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Sunday, July 24, 2016

My First Day on Job

My first job was in Zieta Phramaceuticals which was a sister concern of Cadila. I reached my first headquarter at about 12:00 in the noon. After checking in a hotel, I quickly got ready to go for work. Having performed reasonably well in the training program, I was bubbling with enthusiasm and was raring to go. I took out the doctor’s list and planned for a particular area; called Kuchehry Road.
First of all, I went to a chemist to make a call. As we were launching a new division, so we were told to do the detailing in front of chemists as well. The chemist was definitely not a new person on the job; unlike me. He hurriedly told me to tell the names of some key products and the name of the wholesaler and told me to just keep my mouth shut. It was quite bizarre for me as I was expecting him to lend his ears to me. Being unperturbed, I tried to open the visual aid so that I could do the detailing but I felt a big lump in my throat. My forehead was profusely sweating and I could not utter a single word in front of him. I was feeling dejected at not being able to perform what I was supposed to do.

After that, I went looking for some doctors but could not find a single signboard which could show the names as per my list. I went to another nearby area but all my efforts were in vain. I tried till 8 pm in the evening and finally gave up. I was unable to understand how to find a doctor; as per the addresses. Meanwhile, I must have met at least 10 chemists but could not do the detailing in front of any of them because nobody permitted me to do so.

Next day, my Regional Manager came for joint working. He probably possessed some kind of magic. The road where I could not find a single doctor the last day revealed so many doctors for my Regional Manager. He was equally at ease while detailing to the doctors as well as to the chemists. I was simply swept off my feet by seeing the virtuoso performance of my Regional Manager; in terms of ideal presentation in front of customers.

I meekly asked him, “Yesterday, I was unable to find a single doctor on the same road. But you could easily pick up them on this crowded street. I was tongue tied in front of all the chemists I met but you were at ease. Do I have what it takes to become a successful salesman?”

The Regional Manager calmly replied, “It is natural for any person on his first day on job. Do not worry you will also become a virtuoso performed within a week.”


After the day’s work was over, we sat for dinner in a restaurant. The regional manager did some pep talk to boost my morale. At the end of the day, I was feeling more confident of doing justice to my job. 

हाथी और बिकोसूल्स

बिकोसूल्स एक ऐसा ब्रांड है जिसे फाइजर का ब्रेड बटर प्रोडक्ट माना जाता है। इसकी जबरदस्त सेल भी है इसलिए इसे बेचना बहुत ही आसान काम है। लेकिन किसी भी ऐसे प्रोडक्ट के लिए जिसकी सेल पहले से पीक पर हो; टार्गेट भी बहुत ज्यादा होता है और उस टार्गेट को पूरा करना बहुत मुश्किल होता है। ऐसे प्रोडक्ट की टार्गेट पूरा करने के लिए और सेल्स में ग्रोथ देने के लिए किसी भी मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव को एड़ी चोटी एक करनी पड़ती है। यह किस्सा इसी परेशानी के बारे में है जो मेरे किसी बहुत ही सीनियर ने सुनाई थी।

उनका नाम याद नहीं लेकिन फिर भी उनका नाम रख देता हूँ चोपड़ा साहब। बात साठ या सत्तर के दशक की होगी। चोपड़ा साहब तब एक यंग मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव हुआ करते थे। किसी एक क्वार्टर में उन्होंने बिकोसूल्स की इतनी सेल की कि अपने बजट का 150% पूरा कर लिया। अब इतनी अच्छी सेल्स पर सबके कान तो खड़े होने ही थे। साइकिल मीटिंग में चोपड़ा साहब से पूछा गया कि इतनी अच्छी सेल्स लाने के लिए उन्होंने कौन सा तीर मारा। अब इसपर चोपड़ा साहब का जवाब खुद सुन लीजिए।

“सर, मेरे शहर में अजंता सर्कस लगा हुआ था। मैं भी एक रविवार को सर्कस देखने गया। सर्कस देखते समय मुझे लगा कि सर्कस का एक हाथी जो सबसे मजेदार करतब दिखा रहा था कुछ कमजोर हो गया था। मैंने मामले की तह तक जाने के लिए उस सर्कस के मैनेजर से मिलने की कोशिश की। जब मैनेजर से मिला तो वह मुझे उस आदमी तक ले गया जो उस हाथी की देखभाल के लिए खासतौर से लगा हुआ था। उस आदमी ने भी मेरी बात से हामी भरी कि हाथी वाकई कमजोर हो गया था। फिर उसे मैने बिकोसूल्स के बारे में बताया। मैने उसे बताया कि किस तरह से बिकोसूल्स से अच्छी ताकत की दवाई कोई नहीं है। मैने उसे बताया कि यदि हाथी दोबारा ठीक हो जाएगा तो उसके करतबों पर फिर से दर्शकों की तालियाँ बजेंगी और सर्कस का बिजनेस भी बढ़ेगा। उसे मेरी बात में दम लगा और शुरु में उसने मुझे एक गत्ते बिकोसूल्स का ऑर्डर दे दिया। एक विशाल हाथी के लिए तो एक गत्ता बिकोसूल्स कुछ भी नहीं था। फिर एक महीना बीतते-बीतते मुझे वहाँ से 200 गत्ते बिकोसूल्स का ऑर्डर मिला।“


उस मीटिंग में आए लोग चोपड़ा साहब की बातों पर तालियाँ बजाने लगे। लेकिन उनकी तालियों में कुछ खास जोश नहीं था। बाकी लोग या तो चोपड़ा साहब की सफलता से जल रहे थे या उन्हें दाल में कुछ काला नजर आ रहा था। 

बड़े बाबू

अश्विनी सिन्हा किसी सरकारी दफ्तर में हेड क्लर्क की हैसियत से काम करते हैं। सरकारी दफ्तरों में लोग हेड क्लर्क को अक्सर बड़ा बाबू कहकर बुलाया करते हैं। इस श्रेणी में काम करने वाले अधिकतर लोगों की आय साधारण होने की वजह से ऐसे मुलाजिम अक्सर साधारण सा पहनावा ही पहनते हैं। उनके पहनावों पर कुछ कुछ असर सरकारी दफ्तरों मे प्रचलित माहौल का भी होता है। ऐसे माहौल में एक नया रंगरूट आपको थोड़ा सजधजकर ऑफिस आते हुए दिखाई दे जायेगा लेकिन पाँच साल की नौकरी होते-होते वह भी वहीं के रंग में रम जाता है। लेकिन अश्विनी सिन्हा बड़े बाबूशब्द को चरितार्थ करने में कोई कसर नहीं छो‌ड़ते थे। गर्मियों में वे गहरे रंग की पतलून पर सफेद या और किसी सोबर रंग की शर्ट पहना करते थे। शर्ट बकायदा पतलून की अंदर खोंसकर पहनी जाती थी। साथ में ताजा पॉलिश किये हुए जूते। आप कभी अश्विनी सिन्हा को चप्पल या स्पोर्ट शू में ऑफिस जाते नहीं देख सकते थे। जाड़े में तो कोट और टाई लगाकर वह अच्छे खासे जेंटलमैन बन जाते थे। कई अन्य मुलाजिमों की तरह वे भी पास ही की सरकारी कॉलोनी में अपने सरकारी क्वार्टर में रहते थे।

उनके घर की साज सज्जा में भी अभिजात वर्ग की झलक आती थी; जो कि अन्य लोगों के घरों से अलग हुआ करती थी। और लोगों के घरों में आपको या तो लकड़ी की टूटी कुर्सी मिल जाती या फिर प्लास्टिक की सस्ती वाली कुर्सियाँ। लेकिन अश्विनी सिन्हा के घर में आपको लाल मखमल की कवर वाला आलीशान सोफा सेट नजर आ जाता। बाहर वाले बरामदे में बेंत की कुर्सियों के साथ फूलों और सजावटी पौधों के गमले गजब की शोभा बढ़ाते थे। अश्विनी सिन्हा ने एक सफेद रंग की सेकंड हैंड मारुति 800 भी रखी हुई थी जो उस कॉलोनी में लगने वाली मोटरसाइकिलों और स्कूटरों के बीच शोभायमान होती थी।

उस कॉलोनी के कुछ लोग उनसे इस बात के लिए चिढ़े भी रहते थे कि वे झूठी शान बघारने में माहिर थे। उसपर से अश्विनी सिन्हा का अन्य लोगों से कट कटकर रहना इस चिढ़ को और भी हवा देता था। अश्विनी सिन्हा के दो बेटे और एक पत्नी थी। उनके बेटे और पत्नी भी उनका अनुसरण करती थी। कुल मिलाकर पूरा परिवार एक ही तरह की संस्कृति का पालन करता था। सब लोग ऐसे बर्ताव करते थे जैसे कि वे किसी क्लर्क नहीं बल्कि किसी बड़े ऑफिसर के परिवार के सदस्य हों।
एक बार अश्विनी सिन्हा को अपने बेटों को लेकर दिल्ली जाना पड़ा। उनके बेटों का किसी एमबीए कॉलेज में ऐडमिशन के लिए बुलावा आया था इसी सिलसिले में वे इस यात्रा पर जा रहे थे। अब कोई ऑफिसर तो उन्हें घास डालने से रहा लिहाजा उन्होंने अपने ही श्रेणी के क्लर्कों से किसी ऐसे से मदद की गुजारिश की जिसका कोई मित्र या रिश्तेदार दिल्ली में रहता हो। आजकल बिहार में शायद ही कोई घर होगा जिसका एक न एक सदस्य दिल्ली में न रहता हो। लेकिन उस कॉलोनी के सभी लोगों ने अश्विनी सिन्हा को कोई मोबाइल नम्बर देने से साफ मना कर दिया। यह सब उसी अच्छे इम्प्रेशन का नतीजा था जो अश्विनी सिन्हा ने वर्षों से बनायी थी।

अब बेचारे अश्विनी सिन्हा क्या करते, बस अपने बेटों के साथ दिल्ली वाली ट्रेन में बैठ गये। वे पूरी ठाट से अपनी बर्थ पर लेटे थे और उनके बेटे भी उन्हीं की नकल कर रहे थे। बाकी के सवारियों ने जल्द ही उनकी फितरत को समझ लिया इसलिये कोई भी उनसे उलझने की हिम्मत नहीं कर रहा था। लेकिन ट्रेन में भी अश्विनी सिन्हा अपनी साहबी दिखाने से बाज नहीं आ रहे थे। जब कोई आदमी किसी स्टेशन पर कोई चीज खरीदने प्लेटफॉर्म पर उतर रहा होता था तो अश्विनी सिन्हा उसे कुछ न कुछ खरीद लाने का आदेश जरूर दे देते और उसके लिए पाँच सौ का नोट निकाल कर दे देते। खैर, लगभग दो घंटे की यात्रा के बाद रात हो गई और अन्य लोगों को थोड़ी राहत मिली।
अगले दिन ट्रेन को सुबह सुबह दिल्ली पहुँचना था लेकिन अपनी आदत से मजबूर वह ट्रेन भी लेट चल रही थी। सुबह के लगभग आठ बजे थे और ट्रेन में कुछ ऐसे यात्री भी चढ़ गये थे जो लोकल होने के नाते रिजर्व कंपार्टमेंट में आसानी से घुस जाते हैं। दिन हो जाने के कारण पहले से सफर कर रहे यात्रियों को उठकर बैठना पड़ता है ताकि लोकल सवारियों को बैठने की जगह मिल जाए। 

अश्विनी सिन्हा की बगल में एक देहाती सा दिखने वाला युवक बैठा था। उसकी बड़ी-बड़ी मूँछें और तीन चार दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी थी। उसकी आँखों की लाली से वह बड़ा ही खतरनाक टाइप का लग रहा था। थोड़ी देर में ट्रेन कानपुर स्टेशन पर रुकी। वह युवक प्लेटफॉर्म से कुछ खरीदने जा रहा था। अश्विनी सिन्हा ने जब पूछा तो पता चला कि वह चाय खरीदने जा रहा था। अश्विनी सिन्हा ने उसे सौ रुपये का नोट दिया और अपने लिये तीन कप कॉफी लाने को बोला। उस युवक ने मुसकराते हुए अश्विनी सिन्हा से पैसे लिये और कॉफी लाने चला गया। थोड़ी देर बाद वह कॉफी लेकर आया तो अश्विनी सिन्हा ने उसे बाकी बचे पैसे रख लेने को कहा। उस युवक ने मुसकराकर उनका धन्यवाद किया। कॉफी पीते ही अश्विनी सिन्हा और उनके बेटे बेहोश हो गये और फिर वह युवक उनका सामान, पर्स, मोबाइल फोन, आदि लेकर वहाँ से चंपत हो गया।

राकेश दिल्ली में रहता था। वह अपने दफ्तर में लंच ब्रेक की तैयारी कर रहा था कि तभी उसके पास फोन आया, “हलो, मैं सिन्हा साहब बोल रहा हूँ। आपके बड़े भाई दरभंगा में जिस दफ्तर में काम करते हैं मैं भी उसी दफ्तर में काम करता हूँ। हमारे साथ एक हादसा हो गया। ट्रेन में नशाखुरानी वाले ने बेहोश करके हमारा सब कुछ लूट लिया। अभी मैं अपने बेटों के साथ लेडी हार्डिंग हॉस्पिटल में भर्ती हूँ। आप केवल इतना मदद कर देते ताकि हम वापस अपने शहर लौट पाते।“


राकेश ने अपने बड़े भाई को फोन करके मामले की विस्तृत जानकारी ली। फिर उसने वह सारी मदद की ताकि अश्विनी सिन्हा अपने बेटों के साथ वापस दरभंगा जाने वाली ट्रेन में सही सलामत बैठ जाएँ।