट्रांसफर धनबाद से बहराइच हुआ था। धनबाद में मैं केवल क्वालीफाइड डॉक्टर से मिला करता था और इसलिए अपनी सेल्स पिच में अंग्रेजी का इस्तेमाल अधिक करता था। ठीक इसके उलट बहराइच उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा शहर है जहाँ के मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव को झोला छाप डॉक्टर और बिएएमएस डॉक्टर से भी मिलना पड़ता है। बहराइच में काम करने के लिए हिंदी का दुरुस्त ज्ञान होना जरूरी है। मुझे हिंदी में सही तरीके से सेल्स पिच सिखाने के लिए रीजनल ट्रेनिंग मैंनेजर को जिम्मेदारी दी गई थी। वे एक बुजुर्ग और अनुभवी सेल्स प्रोफेशनल थे जिनके कैरियर का ज्यादातर भाग पूर्वी उत्तर प्रदेश के मार्केट में बीता था। एक बार हमलोग किसी छोटे से गाँव में काम करने गये थे। उस गाँव में पहुँच कर हम एक केमिस्ट की दुकान पर सर्वे कर रहे थे। तभी किसी मैले कुचैले कागज पर किसी डॉक्टर का पर्चा आया जिसपर दवा का नाम उर्दू में लिखा हुआ था। केमिस्ट से पता चला कि उसपर टेरामाइसिन लिखा हुआ था। केमिस्ट ने बताया कि कोई डॉक्टर अली थे जिन्होंने वह पर्चा लिखा था। उसने ये भी बताया कि वे फाइजर की दवाएँ खूब लिखा करते थे। 
ऐसा सुनकर मैं और मेरे रीजनल ट्रेनिंग मैनेजर उस डॉक्टर से मिलने चल दिए। केमिस्ट ने बताया था कि वह डॉक्टर बाजार में एक पीपल के पेड़ के पास वाले टीले पर क्लिनिक चलाते थे।

मैं अपनी मोटरसाइकिल चला रहा था और पिछली सीट पर मैनेजर साहब बैठे हुए थे। मैंने बड़ी स्टाइल से मोटरसाइकिल को उस टीले पर चढ़ा दी। हमारे सामने एक खस्ताहाल झोपड़ी सी दिखी जिसमें कुछ देहाती लोग बैठे हुए थे। झोपड़ी के बाहर एक अधेड़ उम्र का आदमी चेक वाली लुंगी और मटमैली बनियान पहने खड़ा था। मैंने अपनी बाइक पर बैठे बैठे ही उस आदमी से बड़े कड़क अंदाज में पूछा, “ओ भैया, ये अली डॉक्टर कहाँ मिलेंगे।“

वह आदमी थोड़ा सकपकाते हुए बोला, “डॉक्टर तो नहीं हैं, किसी दूसरे गाँव गये हैं। एकाध घंटे बाद आएँगे।“

मैंने अपने मैनेजर से वापस चलने को कहा तो उन्होंने मुझे इशारे से चुप होने को कहा। फिर वे बाइक से उतर कर उस आदमी के पास पहुँचे और बोला, “हम लोग दवा कंपनी फाइजर से आए हैं। आप कहें तो थोड़ी देर आपसे ही बात कर लें।“

उस आदमी ने हामी भरी और फिर हम उसके पीछे उसकी झोपड़ीनुमा क्लिनिक के अंदर चले गए। फिर मेरे ट्रेनिंग मैनेजर ने मुझे उस आदमी को डिटेलिंग करने के लिए इशारा किया। मैं मन ही मन भन्ना रहा था क्योंकि मुझे उस देहाती आदमी को डिटेलिंग करना अच्छा नहीं लग रहा था। फिर थोड़ी देर तक मैनेजर ने उसे ठेठ हिंदी में कुछ दवाओं के बारे में बताया। उनके कहने पर मुझे उस आदमी को एक गिफ्ट भी देना पड़ा। अंत में पता चला कि वह आदमी और कोई नहीं बल्कि डॉक्टर अली था।

वहाँ से निकलने के बाद मैंने अपने ट्रेनिंग मैनेजर से पूछा, “मुझे दो बातें समझ में नहीं आई। इसने पहले ये क्यों कहा कि ये डॉक्टर नहीं है? फिर आपने कैसे पकड़ लिया कि यही असली डॉक्टर है?”

इस पर मेरे मैनेजर ने जो जवाब दिया उससे मैं उनके अनुभव का कायल हो गया। उस दिन मेरी आँखें खुल गईं कि किसी की पोशाक देखकर ही किसी के व्यक्तित्व का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। उन्होंने कहा, “जब उसने देखा कि दो लोग पैंट शर्ट और टाई में इतनी हेकड़ी से उसके टीले के ऊपर पहुँचकर सवाल पूछ रहे हैं तो वो डर गया होगा कि कहीं कोई सरकारी अधिकारी छापा मारने तो नहीं आ गया। मैंने इस तरह के बाजारों में वर्षों काम किया है इसलिए उसे देखते ही मैं ताड़ गया कि यही वह आदमी होगा जिसे हम तलाश रहे थे। देखा नहीं वह कितने इत्मिनान से उस टीले पर टहल रहा था।“ 

Thursday, July 7, 2016

डॉक्टर के लिए उपहार

मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव एक ऐसा शख्स होता है जो डॉक्टरों के पास जाकर अपनी कंपनी की दवाई का गुणगान करता है। ऐसा करने के लिए उसकी मदद के लिए विजुअल ऐड होता है जिसमें रंग बिरंगी फोटो होती है और दवाइयों की बड़ाई होती है। विजुअल ऐड में छपी हुई बातों को ज्यादातर मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव कंठास्थ याद कर लेते हैं और डॉकटरों के सामने किसी रट्टू तोते की तरह सुनाया करते हैं। किसी भी डॉक्टर के लिए यह उतनी ही आम बात होती है जैसे कि किसी आम आदमी के लिए मोबाइल फोन पर वाटर प्योरिफायर या होम लोन की कॉल आना। लेकिन ग्रामीण इलाकों के मरीजों और उनके साथ आए लोगों के लिए यह किसी अनूठे नजारे से कम नहीं होता। ऐसा ही एक वाकया मेरे किसी मित्र ने मुझे सुनाया था; जो कि मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव था।

वह अपने एरिया मैनेजर के साथ किसी छोटे से गाँव में काम कर रहा था। वे लोग किसी ऐसे झोला छाप डॉक्टर की कॉल कर रहे थे जिसे अंग्रेजी क्या ठीक से हिंदी भी नहीं आती थी। वह मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव अपने अनुभव से जानता था कि ऐसे डॉक्टरों के पास अंग्रेजी में बात करने से वे खुश होते हैं; क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे समाज और लोगों में उनकी इज्जत में इजाफा हो जाता है। यही सब ध्यान में रखते हुए उस मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव ने अपना गला साफ किया और डॉक्टर के सामने अपना रटा रटाया भाषण शुरु कर दिया। उस डॉक्टर की जबरदस्त प्रैक्टिस चलती थी; लिहाजा उसके क्लिनिक में अच्छी खासी भीड़ जमा थी। वह डॉक्टर गर्मी के कारण लुंगी और बनियान पहने था। लेकिन मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव और उसका मैंनेजर; दोनों ने पैंट शर्ट के साथ टाई भी लगा रखी थी। दोनों ठेठ शहरी बाबू लग रहे थे जिनपर पूरी तरह अंग्रेजियत का भूत सवार हो। जब वे अपनी सेल्स पिच सुना रहे थे तो डॉक्टर भी बीच बीच में येस नो कहकर जवाब दे रहा था जैसे बहुत अंग्रेजी जानता हो। उसके इर्द गिर्द जमा लोग बड़े भाव विभोर होकर उनकी गुफ्तगू को सुन रहे थे।
लगभग 15 से 20 मिनट की सेल्स पिच के बाद मैंनेजर ने अपने बैग में से एक आकर्षक गिफ्ट पैक निकाला और बड़ी नफासत से उसे डॉक्टर के सामने इस तरह से टेबल पर रखा जैसे कोहिनूर का हीरा सौंप रहा हो। ऐसा देखते ही उस डॉक्टर के इर्द गिर्द जमा हुए लोग उठ कर खड़े हो गए और जोर-जोर से तालियाँ बजाने लगे।

बेचारा डॉक्टर, मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव और मैनेजर; तीनों ब‌ड़े हैरान होकर उन्हें देखने लगे। फिर डॉक्टर ने थोड़ा झुंझला कर पूछा, “भैया ये बताओ कि तुम लोगों ने तालियाँ क्यों बजाई?”


इस पर उस भीड़ में से एक अकलमंद से दिखने वाले अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने जवाब दिया, “हम सब समझ गये डॉक्टर साहब। ये दोनों शहरी बाबू किसी बड़े अस्पताल से आए हैं। इन्होंने आपसे अंग्रेजी में काफी सवाल पूछे। जब आपने इनके सवालों के सही जवाब दे दिये तो इन्होंने इनाम में आपको ये उपहार दिया।“ 

Wednesday, July 6, 2016

कुछ तो लोग कहेंगे

हम चाहे कितना भी आगे क्यों न बढ़ जाएँ, कुछ पुरानी आदतें छूटती ही नहीं। सत्तर के दशक के सुपरस्टार राजेश खन्ना की फिल्मों के गीतों का लुत्फ उठाना इन्हीं आदतों में से एक है। राजेश खन्ना के अनूठे चार्म के साथ सदाबहार गीतों ने सोने पे सुहागे का काम किया था जिसका असर आज भी दिखाई देता है। हमारी दूसरी बुरी आदत है अपनी सहूलियत के हिसाब से सारे नियमों को ताक पर रख देना। टू व्हीलर चलाते समय हेलमेट से परहेज, और कार चलाते समय सीट बेल्ट से परहेज, आदि इसके अन्य उदाहरण हैं। ऐसी ही आदतों के असर में हमारी निवर्तमान मानव संसाधन विकास मंत्री ने न मौका देखा और न ही दस्तूर और राजेश खन्ना कि एक फिल्म का गाना गुनगुना दिया, “कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना।“

अब आप सोच रहे होंगे कि यह तो बड़ा ही सुंदर गीत है जिसके साथ बड़ा ही मधुर संगीत जुड़ा हुआ है। साथ में नायक और नायिका का असीम रोमांस इसमें चार चाँद लगा देता है। इतने सुंदर और सदाबहार गीत को गुनगुनाने में हर्ज ही क्या है? वैसे भी उनका पसंदीदा मंत्रालय छिन जाने के बाद लोग तरह तरह की बातें कहने लगे थे। इसलिए भावनाओं में बहते हुए उन्होंने इस गाने की एक पंक्ति गुनगुना दी। मेरी उलझन समझने के लिए आपको उस फिल्म का दृश्य याद करना होगा। या फिर उस गाने की अगली पंक्ति जो इस प्रकार है, “छोड़ो बेकार की बातों में कहीं बीत न जाए रैना।“ मूल सिचुएशन में यह गाना तब गाया जाता है जब नायक और नायिका का मिलन होता है। नायिका नायक से बताती है कि किस तरह से लोग उनके रोमांस के बारे में उल्टी सीधी बातें करते हैं। इस पर नायक का उत्तर मिलता है कि लोगों की परवाह नहीं करनी चाहिए। लोगों की बातों में उलझने से बहुमूल्य समय व्यर्थ चला जाता है और काम की बातें नहीं हो पाती हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यह गाना मिलन के समय गाने लायक है न कि जुदाई के समय। अब निवर्तमान मंत्री इस गाने को तब गुनगुना रही हैं जब उनका सबसे फेवरीट मंत्रालय उनसे अलग हो रहा है।


यह तो वही बात हुई कि कोई गायक राग भैरवी को आधी रात में गाने लगे। आपकी जानकारी के लिए यह बताना उचित होगा कि राग भैरवी सुबह के समय गाया जाने वाला राग है न की रात्रि के समय। आप कभी भी ब्रेकफास्ट रात में नहीं करते, लंच सुबह नहीं करते और डिनर दिन में नहीं करते। हर तरह के भोजन का अपना निर्धारित समय होता है। हो सकता है कि ये नियम उन निशाचरों पर लागू नहीं होता होगा जो बीपीओ में कार्यरत हैं। लेकिन मंत्री जी बीपीओ में नहीं बल्कि मंत्रालय में कार्यरत हैं। भारत सरकार का एक अहम नुमाइंदा होने के नाते हमें उनसे ऐसी उम्मीद करनी चाहिए कि कम से कम वे तो नियमों का पालन करें। वरना नियम तोड़ने वाली तुच्छ प्रजा और नियम बनाने वाले राजाओं में कोई अंतर नहीं रह जाएगा। 

Monday, July 4, 2016

ग्रीन टैक्स का मतलब

भारत हिंदुओं का देश है; ऐसा कई आधुनिक राजनेताओं और ज्ञानियों का मानना है। वे ऐसा इसलिए समझते हैं क्योंकि इस देश में हिंदु धर्म को मानने वाले अन्य धर्मों की अपेक्षा अधिक संख्या में हैं। अन्य किसी भी धर्म की तरह हिंदु धर्म की भी अपनी कई विशेषताएँ हैं। इन्हीं विशेषताओं में से एक है हर तरह के पाप से बरी होने के सैंकड़ों जुगाड़। आप पूरे जीवन काल में चाहे जितने दुष्कर्म करें, मरने से ठीक पहले यदि आपने गोदान कर दिया तो आप आराम से वैतरणी पार करके स्वर्ग में जगह रिजर्व करा सकते हैं। यदि बुढ़ापे तक इंतजार नहीं करना चाहते हैं तो आप किसी तीर्थस्थान तक दंड प्रणाम करते हुए जाइए और आपको अपने किए पापों से मुक्ति मिल जाएगी। यदि आप धनाढ़्य हैं तो किसी भी नामी गिरामी मंदिर में सवा लाख रुपए नकद का चढ़ावा चढ़ा दीजिए फिर आपको अपने पाप से मुक्ति मिल जाएगी। हमारे देश में एक मंदिर ऐसा भी है जो मात्र ग्यारह रुपए का चढ़ावा देने से ही पापमुक्त होने का सर्टिफिकेट देता है।

हिंदु धर्म की इसी अतुलनीय शक्ति के कारण उन हजारों पंडों और पुजारियों को कोई पाप नहीं लगता जो मंदिरों में घटिया प्रसाद बेचते हैं या गंगा जल के नाम पर कोई भी पानी बेच देते हैं या दूध के नाम पर दूधिया पानी बेचते हैं। कुछ लोग तो इन चढ़ावों से बचने के लिए भी कोई न कोई जुगाड़ निकाल लेते हैं। एक बार मैंने अपने एक पड़ोसी को ऐसा करते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया था। वे पिछ्वाड़े के बगीचे में एक बोरी में मरी हुई बिल्ली को दफन कर रहे थे। जब उनका मुझसे सामना हुआ तो उन्होंने बताया कि किसी बिल्ली की हत्या हो जाने के बाद बिल्ली के वजन के बराबर सोने की बिल्ली किसी ब्राह्मण को दान में देनी पड़ती है। वैसे आजकल के ब्राह्मण छोटे आकार की सोने की बिल्ली से भी मान जाते हैं। लेकिन सोने के भाव आसमान छूने के कारण मेरे पड़ोसी को दूसरा रास्ता खोजना पड़ा था।

पाप के दंड से बचने की इसी कोशिश में आजकल नए-नए फैशन चल पड़े हैं। आपको कहीं भी कोई आदमी अपनी कार रोककर उसकी खिड़की से हाथ बढ़ाकर किसी गाय को रोटी खिलाते हुए दिख जाएगा। मेरे मुहल्ले में एक सज्जन के यहाँ तो काले रंग के कुत्तों की लाइन लगी रहती है। उन्हें किसी परम ज्ञानी ज्योतिषी ने बताया है कि काले कुत्ते को रोटी खिलाने से उसके सारे पाप धुल जाएँगे। अब उसके पाप धुलेंगे या नहीं ये तो पता नहीं लेकिन इससे उन कुत्तों की आजकल अच्छी कट रही है।


लगता है हमारे राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी भी हिंदू धर्म के इस फार्मूले से अच्छी तरह से प्रभावित हैं। लगभग दो साल पहले दिल्ली में डीजल गाड़ियों की बिक्री पर बैन लगाने की बात उठी थी। इससे न सिर्फ डीजल गाड़ियों की बिक्री पर असर पड़ा बल्कि काम धंधे पर भी असर पड़ने लगा। जब उद्योगपतियों और व्यवसायियों का दवाब सरकार पर बढ़ने लगा तो सरकार ने प्रदूषण के पाप से लोगों को उबारने का अनूठा तरीका निकाल लिया है। पहले बताया गया कि अब डीजल गाड़ियों पर 1% ग्रीन टैक्स देने से काम बन जाएगा। फिर अफसरों को लगा कि 15 से 50 लाख की गाड़ियाँ खरीदने वाले लोग बड़े-बड़े मंदिरों में ग्यारह रुपए का चढ़ावा तो नहीं चढ़ाते होंगे इसलिए 1% की ग्रीन टैक्स उनके लिए मामूली रकम होगी। अब बात हो रही है कि इसे 10 से 20% तक कर दिया जाएगा। एक बार आपने अपनी नई डीजल गाड़ी के लिए ग्रीन टैक्स दे दिया फिर उससे होने वाले प्रदूषण के पाप आपके सिर से अपने आप धुल जाएँगे।