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Friday, August 5, 2016

एक साँड के आखिरी दिन

“पापा, देखो पीछे वाले खेत में कितना भारी साँड घूम रहा है।“ मेरी पाँच साल की बेटी ने कहा।

मैं इस सोसाइटी के एक टावर में बीसवीं मंजिल पर रहता हूँ। यह एक नई सोसाइटी है जिसमें इस तरह के दस टावर हैं। यह दिल्ली की सीमा से लगभग बीस किमी की दूरी पर एक हाइवे से थोड़ा हटकर है। आसपास में अभी ढ़ेर सारी खाली जमीन है जिसपर अभी भी खेती हो रही है। मैंने जब अपनी बालकनी से देखा तो मुझे नीचे खेत में एक साँड दिखाई दिया। उस खेत में अभी अभी ताजा जुताई हुई थी। साँड के चलने से खुरों के निशान काफी गहरे बने हुए थे। साँड लंगड़ा कर चल रहा था इसलिए उसके खुरों के निशान आड़े तिरछे बने हुए थे।

वह साँड बहुत बूढ़ा लग रहा था। उसके इर्द गिर्द कुछ सफेद बगुले भी मंडरा रहे थे। वे बगुले साँड की पीठ पर बने घावों में से कीड़े खाने की फिराक में लग रहे थे।

तभी दरवाजे की घंटी बजी। मेरी बीबी ने दरवाजा खोला तो पता चला कि काम वाली आई थी। वो आते ही मेरी पत्नी से बताने लगी, “दीदी, पता है क्या हुआ?”

मेरी पत्नी ने पूछा, “नहीं, क्या हुआ?”

कामवाली बाई ने कहा, “इसी बिल्डिंग में एक बूढ़ा चौकीदार बहुत पहले काम करता था। वह आजकल बहुत बीमार है। उसके बाल बच्चों ने उसे बहुत पहले घर से निकाल दिया था। लेकिन इस बिल्डिंग के लोगों ने उसे यहाँ पनाह दे दी है।“

मेरी पत्नी ने पूछा, “ये तो अच्छी बात है। कहाँ रखा है उसे?”

कामवाली बाई ने कहा, “नीचे बेसमेंट में। लिफ्ट से उतरते ही बाईं तरफ एक कमरा है, उसी में।“

थोड़ी देर बाद जब मैं नीचे पार्किंग में कार पोंछने गया तो देखा कि बेसमेंट के एक कमरे में एक खाट पर किसी बूढ़े आदमी को रखा गया था। लोगों ने उसके लिए एक मच्छरदानी लगा दी थी। एक मच्छर अगरबत्ती भी पास में जल रही थी। एक छोटा सा टेबल फैन उसके सिर के पास रख दिया गया था।

फिर शाम में मैं जब पार्क में टहल रहा था तो चौथी मंजिल पर रहने वाले माथुर साहब ने बताया, “इसे कोई गंभीर बीमारी हो गई है। जब हमलोगों को पता चला कि उस बेचारे को पास के सरकारी अस्पताल में मरने के लिए पटक दिया है तो फिर हमलोग उसे यहाँ ले आये। यहाँ जितने भी चौकीदार काम करते हैं सबने उसकी सेवा करने का जिम्मा लिया है।“

उसी समय गुप्ता जी भी वहाँ आ गये। वे बोले, “हमलोगों ने इसके इलाज के लिये चंदा इकट्ठा करना भी शुरु कर दिया है ताकि उसके लिए दवाईयाँ आ सकें।“

फिर एक चौकीदार वहाँ रुका और बताने लगा, “ये बाबा मेरे ही गाँव के हैं। पहले सेना में काम करते थे। रिटायर होने के बाद सिक्योरिटी एजेंसी ज्वाइन कर ली थी ताकि मन लगा रहे। इनके बेटे इनसे पेंशन छीन लेते थे और फिर इन्हें घर के बाहर पटक दिया करते थे। जब इन्होंने पेंशन देने से मना कर दिया तो उन्होंने इनको घर से निकाल दिया था। तबसे ये यहीं रहा करते थे।“

शाम में जब मैं फिर से बालकनी में गया तो मेरी बेटी उसी साँड को देख रही थी। लगता है उसने पूरे दिन उस साँड पर खूब रिसर्च किया था। उसने साँड और बगुलों की कई ड्राइंग बनाने की कोशिश भी की थी। मैंने देखा कि साँड बड़ी मुश्किल से थोड़ी दूर चलता था और फिर निढ़ाल होकर बैठ जाता था। उसके घावों की हालत भी कुछ ठीक नहीं लग रही थी। अब तो उसके पीछे-पीछे कुछ आवारा कुत्ते भी लगे हुए थे जिन्हें वह बेचारा डरा भी नहीं पा रहा था।

इसी तरह से कई दिन बीत गये। रोज आते-जाते मैं बेसमेंट में पड़े उस बूढ़े को देख लिया करता था। लिफ्ट में आते-जाते उसकी तबीयत के बारे में ताजा अपडेट मिल जाती थी। लेकिन ज्यादातर समय वह बूढ़ा उस उमस भरे बेसमेंट में नितांत अकेला पड़ा मिलता था। न वहाँ पर ताजी हवा आती थी न ही धूप की किरण। हाँ चौकीदारों और सफाई वालों ने वहाँ की साफ सफाई का पूरा ध्यान रखा था। इसी टावर में रहने वाले एक डॉक्टर दिन में दो बार उसकी नियमित जाँच भी कर ले रहे थे।

उधर खेत में अपने आखिरी दिन गिन रहे साँड की भी कमोबेश वैसी ही हालत थी। उसका साथ देने के लिए कुछ बगुले और कुत्ते थे। लेकिन उसे ताजी हवा और धूप मिल जा रही थी।

हमारी खेतिहर अर्थव्यवस्था में साँडों की बहुत ही सीमित भूमिका होती है। न तो वे गाय की तरह दूध दे सकते हैं और न ही बैलों की तरह हल जोतने के काम आ सकते हैं। जिस तरह से भारत के अधिकतर समाज में लड़कियों के जन्म पर मातम मनाया जाता है उसी तरह से किसी किसान के तबेले में साँड के जन्म पर भी मातम ही मनाया जाता होगा। किसान किसी साँड को तभी याद करते हैं जब उसे अपने गाय के लिए साँड की सेवा लेनी होती है। अन्यथा साँड को तो कोई चारे तक के लिए नहीं पूछता है। घर की बासी रोटी लोग कुत्तों या गायों को तो दे देते हैं लेकिन बेचारे साँडों के ऐसे नसीब कहाँ।

वह बूढ़ा दरबान भी किसी साँड की तरह हो गया था। उसके बेटे पेंशन लेते समय तो उसकी इज्जत करते थे लेकिन उसके बाद उसे दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल देते थे। लेकिन उसने अपनी युवावस्था में अपने परिवार का भरन-पोषण तो किया ही होगा। सेना में भी अपने ओहदे के मुताबिक देश के लिए कुछ तो योगदान किया होगा। शायद उसके सेना में किये गये काम या उसके पिछले जन्म के कर्मों का कुछ असर था कि इस बिल्डिंग के लोग उसके आखिरी क्षणों में उसकी देखभाल करने को तैयार हो गये थे।

लगभग दस दिन बीते होंगे कि कामवाली बाई ने बताया कि वह बूढ़ा दरबान मर गया। बिल्डिंग के ही किसी भलेमानुष ने उसकी अंत्येष्टि करने की जिम्मेवारी ले ली। फिर कई दिनों तक रोज कुछ न कुछ कर्मकांड भी होते रहे। इसके लिए खासकर से हरिद्वार से पंडों को बुलाया गया था।


संयोग ऐसा था कि वह साँड भी एक दो दिन बार मर गया। लोगों ने चंदा इकट्ठा कर के उसकी लाश को ठिकाने लगाने का प्रबंध किया ताकी उसके संड़ने की बदबू न फैलने पाये। 

नए नेताजी

नेताजी से पूरा देश त्रस्त रहता है। ज्यादातर नेता काम के नाम पर केवल बातें बनाते रहते हैं। यदि आप पार्लियामेंट की डिबेट आधे घंटे भी देख लें तो आपको सरदर्द हो जायेगा। कुछ लोग तो इतना लंबा भाषण देते हैं कि अंदर बैठे अन्य नेता एकाध नींद भी मार लेते हैं। कुछ नेता इस तरह भाषण देते हैं जैसे स्कूल लेवल स्पीच कॉंपिटिशन में भाग ले रहे हों। ऐसे ही एक नेता से मेरा पाला पड़ा जिन्होंने अभी अभी राजनीति में कदम रखा था।

ये बात जौनपुर की है। उस समय हेपाशील्ड नया लॉन्च हुआ था। हमलोग जौनपुर शहर में वैक्सिनेशन कैंप करवाने की सोच रहे थे। वैक्सिनेशन को सफल बनाने के लिए मुझे लगा कि लोकल नेता की मदद लेनी चाहिए। वहाँ के व्यापार संघ के पूर्व अध्यक्ष ने हाल ही में नगर पार्षद का चुनाव जीता था। वे अक्सर फाइजर के होलसेलर के पास आया जाया करते थे। इसलिए मेरी भी उनसे जान पहचान हो चुकी थी। मैने उनसे वैक्सिनेशन कैंप के बारे में बात की और उनसे मदद की गुजारिश की। वे इसके लिए तुरंत तैयार हो गये लेकिन उनकी दो शर्तें थीं। पहली शर्त थी कि वैक्सिनेशन कैंप का फीता उन्हीं से कटवाया जायेगा। और दूसरी शर्त थी कि अखबार में उनकी बड़ी-बड़ी फोटो आनी चाहिए और हेडलाइन में भी उनका नाम आना चाहिए। मै बिना देरी किये उनकी दोनों शर्तों पर राजी हो गया। उसके बाद वैक्सिनेशन के ठीक से प्रचार करने के लिए उन्होंने मुझे इस बात के लिए बुलाया कि उनके साथ जाकर मैं वहाँ के मुख्य व्यापारियों से मिलूँ। मैं इस बात के लिए भी तैयार हो गया क्योंकि मैं चाहता था कि अधिक से अधिक परिवार के लोग वैक्सिनेशन करवाने आएँ।
एक दिन मैं उनके साथ उनकी कार में किसी व्यापारी से मिलने जा रहे थे। कार उनका ड्राइवर चला रहा था। मैं उनके साथ पिछली सीट पर बैठा था। छोटा शहर होने के कारण गाड़ी धीरे-धीरे ही बढ़ पा रही थी। इस बीच मैने गौर किया कि वो नेताजी दाएँ-बाएँ सिर हिलाकर हाथ जोड़कर आते जाते लोगों को नमस्कार कर रहे थे। मुझे लगा कि वे उस शहर के पुराने निवासी थे इसलिए उनके कई परिचित रास्ते में दिख रहे होंगे इसलिए वे सबको नमस्कार कर रहे होंगे। फिर थोड़ी देर बाद मैने यह गौर किया कि उनके नमस्कार का जवाब तो कोई भी नहीं दे रहा था।

चूँकि उनके साथ मैं कई बार कॉकटेल के लिए भी बैठा था इसलिए उनसे दोस्ती जैसा संबंध ही था। मैने उनसे पूछा, “भाई साहब, एक बात मेरी समझ में नहीं आई। न तो कोई आपको नमस्ते कर रहा है और न ही कोई आपकी नमस्ते का जवाब दे रहा है। फिर आप इस तरह लगातार किसे नमस्कार कर रहे हैं?”

अब उन नेताजी का जवाब उन्हीं के मुँह से सुन लीजिए, “दरअसल अगले चुनाव में मैं विधायक के उम्मीदवार के रूप में खड़ा होना चाहता हूँ। इसके लिए मैं दो पार्टियों के वरिष्ठ नेताओं से भी बात कर रहा हूँ। मैं उसी चुनाव के लिए अभी से रियाज कर रहा हूँ। विधायक का चुनाव बहुत मुश्किल होता है न।“


उनका जवाब सुनकर मेरी हँसी रोके नहीं रुक रही थी। लेकिन मैं जहाँ और जिसके साथ बैठा था और जिस प्रयोजन से जा रहा था उसका ध्यान रखते हुए अपनी हँसी बर्दाश्त किए बैठा रहा। उसकी कसर बाद में मैने तब निकाली जब मैं अपने दोस्तों के साथ फुरसत में बैठ पाया।