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Monday, November 6, 2017

राजा की खिचड़ी

मंगरू नाली के किनारे बैठकर दातुन कर रहा था। दातुन को बीच से चीड़ कर जीभ साफ की और फिर पूरी ताकत से गरारा करने लगा। उसके बाद अपने फटे पुराने गमछे से मुँह पोछने के बाद उसने पूरी ताकत से दातून को हवा में उछाला तो दातून सीधा नाली के उस पार लगभग बीसेक गज जाकर गिरा। तभी मंगरू की धर्मपत्नी रतिया की आवाज आई, “नाश्ते में खिचड़ी बना दूँ?”

मंगरू खाने के मामले में नखरे नहीं करता था। वैसे भी उस जैसे गरीब के पास खाने के लिये नखरे करने का कोई विकल्प ही नहीं था। फिर भी उसे खिचड़ी का नाम सुनकर ही उबकाई आती थी। जब वह छोटा बच्चा था तो उसकी माँ अक्सर सुबह दोपहर और रात को खिचड़ी ही परोसा करती थी। शायद बचपन में खिचड़ी के ओवरडोज के कारण उसकी यह हालत हुई थी। मंगरू ने लगभग गुर्राती हुई आवाज में कहा, “तेरी जो मर्जी आये बना दे, लेकिन खिचड़ी न बना। बाजरे की रोटी और मिर्च की चटनी से भी काम चल जायेगा।“

मंगरू को कभी कभी लगता था कि उसकी पत्नी की जन्मकुंडली मंगरू की माँ से मिलवाई गई थी। रतिया को भी पता नहीं क्यों खिचड़ी बनाने में बड़ा मजा आता था। उनके आधा दर्जन बच्चे भी अपनी माँ के हाथ की बनी खिचड़ी को बड़े चाव के साथ सुपड़-सुपड़ कर चट कर जाते थे। मंगरू अपनी सोच में डूबा हुआ था कि उसकी पत्नी की तीखी आवाज गूँजी, “अब तो राजा ने भी मुनादी करवा दी है। अब खिचड़ी को राष्ट्रीय भोजन की उपाधि मिलेगी। उसके बाद हर व्यक्ति के लिये खिचड़ी खाना जरूरी हो जायेगा।“

मंगरू ने बुझी आवाज में जवाब दिया, “हाँ, लगता है राजा भी तुमसे और तुम्हारे बच्चों से प्रभावित हैं। ये भी सुना है कि आज विजय पथ के पास एक बड़े से कड़ाह में राजा का खास रसोइया प्रजा के लिये खिचड़ी पकायेगा। महाराज स्वयं आकर खिचड़ी में नमक डालेंगे। राजवैद्य ने उस खिचड़ी में डालने के लिये खास मसालों और जड़ी बूटियों की लम्बी फेहरिस्त भी बनाई है।“

रतिया ने खुश होते हुए कहा, “और हाँ, खिचड़ी पक जाने के बाद उसमें राजपुरोहित अपने कर कमलों से तड़का लगायेंगे। इस राज्य के हर नागरिक के लिये आदेश है कि वह खिचड़ी ग्रहण करने के लिये विजय पथ पर उपस्थित हो जाये। अब जल्दी से नहाधोकर तैयार हो जाओ। हमें भी तो वहाँ जाना होगा।“

मंगरू ने धीमे से कहा, “हाँ, जाना तो पड़ेगा ही। नहीं तो क्या पता राजा के सिपाही काल कोठरी में न डाल दें।“

आधे घंटे के बाद मंगरू, उसकी पत्नी रतिया और उनके आधा दर्जन बच्चे सज धजकर तैयार हो गये। मंगरू ने मलमल का कुर्ता पहना था जो बहुत दिनों तक टोकरी में रखे होने के कारण बहुत ही बेढ़ंगे तौर पर मुड़ा तुड़ा था। रतिया ने वो साड़ी पहनी थी जिसमें वह अपनी शादी के बाद विदा होकर आई थी। रतिया के तीन बेटों ने केवल हाफ पैंट पहनी थी, शर्ट उनके पास थी नहीं। उसकी तीन बेटियों ने वो फ्राक पहनी थी जो उन्हें तब मिली थीं जब गाँव का जमींदार पुराने कपड़े बाँट रहा था।

मंगरू और उसका परिवार दस बजते बजते विजय पथ पर पहुँच चुके थे। वहाँ का दृश्य अद्भुत था। लाखों की संख्या में लोग उपस्थित थे। जिधर निगाह डालो उधर आदमी ही आदमी। आज खेत खलिहानों में सूनापन पसरा हुआ था। विजयपथ पर हर तरफ रंग बिरंगी तिलिंगियाँ फड़फड़ा रही थीं। ऊँचे ऊँचे डंडों पर राजध्वज लहरा रहे थे। राजभवन के गीतकार और संगीतकार मोहक धुन और तान छेड़ रहे थे। पंडितों की टोली एक तरफ मंत्रोच्चारण कर रही थी। किशोरवय पंडित शंखनाद कर रहे थे। राजा का रथ किसी दुल्हन की भाँति सजा हुआ था। रथ में जो घोड़े जुते थे उन्हें भी गेंदे के फूलों से सजाया गया था। ढ़ोल नगाड़े भी बज रहे थे।

महाराज, महारानी अपने परिवार के सदस्यों के साथ अपने अपने आसनों पर विराजमान थे। फिर महाराज ने एक खास अंदाज में अपना हाथ हवा में लहराया। उनके ऐसा करते ही खास तौर पर प्रशिक्षित हाथियों के एक दल ने एक बड़े से कड़ाह को एक बड़े से चूल्हे के ऊपर रखा। उसे देखकर मंगरू ने कहा, “इस चूल्हे की सारी लकड़ियाँ अगर मिल जाएँ तो तुम्हें एक साल तक जंगल जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।“

यह सुनकर रतिया ने कहा, “बड़े आये। शादी से पहले तो कहते थे कि जंगल से लकड़ियाँ तुम ही लाओगे। लकड़ियाँ लाने के चक्कर में मेरे पैरों में ऐसी बिवाई फटी है जो अब मेरे मरने के साथ ही जाएगी।“

फिर कड़ाही में हाथियों ने अपनी सूँड़ों से पानी भरा। पानी में उबाल आने के बाद राजा के सिपाहियों ने उसमें ढ़ेर सारा चावल और दाल डाल दिया। उसके बाद महाराज स्वयं आये और अपने कर कमलों से एक बड़ी सी कलछुल से चावल और दाल को हिला दिया। वह कलछुल इतनी बड़ी लग रही थी जैसे कि उसे कभी कुंभकर्ण को खाना परोसा जाता रहा होगा। महाराज के जाने के बाद राजमहल के खानसामे खिचड़ी को चलाने लगे। बीच बीच में राजवैद्य सोने की तराजू से तौलकर जड़ी बूटियाँ मिला रहे थे। जब खिचड़ी पक गई तो राजगुरु आये और एक बड़ी सी देग में तड़का बनाकर खिचड़ी में डाल दिया।

उसके बाद राष्ट्रीय हरकारे ने ढ़ोल पीटना शुरु किया। वहाँ उपस्थित प्रजा को समझ में आ गया कि फिर से कोई मुनादी होने वाली है। उस मुनादी को ठीक से सुनने के लिये लोगों में खामोशी छा गई। ढ़ोल पीटना समाप्त करने के बाद हरकारे ने बोलना शुरु किया, “सुनो, सुनो, आज के शुभ दिन में शुभ मुहूर्त में समस्त प्रजागण के लिये विशेष रूप से खिचड़ी पकाई गई है। महाराज ने अपने विशाल हृदय का परिचय देते हुए एक हजार किलो खिचड़ी बनवाने का आदेश दिया था। अब इस खिचड़ी को यहाँ उपस्थित प्रजा में वितरित किया जायेगा।“


यह सुनकर मंगरू हिसाब लगाने लगा, “यहाँ लगभग एक लाख लोग उपस्थित हैं। एक हजार किलो खिचड़ी के हिसाब से एक लाख ग्राम खिचड़ी हुई। इस हिसाब से तो हर व्यक्ति को एक ग्राम से अधिक खिचड़ी नहीं मिलेगी। उतनी खिचड़ी तो बस दाँतों के बीच कहीं फँसकर रह जायेगी। चलो अच्छा हुआ। कम से कम यहाँ तो खिचड़ी खाने से बच गये।“