Pages

Saturday, July 16, 2016

मेले वाला डॉक्टर

भारत एक अनोखा देश है। यहाँ पर हमेशा कुछ न कुछ ऐसा होता है जो रेशनल थिंकिंग से परे होता है। इनमें से कुछ तो कई दिन तक अखबार की सुर्खियों में छाये रहते हैं; जैसे गणेश भगवान द्वारा दूध पीना। लेकिन ज्यादातर घटनाएँ आसपास के इलाके के कुछ चंद लोगों को ही मालूम हो पाती हैं।

बात शायद 2002 की है। मैग्नेक्स नया नया लॉंच हुआ था। इसे बेचना जौनपुर जैसे मार्केट में आसान काम नहीं था। मैं अपने मैनेजर साहब के साथ पास के ही एक कस्बे मछलीशहर में काम कर रहा था। हम वहाँ के एक बड़े केमिस्ट की दुकान में खड़े थे और उससे डॉक्टरों के प्रेस्क्रिप्शन हैबिट के बारे में पूछ रहे थे। तभी एक पतला दुबला आदमी आया और उसने ट्रैक्सॉल का एक कार्टन खरीदा। जब तक हम उससे कुछ पूछ पाते वह साइकिल पर गत्ता लादे तेजी से चला गया। ट्रैक्सॉल एक महंगी एंटिबायोटिक है और इसलिए मैग्नेक्स का कंपिटीटर भी है। जो भी डॉक्टर ट्रैक्सॉल उतनी भारी मात्रा में लिख सकता है वह मैग्नेक्स के लिए आयडियल डॉक्टर हो सकता है।

मेरे मैनेजर साहब ने छूटते ही उस केमिस्ट के मालिक से पूछा, “भैया इस मछलीशहर जैसे गाँव में कौन आ गया जो इतना ज्यादा ट्रैक्सॉल लिखता है?”

उस केमिस्ट ने जवाब दिया, “अरे, आपको पता नहीं है? एक नया डॉक्टर आवा है जो इहाँ से दो तीन किलोमीटर दूर बैठता है। इतना ट्रैक्सॉल तो वह रोज लिखता है।“

मैने पूछा, “क्या नाम है? कहाँ से आया है? क्या क्वालिफिकेशन है?”

केमिस्ट ने फिर बताया, “नाम और डिग्री तो मालूम नहीं। सुना है कानपुर का रहने वाला है। दूर-दूर से उसके पास मरीज आ रहे हैं। बड़ी जबरदस्त दुकान चल रही है। मछलीशहर के डॉक्टरों की तो नींद उड़ गई है। अभी एक दो महीने ही हुए हैं उसे आए हुए। शुरु में कुछ साधुओं को लेकर आसपास के गाँवों में घूमा था; अपना प्रचार करने।“

मैने पूछा, “आप जरा पता बता दें। हमलोग भी जाकर देखते हैं।“

केमिस्ट ने बताया, “आगे इलाहाबाद की तरफ जाइए। बाजार खतम होने के बाद बाएँ एक रास्ता गया है उसपर मुड़ जाइए। दो तीन किलोमीटर जाने के बाद आपको दूर से ही बड़ी भीड़ नजर आएगी। बस वहीं पर डॉक्टर बैठता है। वहाँ के लिए तो जीप और ऑटो भी चलने लगे हैं आजकल।“

उस बातचीत के बाद हमलोग मेरी बाइक पर सवार हुए और उस गाँव की ओर चल पड़े। उस केमिस्ट द्वारा बताए रास्ते पर जब हम कोई दो किलोमीटर चले होंगे तो दूर से ही मेले जैसा नजारा दिखा। दूर से गुब्बारे वालों के उँचे डंडे पर लटके रंग बिरंगे गुब्बारे दिखाई दिए। एक छोटी सी फेरी व्हील भी लगा रखी थी किसी ने जिसपर वहाँ आए बच्चे मजे कर रहे थे। थोड़ा और पास पहुँचने पर चाट पकौड़ी के ठेले भी सजे हुए मिले। गर्म गर्म जलेबियाँ भी बन रहीं थीं। सड़क की दोनो तरफ लोहे के पाइप के फ्रेम से बनी खाटें एक लाइन से लगी हुई थीं। उन खाटों पर मरीज लेटे हुए थे और हर मरीज के हाथ में कैथेटर लगा था जिससे ड्रिप चढ़ रही थी। बिल्कुल पास पहुँचकर तो और भी अजीब नजारा था। ठेलों पर दवाई की दुंकानें भी सजी थीं। लगभग दो से तीन हजार लोगों की भीड़ थी वहाँ पर।

वहाँ पहुँचकर हमलोगों ने एक किनारे बाइक लगाई और वहाँ का जायजा लेने लगे। अपने दिमाग की नसें ढ़ीली करने के लिए मैं और मेरे मैनेजर साहब ने मुँह में गुटका दबा लिया। जब निकोटिन का असर हमारी नसों पर हुआ तो मैनेजर साहब ने मुझसे कहा, “जाओ जरा इन ठेले वाले केमिस्टों से पता करो कि ये क्या क्या लिखता है। फिर इससे मिलने की कोशिश करो।“

मैं थोड़ी देर उन ठेले वाले केमिस्टों से पूछताछ करता रहा। पता चला कि वे सब मछलीशहर के केमिस्टों के स्टाफ थे। उनकी रिपोर्ट के मुताबिक वह डॉक्टर हर दिन कम से कम एक हजार मरीज देखता था। एक से एक पुराने मरीज; जो हर जगह से थक हार चुके थे; वहाँ ठीक होने की उम्मीद में आते थे। उस डॉक्टर के पिछले इतिहास के बारे में कोई नहीं जानता था। किसी की ये भी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक से उसने इतनी भीड़ कैसे जुटा ली। किसी भी डॉक्टर को अपनी प्रैक्टिस जमाने में वर्षों लग जाते हैं।

बहरहाल, उसके बाद मैं उस डॉक्टर से मिलने का रास्ता ढ़ूँढ़ने लगा। डॉक्टर के कमरे तक जाने के लिए मुझे एक बड़ी भीड़ को चीरकर जाना पड़ा। मेरी मदद के लिए साथ में एक केमिस्ट भी चल रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे किसी मेले में मैं भीड़ को चीरकर मूर्ति के दर्शन करने जा रहा था। भीड़ की आखिर में वह एक कमरे में बैठा था जिसे देखकर लगता था कि उसे अभी हाल ही में ईंटों को मिट्टी से जोड़कर बनाया गया था। बाहर कोई प्लास्टर भी नहीं था। हाँ ऊपर एक पक्की छत जरूर थी। कमरे के बाहर एक बोर्ड लगा था जिसपर डॉक्टर का नाम लिखा था, “वाइ एम दूत”। उसके नाम के नीचे लिखा था “एम डी (का यू टी)। यदि आप “वाइ एम दूत” को हिंदी में पढ़ें तो यह यमदूत की तरह सुनाई पड़ता है। मैंने गेस किया कि का यू टीका मतलब होगा कानपुर यूनिवर्सिटी। उस कमरे के बाहर एक चालीस पैंतालीस साल का पतला दुबला लेकिन लंबा आदमी खड़ा था। उसकी मूँछें बड़ी रौबदार थीं। उसके साथ खाकी रंग के कपड़ों पर उसकी दुनाली बंदूक ऐसी लग रही थी जैसे शोले फिल्म से कोई डकैत साक्षात वहाँ पर आ गया हो।

मैंने उससे कहा, “भैया, मैं दवा कंपनी से आया हूँ। डॉक्टर साहब से मिलवा देते तो अच्छा होता।“
उस आदमी ने कुछ नहीं कहा और मुझे अपने पीछे आने का इशारा किया। मैने अपने मैनेजर साहब को; जो दूर खड़े थे; इशारे से बुलाया। फिर हमलोग डॉक्टर के कमरे में दाखिल हो गए। अंदर थोड़ा अंधेरा था। दीवार में बने एक ताखे में लक्ष्मी जी की मूर्ति लगी थी जिसके आगे एक लाल बल्ब जल रहा था। मूर्ति के पास अगरबत्तियों का एक गुच्छा जल रहा था जिसकी भीनी-भीनी खुशबू पूरे कमरे में फैली थी। आसपास कुछ मरीज बैठे थे जिनके साथ उनके ऐटेंडेंट भी थे। उस डॉक्टर ने सफेद शर्ट और सफेद पतलून पहना हुआ था और पाँव में भी सफेद जूते थे। उस भारी सफेदी के बीच उसका काला कलूटा चेहरा मुश्किल से नजर आता था। हाँ उसकी पान खाने से काली पड़ी हुई बत्तीसी जरूर दिख जाती थी। डॉक्टर से थोड़ी ही देर बात करके मैंने अनुमान लगाया कि वह पढ़ा लिखा नहीं था। फिर मैंने ठेठ हिंदी में उसे मुद्दे की बात समझाई कि हम उससे मैग्नेक्स लिखवाना चाहते थे।

कॉल खतम करने के बाद हम बाहर आ गए और उस कॉल की सार्थकता पर विचार विमर्श करने लगे। तभी डॉक्टर का दरबान मेरे पास आया और बताया कि वह डॉक्टर केवल मुझसे मिलना चाहता था; मैनेजर साहब के बगैर। मैं फौरन अंदर गया। उस डॉक्टर ने बताया कि किस तरह से किसी कंपनी ने उसे स्कूटर दिया था तो किसी ने खाटें खरीदीं थीं। वह चाहता था कि उसके मरीजों की सुविधा के लिए हमारी तरफ से कोई पचास पेडेस्टल फैन लगवा दिए जाएँ। मैंने उसे फाइजर की परिपाटी के बारे में बताया और बताया कि हम ऐसा करने में असमर्थ थे। फिर उसके बाद मैंने उससे एक डील तय की जो फाइजर के कायदे कानून की सीमा में थी। उसका यहाँ पर उल्लेख करना मुझे उचित नहीं लगता है इसलिए आप अपने बुद्धि विवेक से अनुमान लगाते रहिए।


उसके बाद मैं हर सोमवार की सुबह को मैग्नेक्स का रेडी स्टॉक लेकर उस डॉक्टर के पास पहुँच जाता था। दो तीन घंटे बैठकर उससे पर्चे लिखवाता था और कैश पेमेंट पर वहाँ बैठे केमिस्टों को मैग्नेक्स सप्लाई करता था। यह सिलसिला लगभग तीन महीने तक चला। उस डॉक्टर के पर्चों के कारण मेरी टेरिटरी में इतना मैग्नेक्स बिका कि मैं रीजनल टॉपर हो गया। मेरे साल भर के टार्गेट का 200% एचीवमेंट हो चुका था। मेरी टीम के सभी लोगों को उस साल जबरदस्त इंसेंटिव मिला। फिर तीन महीने के बाद खबर आई कि आसपास के लोगों ने उस डॉक्टर की जमकर धुनाई की और वह हमेशा से उस जगह को छोड़कर चला गया। 

आगरे का पेठा

फाइजर की लॉंच मीटिंग के मजे ज्यादातर लोगों को वर्षों तक याद रहते हैं। ये कहानी मैग्नेक्स लॉंच की है जो आगरा में हुई थी। जिस होटल में हम ठहरे थे वह अपने आप में एक छोटे से मुहल्ले की तरह ही आकार लिए हुए था। उस मीटिंग में फाइजर की हर बड़ी मीटिंग की तरह कवाब और शराब का लुत्फ सबों ने उठाया था इसलिए मैं उस का विवरण यहाँ पर नहीं करूँगा। 

मीटिंग के आखिरी दिन हमारे पास ट्रेन पकड़ने से पहले कुछ समय था। उस समय का सदुपयोग करने के लिए पहले तो हम ताजमहल घूमने गए और उसके बाद शॉपिंग करने। वहाँ के लोकल पीएसओ हमारे साथ थे ताकि हमें शॉपिंग में कोई परेशानी न हो। हमारी टीम के सभी लोगों ने कई जोड़ी जूते खरीदे। उसके बाद सबने वह चीज खरीदी जो शायद ताजमहल के बाद आगरा की दूसरी मशहूर चीज है। जी हाँ आपने ठीक समझा; आगरे का पेठा। मैं उस समय कुँवारा था इसलिए मैंने केवल एक किलो सूखे पेठे खरीदे। मुझ जैसी अकेली जान के लिए वही काफी था। जो लोग शादीशुदा थे उन्होंने अधिक मात्रा में पेठे खरीदे थे ताकि उसका पूरे परिवार के साथ मजा ले सकें। हमारे मैनेजर साहब ने तो सबसे ज्यादा मात्रा में पेठे खरीदे थे। सूखे पेठों के अलावा उन्होंने चाशनी वाले पेठे भी खरीदे थे। टीम के बॉस होने के नाते भी उनके लिए लाजिमी था कि उनके पेठों का पैकेट सबसे बड़ा हो।

बहरहाल, शाम में हमारी टीम के सभी लोगों ने आगरा स्टेशन से मरुधर एक्सप्रेस ट्रेन पकड़ी। यह ट्रेन वाराणसी तक जाती है। हमारे मैनेजर साहब और चार पीएसओ को फैजाबाद उतरना था। उनमे से दो लोगों को मैनेजर साहब के साथ फैजाबाद में ही रहना था और बाकी दो में से एक को गोंडा और दूसरे को बहराइच जाना था। उसके बाद दो सज्जन को सुल्तानपुर उतरना था। आखिर में मुझे जौनपुर उतरना था।

ट्रेन में हमारा रिजर्वेशन एसी थ्री में था और एक ही जगह हमारे आठ बर्थ थे। चूँकि टिकट एक ही था और सबमें आपस में तालमेल अधिक था इसलिए पहले आओ पहले पाओ की पॉलिसी अपनाते हुए बोगी में पहले अंदर जाने वाले छ: लोगों ने बीच के छ: बर्थ पर अपना कब्जा जमा लिया। मैनेजर साहब को उनकी पोजीशन के कारण नीचे वाले बर्थ पर बैठने की सुविधा दी गई। उनके सामने फैजाबाद में लंबे समय से काम करने वाले एक पीएसओ को बर्थ दी गई। मैं और सुलतानपुर के पीएसओ बोगी में सबसे पीछे गए थे। इसलिए हम दोनों को साइड वाली बर्थ दी गई। चूँकि मुझे सबसे आगे तक जाना था इसलिए मुझे साइड की ऊपर वाली बर्थ दी गई।

ट्रेन चलते ही हमारी दुकान शुरु हो गई। यदि आप फाइजर में लंबे अर्से से काम करते हैं तो आपको दुकान शुरुहोने का मतलब तो पता ही होगा। लगभग रात के दस बजे कुछ अन्य यात्रियों द्वारा शिकायत आने के बाद हमने अपनी दुकान बंद कर दी और अपने-अपने बर्थ पर सोने चले गये। 

सबने मेरी बर्थ पर अपने-अपने पेठों के पैकेट रख दिये क्योंकि उनका मानना था कि साइड बर्थ पर वे सुरक्षित रहेंगे। उन पैकेटों के ऊँचे ढ़ेर के कारण मुझे सोने में थोड़ी तकलीफ हो रही थी। मैंने जब सोचा कि किसी और के बर्थ पर कुछ पैकेट रखवा दूँ तो पाया कि तब तक सभी खर्राटे ले रहे थे। मेरे पास अब कोई चारा नहीं था और मैं उसी स्थिति में सोने की कोशिश कर रहा था। रात के लगभग तीन बजे मुझे जोरों की भूख लगी। मेरे पास चिंता की कोई वजह नहीं थी क्योंकि मेरे पास पेठों का भरपूर स्टॉक था। मुझे लगा कि बॉस की चीजों पर किसी पीएसओ का पूरा अधिकार होता है। इसलिए मुझे उनके पैकेट से ही पेठे खाना उचित लगा। मैंने उनका वो पैकेट खोला जिसमें चाशनी वाले पेठे रखे हुए थे। वे वाकई स्वादिष्ट थे। वैसे तो मेरी खुराक बहुत ही कम है लेकिन कभी किसी से शर्त लगे तो बात कुछ और होती है। मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और चाशनी वाले पेठे के एक पूरे पैकेट को सफाचट कर दिया। फिर मैंने उसे जैसे का तैसा पैक करके उसकी जगह पर करीने से रख दिया।

सुबह होते-होते फैजाबाद स्टेशन आया और कुछ लोग वहाँ उतर लिए। आखिरकार मेरा भी सफर समाप्त हुआ और मैं अपनी मंजिल पर पहुँच गया।

इस बात को बीते कुछ ही दिन हुए थे कि हमारी साइकिल मीटिंग फैजाबाद में हुई। जैसे ही मैं सुबह सुबह तैयार होकर मीटिंग हॉल में पहुँचा तो हमारे मैनेजर साहब ने जो पहला सवाल पूछा वो आप किसी भी मैनेजर से साइकिल मीटिंग में उम्मीद नहीं कर सकते हैं। उन्होंने न तो पिछले क्वार्टर की सेल के बारे में पूछा और न ही किसी पेंडिंग पेमेंट के बारे में पूछा। उन्होंने छूटते ही सवाल दागा, “अबे, ये बताओ कि आगरा से वापस लौटते वक्त साइड की ऊपर वाली बर्थ पर तो तुम ही थे?”

मैंने उन्हें कहा, “हाँ! क्या हुआ?”

उन्होंने फिर पूछा, “मेरे पेठों के पैकेट में से एक पैकेट पूरा खाली था; वो भी चाशनी वाले पेठों का। ऐसा कैसे हुआ?”

मैंने देखा कि अब छुपाने से कुछ नहीं होने वाला। वैसे भी वे पेठे तो कब के हजम हो चुके थे। मैंने बिलकुल निर्दोष सा चेहरा बनाते हुए कहा, “मैंने सोचा कि आपने वे पेठे तो अपने परिवार के लिए खरीदे थे। हम लोग भी तो आपके परिवार जैसे ही हैं। मुझे भूख लगी थी और वे पेठे वाकई स्वादिष्ट थे। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने पूरा पैकेट साफ कर दिया।“


मेरी बात समाप्त होते ही वहाँ बैठे बाकी लोग जोर-जोर से हँसने लगे। हमारे मैनेजर साहब का चेहरा तो बस देखते ही बनता था।