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Monday, May 30, 2016

डाक से गंगाजल

“अरे पंडित जी, ऐसे मुँह लटकाए क्यों बैठे हैं? कोई बुरी खबर सुन ली?” लोटन हलवाई ने पूछा।
गगन पंडे ने चाय सुड़कते हुए बोला, “आज का अखबार नहीं पढ़ा है? अब डाक विभाग लोगों तक गंगाजल की सप्लाई करेगा। हमारा तो धंधा ही चौपट हो जाएगा।:
लोटन हलवाई ने कहा, “हाँ! हाँ! मैंने पढ़ा है। चलो अच्छा ही तो है। अब तक तुम गंगाजल के नाम पर बोतल में किसी भी पानी को भरकर लोगों को ठग रहे थे। उन्हें इससे छुटकारा तो मिलेगा।“
गगन पंडे ने कहा, “इसमें ठगी कहाँ से है। पानी तो कहीं का भी हो, होता एक ही है। मैंने विज्ञान की किताब में पढ़ा था कि पानी का निर्माण हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के मिलने से होता है। फिर मैंने जल चक्र के बारे में भी पढ़ा था जिसमें लिखा है कि पानी अलग-अलग रूपों में बदलता रहता है। फिर वही पानी पूरी दुनिया में इधर-उधर जाता रहता है।“
उसने आगे कहा, “फिर जब लोगों की भारी भीड़ आती है तो उन्हें कहाँ होश रहता है कि जल भगवान के ऊपर पड़ा भी या नहीं। वे तो बस किसी भी तरह से जल के लोटे या बोतल को भगवान तक फेंक कर अपनी तीर्थयात्रा पूरी करने की कवायद करते हैं।“
लोटन हलवाई ने बीच में ही टोका, “खैर छोड़ो इन बातों को, तुम्हारा सबसे ज्यादा मुनाफा तो गंगाजल के नाम पर पानी बेचने में ही होता है। एक रुपये की प्लास्टिक की बोतल में मुफ्त का पानी भरकर तुम उसे दस रुपये में बेचते हो। इतना मुनाफा तो दक्षिणा में भी नहीं आता होगा। दक्षिणा का कुछ भाग तो हफ्ते के रुप में ऊपर तक भी तो पहुँचाना होता है।“
गगन पंडे ने कहा, “हाँ भैया, दक्षिणा देते समय लोग आजकल बहुत मोलभाव करने लगे हैं। दस लाख रुपए में तो मेरे गुरुजी ने इस पूरे मंदिर का ठेका खरीदा था। उसकी भरपाई हो जाए वही बहुत है। लेकिन अब तो लगता है कि कोई दूसरा काम धंधा ढ़ूँढ़ना पड़ेगा।“
लोटन हलवाई ने कहा, “तुम डाक विभाग से इतने परेशान क्यों लग रहे हो? सुना है कि कई ई-कॉमर्स वाली कंपनियाँ पहले से ही गंगाजल बेच रही हैं। मेरे बेटे ने मुझे किसी ऐसी ही कंपनी का वेबसाइट दिखाया था। वे तो एक बोतल पर एक फ्री भी देते हैं। पाँच बोतल एक साथ लेने पर और अधिक छूट मिलती है। कुछ तो पाँच-पाँच लीटर वाली बोतलें भी बेच रहे हैं।“
गगन पंडे ने कहा, “ये या तो विदेशी कंपनियाँ हैं, या वैसी भारतीय कंपनियाँ जिन्हें इंगलिश स्कूलों में पढ़ चुके लोगों ने शुरु किया है। उन्हें पता ही नहीं है कि कोई भी पाँच लीटर गंगाजल का क्या करेगा। अरे हमारे अधिकतर यजमान तो एक पचास मिली लीटर की छोटी सी बोतल से महान से महान अनुष्ठान करवा लेते हैं। अब कोई आखिरी साँसे गिन रहा आदमी पाँच लीटर गंगाजल कैसे पिएगा? अरे, एक दो चम्मच मुँह में जाते ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है। मैंने भी ऐसी कंपनियों के वेबसाइट देखे हैं। उनके रेट बड़े ही महँगे हैं। ऐसे कामों के लिए कोई ग्यारह रुपए तो आसानी से दे देता है लेकिन भला दो सौ निन्यानवे रुपए कोई क्यों देगा। हो सकता है कि बड़े शहरों में इसका असर पड़े। लेकिन ये कंपनियाँ हमारे जैसे छोटे शहरों में कैश ऑन डिलिवरी की सुविधा नहीं देती हैं, इसलिए मुझे उनकी चिंता नहीं है।“
लोटन हलवाई ने पूछा, “फिर डाकिये से क्यों डर रहे हो?”
गगन पंडे ने कहा, “डाक विभाग को तुम नहीं जानते। उसे तो घाटे में बिजनेस करने की आदत पड़ चुकी है। वे तो हो सकता है कि पचास मिली की बोतल मुफ्त में देने लगें। राष्ट्रवाद के नाम पर सरकार इसके लिए अलग से बजट भी बना देगी और कोई उफ्फ तक नहीं करेगा।“
फिर इसका कोई उपाय सोचा है?” लोटन हलवाई ने पूछा।
“हाँ, मैंने अपने गुरुजी से बात की है। विपक्षी पार्टियों के कई नेताओं से उनकी अच्छी जान पहचान है। ऐसे भी विपक्ष को आजकल ठोस मुद्दों की सख्त जरूरत है। हम लोग इसके खिलाफ देशव्यापी आंदोलन करेंगे। पूरे देश में पंडों की अखिल भारतीया हड़ताल होगी, जिस दिन कोई भी पंडा किसी को भी सेवा नहीं देगा। एक हमारा ही तो काम है जिसके बिना बड़े से बड़े सेठ, वैज्ञानिक, राजनेता, डॉक्टर, आईएएस, आईपीएस, आदि किसी भी अहम काम की शुरुआत नहीं करते हैं। हम इसमें पंडितों पर बेरोजगारी के खतरे का मुद्दा उठाएँगे। हम इससे गंगा मैया के अनुचित दोहन का खतरा भी बताएँगे। सारा गंगाजल यदि गोमुख और हरिद्वार में ही निकाल लिया जाएगा तो फिर बनारस में अंत्येष्टि के लिए गए मृतकों को मोक्ष कैसे प्राप्त होगा?”

तभी वहाँ पर जोर का कोलाहल शुरु हो गया। तीर्थयात्रियों की एक नई फौज भगवान पर जल चढ़ाने के लिए तेजी से आ रही थी। गगन पंडा आनन फानन में उठा और नए ग्राहकों की खोज में निकल पड़ा। 

Friday, May 27, 2016

बैलगाड़ी का चालान

बहुत पुरानी बात है। उस जमाने में आज की तरह मोटरगाड़ियाँ नहीं बल्कि बैलगाड़ियाँ चला करती थीं। आम आदमी के लिए छोटी या लंबी यात्रा के लिए बैलगाड़ी ही एकमात्र साधन हुआ करती थी। जो थोड़े बहुत संपन्न किसान थे उनके पास अपने बैल और अपनी बैलगाड़ियाँ हुआ करती थीं। जो रईस व्यापारी या राजपरिवार से संबंधित लोग थे उनके पास घोड़ागाड़ी हुआ करती थी। बैलों को पालना सस्ता पड़ता था क्योंकि बैल कोई भी चारा खाने में नखरे नहीं दिखाते। लेकिन घोड़े तो अरब से निर्यात किए जाते थे और चारा खाने के मामले में बहुत नखरे दिखाते थे। कुछ ऐसे भी लोग थे जो अपने बैल रखने की औकात नहीं रखते थे। लेकिन यात्रा तो ऐसे लोगों को भी करनी पड़ती थी। इन लोगों की यात्रा को सुखमय बनाने के लिए कई व्यापारियों ने किराये पर बैलगाड़ी चलाना शुरु किया था। सही कीमत मिलने पर किराये की घोड़ागाड़ी भी उपलब्ध हो जाती थी।
पिछले दसेक वर्षों में लगातार अच्छे मानसून के कारण कृषि उत्पाद में काफी बढ़ोतरी हुई थी। उसका असर अन्य व्यवसायों पर भी दिखने लगा था। हर चीज की माँग बाजार में बढ़ गई थी। लोग पहले से अधिक खुशहाल लगने लगे थे। लगता था कि भारत में स्वर्ण युग का प्रवेश होने ही वाला है। अब ऐसे लोगों ने भी बैलगाड़ी खरीदना शुरु कर दिया था जो कुछ साल पहले तक बैलगाड़ी का सपना भी देखने से कतराते थे। जो लोग नई बैलगाड़ी नहीं खरीद पा रहे थे वे कम से कम किराया देकर ही सही इसका आनंद उठाते थे। जीवन का सफर हर आम आदमी के लिए आसान लगने लगा था। अब कोई भी भारत के सुदूर प्रदेशों की यात्रा करने की सोच सकता था। लोग जगह-जगह तीर्थ या पर्यटन के लिए जाने लगे थे। काशी, मथुरा, उज्जैन, पाटलीपुत्र और हस्तिनापुर जैसे बड़े शहरों में तो बैलगाड़ियों की जैसे बाढ़ आ गई थी। लोग अपनी निजी बैलगाड़ियों को रंग बिरंगे ओहार और पताकाओं से सजाते भी थे। कई बैलों के सींग तो सोने से मढ़े हुए होते थे। कुछ बैलों की पीठ पर मखमली कपड़ा भी पहनाया गया होता था।
सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि एक छोटे से राज्य में एक नए राजा ने गद्दी संभाल ली। लोग बताते हैं कि वह किसी राजसी खानदान से नहीं आया था। लेकिन अपनी अनोखी सूझबूझ के कारण उसने अपने से अधिक शक्तिशाली राजा को युद्ध में पटखनी देकर उस राज्य की गद्दी संभाल ली थी। वह राजसी कपड़े नहीं पहना था। उसके पहनावे से तो लगता था कि वह किसी सेठ के यहाँ मुंशी का काम करता होगा। गद्दी संभालते ही उसने प्रजा के लिए खजाना खोल दिया था। जिस भी गरीब को जब जरूरत पड़ती, उस राजा के राजसी खजाने से सहायता राशि ले जाता था। जिसे देखो वही नए राजा का गुणगान करने लगता था। लेकिन गद्दी संभालने के छ: महीने बीतते ही उस राजा ने अपना असली रंग दिखाना शुरु कर दिया। उसे गरीब लोग अधिक पसंद थे क्योंकि वे केवल सहायता राशि लेने में रुचि दिखाते थे और राजा या उसके आदमियों से कोई सवाल नहीं पूछते थे। लेकिन राजा की नजर में जो लोग खुशहाल थे वे बड़े ही खतरनाक थे। खासकर से उसे खुशहाल लोगों से इसलिए भी चिढ़ थी कि बढ़ती हुई बैलगाड़ियों के कारण अब राजा के काफिले को कहीं भी आने जाने में बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ता था। इनमें से तो कुछ लोग राजा के सिपाहियों से भी नहीं डरते थे। उनमें आजकल प्रजातांत्रिक भावना का रोग लग गया था।
राजा ने ऐसे लोगों से निपटने के लिए एक जाँच आयोग गठित कर दिया। समय सीमा के भीतर ही उस आयोग ने अपना रिपोर्ट पेश किया। उस रिपोर्ट में बड़ी ही चौंकाने वाली बातें निकलकर सामने आईं। उस रिपोर्ट के मुताबिक बैलगाड़ियों की बढ़ती संख्या से पर्यावरण को खतरा हो रहा था। अधिक बैल होने का मतलब था चारे और पेड़ पौधों की अधिक खपत। इससे वन संपदा को नुकसान पहुँच रहा था। हरियाली कम होने से वायु प्रदूषण बढ़ने लगा था। किसी वैज्ञानिक ने यह भी खुलासा किया था कि बैल जब गोबर करते हैं तो उससे न सिर्फ सड़क पर गंदगी फैलती है बल्कि वातावरण में मीथेन नाम की एक खतरनाक गैस भी भर जाती है। वह गैस सूरज से आने वाली सारी ऊष्मा को अपने में समाहित कर लेती है जिससे पूरे भूमंडल का तापमान बढ़ जाता है। उस वैज्ञानिक ने इस परिघटना को भूमंडलीय ऊष्मीकरण का नाम दिया था। कुल मिलाकर सीधे-सीधे शब्दों में कहा जाए तो बैलगाड़ियों के बढ़ने से न केवल उस राज्य की बल्कि पूरे देश की हवा खराब हो रही थी।
उस आयोग की रिपोर्ट पर उस नए राजा ने तुरंत कार्रवाई की। उसने फरमान जारी किया कि खराब होती हुई हवा को ठीक करने के लिए यह जरूरी है कि सड़क पर बैलगाड़ियों की संख्या कम कर दी जाए। अब महीने की तारीख के हिसाब से लोगों को अपनी बैलगाड़ी लेकर सड़क पर जाने की अनुमति होगी। विषम संख्या वाली तारीखों को केवल वे ही बैलगाड़ियाँ चलेंगी जिनमें एक ही बैल जुता हुआ हो। सम संख्या वाली तारीखों को केवल वे ही बैलगाड़ियाँ चलेंगी जिनमे दो बैल जुते हुए हों। इससे सड़कों पर बैलगाड़ियों की संख्या आधी हो जाएगी। घोड़ागाड़ी और गदहागाड़ी को इस नियम से बाहर रखा गया। इससे एक तीर से दो शिकार हो गए। घोड़ागाड़ी तो चुनिंदा रईसों और राजसी लोगों के पास ही होते हैं। गदहागाड़ी उन्हीं के पास होते हैं जो अत्यंत गरीब होते हैं। समाज के दो ऐसे अहम वर्गों को कोई नुकसान नहीं होने वाला था जिससे उस राजा को फायदा होता था। उस आदेश के बाद राजा ने एक और आदेश जारी किया जिसके मुताबिक उस तारीख के बाद से दो या दो से अधिक बैलों वाली गाड़ियों के उत्पादन पर रोक लगा दी गई। कहा गया कि न नई गाड़ियाँ बनेंगीं न वो बाजार में आएँगी।
इससे बैलगाड़ी बनाने वाली कंपनियों को तो जैसे पक्षाघात मार गया। एक लंबे अरसे की मंदी के बाद बड़ी मुश्किल से अर्थवयवस्था में सुधार हुआ था और वे जोर शोर से धंधा बढ़ा रहे थे कि इस सनकी राजा ने उनकी रफ्तार पर ब्रेक लगा दिया।
बैलगाड़ी निर्माता संघ ने आनन फानन में देश की व्यावसायिक राजधानी में अपनी बैठक बुलाई। वे इस बात पर मंत्रणा कर रहे थे कि इस अचानक से आई समस्या का समाधान कैसे ढ़ूँढ़ा जाए। बैलगाड़ियों की बढ़ती माँग से पूरी अर्थव्यवस्था में आमूल चूल सुधार आता है ऐसा किसी बड़े व्यवसाय शास्त्री का कहना है। इस उद्योग से हर क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़ते हैं; जैसे कि ओहार बनाने वाले, कोड़े बनाने वाले, सीटों की गद्दियाँ बनाने वाले, चारा बनाने वाले, आदि। सबसे बड़ी बात कि इससे पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिलता है। काफी लंबी मंत्रणा के बाद बैलगाड़ी निर्माता संघ का एक प्रतिनिधि उस राजा के पास अपनी बात रखने गया। राजा ने उसका गर्मजोशी से स्वागत किया। काफी लंबी बातचीत हुई लेकिन कोई रास्ता न निकला। वह निराश लौट आया। बाद में किसी गुप्तचर के मारफत संदेश आया कि शायद कुछ नजराना और हकराना देने से राजा अपनी नीतियों में कुछ बदलाव कर दे।
लेकिन बैलगाड़ी निर्माता संघ के अन्य पदाधिकारी उस राजा पर सीधे-सीधे विश्वास नहीं कर पा रहे थे। एक ने ये भी कहा कि यदि अन्य राजाओं को यह बात पता चल गई तो फिर अन्य राज्यों में नजराने और हकराने की परिपाटी शुरु हो जाएगी। उसके बाद धंधे में मुनाफे कि गुंजाइश ही नहीं बचेगी। उन सदस्यों में एक बहुत ही बुजुर्ग और अनुभवी व्यवसायी भी थे जिनका कारोबार न केवल पूरे भारतवर्ष में फैला हुआ था बल्कि अरब से आगे यूरोप और अमरीका के देशों में भी फल फूल रहा था। उन्हें इससे भी खुर्राट राजाओं से निबटने का तरीका मालूम था। उन्होंने सलाह दी कि एक छोटे से राज्य के सनकी राजा से डील करने से बेहतर होगा कि हिंदुस्तान के बादशाह से सीधी बात की जाए। लेकिन उसमें एक खतरा था। इस बादशाह ने अभी अभी गद्दी संभाली थी। यह बादशाह इस बात के लिए मशहूर था कि अपने विरोधियों को आनन फानन में ही पूरे विश्व के मानचित्र से गायब कर देता है। लेकिन हमारे अनुभवी व्यवसायी का मानना था कि सीधे या परोक्ष रूप से पूरे हिंदुस्तान के बादशाह से ही अपनी समस्या के सही निपटारे की उम्मीद की जा सकती है। काफी सोच विचार करने के बाद उन्होंने अपना एक अनुभवी प्रतिनिधि दिल्ली के दरबार के उस नवरत्न तक भेजा जो यातायात से संबंधित मामलों पर नीतियाँ तय करता था। कहा जाता है कि नवरत्न बनने से पहले वह एक बहुत ही सफल व्यवसायी रह चुका था इसलिए व्यवसायियों की बात वह बड़े गौर से सुनता है।

उसके बाद तय समय पर उस नवरत्न और बैलगाड़ी निर्माता संध के बीच एक लंबी मंत्रणा हुई। उस गोष्ठी से निकलने के बाद दोनों ने मुसकराते हुए चेहरे से राजसी चित्रकारों के सामने पोज दिया ताकि अच्छी से पेंटिंग बन सके। उसके बाद पूरे भारतवर्ष में बैलगाड़ी का कारखाना लगाने के लिए टैक्स में अतिरिक्त छूट की घोषणा की गई। हर शहर और हर गाँव में शिलालेख लगवाए गए जिनपर बैलगाड़ी से पर्यावरण को होने वाले फायदे का वर्णन था। उसके बाद से पूरे देश में बैलगाड़ी के एक से एक नए मॉडल बिकने लगे और हर तरफ समग्र विकास नजर आने लगा। बेचारा छोटे राज्य का राजा और कर भी क्या सकता था। उसे अपनी सीमित सामर्थ्य का पता था इसलिए उसने बादशाह के नवरत्न के फरमान की अवहेलना नहीं की। अब वह सिर्फ इस बात के सपने देख रहा है कि किस तरह से दिल्ली की गद्दी के नजदीक पहुँचा जाए। 

Wednesday, May 25, 2016

चिड़िया की जान जाए बच्चे का खिलौना

“अरे भैया, कहाँ भागे जा रहे हो?” धर्मेंद्र ने साजिद से पूछा।
“जिधर सब ओर जा रहे हैं, उधर ही भाग रहा हूँ।“ साजिद ने बताया।
“क्यों, क्या बात है?”
“पता नहीं, वह तो आगे जाने पर ही मालूम होगा।“
इतना कहकर दोनों उस भीड़ के पीछे भाग लिए, जो किसी खास दिशा में भाग रही थी। उस भीड़ में हर उम्र और लगभग हर वर्ग के लोग थे। छोटे बच्चे जो चल सकते थे तेजी से दौड़ रहे थे और जो अभी चल नहीं पाते थे वे अपनी माँ या पिता की गोद में थे। उनके माता पिता भी तो उसी ओर भाग रहे थे। साजिद ने देखा कि उस भीड़ में कुछ गुब्बारे बेचने वाले, खोमचे वाले और आइसक्रीम बेचने वाले भी थे। कुछ युवक तो अपनी-अपनी मोटरसाइकिलों पर ही भाग रहे थे। आखिर इसी बहाने उन्हें अपनी नई मोटरसाइकिल दौड़ाने का मौका जो मिला था।
थोड़ी दूर आगे जाने के बाद सब लोग सड़क को छोड़कर एक खेत से होकर भागने लगे। गनीमत थी कि उस खेत में कुछ दिन पहले ही फसल की कटाई हुई थी। धर्मेंद्र को कुछ लोगों की बातचीत सुनकर यह अनुमान हुआ कि कोई बड़ा धमाका हुआ था जिसे सुनकर सब लोग उस आवाज की दिशा में भागे चले जा रहे थे। हर आदमी उस धमाके के असली कारण का पता करके अपनी जिज्ञासा शांत करने को व्याकुल था। लगभग एक किलोमीटर भागने के बाद वे सभी घटनास्थल पर पहुँच गए।
वहाँ पहुँचकर पता चला कि कोई छोटा हवाईजहाज हवाईपट्टी पर उतरने की बजाय उससे कुछ दूर पहले ही खेत में उतर गया था। उसके पहिए टूटे हुए थे और वह हवाईजहाज पेट के बल गिरा था। लोग आपस में खुसर पुसर कर रहे थे। कोई अनुमान लगा रहा था कि जरूर कोई टाटा बिरला सरीखा बड़ा व्यवसायी उस हवाईजहाज से जा रहा होगा और गिर गया होगा। किसी का सोचना था कि कोई बड़ा नेता उस हवाईजहाज से जा रहा होगा और गिर गया होगा। इस तरह के छोटे जहाजों में या तो नेता सफर करते हैं या कोई बड़ा पूँजीपति।
भीड़ अच्छी खासी इकट्ठी हो गई थी। लगभग एक हजार के आसपास लोग जमा हो गए होंगे। गुब्बारे वालों ने तो जैसे अपने साथियों को फोन करके बुला लिया था और सभी धड़ाधड़ बिक्री कर रहे थे। आइसक्रीम, भुट्टे, हवा मिठाई, झाल मुढ़ी और न जाने क्या-क्या तेजी से बिक रहे थे वहाँ पर। जवान लड़के उस गिरे हुए जहाज के पास जाकर अपनी सेल्फी ले रहे थे ताकि उन्हें फेसबुक पर डालकर अपने यारों दोस्तों में वाहवाही लूट सकें। बुड्ढ़े लोग उन्हें सेल्फी लेते देखकर मन ही मन कुढ़ रहे थे और उन्हें कोस भी रहे थे। कुछ जवान लड़कियाँ उन लड़कों से जल भुन रही थीं, क्योंकि उनके गाँव के पंचायत ने लड़कियों को मोबाइल फोन रखने पर पाबंदी लगाई हुई थी। इस बीच किसी को भी इतनी फुरसत नहीं थी कि धीरूभाई अंबानी का शुक्रिया अदा करें जिनके कारण आज हर किसी के हाथ में मोबाइल फोन है या फिर मोदी जी को याद कर लें जिनके कारण लोगों में सेल्फी का क्रेज बढ़ गया है।
उससे भी अजीब बात ये थी कि किसी को ये जानने समझने की फुरसत नहीं थी कि उस हवाईजहाज में बैठे हुए मुसाफिरों का हाल जान लें। लोगों को तो बस एक मौका मिला था इतनी बड़ी दुर्घटना; वो भी हवाईजहाज की दुर्घटना को पास से देखने का। वे बस उसी का मजा उठाना चाहते थे।
तभी वहाँ पर एक स्थानीय नेताजी भी आ गए जिन्होंने आज तक हर प्रकार के चुनाव हारने का रिकार्ड बनाया हुआ था। वे आनन फानन में इंटों की एक ढ़ेर पर चढ़ गए और अपना भाषण शुरु कर दिया।
भाइयों और बहनों, ये क्या हो रहा है हम गरीबों के साथ? क्या हम इतने निरीह हो गए हैं कि कोई भी अमीर जब चाहे हमारे गाँव में अपना हवाईजहाज क्रैश लैंड करा दे? अंग्रेजों के जमाने से लेकर आजतक इन पूंजीपतियों ने हमारा शोषण ही किया है। अब तो इन्होंने सारी हदें पार कर दी। अगर ऐसा ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब ये हमारे खलिहानों और दालानों तक घुस जाएँ। ............”
अभी नेताजी अपने पूरे रंग में आ भी नहीं पाए थे कि पुलिस, फायर ब्रिगेड और एंबुलेंस के सायरन की आवाजें तेजी से पास आने लगीं। जैसे ही पुलिस वाले वहाँ पहुँचे, उन्होंने लोगों को हवाईजहाज से दूर हटाना शुरु कर दिया। कुछ लोग मान ही नहीं रहे थे तो पुलिस को हल्की लाठी चार्ज भी करनी पड़ी।
अब लोगों से वह हवाईजहाज इतना दूर हो चुका था कि कुछ भी साफ दिखाई नहीं दे रहा था। कुछ देर बाद लगा कि हवाईजहाज का दरवाजा खुला और उसमे से कुछ लोगों को उतारकर एंबुलेंस में डाला गया। फिर एंबुलेंस सायरन बजाती हुई वहाँ से ओझल हो गई।

काफी मशक्कत करने के बाद धर्मेंद्र कुछ अहम जानकारी जुटा पाया। दरअसल वह हवाईजहाज एक एअर एंबुलेंस था जो पटना से किसी मरीज को लेकर आ रहा था। विमान का इंजन फेल हो जाने की वजह से पायलट ने उसे खेत में क्रैश लैंड कराया था। कुदरत का करिश्मा ही था कि कोई भी गंभीर रूप से घायल नहीं हुआ था। जिस मरीज को लाया जा रहा था वह भी जिंदा बच गया था और उसे किसी बड़े अस्पताल में ले जाया गया था। धर्मेंद्र को अपने गाँव वालों के जोश और जिज्ञासा से एक पुरानी कहावत याद आ गई, “चिड़िया की जान जाए बच्चे का खिलौना।“ 

Wednesday, May 18, 2016

नक्शे का लाइसेंस

भारत सरकार एक बिल लाने वाली है जिसके मुताबिक हर किसी को भारत के किसी भी भाग का नक्शा इस्तेमाल करने के लिए लाइसेंस लेना होगा। अब इससे दक्षिण एशिया की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा इस पर विचार विमर्श करने का जिम्मा मैं अपने से अधिक ज्ञानी लोगों पर छोड़ता हूँ। मुझे तो ये चिंता सता रही है कि इससे आम आदमियों के जीवन पर क्या असर पड़ेगा। इस विषय पर गहन चिंतन करके मैंने कुछ पहलुओं पर प्रकाश डालने की कोशिश की है।
कल्पना कीजिए कि सुबह सुबह किसी स्कूल में भूगोल की क्लास शुरु हो रही है और मास्टर साहब बच्चों से पिछले दिन दिए गए होमवर्क के बारे में पूछ रहे हैं।
मास्टर साहब, “कल मैंने एक होमवर्क दिया था जिसमें भारत के मानचित्र पर अधिक वर्षा और कम वर्षा वाले क्षेत्रों को दिखाना था। उस होमवर्क को जिसने भी पूरा किया हो वह अपने हाथ ऊपर कर ले।“
जवाब में कोई भी हाथ ऊपर नहीं उठा। जब मास्टर साहब ने कारण पूछा तो सबसे मेधावी छात्र गोपाल का जवाब आया।
गोपाल, “सर, मेरे पापा ने उस होमवर्क को बनाने से मना किया था क्योंकि मेरे पास उस नक्शे का लाइसेंस नहीं है। मेरे पापा नक्शा विभाग के दफ्तर के कई चक्कर लगा चुके हैं लेकिन यह पता ही नहीं चल पा रहा है कि लाइसेंस कितने में मिलेगा और किस काउंटर से मिलेगा।“
मास्टर साहब, “कोई बात नहीं है। मैंने प्रिंसिपल मैडम से बात की है ताकि स्कूल के लिए एक लाइसेंस ले लिया जाए। लेकिन वो बता रहीं हैं कि इसमें बहुत खर्चा आयेगा। उस खर्चे की भरपाई के लिए सभी छात्रों से डेवलपमेंट चार्ज के नाम पर एक मोटी राशि ली जाएगी। अभी तक के कानून के हिसाब से हम नक्शे के लाइसेंस के लिए छात्रों से कोई चार्ज नहीं कर सकते हैं। अरे हाँ, लगता है राहुल कुछ बोलना चाहता है। बोलो राहुल।“
राहुल, “मेरे पापा के कुछ दोस्त नक्शे वाले दफ्तर के बाहर दलाली का काम करते हैं। उनका कहना है कि लाइसेंस लिए बगैर भी काम चल सकता है। हाँ इसके बदले में स्कूल की तरफ से उस दफ्तर के लिए हर महीने कुछ नजराना चला जाता तो...............।“
मास्टर साहब, “ठीक है, ठीक है। चलो मैं शाम में तुम्हारे पापा से मिल लूँगा। लेकिन ये बात बाहर किसी को नहीं बताना।“
मास्टर साहब फिर कहते हैं, “लेकिन तुम्हारे घर का पता मुझे ठीक से मालूम नहीं है। आजकल मेरे फोन का नैविगेशन सिस्टम भी काम नहीं कर रहा है। उसमें मैसेज आ रहा है कि लाइसेंस की फीस के लिए हजार रुपए जमा करने पड़ेंगे। अब तक तो उनकी सेवा फ्री में मिल रही थी। अब फिर पुराने तरीके से कोई पता ढ़ूँढ़ना पड़ेगा। लेकिन अब किसी अंजान आदमी से पता पूछने में भी डर लगता है। जमाना खराब हो गया है। कहीं किसी चोर उचक्के के चक्कर में न पड़ जाऊँ।“
तभी स्कूल के डाइरेक्टर क्लास में आते हैं। वे मास्टर साहब से पूछते हैं, “सर, ये बताइए कि आपको यहाँ से एयरपोर्ट का रास्ता मालूम तो है? आजकल रेडियो टैक्सी के ड्राइवर भी जाने से इनकार कर रहे हैं। कहते हैं कि शहर में इतना अधिक नया कंस्ट्रक्शन हो गया है कि बिना नैविगेशन सिस्टम के रास्ता ढ़ूँढ़ना बहुत मुश्किल हो गया है। अब तो गूगल मैप ने भी भारत में अपनी सेवा देना बंद कर दिया है। सुना है कि भारत सरकार ने उसपर करोड़ों रुपयों का जुर्माना लगाया है।“
मास्टर साहब, “सर आप भूभाग क्यों नहीं इस्तेमाल करके देखते हैं। हाल ही में मशहूर बाबा झामदेव की कंपनी ने गूगल मैप जैसी ही सेवा शुरु की है। सुना है कि ग्राफिक्स कुछ धुँधले होते हैं लेकिन किसी रास्ते का मोटा-मोटा आइडिया लग जाता है। वैसे बहुत स्पेस लेता है और बहुत महँगे स्मार्टफोन में ही चल पाता है। आपके पास तो एक लैपटॉप भी है। लैपटॉप की हार्ड डिस्क में ज्यादा जगह होती है।“
डाइरेक्टर साहब, “डाउनलोड किया था। लेकिन उसका इस्तेमाल करना अपने आप में एक जद्दोजहद है। हर नई जगह का डाइरेक्शन बताने से पहले आधार नंबर और पैन नंबर डालना पड़ता है। उनका कहना है कि इससे काले धन पर रोक लगने में मदद मिलती है।“
मास्टर साहब, “सर एक बात पूछना चाहता हूँ। भूगोल की क्लास मानचित्र के बिना अधूरी हो जाती है। यदि आप एक स्कूल के लिए एक लाइसेंसे ले लेते तो............।“

डाइरेक्टर साहब, “अरे सर, आजकल के बच्चे कहाँ भूगोल में रुचि लेते हैं। उन्हें साइंस और गणित पर ही फोकस करने दीजिए। अंत में इन सबको इंजीनियर ही तो बनना है। उसके बात ये अपना रास्ता खुद ढ़ूँढ़ लेंगे।“ 

Tuesday, May 17, 2016

हॉलिडे होमवर्क

गर्मी की छुट्टियाँ कुछ स्कूलों में शुरु हो गई हैं और कुछ में शुरु हो चुकी हैं। इन छुट्टियों मे बच्चों की छुट्टी के मूड में यदि कोई सबसे बड़ा खलल डालता है तो वह है हॉलिडे होमवर्क। मेरे एक पड़ोसी की बेटी के हॉलिडे होमवर्क में से मैंने कुछ महत्वपूर्ण अंश छाँट कर निकाले हैं।
अंग्रेजी
“MAKE IN INDIA is an initiative launched by the government of India to encourage MNCs as well as national companies to manufacture their products in India. It was launched by our honourable …………….”
गणित
“Give the mathematical presentation of sector-wise growth and overall growth in terms of increased production……………………..under the proposed planning of MAKE IN INDIA.”
विज्ञान
“Make a poster on A4 sheet on ‘SMART cities in India’.
समाज शास्त्र
“Make a project on Make in India; with special reference to the automobile industry in India.”
हिंदी
“बुलेट ट्रेन के काम के मॉडल पर एक पावर पॉइंट परियोजना रिपोर्ट तैयार करे।“

जब मैंने उस कागज की शीट को ध्यान से पढ़ा तो मेरा तो पसीना निकल गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि यह हॉलिडे होमवर्क था या किसी सरकारी अध्यादेश से निकाला गया एक पन्ना या फिर किसी पार्टी की कार्यकारिणी का एजेंडा। जहाँ तक मेरी समझ है कि बच्चों को प्रोजेक्ट रिपोर्ट इसलिए बनाने दिए जाते हैं ताकि उनका समग्र मानसिक विकास हो। मुझे न तो मेक इन इंडिया के नारे से कोई शिकायत है न ही स्मार्ट सिटी के नारे से; लेकिन टीचर को अलग-अलग विषय के लिए अलग-अलग मुद्दे क्यों नहीं दिखाई दिए; यह सोचने की बात है। केवल विज्ञान को छोड़कर सभी विषयों में एक ही टॉपिक है; जैसे भारत में मुद्दों का उसी तरह से अकाल पड़ गया हो जैसे कि सूखाग्रस्त राज्यों में पानी का अकाल पड़ जाता है।
वह दिन दूर नहीं है जब होमवर्क के सवाल कुछ इस तरह से हुआ करेंगे:
  • हमारे नेता जी ने जो साइकिल ट्रैक बनाया है उसपर एक प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करें।
  • मुख्यमंत्री जी ने ऑड ईवेन लागू करके जनता जनार्दन पर जो अहसान किया उसपर एक पावर पॉइंट तैयार करें।
  • प्रधानमंत्री पद की महात्वाकांक्षा रखने वाले एक उम्मीदवार ने पूरे देश में शराबबंदी की बात शुरु कर दी है। इसपर एक मूल कविता लिखें।
  • नई सरकार के आने से लोगों को फ्री में टीवी, स्कूटी और लैपटॉप दिए जाने से राज्य का जो संभावित विकास होगा उसपर आँकड़े इकट्ठा कर के पाइ-चार्ट के रूप में दर्शाएँ।
  • एक महिला मुख्यमंत्री साधारण सी साड़ी पहनती हैं और एक महिला मंत्री बहुत उच्च कोटि की साड़ी पहनती हैं। दोनों के पहनावे के परिप्रेक्ष्य में भारत के हथकरघा उद्योग में काम करने वाले मजदूरों की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालें।“

इस तरह के सवालों के कई फायदे हैं। उम्मीद है कि अब छात्रों को आर्किमिडीज या न्यूटन साहब सपने में नहीं सताया करेंगे। उम्मीद है कि उन्हें अब इसकी भी चिंता नहीं करनी पड़ेगी कि पानीपत की पहली लड़ाई पानीपत में हुई थी या झुमरीतिलैया में। हिंदी में भी अब सूरदास या कबीरदास की कठिन शब्दावली वाले पदों के भावार्थ के चक्कर में नहीं पड़ना पड़ेगा।

मैं अभी से ये कोशिश कर रहा हूँ कि मेरे पड़ोस में रहने वाले अन्य बच्चों के हॉलिडे होमवर्क में कैसे-कैसे प्रश्न आते हैं यह पता करूँ। आपसे भी अनुरोध है कि इस तरह के अनूठे प्रश्नों पर यदि नजर पड़े तो मेरे पास जरूर भेजें। 

Wednesday, May 11, 2016

ऑड ईवेन का नया फार्मूला

आज सुबह-सुबह जब अखबार पलटा तो एक ज्ञान की बात पता चली। उस अखबार में छपी खबर के अनुसार अभी हाल ही में अप्रैल के महीने में संपन्न हुए ऑड-ईवेन अभियान के दौरान प्रदूषण स्तर में कोई सुधार नहीं आया था और न ही कंजेशन से कोई मुक्ति मिली थी। उस खबर में एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा गया था कि ऐसा स्कूलों के खुले रहने के कारण हुआ। जब जनवरी में दिल्ली के मुख्यमंत्री ने यह अभियान चलाया था तो उस समय स्कूलों की छुट्टियाँ होने के कारण ऑड-ईवेन का बेहतर रिजल्ट आया था। उसी खबर में ये भी लिखा था कि जब स्कूली बच्चों का सर्वे किया गया तो ये पता चला कि आधे से ज्यादा बच्चे प्राइवेट कारों या बाइकों से स्कूल जाते हैं। मैं  भी अपने बच्चे को स्वयं स्कूल छोड़ने जाता हूँ लेकिन मेरा अनुभव तो कहता है कि दस प्रतिशत से अधिक बच्चों के पिता उतने भी खाली नहीं हैं कि अपने बच्चे को स्कूल छोड़ सकें। हमारा जमाना ही अच्छा था जब हम पैदल ही स्कूल जाया करते थे। कम से कम ये डर तो नहीं रहता था कि प्रदूषण जैसी विकराल समस्या के लिए स्कूली बच्चों पर दोषारोपण होगा। अब तो शायद ही कोई बच्चा पैदल स्कूल जाता होगा। केजरीवाल भी अपनी जगह सही हैं क्योंकि अब तो हर आम दिल्लीवासी कारों में सफर करता है। इससे मंत्रियों और अधिकारियों को बहुत परेशानी होती है; क्योंकि उनके काफिले को जाम में फँसना पड़ता है। अब दिल्ली में इन हुक्मरानों की उतनी मनमानी तो चल नहीं पाती जितनी बिहार या उत्तर प्रदेश में चलती है। पटना या लखनऊ में तो मंत्री के काफिले के आगे-आगे डंडाधारी पुलिसवाले चलते हैं ताकि रास्ते में आने वाले किसी को भी डंडे की चोट पर हटाया जा सके। दिल्ली में अगर ऐसा हो गया तो फिर सारे मीडिया वाले हंगामा मचा देंगे। बेचारे मीडिया वालों की भी कोई गलती नहीं है। दिल्ली के बारे में खबर बनाना आसान है, क्योंकि इससे मीडियाकर्मियों को अपने दफ्तर से अधिक दूर जाने की जरूरत नहीं पड़ती।
खैर, इन सब बातों को छोड़कर असली मुद्दे पर आते हैं। अखबार में छपी उस रिपोर्ट पर मंत्रियों और अधिकारियों में खलबली मच जाएगी। कल्पना कीजिए कि अगले ऑड-ईवेन प्लान में कैसी-कैसी शर्तें रखी जाएँगी। जरा सोचिए कि अगला ऑड-ईवेन प्लान के लिए मीटिंग चल रही है और दिल्ली सरकार के आला मंत्री और अधिकारी अपने-अपने सुझाव रख रहे हैं। एक मंत्री बड़ा ही आसान तरीका सुझाता है कि अब से जब भी ऑड-ईवेन लागू हो तो सारे स्कूल बंद करने का आदेश निकाल दिया जाए। इससे बच्चे भी खुश हो जाएँगे कि जम कर खेलने-कूदने का मौका मिल जाएगा। इस पर मुख्यमंत्री जी कि राय होती है कि यदि मध्यम वर्ग को ठीक से परेशान न किया गया तो फिर टीवी चैनलों पर फुटेज नहीं मिलेगी। फिर एक अधिकारी कहता है कि जिन-जिन बच्चों के जन्म ऑड तारीख को हुए हैं वे ऑड तारीख को स्कूल नहीं जा सकेंगे। यही नियम ईवेन तारीखों को जन्म लेने वाले बच्चों पर भी लागू होगा। स्कीम को सही से लागू करने के लिए स्कूल पहुँचाने जाते समय हर माँ या बाप को साथ में बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र रखना होगा। लेकिन इसमें खतरा ये है कि जो बच्चे बसों या वैन से स्कूल जाते हैं उनको तो बेमौसम छुट्टी का मजा नहीं मिल पाएगा। फिर वे आंदोलन न कर दें? किसी ने कहा कि बच्चे कैसे आंदोलन कर सकते हैं तो किसी ने जवाब दिया कि आजकल के बच्चे; खासकर जिन्हें जुवेनाइल कहा जाता है; एक से एक जघन्य अपराध कर रहे हैं तो फिर आंदोलन या अनशन कौन सी बड़ी बात है।
उसके बाद एक बड़े ही काबिल मंत्री ने कहा कि जिन माता पिता के संतानों की संख्या ऑड है वे ऑड डेट को अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने नहीं जा पाएँगे। जिन माता पिता के संतानों की संख्या ईवेन है वे ईवेन डेट को अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने नहीं जा पाएँगे। इसके लिए किसी को भी जन्म प्रमाण पत्र लेकर चलने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अभियान शुरु होने से पहले हर पेट्रोल पंप पर स्टिकर मुफ्त बाँटे जाएँगे। उस स्टिकर पर बड़े-बड़े अक्षरों में ऑड बच्चेया ईवेन बच्चेलिखा होगा। उस स्टिकर को कार के अगले शीशे पर लगाना होगा। अब तो ज्यादातर लोगों के दो ही बच्चे होते हैं इसलिए यह स्कीम कारगर साबित होगी। महानगरों में तो बहुत से लोगों के अब एक ही बच्चा रहता है इसलिए यह स्कीम दोगुनी असरदार होगी।
मेरा सिर अब यह सोच-सोच कर भन्ना रहा है कि ऐसी स्थिति में मेरे जैसे कितने ही माँ-बाप क्या करेंगे। हम कुछ कर भी नहीं सकते, क्योंकि हम आम आदमी हैं। अधिकतर नेताओं को मध्यम वर्ग की उपस्थिति का अहसास ही नहीं होता क्योंकि इस वर्ग के लोगों को वोट बैंक की तरह नहीं हाँका जा सकता है। उन्हें तो केवल उस तरह के लोग पसंद होते हैं जिन्हें आसानी से अपनी बातों में फँसा कर सामूहिक रूप से वोटिंग के लिए मना लिया जाए। 

Tuesday, May 10, 2016

साइकिल ट्रैक के फायदे


हाल के वर्षों में जिस भी बड़े आदमी को देखिए वही आपको पर्यावरण के बारे में अपना ज्ञान बघारता मिल जाएगा। आप शायद जानते होंगे कि हमारे मुल्क में बड़े लोग कौन होते हैं। जी हाँ! वही जिनके हाथ में सत्ता होती है या फिर वे जो सत्ताधारियों को अपने इशारों पर नचाते हैं। इनमें से हर किसी के पास पर्यावरण को बचाने के लिए कोई न कोई बेहतर सुझाव अवश्य होता है। जैसे कि एक एजेंसी है जिसे ऐसा लगता है कि चंद कारों को पंद्रह दिन के लिए शहर में चलने से रोक देने पर वह शहर प्रदूषण मुक्त हो जाएगा। उन्हें शायद हजारों की संख्या में वे सरकारी वाहन नहीं दिखते हैं जिनका PUC सर्टिफिकेट कब का समाप्त हो गया है किसी को याद नहीं। इसी कड़ी में कुछ नए लोग शुमार हो गए हैं जिन्हें लगता है कि साइकिल ट्रैक बनाने से पर्यावरण को बहुत फायदा होगा। अभी हाल ही में मेरे शहर में साइकिल ट्रैक बनाने का काम जोर शोर पर है। संयोग से मैं उस रास्ते से रोज सुबह सुबह गुजरता हूँ इसलिए इस ऐतिहासिक परिवर्तन का गवाह बनने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। मैं भी कभी जीव विज्ञान का छात्र था इसलिए मैंने भी पर्यावरण से संबंधित कुछ अध्याय को पढ़ा था। इसलिए मुझे लगा कि मैं भी इस विषय पर शोध कर सकता हूँ कि साइकिल ट्रैक बनने से क्या-क्या फायदे हो सकते हैं। अब मैं ठहरा एक लेखक इसलिए मेरे पास खाली समय की कोई कमी नहीं है। इसलिए मैंने सोचा कि सुबह-सुबह अपने बेटे को स्कूल छोड़ने के बाद कुछ लोगों का इंटरव्यू लेकर यह पता करना चाहिए कि साइकिल ट्रैक बनने से क्या फायदा होगा। आपके ज्ञान के लिए यह बता देना उचित होगा कि यह साइकिल ट्रैक सड़क के बीच के डिवाइडर पर बन रहा है; जहाँ पर पहले थोड़ी बहुत हरियाली दिखाई देती थी।
सबसे पहले मुझे उस साइकिल ट्रैक पर कुछ स्कूली बच्चे और कुछ टीचर अपने-अपने स्कूटी पर फर्राटे से जाते दिखाई दिए। उनमें से कुछ ने रुककर मेरे सवालों का जवाब देने के लिए हामी भर दी। कई छात्रों ने बताया कि अब उन्हें इसका हिसाब नहीं लगाना पड़ेगा कि वे सड़क के राइट साइड से जा रहे हैं या रॉंग साइड से। टीचर ने भी उनकी हाँ में हाँ की। जब टीचर से मैंने अंडर एज ड्राइविंग पर उनके विचार जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि उन्होंने अभी-अभी अपना अठाहरवाँ जन्मदिन मनाया है इसलिए उनके पास बकायदा ड्राइविंग लाइसेंस भी है। बच्चों के बारे में कुछ भी बोलने से वे कतराती रहीं।
उसके बाद मुझे एक मजदूर मिला जो एक ठेले पर कूड़ा भरकर लाया था। उसका कहना था कि पहले डिवाइडर के बीचोबीच कूड़ा डालने में बड़ी परेशानी होती थी, लेकिन अब समतल साइकिल ट्रैक बन जाने से उसका काम आसान हो जाएगा।
वहीं आगे जाने पर मुझे एक यू टर्न के ठीक पहले एक झोपड़ी मिली जिसमें एक ढ़ाबा चल रहा था। उस ढ़ाबे वाले ने बताया कि साइकिल ट्रैक बनने से उसे अपनी बिक्री बढ़ने की उम्मीद है। अब वह आसानी से अपने ग्राहकों के लिए कई बेंचें साइकिल ट्रैक पर लगा पाएगा।
थोड़ा आगे जाने पर मैंने देखा कि कुछ कार भी साइकिल ट्रैक पर लगी हुई थी। उनमें से एक के मालिक ने कहा कि अब पार्किंग के लिए जगह ढ़ूँढ़ने में कोई परेशानी नहीं होगी। पहले ते वे मेन रोड पर कहीं भी पार्किंग कर देते थे लेकिन उसमें हमेशा ये खतरा बना रहता था कि कोई कार को ठोक कर न चला जाए। अब उसका खतरा कम हो जाएगा। थोड़ा आगे जाने पर मुझे एक बड़ी सी एसयूवी मिली जिस पर पुलिस का लोगो लगा था। उसमें बैठे पुलिस वाले भी साइकिल ट्रैक बनने से बड़े खुश थे। उन्होंने बताया कि पहले उनकी गश्ती वाली गाड़ी के लिए माकूल जगह नहीं मिल पाती थी। अब वे आसानी से साइकिल ट्रैक पर अपनी गाड़ी खड़ी कर सकते हैं। इससे थोड़ी बहुत छाया भी मिल जाएगी और आराम भी रहेगा।

लेकिन उतनी देर इधर उधर चक्कर लगाने के बाद भी मुझे कोई साइकिल वाला नहीं मिला। जिसे देखो वही या तो कार से जा रहा था या मोटरसाइकिल या स्कूटर से। यहाँ तक स्कूली बच्चे भी अपनी चमचमाती हुई स्कूटी से ही स्कूल जा रहे थे। हाँ, तभी मुझे एक बड़ी सी कार जाती दिखी जिसपर पीछे एक साइकिल टॅंगी हुई थी। वह भी बकायदा किसी मजबूत फ्रेम से जकड़ कर लगाई गई थी; जैसा कि हम अक्सर विदेशों के दृश्य में देखते हैं। मेरे आस पास लगी भीड़ को देखकर वह कारवाला अपनी जिज्ञासा शांत करने के उद्देश्य से रुका। जब मैंने उससे पूछा कि साइकिल ट्रैक बन जाने के बावजूद वह अपनी कार से कहाँ जा रहा है। उसने कहा कि वह साइकिल चलाने के लिए अपने फार्म हाउस जा रहा था जो वहाँ से कोई पचास किलोमीटर दूर था। उसने बताया कि उस साइकिल ट्रैक के अगल बगल से भारी ट्रैफिक गुजरता है इसलिए उसे ताजी हवा नहीं मिल पाती है। इसलिए वह अपने फार्म हाउस में साइकिल चलाना ज्यादा पसंद करता है। 

Friday, May 6, 2016

दशरथ ने कोप भवन क्यों बनवाया था?

यह किसी अत्यधिक काबिल टीचर द्वारा पूछा गया सवाल नहीं है और न ही किसी प्राइवेट स्कूल की प्रोजेक्ट का हिस्सा है। ये और बात है कि इस तरह के ऊलजलूल टॉपिक अक्सर प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों को प्रोजेक्ट के तौर पर मिलते हैं। हो सकता है कि यह सवाल इसके पहले भी किसी के मन में आया हो लेकिन उसने उसे वहीं पर खारिज कर दिया हो। यह सवाल मेरे दिमाग की भी मूल उपज नहीं है।
आजकल सैंकड़ो टीवी चैनल हो गए हैं और लगभग हर चैनल पर एक जैसे ही प्रोग्राम दिखाई देते हैं। कुछ में तो कलाकार भी एक ही होते हैं जो पोशाक भी एक ही पहने रहते हैं। ऐसा लगता है कि वे न्यूज चैनल पर दिखने वाले पार्टी प्रवक्ताओं की तरह हो गए हैं जो एक ही बार में कई चैनलों पर दिख जाते हैं। इसी तरह के एक जैसे प्रोग्रामों की दौड़ में धार्मिक सीरियलों की भी बाढ़ आ गई है। अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है जब हमें रामायण में राम, सीता, लक्ष्मण, मेघनाद और रावण की भूमिका कर रहे कलाकारों के नाम याद होते थे। उस जमाने में रामायण नाम का एक ही धारावाहिक हुआ करता था क्योंकि टीवी चैनल भी इकलौता था; दूरदर्शन। अब तो एक महाभारत खत्म नहीं होती है कि दूसरी शुरु हो जाती है। कोई रामायण को रावण के नजरिये से दिखाने की कोशिश करता है तो कोई सीता की नजर से। ऐसा ही एक धारावाहिक किसी लोकप्रिय चैनल पर आ रहा है जिसमें निर्माता का दावा है कि वो सीता के दृष्टिकोण से रामायण को बनाने की कोशिश कर रहा है। बढ़ती हुई टीआरपी से जितना हो सके उतना पैसे बटोर लेने के चक्कर में रामायण के छोटे से छोटे प्रसंग को भी इतना खींचा जाता है जितना कि वाल्मीकि या तुलसीदास ने भी नहीं खींचा होगा। मेरी समझ में नहीं आता है कि कुछ दर्शक; खासकर गृहस्वामिनियाँ; इस बात को कैसे बर्दाश्त कर लेती हैं कि उनकी आँखों के सामने ही कोई बाल की खाल को उनसे बेहतर निकाल रहा होता है।
ऐसा ही कोई एपिसोड चल रहा था जिसमें वह मशहूर प्रसंग पिछले चार सप्ताह से चल रहा था जिसमें कैकेई कोपभवन में चली जाती है और फिर दशरथ को यह कड़वा सच पता चल जाता है कि मर्द कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, अपनी पत्नी के सामने उसे एक न एक दिन हथियार डालना ही पड़ता है। मैं भी मजबूरी में उस एपिसोड को देख रहा था क्योंकि रिमोट पर का कंट्रोल मेरे हाथ में नहीं था। कैमरामैन बड़ी ही दक्षता के साथ कैकेई के क्लोज अप शॉट दिखा रहा था ताकि कैकेई के रौद्र रूप के हर पहलू को दिखा सके। बीच बीच में दशरथ के फुटेज से करुणा रस की झलक भी मिल रही थी। पास में ही मेरा बारह साल का बेटा भी बैठा था। उसे इन पुरानी कहानियों में जरा भी दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि उसे फेसबुक और यूट्यूब पर समय बिताना अधिक उपयोगी लगता है। फिर भी अपने बाप की मजबूरी देखकर उसे भी यह अहसास हो गया था कि शराफत से उस सीरियल को झेलता रहे। बारह वर्ष के बच्चे बड़े जिज्ञासु प्रवृत्ति के होते हैं। यह वह समय होता है जब उनका बचपन जा रहा होता है और वे किशोरावस्था की दहलीज पर खड़े होते हैं। सीरियल देखते देखते उसने ऐसा सवाल दाग दिया कि मैं निरुत्तर हो गया।
उसने मुझसे पूछा, “पापा, ये बताओ कि दशरथ तो बड़ा ही ज्ञानी राजा था। फिर उसने कोप भवन क्यों बनवाया? ना वो कोपभवन बनवाता ना इतना बड़ा कांड होता। आखिर उसने इतनी बड़ी गलती क्यों कर दी?”
मैं मन ही मन उसकी बातों से सहमत था लेकिन पास में अपनी पत्नी के बैठे होने की वजह से कुछ लाचार भी था। जब बच्चे कोई कठिन सवाल पूछते हैं तो उसका इमानदारी से जवाब देना चाहिए; ऐसा बहुत सारे सेल्फ हेल्प बुक का कहना है। लेकिन उस तरह की सभी किताबों में केवल थ्योरेटिकल ज्ञान होता है जिसे व्यावहारिकता के धरातल पर उतारना उतना ही मुश्किल होता है जितना किसी नए प्रधानमंत्री को हवाई यात्रा पर जाने से रोकना। मैंने किसी दक्ष बाप की तरह उस सवाल को सदा के लिए दफन करने की कोशिश करते हुए कहा, “अरे बेटा, ये तो कहानी के प्लॉट का अहम हिस्सा है। यदि कैकेई कोपभवन नहीं जाती तो फिर ये कहानी आगे कैसे बढ़ती। फिर राम वन कैसे जाते और सीता का हरण कैसे होता। ये सब नहीं होता तो इस कहानी का विलेन मारा कैसे जाता।“
मेरे बेटे के चेहरे से लगा कि वह मेरे उत्तर से संतुष्ट नहीं था। लेकिन उसने शायद अपने पिता की इज्जत रखने के लिए हामी भर दी और फिर बात आई गई हो गई।
लेकिन उसके बाद से यह सवाल मेरे मन में वैसे ही घुमड़ रहा है जैसे कि कब्ज के मरीज के पेट में पिछले छ: दिन का कचरा घुमड़ रहा हो। मैं भी सोचने को विवश हो गया हूँ कि दशरथ जैसे महान राजा ने कोपभवन क्यों बनवाया होगा। वह अपनी रानियों के लिए सुंदर अटारियाँ बनवाते, बाग बगीचे लगवाते, गहने जेवर बनवाते, आलीशान फर्नीचर बनवाते। ये सब तो उन्होंने जरूर बनवाए होंगे, फिर कोपभवन बनवाने की क्या जरूरत थी।
अब तो अधिकाँश लोग दो या तीन कमरों के मकान में रहते हैं। उसमें से भी यदि एक कमरे को कोपभवन बना दिया गया तो फिर टू बी एच के फ्लैट का क्या होगा? यदि किसी की पत्नी ने फरमाइश कर दी कि एक कोपभवन बनवाओ तो बेचारे आदमी की पूरी जिंदगी की कमाई ही उसे बनवाने में लुट जाएगी। फिर वह पहले से लोन पर लिए हुए घर की ईएमआई कहाँ से भरेगा। सोचिए, यदि शाहजहाँ ने ताजमहल की जगह कोपभवन बनवाया होता तो उसका क्या हश्र होता। वैसे ताजमहल बनवाने के बाद भी उसके साथ कुछ अच्छा नहीं हुआ था। उसे एक सनकी बुड्ढ़ा समझकर उसके ही बेटे ने उसे कैदखाने में डाल दिया था।
इस सवाल को एक और दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है। सच पूछा जाए तो कोपभवन की जरूरत ही क्या है। जब भी किसी गृहिणी का मूड बिगड़ जाता है तो वह बड़े आराम से अपने किसी भी कमरे को कोपभवन बना लेती है। कभी-कभी तो वह पूरे घर को कोपभवन बना लेती है। आप में से कई लोगों ने इस दर्द को करीब से झेला होगा। शाम को बेचारा मर्द जब अपने काम की थकान के बाद ट्रैफिक की मार झेलने के बाद घर पहुँचता है तो दरवाजा खुलने के स्टाइल से ही पकड़ लेता है कि उसका घर कोपभवन बना हुआ है। पीने का पानी तो वह खुद ही फ्रिज से निकाल लेता है लेकिन चाय की प्याली धम्म से उसके पास रख दी जाती है। रसोई में से जब चकले और बेलन की जोर-जोर की खटपट सुनाई देती है तो वह इस वजह से नहीं कि गृहस्वामी के लिए बड़ी मेहनत से भोजन तैयार हो रहा है बल्कि इसलिए कि मैडम का आज मूड खराब है। दशरथ तो फिर भी भाग्यशाली थे, क्योंकि कैकेई ने उन्हें अपने गुस्से का कारण बता दिया था। लेकिन आजकल के ज्यादातर पतियों की वैसी किस्मत कहाँ। पूछने पर कोई कारण ही नहीं पता चलता। यह ऐसा सवाल बन जाता है जिसका जवाब गूगल के पास भी न हो। मुद्दा उतना बड़ा भी नहीं होता है जैसा कि रामायण में था; सत्ता का हस्तानांतरण। क्योंकि भारत के एक आधुनिक आम आदमी के पास कोई दशरथ जैसा राज पाट भी नहीं है और न ही चार बेटे। अब तो कुल जमा एक बीवी होती है और एक या बहुत हुआ तो दो बच्चे। एक बात के लिए दशरथ की दाद तो देनी ही चाहिए। वे तीन-तीन पत्नियों के स्वामी होने की हिम्मत जो रखते थे।
बहरहाल, मैंने अपने कई मित्रों से इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश की लेकिन अभी तक कुछ भी हाथ न लगा। हो सकता है कि हमारे यहाँ के बड़े रईसों; जैसे टाटा, अंबानी, अडानी, आदि के घरों में कोपभवन हो और हमें पता भी नहीं हो। यदि उनके घरों से ये बात बाहर आ गई तो हो सकता है कि सरकार उनपर कोपभवन टैक्सलगाना शुरु कर दे। उसके बाद ये भी हो सकता है कि सरकार गरीबों को मुफ्त में कोपभवन मुहैया कराने के चक्कर में कोपभवन सेसलगा दे। इस पर कोई विरोध भी नहीं होगा क्योंकि इसमें नारी का सम्मान निहित है। यह भी हो सकता है कि कोई ऐसा कानून पास हो जाए जिसके कारण कोई भी महिला अपने पति और ससुराल वालों को कोपभवन ना बनवाने के जुर्म में जेल की हवा खिला सके।

यह एक पेचीदा सवाल है। यदि आपमें से किसी को भी इसका जवाब मालूम हो तो कृपया मेरे ज्ञान चक्षु खोलने की कोशिश जरूर करिएगा।