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Tuesday, July 25, 2017

SMS from School

Text messages are still the rage with marketing guys, and it is evident from numerous messages which I get from numerous marketers. While normal mortals like me and you have long switched over to Whatsapp; private and government organizations still rely on text messages to sell their products or ideas to us. Recently, there was a flood of messages from the Income Tax Department urging all and sundry to pay taxes before 31st July. Private schools have also come on this bandwagon and have started sending messages to parents. Messages from schools generally include notice about due date for fees payment, on PTMs, examination schedules, Olympiads, etc. Some messages can be quite useful, e.g. if a child does not reach school then the parents may come to know that the child has bunked his classes and has landed up at the cinema hall instead of the classroom. Some messages can be plain boring while some can be hilarious. Recently, I got a text message from the school about which I am yet to understand whether it is serious or hilarious. Following is the message:

“Dear Parents,

This is to inform you all that dengue viral is going on. So, please use coconut oil below your knees till your footsteps. It is antibiotic. Dengue mosquito cannot fly higher than knees. Please keep this in mind and start using it. Spread this message as much as you can. Your one message can save many lives. Herbal tips: Kindly keep kapur, long and elaichi in your pocket too. “

This message is apparently a useful one because it is giving a warning about dengue. It appears to be on time; unlike delayed anti-dengue initiatives which the government authorities take. Chief Ministers and Health Ministers usually get a wakeup call only after news of dengue-related deaths start appearing in newspaper and on television.

This message urges the parents to apply coconut oil. Hopefully, school teachers must have conveyed the same message to their students in classrooms.

This message says that coconut oil is an antibiotic. Thanks to copy & paste culture prevalent even among teachers, coconut oil has been declared as an antibiotic. But an antibiotic is of no use against virus; which dengue parasite is. To the best of my knowledge, mosquitoes belong to the class Insecta of phylum Arthropoda. An antibiotic is not going to act against an insect. So, what is the use of applying coconut oil?

I searched Google to find answer. You will land up on hundreds of sites which write shenanigans about naturopathy and Ayurveda; in the name of promoting and conserving the ancient culture of India. All these sites give lot of information without an iota of credibility, i.e. without proper reference.

Mosquito repellant creams and some other concoctions work by masking the body odour of humans. But coconut oil is unable to do this.

This message also urges to stuff the pocket of a student with spices; as if the student is going to cook biryani in the school. I fear that the school may start selling packets of assorted prices and may make it mandatory for all parents to buy the packets for their wards. Schools will charge very high price for such packets, and parents will not be allowed to buy spices from the market. This will be a new revenue stream for the school; that too in the lean season. Schools have already made hefty amount of money at the beginning of academic session; by selling books, notebooks and uniforms for all occasions. But earning more money in the mid of the academic season must be the brainchild of school management with great business acumen.

A school is the place where we send our children to study and to learn certain aspects of life. All modern schools are expected to instill knowledge through scientific methods. They are not expected to brainwash the students with myths about whatever culture they believe in.


As an instant reaction to this message, I planned to meet the class-teacher. I wanted to argue with her about futility of sending such messages. But my wife advised me against doing so, because she fears that this will hamper the scores of my son. I had no other way than to surrender to my wife’s commands. 

Saturday, July 22, 2017

तुलसी किसके आँगन की?

रेखा आज बहुत खुश लग रही थी। आखिरकार उसे किराये के मकान से निजात मिल ही गई थी। कल ही उसने अपने पति और दो बच्चों के साथ अपने मकान में  शिफ्ट किया था। कहने को तो ये टू बी एच के फ्लैट था लेकिन था बड़ा ही छोटा। लेकिन मकानों की आकाश छूती कीमतों और अपने बजट को देखते हुए रेखा और उसके पति (राकेश) को वही फ्लैट पसंद आया। वह फ्लैट राजधानी दिल्ली की सीमा पर उस इलाके में था जिसे एन सी आर कहते हैं। आस पास के ग्रामीण परिवेश में बहुमंजिला इमारतों यह कतार ऐसी लगती थी जैसे किसी ने जबरदस्ती खेतों के बीच में कंक्रीट का एक विशाल बिजूका खड़ा कर दिया हो। बहरहाल, रॉयल सिटी नामक उस टाउनशिप में लगभग हर वह सुविधा थी जिससे किसी मिडल क्लास परिवार का जीवन सामान्य ढ़ंग से चल सके। उस टाउनशिप के अंदर बने शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में जरूरत की लगभग हर चीजें मिलती थीं।

उनका फ्लैट ग्राउंड फ्लोर पर था जिसके कारण उन्हें दोनों कमरों के आगे अच्छी खासी जगह मिल गई थी। ऊपर की मंजिलों पर तीन फीट की चौड़ाई वाली बालकनी में दो लोग भी बड़ी मुश्किल से खड़े हो पाते थे। लेकिन ग्राउंड फ्लोर की तथाकथित बालकनी में इतनी जगह थी की चार पाँच कुर्सियों के साथ साथ एक खटिया भी लगाई जा सकती थी। उस जगह में कपड़े सुखाने के लिए भी काफी जगह थी जो कि आजकल के सिमटे हुए फ्लैटों में किसी लक्जरी से कम नहीं थी।

सुबह सुबह नहाने धोने के बाद रेखा ने जल्दी से नाश्ता बनाकर अपने पति और बच्चों को खिलाया। राकेश ने घर का सामान ढ़ंग से रखवाने के खयाल से चार दिनों की छुट्टी ले ली थी। बच्चों के लिए इस नये इलाके में स्कूल एडमिशन का काम अभी बाकी था। नाश्ते का स्वाद लेते हुए राकेश को लगा कि रेखा थोड़ी परेशान लग रही थी। उसने जब रेखा से पूछा तो रेखा ने बताया, “नहीं, कुछ खास नहीं। सोच रही हूँ कि एक नया गमला लेकर उसमें तुलसी का पौधा लगा दूँगी। सुबह की पूजा ठीक से हो जायेगी।“

राकेश ने कहा, “अरे गमले की क्या जरूरत है। सामने जो पार्किंग स्पेस है, उसके आगे फूलों और डेकोरेटिव प्लांट्स की कतारें लगी हैं। उसी में कहीं जगह देखकर तुलसी का पौधा लगा दो। पौधे को फलने फूलने के लिये भरपूर जगह मिलेगी। फिर तुम भी खुश और तुलसी भी खुश।“

अगले दिन रेखा ने अपने फ्लैट के सामने वाली तथाकथित ग्रीन बेल्टमें तुलसी का पौधा लगा दिया। फिर रोज सुबह नहा धोकर तुलसी को पानी का अर्ध्य देना और उसकी पूजा करने का सिलसिला शुरु हो गया। महीने दो महीने बीतते बीतते वह तुलसी का पौधा काफी मशहूर हो गया। उस हाउसिंग सोसाइटी की कई महिलाएँ सुबह सुबह नहा धोकर तुलसी को जल चढ़ाने आने लगीं। कुछ महिलाएँ तो देर दोपहर को तुलसी को जल चढ़ाने आया करती थीं। यह सब देखकर रेखा को आत्मसंतुष्टि का अनुभव होता था।

छ: महीने बीतते बीतते वह तुलसी का पौधा काफी फैल चुका था। तीज त्योहारों के मौकों पर शाम की आरती के लिए वहाँ कई महिलाएँ इकट्ठी हुआ करती थीं। भजन कीर्तन का आयोजन भी होने लगा। इसी बहाने वहाँ पर अक्सर शाम को अच्छी खासी चहल पहल होने लगी। कुछ लोगों ने उस तुलसी के आस पास देवी देवताओं की छोटी-छोटी मूर्तियाँ भी रख दी थीं। इस तरह से वह स्थान एक पवित्र स्थलमें बदल चुका था।

अब रेखा को अक्सर तुलसी पर जल चढ़ाने के लिए अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता था। उसे लगता था कि उस तुलसी के पौधे पर उसका पहला अधिकार था क्योंकि उसी ने उस पौधे को लगाया था। लेकिन वह चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती थी। रेखा को यह बात अंदर से खाने लगी। वह अब हमेशा की तरह पूजा करने के बाद खुश नहीं होती थी। उसे अब कभी कभी सर दर्द का दौरा भी पड़ने लगा था। राकेश उसे अक्सर समझाने की कोशिश करता था, “तुम्हें तो खुश होना चाहिए। तुम्हारे कारण कितने लोगों को पूजा करने के लिए एक निश्चित स्थान मिल गया। भगवान तो सबके होते हैं। उन पर किसी की मोनोपॉली नहीं होती। इसमें इतना परेशान होने की बात ही नहीं है।“

इस बीच रेखा को सर दर्द के इलाज के लिए कई डॉक्टरों से दिखाया गया। लेकिन किसी भी दवा का उसपर कोई असर नहीं होता था। अब तो सर दर्द के और भी नये नये कारणों का जन्म होने लगा था। कभी कोई वहाँ पर भंडारे का आयोजन करा देता। भंडारे के समय जो खलबली मचती थी कि रेखा अपने घर में भी शांति से बैठ नहीं पाती थी। उससे भी ज्यादा जुल्म तब होता था जब कोई मंडली वहाँ पर माता के जागरण का अनुष्ठान कर देती थी। फिर तो रेखा और उसके परिवार को रात भर जाग कर ही बिताना पड़ता था। एकाध बार रेखा ने रेजिडेंट वेलफेअर एसोशियेशन में इसकी शिकायत की तो जवाब मिला कि धार्मिक मामलों में वे कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते। लगभग दो साल बीतने का बाद एक दिन उस हाउसिंग सोसाइटी के हर टावर के नोटिस बोर्ड पर एक नोटिस लग गया।

“बड़े हर्ष के साथ यह सूचना दी जाती है कि गंगा टावर के सामने जो पूजा स्थल है, वहाँ पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराने का फैसला लिया गया है। मंदिर बनाने में जो खर्च आयेगा उसका पचास प्रतिशत वहन करने का वादा बिल्डर के द्वारा किया गया है। बाकी की राशि चंदे के माध्यम से इकट्ठी की गई है। गंगा टावर के ग्राउंड फ्लोर के दो फ्लैट में रहने वाले परिवारों को फ्लैट खाली करने होंगे। बदले में उनके लिये सबसे ऊपरी मंजिल यानी एक्कीसवीं मंजिल पर नये फ्लैट बनाकर दिये जाएँगे। चूँकि वहाँ पर सबसे पहला तुलसी का पौधा रेखा जी ने लगाया था इसलिए उन्हें मंदिर का ट्रस्टी नियुक्त किया जायेगा। रॉयल सिटी के निवासी रेखा जी के सदैव आभारी रहेंगे।“


उस नोटिस को पढ़ने के बाद रेखा की समझ में नहीं आ रहा था कि हँसे या रोये। हाँ वह इस बात से जरूर खुश थी कि नये फ्लैट में शिफ्ट करने के बाद रोज रोज के कोलाहल से मुक्ति जरूर मिलेगी। 

Sunday, July 2, 2017

टिंकू जी ससुराल चले

टिंकू जी कोई पहली बार ससुराल नहीं जा रहे हैं। वे तो ससुराल जाने से बचना चाहते हैं। ऐसी ससुराल में जाने से क्या फायदा जहाँ बूढ़े सास ससुर के अलावा और कोई न रहता हो। टिंकू  जी की दो दो सालियाँ हैं लेकिन टिंकू  जी के ससुर ने टिंकू  जी पर शक करते हुए टिंकू  जी की दोनों सालियों को इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए दिल्ली भेज दिया है। दिल्ली के जिस हॉस्टल में वे रहती हैं वहाँ पुरुषों का प्रवेश पूरी तरह से वर्जित है। ये अलग बाद है कि उस हॉस्टल के गार्ड, वार्डन और रसोइया पुरुष ही हैं। वैसे भी टिंकू जी की शादी को इतने साल बीत चुके हैं कि उनकी दो बेटियाँ अब स्कूल जाने लगी हैं। फिर टिंकू  जी को अपनी किराने की दुकान से फुरसत ही नहीं मिलती कि दुकान और घर के सिवा कहीं और का रुख कर सकें।

गरमी की छुट्टियों के पहले से ही टिंकू जी की पत्नी के पास फोन आया था जिसके द्वारा उन्हें अपनी बेटियों समेत मायके में छुट्टियाँ बिताने का निमंत्रण मिला था। टिंकू जी बकायदा अपनी बीबी और बेटियों को अपने ससुराल छोड़ने भी गये थे। उसके बाद वो फौरन लौट आये थे ताकि दुकान ठीक ठाक चलती रहे।

अब जून का महीना बीतने वाला था जिसके बाद स्कूल खुलने वाले थे। स्कूल का खुलना तो एक बहाना था, टिंकू जी तो पत्नी वियोग में इतने सूख गये थे कि उनकी चालीस इंच की तोंद घटकर अड़तीस इंच की रह गई थी। इसलिए वह भी चाहते थे कि जल्दी से जल्दी अपनी बीबी को वापस ले आएँ। पिछ्ले बीस पच्चीस दिनों में पेट की भूख तो उन्होंने मैगी से शांत कर ली थी लेकिन बीबी के बिना उनका और उनके घर का हाल बेहाल हो चुका था।

उनके ससुराल जाने का रास्ता बड़ा ही कठिन है, इसलिए टिंकू जी ने पूरी प्लानिंग करके पटना से कटिहार का टिकट कटवाया। वहाँ तक का सफर ट्रेन से तय करने के बाद उन्हें आगे लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर का सफर बस से तय करना था और फिर आखिर के चंद किलोमीटर रिक्शे से। आने वाले सफर की संभावित कठिनाइयों को ध्यान करते करते जब टिंकू जी के सामने उनकी बीबी का चेहरा आ जाता था तो उनका सारा डर खतम हो जाता था।

आज टिंकू जी ने सुबह सुबह अपना बैग पैक कर लिया था। दुकान के स्टाफ को जरूरी बातें बताकर वे दोपहर तक घर वापस आ गये थे। उनकी ट्रेन रात को नौ बजे पटना जंक्शन से छूटने वाली थी। तैयार होने के बाद वे टाइम पास करने के लिए अखबार के पन्ने उलट रहे थे तभी उनकी नजर एक विज्ञापन पर पड़ी। लेवाइस जींस पर 50% की छूट वाला वह विज्ञापन टिंकू  जी को ललचा रहा था। उसमें लिखा था कि एक जुलाई से जीएसटी लागू होने को देखते हुए यह छूट दिया जा रहा था। टिंकू जी ने सोचा कि ऐसे तो लेवाइस की जींस या टी शर्ट उनकी पहुँच के बाहर थी लेकिन 50% छूट के सहारे वे भी उन ब्रांडेड कपड़ों को पा सकते थे। टिंकू जी उस दृश्य की कल्पना करके रोमांचित हो रहे थे जब उनके यार दोस्त उन्हें, उनकी बीबी को और उनकी बेटियों को लेवाइस की जींस पहनकर जल भुन रहे होंगे। बस फिर क्या था, टिंकू  जी ने अपने कंधे पर बैग टांगा, एक रिक्शे पर सवार हुए और चल पड़े लेवाइस के शोरूम की ओर।

लेवाइस के शोरूम में ऐसा लग रहा था जैसे डकैती हो रही हो। लोग कपड़े पसंद करने के चक्कर में एक दूसरे से धक्कामुक्की कर रहे थे। रैकों पर एक भी कपड़े नजर नहीं आ रहे थे। सारे कपड़े फर्श पर इधर उधर बिखरे पड़े थे। लोग फर्श पर घुटनों के बल बैठ रहे थे, चल रहे थे, लुढ़क रहे थे ताकि अपनी पसंद के कपड़े छाँट सकें।

टिंकू  जी ने पहले तो अंदाजे से अपनी बेटियों और बीबी के लिए जींस और टीशर्ट ले लिये। उसके बाद उन्होंने अपने लिए पाँच छ: जींस छाँट कर किनारे किये। तभी उनके मोबाइल का अलार्म बजने लगा। वह अलार्म उन्हें यह याद दिलाने के लिए था कि अब समय आ गया था कि वे स्टेशन के लिए रवाना हो जाएँ। लेकिन टिंकू  जी ने अलार्म को अनसुना कर दिया और वे अपनी बगल में जींस को दबाये ट्रायल रूम की ओर चल पड़े।

ट्रायल रूम के बाहर लंबी सी लाइन लगी हुई थी। इससे लंबी लाइन तो नोटबंदी के समय एटीएम के बाहर ही दिखा करती थी। लगभग आधे घंटे के इंतजार के बाद टिंकू जी का नम्बर आया। ट्रायल लेने के बाद उन्होंने अपने लिए तीन जींस छाँट लिए।

बिल चुकता करते करते पौने आठ बज चुके थे। घड़ी देखते ही टिंकू जी के होश उड़ गये। अब तो शेयर ऑटो से जाने से ट्रेन न पकड़ पाने की शत प्रतिशत गारंटी थी। टिंकू जी रोड के किनारे खड़े होकर किसी खाली ऑटो का इंतजार करने लगे ताकि रिजर्व कराकर जा सकें। लगभग दस मिनट तक कोशिश करने के बाद भी एक भी खाली ऑटो नहीं मिला। हारकर टिंकू जी ने ओला कैब बुक किया। उसके आते आते दस मिनट और बीत चुके थे। लगभग आठ बजकर पाँच मिनट पर टिंकू जी टैक्सी में सवार हुए और भगवान भगवान करने लगे। टिंकू जी केवल इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि उनकी ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर एक से खुलती है इसलिए वो ट्रेन में समय रहते चढ़ पाएँगे। ओला का ड्राइवर उस शहर के लिए नया लगता था क्योंकि बार बार वह नैविगेशन मैप पर देख रहा था। टिंकू जी उसे दाएँ या बाएँ मुड़ने का इशारा करते थे लेकिन वह उन लोगों में से था जो मॉडर्न टेक्नॉलोजी पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करते हैं। बहरहाल, टिंकू जी की टैक्सी ठीक नौ बजे पटना जंक्शन के गेट के पास पहुँच चुकी थी। टिंकू जी भगवान से मना रहे थे कि ट्रेन चार पाँच मिनट बाद छूटे जब वे ट्रेन में चढ़ जाएँ। टैक्सी का बिल चुकता करने के बाद टिंकू जी ने प्लेटफॉर्म की ओर दौड़ लगा दी। उनकी बीबी ने प्यार से घी चुपड़े पराठे जो उन्हें इतने वर्षों में खिलाये थे, उनका असर टिंकू जी की तोंद और उनकी रफ्तार पर पूरा दिख रहा था। टिंकू जी जैसे ही प्लेटफॉर्म पर पहुँचे उनकी ट्रेन ने सरकना शुरु कर दिया था। गार्ड की बोगी से बाहर लहराती हुई हरी झंडी टिंकू जी को मुँह चिढ़ा रही थी। टिंकू जी मन मसोसकर रह गये। जब वो कॉलेज में पढ़ते थे तो कई बार दौड़कर ट्रेन में चढ़े थे, लेकिन अब उनमें वो बात रही नहीं। भारतीय रेल जो कि अपनी लेट लतीफी के लिए मशहूर है, आज समय की पाबंद हो चुकी थी। उस ट्रेन को भी टिंकू  जी से ही दुश्मनी थी।

टिंकू जी कुछ देर तो वहीं अवाक खड़े रहे और फिर अपने आप को संयत किया। अपने स्मार्टफोन पर उन्होंने रेलवे का वेबसाइट खोला तो पता चला कि कटिहार के लिए अभी दो ट्रेनें जानी और बाकी थीं। लेकिन दोनों ट्रेनें पटना से न होकर हाजीपुर से जाती थीं। एक साढ़े दस बजे रात में जानी थी और दूसरी सवा ग्यारह बजे। अब नौ साढ़े नौ बजे अगर पटना से टैक्सी से चला जाए और गांधी सेतु पर कोई जाम न मिले तो दस बजते बजते हाजीपुर पहुँचा जा सकता है। टिंकू जी ने आनन फानन में टैक्सी बुक की और चल पड़े हाजीपुर की ओर। टैक्सी ड्राइवर भी शायद समझ चुका था कि टिंकू जी अपनी बीबी को लाने जा रहे हैं इसलिए उसने पाँच सौ रुपए प्रीमियम माँगे थे। टिंकू जी ने कोई मोलभाव नहीं किया और टैक्सी में बैठ गये।

जबतक टिंकू जी हाजीपुर स्टेशन पहुँचते तबतक साढ़े दस बजे वाली ट्रेन निकल चुकी थी। अभी भी टिंकू  जी के लिए एक आखिरी उम्मीद बची थी। वे काउंटर पर गये और जेनरल क्लास का एक टिकट खरीदा। उसके बाद उस प्लेटफॉर्म पर पहुँचे जिसपर उनकी ट्रेन आने वाली थी। अब जब टिंकू जी समय से पहले पहुँच चुके थे तो भला फिर ट्रेन को क्यों जल्दबाजी होने लगी। ट्रेन के ड्राइवर और गार्ड को तो अपनी बीबी को लाने जाना नहीं था। सिग्नल वाले स्टाफ को तो एक ही जगह रहना था। इसलिए किसी को भी इस बात की परवाह नहीं थी कि टिंकू जी समय से पहले स्टेशन पहुँच चुके थे।

बीच बीच में पब्लिक एड्रेस सिस्टम पर बताया जा रहा था कि ट्रेन दस मिनट देरी से चल रही है, ट्रेन आधे घंटे देरी से चल रही है, ट्रेन एक घंटे ........................, यात्रियों की असुविधा के लिए खेद है, आदि, आदि। लेकिन रेलवे के कुछ स्टाफ जिस आराम से चहलकदमी कर रहे थे उसे देखकर लगता था कि यात्रियों की असुविधा के लिए किसी को भी खेद नहीं था। लगभग चार घंटे के इंतजार के बाद टिंकू  जी की ट्रेन आ ही गई और लगभग ढ़ाई पौने तीन बजे रात में टिंकू जी ट्रेन में सवार हुए। जेनरल बोगी की भीड़ को देखते हुए किसी भी साधारण मनुष्य के लिए उसमें सवार होने के बारे में सोचना भी दुष्वार होता है। इसलिए टिंकू जी एसी थ्री टियर में सवार हो गये और जाकर सात नंबर बर्थ पर बैठ गये। उनका ज्ञान उन्हें बताता था कि वह बर्थ टीटी की होती है। थोड़ी देर में जब टीटी आया तो उसने टिंकू  जी से साफ साफ कह दिया कोई भी बर्थ खाली नहीं था। टिंकू जी धीरे से टीटी के कान में कुछ फुसफुसाये और फिर अपने हाथ में कुछ छुपाकर टीटी की जेब में सरका दिया। फिर क्या था, टीटी की मुसकान ऐसे खिल गई जैसे वह टिंकू जी का वो जुड़वाँ भाई था जो कुंभ के मेले में बिछड़ गया था। टिंकू जी आराम से सात नंबर बर्थ पर लेट गये और अपने बैग को अपना तकिया बना लिया। थोड़ी ही देर में टिंकू जी के भयानक खर्राटों से पूरा कंपार्टमेंट गूंजने लगा।

जब कोई ट्रेन एक बार लेट हो जाती है तो उसके और भी लेट होने की संभावना में गुणात्मक रूप से वृद्धि होती है। यह नियम कई लोगों के भारतीय रेलवे के प्रति संचयित ज्ञान से प्रतिपादित हुआ है। टिंकू  जी की ट्रेन भी जितना हो सकता था लेट होती चली गई। जिस ट्रेन को सुबह के सात बजे कटिहार पहुँचना था वह दोपहर के तीन बजे जाकर कटिहार पहुँची।

टिंकू जी की नींद पूरी हो चुकी थी। स्टेशन से बाहर आकर उन्होंने रिक्शा लिया और बस अड्डे की तरफ चल पड़े। बस में खिड़की के पास वाली सीट मिलने से थोड़ी राहत मिली। खिड़की के पास वाली सीट से कई फायदे होते हैं। आपको ठंडी हवा का आनंद प्राप्त होता है। इसके अलावा आप जब जाहें तब पान या गुटके की पीक बाहर फेंक सकते हैं। अपनी सीट पर बैठते ही टिंकू जी ने अपना मुँह खोला और उसमें गुटके की एक पुड़िया खाली कर दी।

लगभग तीन घंटे चलने के बाद बस रुक गई। टिंकू जी ने खिड़की के बाहर झाँका तो पाया कि बस तो हाइवे पर ही रुकी हुई थी। कंडक्टर ने बताया कि अचानक हुई तेज बारिश से आगे की सड़क बह गई थी और आगे कोई भी गाड़ी नहीं जा रही थी। टिंकू जी बस से नीचे उतरे ताकि आगे जाने का मार्ग पता कर पाएँ। पता चला कि आस पास के गाँव के कुछ लोग, अपने कंधों पर बिठाकर जलभरे कटाव को पार करवा रहे थे। इसके बदले में वे हर व्यक्ति से दो सौ रुपए चार्ज कर रहे थे। टिंकू जी की बड़ी सी तोंद देखकर उन्होंने अपनी फीस तीन सौ रुपए बताई। टिंकू जी के पास और कोई चारा नहीं था, इसलिए उन्होंने तीन सौ रुपए दिये और आगे बढ़ गये।

उस कटाव को पार करने के बाद रिक्शेवाले खड़े दिखाई दिये। वे रिक्शेवाले भी मांग और आपूर्ति के बैलेंस के नियम के एक्स्पर्ट लग रहे थे। टिंकू जी की ससुराल पहुँचाने के लिए रिक्शेवाले ने पाँच सौ रुपए माँगे। टिंकू जी रिक्शे पर बैठ गये और मानसून की नम हवाओं का आनंद लेते हुए अपनी बीबी और बेटियों से मिलने की कल्पना में खो गये।

आखिरकार जब टिंकू जी नौ बजे रात में अपने ससुराल पहुँचे तो उनकी दोनों बेटियाँ दौड़कर उनसे लिपट गईं। उस ग्रामीण माहौल में बीबी से लिपटने के लिए उन्हें रात होने का इंतजार करना था। जब टिंकू  जी चाय पी रहे थे तो अपनी बीबी को अपना यात्रा वृत्तांत सुनाने लगे। उनकी रामकहानी सुनकर उनकी बीबी धीरे से मुसकाई और बोलीं, “मुझे नहीं पता था कि आपको मुझे लिवाने के लिए इतनी बेचैनी हो रही होगी। बीबी से मिलने के लिए इतनी परेशानी तो शायद तुलसीदास ने भी न झेली होगी।“


टिंकू जी हौले से मुसकाए और कहा, “अब ये न कहना कि जाओ पहले रामचरितमानस लिख कर आओ फिर अपना मुँह दिखाना।“