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Thursday, January 12, 2017

टायर जलाना मना है

रामकली चूल्हे पर चाय चढ़ाती हुई जोर से चिल्लाई, “अब उठो भी। दिन चढ़ने को आ रहा है। फटाफट नहाधोकर तैयार हो जाओ। तब तक मैं नाश्ते के लिए चाय रोटी बना देती हूँ।“

रामकली के पति; मंगरू ने रजाई में और दुबकते हुए कहा, “अरे इतनी कड़ाके की सर्दी में भला कौन काम पर जाता है। वैसे भी जब से नोटबंदी हुई है तब से रोज रोज काम भी तो नहीं मिलता। आज हिम्मत नहीं हो रही है, घर से बाहर निकलने की।“

“तो फिर पूरे दिन खटिया तोड़ने का विचार बना रखा है। अच्छा है, तुम्हें तो छुट्टी के लिए किसी को अर्जी भी नहीं देनी है। ऐसा करो, बाहर एक अलाव जला लो। आग की गर्मी मिलेगी तो ठंड से कुछ राहत मिलेगी।“

मंगरू ने यह सुनते ही अपने बेटे को आवाज लगाई, “अरे ओ हरिया, अरे कहाँ मर गया रे। छप्पर पर एक पुरानी टायर रखी थी। उतार उसको, आज उसी का अलाव बनेगा।“

थोड़ी देर में छप्पर पर चरर मरर की आवाज हुई और उसके बाद जमीन पर किसी बड़ी चीज के गिरने की धम्म से आवाज हुई। मंगरू लपककर बाहर आया ताकि उसके पहले कोई उसकी पुरानी टायर को न हथिया ले। उसकी टूटी फूटी झोपड़ी टिन और लकड़ी के बोर्ड से बनी हुई थी। उसका दरवाजा ठीक गली में खुलता था। एक अच्छी बात ये थी कि उस गली से होकर इक्के दुक्के लोग ही आया जाया करते थे इसलिए उसमें अधिक चहल पहल नहीं होती थी। गली के दोनों किनारों पर झुग्गी झोपड़ियाँ इतनी अधिक थीं कि कोई भी भलामानुष उस गली में आने की हिम्मत ही न करे। यह झोपड़पट्टी पूरे इलाके में नशाखोरों और जुए के लिए बदनाम थी।

मंगरू ने थोड़ी घास फूस और सूखी टहनियों की सहायता से जल्दी ही टायर को सुलगा लिया। टायर धू धू कर जल रहा था। मंगरू और उसके परिवार के अलावा और भी कई लोग उस जलते टायर के इर्द गिर्द बैठ गये। टायर जलने की तेज बदबू से भी उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आ रही थी। ऐसा उनकी वर्षों की प्रैक्टिस के कारण संभव हो पा रहा था।

उनमें से हर किसी को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे सब सीधा अपने बिस्तर से ही उठकर आ गये थे। उनमें ज्यादातर लोगों की शकल से पता चलता था कि इस कड़ाके की सर्दी में किसी को भी नहाए हुए दस दिन से अधिक बीत चुके थे। गरमागरम चाय और रोटी का नाश्ता पेट में जाने के बाद मंगरू की नींद पूरी तरह से खुल चुकी थी। थोड़ी देर देश और समाज की दुर्दशा पर चर्चा करने के बाद मंगरू अपने कुछ दोस्तों के साथ ताश खेलने में मगन हो गया। तब तक उसकी बीबी अपने काम पर निकल चुकी थी। वह पास के ही पक्के मकानों में झाड़ू पोछे का काम करती थी।

अभी ताश के एक दो ही हाथ हुए थे कि गली की एक छोर से कुछ कोलाहल सुनाई दिया। मंगरू और उसके दोस्तों ने जब उधर देखा तो पाया कि आगे-आगे दो आदमी चल रहे थे जो पैंट शर्ट कोट और चमचमाते हुए जूते पहने हुए थे। उनके पीछे-पीछे उसी झोपड़पट्टी के कई लोग हो हल्ला करते हुए इधर ही आ रहे थे। थोड़ी ही देर में वह भीड़ मंगरू के पास आ गई। उन दोनों के हाथ में एक एक लाल डायरी थी और दूसरे हाथ में कलम। दोनों बड़े ही रोबदार किस्म के लग रहे थे। उन्हें पास पहुँचते देख, मंगरू और उसके साथी हाथ जोड़कर बड़े अदब से खड़े हो गये। उन रोबदार किस्म के लोगों में से एक ने कहा, “किसकी परमिशन से तुमने ये टायर जलाया है?”

मंगरू ने सकपकाते हुए कहा, “अरे साहब, सर्दी बहुत थी तो सोचा अलाव जला लें............”

उस आदमी ने गरजते हुए कहा, “जानते नहीं, टायर या लकड़ी या सूखे पत्ते जलाना मना है। हमलोग नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल से आये हैं। टायर जलाने के अपराध में तुम्हें पाँच हजार रुपए जुर्माना या छ: महीने की जेल या दोनों हो सकती है।“

मंगरू ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “साहब, ई कानून कब बन गया हमको पता ही नहीं चला। लेकिन हम गरीब आदमी हैं। हमारे पास तो ढंग की रजाई या कम्बल भी नहीं है। एक आग ही सहारा है जो इस कड़ाके की सर्दी में हमारी जान बचा सकती है।“

उस अफसर से दिखने वाले आदमी ने कहा, “कानून अमीर या गरीब में फर्क नहीं देखता है। अपराध किया है तो सजा भी मिलेगी। थाने चलो, नहीं तो अभी पुलिस बुला लूँगा।“

मंगरू का एक दोस्त इस बीच आगे आ गया। उसका नाम बुझावन था। बुझावन अपने आप को औरों से समझदार समझता था। उसने झटपट दो कुर्सियाँ वहाँ पर रख दी और कहा, “अजी साहब, आप तो सरकार हैं। आपका हुकम सर माथे पर। पुलिस बुलवाने की इतनी भी क्या जल्दी है। इतनी जबरदस्त ठंढ़ पड़ रही है। पहले बैठकर थोड़ा आग ताप लीजिए। शरीर में थोड़ी गरमाहट आ जाएगी, फिर आगे की कार्रवाई कर लीजिएगा।“

थोड़ी ना नुकर करने के बाद वे दोनों कुर्सियों पर बैठ गये और आग सेंकने लगे। अब आदत न होने की वजह से जलते टायर की बदबू उनकी बरदाश्त से बाहर हो रही थी। ऐसा देखकर बुझावन ने टायर की मदद से कुछ लकड़ियाँ सुलगाई और फिर टायर को वहाँ से हटवा दिया।“उसके बाद दोनों आदमी जो अफसर जैसे दिख रहे थे, आग तापने का मजा लेने लगे। इस बीच मंगरू और उसके दोस्तों ने उनके लिये अंगूर की बेटी का इंतजाम भी कर दिया जिसे कि ठंढ़ के मौसम में फायदेमंद माना जाता है। 

लगभग एकाध घंटे बिताने के बाद वे दोनों अफसर वहाँ से उठे और मंगरू से कहा, “भैया, जाड़े में तो आग तापने की जरूरत होती ही है। लेकिन थोड़ा बचाकर किया करो। झोपड़ी की ओट में करोगे तो किसी की नजर नहीं लगेगी। अब क्या करें, सरकार ने कानून बना दिया है सो इंसपेक्शन में जाना ही पड़ता है।“