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Monday, August 15, 2016

पंद्रह अगस्त की जलेबियाँ

मालूम नहीं कि इस परंपरा की शुरुआत कैसे हुई, लेकिन पंद्रह अगस्त के दिन मेरे मुहल्ले के लगभग हर घर में जलेबियाँ जरूर मंगवाई जाती थीं। जिस तरह से अन्य त्योहारों को हम किसी न किसी मिठाई से मुँह मीठा करके मनाते हैं उसी तरह से हम स्वतंत्रता दिवस को भी मनाते थे। यह दिन भी हमारे लिये किसी त्योहार जैसा ही होता है। कई लोग पंद्रह अगस्त के दिन देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत होते हैं इसलिए उन्हें यह दिन त्योहार जैसा लगता है। कई लोगों को यह दिन तभी त्योहार जैसा लगता है जब यह सोमवार को पड़ जाये जैसा कि इस साल हुआ है। इससे तीन दिनों की लगातार छुट्टी मिल जाती है। तीन दिन की छुट्टी में बहुत कुछ करने को मिल जाता है। कुछ लोगों ने तो शुक्रवार को ही काम से लौटते समय व्हिस्की या बीयर का इंतजाम कर लिया होगा ताकि ड्राई डे के दिन भी मजे ले सकें। फिर शनिवार से लेकर सोमवार तक तरह तरह के भोजन का दौर चला होगा। जैसे शनिवार को मैं शाम में चिकन लेकर आ गया ताकि तवा चिकन के साथ पराठे के मजे ले सकूँ। रविवार को मैं मछली लेकर आ गया और फिर ठेठ बंगाली स्टाइल में सरसों वाली मछली बनाई गई। अब दो दिन नॉन-वेज खाने के कारण यह तय किया गया कि सोमवार को वेज बनेगा। उस दिन कुछ दोस्तों और रिश्तेदारों के आने की भी संभावना थी। तो सोमवार को चाइनीज बनाया गया। मैं और मेरी पत्नी ने मिलकर नूडल, फ्राइड राइस और वेज मंचूरियन बनाया। साथ में चिंग के सूप मिक्स से लजीज सूप भी बना लिया। लेकिन उसके पहले सबकी फरमाइश हुई जलेबी खाने की। ऐसा सुनकर मुझे मेरा बचपन याद आ गया। अब देखिये कि जलेबी लाने में मुझे कितनी मेहनत करनी पड़ी।

मैं इस शहर में नया हूँ इसलिए मुझे यहाँ के बाजार के बारे में बहुत कुछ पता नहीं है। यहाँ के बाजारों की तंग गलियों में कार पार्किंग की जगह नहीं होती और कार चलाना बहुत ही मुश्किल साबित होता है। इसलिए मैंने अपनी पुरानी बाइक निकाली और उसे धो पोंछकर तैयार किया। काफी मान मनौवल के बाद मेरी पुरानी मोटरसाइकिल स्टार्ट हो गई और चलने के लिए तैयार भी हो गई। मेरे एक रिश्तेदार पिछली सीट पर बैठ गये। फिर अपने थोड़े बहुत अनुभव के आधार पर हमलोग शास्त्री नगर नाम के इलाके में पहुँचे। यह इलाका मेरे मकान से कोई चार किलोमीटर दूर है। उस इलाके के बाजार में काफी देर घूमने पर भी कोई भी ऐसा हलवाई नहीं मिला जो जलेबियाँ बना रहा हो। सबके पास पहले से बनी हुई छेने और खोए की मिठाइयाँ रखी हुई थीं। मुझे तो ताजी जलेबियों की जरूरत थी इसलिए हमने कहीं और कोशिश करने की सोची।

उसके बाद हम एक दूसरे इलाके में गये जिसका नाम है नेहरू नगर। यह इस शहर के पॉश इलाकों में से एक है इसलिए यहाँ की मिठाई की दुकानें ज्यादा भव्य नजर आ रहीं थीं। ज्यादातर दुकानों में वही बर्फी और लड्डू नजर आ रहे थे। कुछ के यहाँ बाहर रखे चूल्हे पर चाउमिन बन रहा था जिसे एक खास उम्र के लोग बड़े चाव से खा रहे थे। एक छोटी सी दुकान में ब्रेड पकौड़ा मिल रहा था जो दिल्ली और उसके आस पास के इलाकों में लगभग हर जगह मिल जाता है। इसके अलावा केक, पेस्ट्री, डोनट, बर्गर और पिज्जा की दुकानें भी थीं लेकिन जलेबी की दुकान एक भी नहीं मिली। हाँ एक जगह कुछ अजीब नजारा देखने को जरूर मिला।

मैक डॉनल्ड की दुकान के पास ही एक ठेले पर भी बर्गर बिक रहा था। ठेले की छत पर लगे बोर्ड पर लिखा था गुप्ता जी का मशहूर हॉट डॉग बर्गर। उस ठेले के पास एक मेरी ही उम्र के सज्जन खड़े थे जिन्हें कई बच्चों ने घेर रखा था। बच्चों की उम्र दस से लेकर पंद्रह साल तक रही होगी। सभी बच्चे एक सुर में चिल्ला रहे थे, “ताऊ जी, हम इस ठेले वाले का बर्गर नहीं खाएँगे। हमें तो मैक डॉनल्ड का बर्गर खाना है।“

उन बच्चों के ताऊ जी ने कहा, “नहीं बेटा, आज स्वतंत्रता दिवस है। आज हम आजादी की सत्तरवीं सालगिरह मना रहे हैं। आज के दिन यदि हमने किसी विदेशी कंपनी का बर्गर खाया तो गाँधी जी की आत्मा को ठेस पहुँचेगी। इसलिए आज के दिन हम गुप्ता जी का बर्गर ही खाएँगे।“

यह सुनकर वे बच्चे चुप हो गये। उन्हें लगा होगा कि उनके ताऊ जी ने कोई बहुत बड़ी बात कह दी थी। या उन्हें अपने कंजूस ताऊ जी पर पूरा भरोसा होगा कि उतने बच्चों को लेकर वे मैक डॉनल्ड जाने की हिम्मत नहीं रखते होंगे। ठीक कारण तो मुझे नहीं मालूम लेकिन उन बच्चों ने गुप्ता जी के बर्गर खाने में ही अपनी भलाई समझी।

वहीं पर किसी ने बताया कि हमें घंटाघर के पास जाना चाहिए। घंटाघर इस शहर का पुराना इलाका है जहाँ बहुत पुरानी दुकानें भी हैं। मैंने अपनी बाइक घंटाघर की ओर मोड़ दी। घंटाघर मेरे मकान से लगभग दस किलोमीटर दूर है। घंटाघर पहुँच कर किसी भी छोटे शहर के पुराने मुहल्ले और बाजार की महक आ रही थी। पतली सी गली में मोटरसाइकिल और रिक्शों से ही जाम लगा हुआ था। गली की दोनों तरफ लगभग हर किस्म की दुकानें दिख रहीं थीं; जैसे कि पतंग वाला, कपड़े वाला, फल वाला, गहने वाला, बर्तन वाला, सब्जी वाला, खिलौने वाला, किराने वाला, आदि। लगभग दो सौ मीटर जाने के बाद मुझे अपनी बाँई ओर एक बोर्ड दिखा जिसपर लिखा था, ‘लालाराम हलवाई। उसके नीचे वाली लाइन में लिखा था जलेबी वाले। फिर क्या था, मेरी बाइक अपने आप रुक गई।

वह एक छोटी सी दुकान थी। आगे एक छ: फुट लंबी मेज लगी थी जिसके नीचे कई खाने बने थे। ऊपर के खाने में मिठाईयाँ रखी थीं। बीच वाले खाने में मठरी और नीचे वाले खाने में सेव और सुहाल। आगे से मोटा सा ग्लास लगा था ताकि मक्खियाँ और धूल न जाने पाएँ। उस काउंटर के पीछे एक पतले दुबले सेठ जी बैठे थे। वे एक गद्दे पर बैठे थे जिसपर सफेद कवर चढ़ा था। सेठ जी ने सफेद पजामा कुर्ता और टोपी पहनी हुई थी। माथे पर चावल और रोली का तिलक लगा हुआ था। सेठ जी के पीछे एक ताखे पर गणेश जी और लक्ष्मी जी की मूर्ति रखी थी जिसके ऊपर एक लाल रंग का जीरो वाट का बल्ब जल रहा था। सेठ जी के आगे एक स्टोव जल रहा था जिसपर जलेबी तलने वाली कड़ाही चढ़ी थी। उस कड़ाही को देखकर मैं और भी आश्वस्त हो गया और सेठ जी से पूछा, “भाई साहब जलेबियाँ मिल जाएँगी?”

सेठ जी ने कहा, “हाँ हाँ, लेकिन आपको थोड़ी देर बैठना पड़ेगा।“

मैं वहीं पास रखी बेंच पर बैठ गया और उनसे एक किलो जलेबियाँ बनाने को बोला। जब वे बड़े प्यार से जलेबियाँ तल रहे थे तो मैंने कहा, “क्या बताऊँ भाई साहब। जलेबियों की तलाश में बड़ी दूर से आ रहा हूँ। बीच में कई बाजारों में पता किया लेकिन जलेबियाँ कहीं नहीं मिलीं।“

सेठ जी ने मुसकराते हुए कहा, “अजी साहब, आजकल जलेबियाँ बिकती ही नहीं। जिसे देखो वही नए जमाने की डिश खा रहा है। आजकल के बच्चों को तो बर्गर और पिज्जा चाहिए। वो रोज रोज तो नहीं खा सकते इसलिए पैकेट वाले चिप्स से ही काम चला लेते हैं।“

मैंने कहा, “ज्यादातर दुकान वाले न तो अब अच्छी जलेबियाँ बनाते हैं और न ही समोसे। उनसे तेल की अजीब सी महक आती है। अब तो बहुत कम ही दुकानों से आप भरोसा कर के ऐसी चीजें खरीद सकते हैं।“

सेठ जी ने हामी भरते हुए कहा, “ठीक कह रहे हैं। लेकिन मेरी जलेबियाँ आप आँखें मूंद कर ले जाइए। मेरा दावा है कि आप दोबारा भी मेरे पास ही आएँगे।“

मैंने कहा, “वह तो आपकी दुकान देखकर ही पता चलता है। फिर आप जितने प्यार से इन्हें तल रहे हैं उससे भी पता चलता है।“

सेठ जी ने कहा, “वो दिन दूर नहीं जब जलेबियाँ मिलनी बंद हो जाएँगी।“


मैंने कहा, “हाँ, अब आज को ही लीजिए। जलेबियाँ खरीदने के लिए मुझे अपने घर से दस किलोमीटर आना पड़ा।“ 


जलेबियाँ मिल जाने के बाद मैने अपनी मोटरसाइकिल स्टार्ट की और अपने रिश्तेदार से पीछे बैठने को कहा। जैसे ही हम उस गली से मेन रोड पर आये तो सुबह से पहली बार ऐसा माहौल देखने को मिला जिससे लगे कि पंद्रह अगस्त को मनाया जा रहा है। अभी तक पूरे रास्ते में मुझे पंद्रह अगस्त के नाम पर कुछ मोटरसाइकिल और स्कूटर पर छोटे-छोटे झंडे दिखाई दिए थे। कुछ बड़ी कारों से फुल वाल्युम में फिल्मी गाने बजते जरूर सुनाई दिये थे। लेकिन इसके अलावा कहीं भी वह जोश या माहौल नहीं दिखा जिससे लगे कि कोई उत्सव हो रहा हो। मेरे आगे-आगे दो ट्रक चल रहे थे। उन ट्रकों के पीछे कुछ नवयुवक और किशोर लड़के लदे हुए थे। दोनों ट्रकों पर एक बड़े से डंडे के ऊपर एक बड़ा सा झंडा लहरा रहा था जिसे वे इधर उधर हिला रहे थे। ट्रकों पर बहुत बड़े-बड़े स्पीकर भी लदे हुए थे जिनसे कानफोड़ू संगीत बज रहा था। ज्यादातर गाने हाल के दशकों की फिल्मों से थे। इन गानों में देशभक्ति का थोड़ा बहुत पुट था। सबसे बड़ी बात ये थी कि इन गानों के बीट और स्टाइल आधुनिक युवकों के टेस्ट से मेल खा रहे थे। उन गानों पर सभी लड़के इस तरह से डांस कर रहे थे जैसे माइकल जैक्सन को भी पीछे छोड़ दें। बीच बीच में देश के सम्मान में नारेबाजी भी हो रही थी। उन ट्रकों के पीछे-पीछे लंबा जाम लगा हुआ था। अगले चौराहे तक की दूरी तय करने में मुझे लगभग आधा घंटा लग गया। उन ट्रकों को चौराहे पर से दाहिने मुड़ते देखकर मैने राहत की सांस ली क्योंकि मुझे बाईं ओर जाना था। 

जब जलेबियाँ लेकर मैं अपने घर पहुँचा तो मेरी पत्नी ने एक बड़ी सी थाली में जलेबियाँ परोस दी। उन जलेबियों को केवल वही लोग हाथ लगा रहे थे जिनकी उम्र पैंतीस से अधिक थी। पचास से अधिक उम्र के कुछ लोगों ने डायबिटीज होने के बावजूद जलेबियाँ उठा ली। लेकिन तीस से नीचे के किसी ने भी जलेबियों को छुआ तक नहीं। उनका कहना था कि टेस्टी चाइनीज फूड खाने से पहले वे अपने मुँह का स्वाद बिगाड़ना नहीं चाहते थे। 

Sunday, August 14, 2016

मरा हुआ कौवा

पड़ोस के वर्मा जी सबसे आगे-आगे चल रहे थे। उनके पीछे-पीछे उनके दो बेटे और पड़ोस के अन्य लड़के भी चल रहे थे। दस लोगों के उस समूह में वर्मा जी को छोड़कर बाकी सभी किशोरावस्था में थे। वर्मा जी आगे-आगे किसी सिपाही की मुद्रा में कदम ताल करते हुए चल रहे थे। उनके पीछे चल रहे लड़के उनकी हूबहू नकल उतार रहे थे। इससे वर्मा जी के बेटों को कुछ अच्छा नहीं लग रहा था।
वर्मा जी कह रहे थे, “सुबह-सुबह सैर करने से बहुत सारे फायदे होते हैं। ताजी हवा अंदर जाने से सेहत अच्छी रहती है।“

एक लड़के ने जवाब दिया, “हाँ चचा, सही कहा आपने। हम किस्मत वाले हैं कि हमारे शहर में मॉर्निंग वाक के लिए राज का इतना बड़ा कैंपस है।“

दूसरे लड़के ने कहा, “हाँ इस कैंपस में बड़े-बड़े मैदान हैं और जमकर हरियाली भी है।“

वर्मा जी ने कहा, “अरे नहीं, इससे ज्यादा हरियाली तो हमारे गाँव में हुआ करती थी। शहरों में वो बात नहीं है। अब इतनी ज्यादा गाड़ियाँ चलने लगीं हैं कि हर तरफ धुँए का असर होता है।“

वे इसी तरह से बातें करते-करते आगे बढ़ रहे थे कि वर्मा जी के कदम अचानक रुक गये। बाकी लड़के उनके पीछे ठीक उसी तरह रुक गये और एक सुर में पूछा, “क्या हुआ चचा? रुक क्यों गये?”

वर्मा जी ने किसी छोटे बच्चे की तरह किलकारी मारी और बोला, “अरे देखो, एक मरा हुआ कौवा।“

बाकी लड़कों ने कहा, “हे राम! मरा हुआ कौवा। उससे दूर ही रहिए चचा। चलिये चलते हैं यहाँ से।“

वर्मा जी ने कहा, “अरे नहीं। इस मरे हुए कौवे से तो हम बहुत मजा कर सकते हैं।“

बाकी लड़कों ने कहा, “क्या बात है चचा? लगता है आप हमें कोई नई शरारत सिखाएँगे।“

किसी लड़के ने कहा, “पिछली बार आपके कहने पर मैंने उस बुढ़ऊ की धोती खींच दी थी तो घर में बहुत मार पड़ी थी।“

किसी अन्य लड़के ने कहा, “पिछली बार आपके कहने पर मैंने उस गदहे को पकड़ने की कोशिश की थी तो उसकी दुलत्ती खानी पड़ी थी।“

वर्मा जी ने कहा, “अबे तुम सब रह जाओगे डरपोक के डरपोक। तुम्हारी उमर में तो हम वो सब शरारते करते थे कि गाँव के कई बुजुर्ग तो गाँव छोड़कर पूरे दिन खेतों में छुप जाते थे।“

वर्मा जी ने आगे कहा, “:अभी दिखाता हूँ कि यह मरा हुआ कौवा हमारे कितने काम आ सकता है।

फिर वर्मा जी के इशारे पर एक लड़के ने किसी पेड़ से एक टहनी तोड़ ली। वर्मा जी ने अपने गमछे से अपने सिर को ढ़क लिया। फिर उस टहनी की एक छोर पर उस मरे हुए कौवे को टाँग लिया और आगे की ओर चल पड़े।

उसके बाद तो वहाँ के कौवों में कोहराम मच गया। सभी कौवों ने एक सुर में काँव-काँव करना शुरु कर दिया। लगता था पूरे शहर के कौवे वहीं आ गये थे। वे सभी कौवे बारी-बारी से वर्मा जी के सिर पर झपट्टा मारने की कोशिश कर रहे थे। वर्मा जी बड़ी सफाई से उनसे बच निकलते थे। वर्मा जी आगे-आगे मरे हुए कौवे को टाँगे हुए चल रहे थे। उनके पीछे उनकी वानर सेना हो हल्ला मचाते हुए चल रही थी। और उनका पीछा करते हुए कौवे काँव-काँव कर रहे थे।

जब वे अपने मुहल्ले के पास पहुँचे तो उन्हें देखने के लिए कई लोग अपने घरों से बाहर निकल पड़े। कुछ लोग अपनी छतों पर आ गये तो कुछ अपनी बालकनी में से झाँकने लगे।

पाँडे जी ने हँसते हुए कहा, “अरे वर्मा जी, आपका बचपना तो कभी नहीं जायेगा।“

गुप्ता जी ने गुस्से में कहा, “अरे वर्मा जी, आपने तो मुहल्ले के लड़कों को बिगाड़ कर रख दिया है।“

मिश्राइन ने आँखें मटकाते हुए कहा, “अरे पप्पू के पापा, देखते हो वर्मा जी कैसे अपनी जवानी मेंटेन किए हुए हैं। एक तुम हो जो अभी से बुढ़ऊ की तरह करने लगे हो।“

मिश्रा जी ने झल्लाकर कहा, “अब तुम जैसी बुढ़िया के लिए तो मेरे जैसा बुड्ढ़ा ही सही रहेगा।“

लग रहा था कि वर्मा जी किसी विजय जुलूस की अगुवाई कर रहे थे। वे आगे-आगे और उनकी वानर सेना उनके पीछे। साथ में उनके सिर पर मंडराता कौवों का झुंड। उनके पीछे-पीछे चल रहे लड़कों को पता था कि वर्मा जी के साथ होने के कारण घर में डाँट पड़ने की संभावना न के बराबर थी। इसलिए वे भी पूरे जोशो खरोश के साथ चिल्ला रहे थे।

उसके बाद वर्मा जी का जुलूस उनके आंगन में प्रवेश कर गया। वर्माइन ने एक हाथ से अपना नाक बंद करते हुए दरवाजा खोला और बोलने लगी, “पता नहीं आप कब सुधरेंगे। आपकी वजह से मुझे पूरे मुहल्ले से ताने सुनने पड़ते हैं।“

वर्मा जी ने अपनी पत्नी को अनसुना कर दिया और जीने से होते हुए छत पर पहुँच गये। थोड़ी देर में कौवों की संख्या और भी बढ़ गई। लगता था पूरे शहर के कौवे वर्मा जी की छत पर उतरने को व्याकुल हो रहे थे। वे जितनी बार वर्मा जी के सिर पर झपट्टा मारने की कोशिश कर रहे थे, हर बार वर्मा जी बड़ी चतुराई के साथ बच निकलते थे।

फिर वर्मा जी ने कहा, “अबे सुनो।“

लड़कों ने एक सुर में कहा, “बताइए चचा।“

वर्मा जी ने कहा, “इस कौवे को दारोगा जी की छत पर फेंक दूँ?”

लड़कों ने कहा, “हाँ चचा, वो दारोगा चचा कुछ ज्यादा ही रौब दिखाते हैं।“

फिर क्या था, वर्मा जी ने कौवे को पकड़ा, उसे तेजी से हवा में घुमाया और बगल वाले दारोगा जी की छत परे फेंक दिया। अब उनके ऊपर मंडरा रहे कौवों ने उनका पीछा छोड़ दिया और वे सब जाकर दारोगा जी के छत पर बैठ कर काँव काँव करने लगे।

जब दारोगा जी को पता चला तो वे अपने आंगन में से ही जोर-जोर से चिल्लाने लगे, “इस तरह की कारस्तानी वर्मा जी ही कर सकते हैं। मैं छोड़ूँगा नहीं। पुलिस बुलवाऊँगा। मुकदमा दायर करूँगा।“


वर्मा जी तब तक अपने कमरे में जा चुके थे। वर्माइन ने उनके चेलों को गरमागरम चाय पिलाई। चाय की चुस्कियों के साथ सब मिलकर ठहाका लगा रहे थे और बोल रहे थे, “कसम से चचा, मजा आ गया।“ 

Friday, August 12, 2016

I Am on Actuals

Most of the pharmaceutical companies pay some daily allowance to their medical representatives and first line managers. The allowance is given so that the sales guy can manage to pay hotel bill and travel bill (for local commuting). Some of the companies also give some sort of food allowance so that the sales guy can buy food while he is working in the field. As most of the sales guys come from middle class background, so they always try to save some money from the allowance. But some companies reimburse the actual bill once a person gets promoted to become the first line manager. This is done in order to enable the first line manager to stay in a decent hotel and eat better food. Moreover, his laundry bill is also reimbursed so that he need not bother about the meager allowance and can focus on his actual job. This story is about the ‘proper use’ of the facility of reimbursement of the actual bill by a guy who was recently promoted to the post of the first line manager.

Unlike most of his colleagues, that guy was somewhat rustic in his behavior and dress sense. Just after becoming a firs line manager, he went for a joint working in the territory of one of the medical representatives in his team. The medical representative reported to him early in the morning at seven am sharp because they had to go to some interior for work. The moment the medical representative took a seat on the sofa in the hotel room, the manager asked, “Hey would you like to have breakfast?”

The medical representative answered in affirmative. Hearing that, the manager made a call to the receptionist and ordered for breakfast, “We want a full plate of chicken chilly, two plates of omlettes, a full plate of fish fry and two plates of butter toast for breakfast.”

The medical representative was stunned. He said, “Sir, I thought of having something light for breakfast. I think it is going to be too much for two of us.”

The manager replied, “Don’t worry mate. Your old colleague has got a promotion now. I am on the actual; so I no longer need to worry about the bills.”

The medical representative took a plate each of butter toast and omlette and a few pieces from the chicken chilly and fish fry. Rest of the food was gobbled by the manager.

When they came back from the interior, it was the time for lunch. The manager once again called the reception desk and said, “Hi, can you write down my order for lunch? Please send two plates of mutton curry, one plate of chicken tikka, one plate of fish fry, ten pieces of naan and two plates of fried rice. You can send two plates each of gulab jamun and ice cream for dessert.”

The medical representative was a frugal eater and hence said, “Sir, I would take just two naans and a few pieces of chicken tikka for lunch. You can order accordingly. There is no need for ordering so many items.”

The manager said, “Don’t worry mate. Your old colleague has got a promotion now. I am on the actual, so I no longer need to worry about the bills.”

After finishing the lunch, the medical representative went to meet the wholesalers. The manager remained in the hotel to complete his daily quota of the afternoon siesta. The medical representative came back in the evening as they had planned to meet some more doctors in the evening. Looking at him, the manager asked, “Hey, would you like to have something for the evening snacks?”

The representative said, “No, thanks! I am full.”

The manager said, “You are a young guy. You should eat a lot because you need to work really hard. I am not going to hear anything from you. I am going to order for some snacks.”

The manager once again called the reception desk and ordered, “Please send a full plate of chicken chilly, four egg rolls and two coffees for us.”

The medical representative once again said, “Sir, I can have coffee if you insist. But I am not going to eat chickens. I love non-vegetarian food but I usually take a non-vegetarian meal once or twice in a week.”

The manager said, “Don’t worry mate. Your old colleague has got a promotion now. I am on the actual, so I no longer need to worry about the bills.”

After finishing their work, they came back to the hotel at half past nine. While the medical representative was busy preparing his daily report, the manager asked, “Hey, what about dinner? Let me order for the dinner. Would you like to have a couple of beer as well?”

The medical representative said, “Sir, beer would be fine. But please don’t order too many items for dinner.”

The manager once again called the reception counter and said, “Please send four naans, a full plate of plain rice, a full plate of mutton curry, one plate chicken chilly and a plate of fish fry. Yeah, we will have some finger chips for snacks.”

The medical representative had had enough of it. He said, “Sir, I already told you that I don’t want to eat so much. You can order whatever you wish for you. But please spare me from the torture of shoving so much into my stomach.”

The manager once again said, “I am on the actual, ……………..”

The representative interrupted him and said, “So what if you are on the actual? Why are you making your tummy a graveyard for all the dead chickens and fish? It is understandable that the bill is going to be reimbursed by the company. Does it necessitate that you go on eating everything in the name of getting the reimbursement?”

But the manager did not pay heed to his colleague’s advice. Instead, he gorged on everything which he had ordered. He emanated a loud burp after the meal and said good night to the representative.


When the medical representative went to the hotel on the next morning, he found the room door ajar. While he sat on the sofa; waiting for his boss, he could hear the rumbling sound from the bathroom. Within a few moments, the manager came out of the bathroom. He appeared highly exhausted. He said, “I am suffering from diarrhea since night. Can you bring some ORS for me? I have planned to observe a fast for today. But you can order whatever you wish for breakfast. In fact, I am on the actual.” 

Thursday, August 11, 2016

Illegal Connection

This story is about the old proverb ‘Unity is strength’; in context of the life of medical representatives. No matter how high they think about themselves, medical representatives are seldom noticed by the mainstream society. People only notice them when they appear to be the hindrance when a patient is waiting for his turn outside a doctor’s chamber. But this incident made many people of the town to acknowledge the existence of a species called ‘Medical Representative’.

This incident happened in Dhanbad; during the mid 1990s. Two medical representatives from two different companies were living in an outhouse as tenant. Their landlord had not taken the proper connection of electricity. He was using hooks to siphon off electricity illegally from the power-line.
Once the state government issued a notice; about its plans to take action against all those who were using illegal means to get electricity supply. After that, there was a raid on their outhouse on a fateful night. Both the guys pleaded with the police team about their innocence. They requested the police to book the landlord but it was of no avail. The police arrested them and immediately put them in the lockup.

Next day, the news spread like a wildfire among the medical representatives. Most of the medical representatives began to gather near the area where most of the government offices were located. Some leaders of the medical representatives’ union were leading the crowd. Almost everyone was dressed in the business attire. The well ironed dresses with shining leather shoes and neckties were somewhat an oddity in the premises of government offices because government employees in most of the small towns are shoddily dressed. Many government employees could be seen in leather slippers; wearing loosely fitting shirts which may not have been tucked inside their trousers. Many of them were even sporting three days’ old stubble on their faces. They appeared to be so overawed by the presence of neatly dressed guys that they allowed all of us to meet our colleagues in the lockup.
Those poor chaps were highly depressed because they had been arrested for no fault of theirs. They pleaded with us to quickly do something to ensure their early release. After that, we came on the main road and all of us sat on the boundary wall of the office premises. One of us ordered a tea-vendor to serve tea to every medical representative present there. Then we collected two rupees from each and paid the bill to the tea seller.

It was a sight worth seeing. About one hundred and twenty people were sitting in a row on the boundary wall. Almost all of them were in formal dresses. Almost equal number of two-wheelers was parked in a parallel row on the roadside. The road; passing through the office premises; is the main road of Dhanbad. It is one of the busiest roads in the town. Most of the people who were passing by were looking at us with deep sense of wonder. Many could also be seen stopping to kill their curiosity.

A small delegation from our team went to the nearby District Hospital to meet the CMO. Even the CMO was closely acquainted with us because he was an important customer for most of the pharmaceuticals companies. He issued a letter on his letterhead; addressed to the SHO of the police station. Based on that letter, the SHO allowed our colleagues to go to the District Hospital for a round of medical checkup.

The doctor made a certificate that those two guys needed bed rest and advised their immediate release from the lockup.


Once we were successful in getting them shifted to the District Hospital, they felt highly relieved. After that, some senior medical representatives held a couple of rounds of negotiations with the lawyers and the police. By that time, even the policemen were convinced of our clout with the medical fraternity. They were also wary of our collective strength. Thus, our pressure forced them to release our colleagues; without framing a charge. 

Wednesday, August 10, 2016

Hometown Connection

Most of the people have a deep connection with their hometown; at least during initial years after leaving the hometown. I belong to Darbhanga and had spent my formative years in this town. Sometimes, the deep affection with your hometown can give you enriching experience during the journey of life. Once I had been to Kolkata to attend a launch meeting. During one of the evenings, I was taking a stroll near Howrah Bridge; the famous landmark of Kolkata. My two colleagues were also with me. After taking a leisurely walk for some time, we felt an urge to have tea. While we were searching for a tea stall, I could see a rudimentary tea stall on the sidewalk. The person managing the tea stall was in his early thirties. He was fragile in appearance and was of medium height. He was wearing a lungi and banyan. A towel was tied around his head to serve as the quintessential headgear. He had a kerosene stove, a kettle, some glasses and a couple of tin containers in the name of tea stall. His tea stall was highlighting two important aspects of business. The first aspect was how to run a business on a shoe-string budget. And the second aspect was about ways to create the smallest possible carbon footprint.

As I and my colleagues were unable to enjoy the kick from highly sophisticated version of tea being sold in the five star hotel, we decided to enjoy the typical roadside tea. I asked the vendor to make special tea. I requested him to add ginger for extra flavor. I also asked him to boil the tea for a little bit longer to infuse strong essence of tea leaves.

The guy was too happy to cater to our demands. While we were sipping the freshly brewed tea; we were also talking to him. His tone of speaking gave away his roots. I could guess that the tea seller belonged to my hometown or to some village near my hometown.

I asked, “Bhaiya, you appear to belong to Bihar.”

The tea seller replied, “Yes sir, I come from Bihar.”

Emboldened by his answer, I further asked, “Which town from Bihar?”

He replied, “Sir, I belong to Darbhanga.”

I could not conceal my glee and said, “That is great. What a coincidence? I also belong to Darbhanga. It is a great pleasure for me to have tea from a tea seller from Bihar that too in Kolkata.”

After that, I must have talked to the tea seller for at least half an hour. To add more personal touch to our conversation, we shifted to the regional language which is being spoken in Darbhanga. We were talking in Maithili and I enjoyed it thoroughly.

After we finished the tea and I finished the talking, I asked the tea seller, “It was nice talking to you. You make really tasty tea. How much should I pay for the tea?”

The reply of the tea seller was surprising for me. He said, “Sir, you have come from Darbhanga. I feel fortunate to serve tea to a person from my hometown. It does not look nice to charge a bill from my own people. Consider this as a compliment from my side.”


The tone of his voice and the expression on his face was so powerful that I could not refuse to accept his complimentary gift. I could not muster the courage to pay for the tea. I just gave him a hug and said goodbye to him. 

Tuesday, August 9, 2016

बुढ़ऊ की नसीहत

रात के बारह बज चुके थे। घर के सब लोग या तो सो रहे थे या सोने की तैयारी कर रहे थे। डब्बन, पिंटू, लड्डू और पप्पू की आँखों से नींद गायब थी। वे तो बस सबके सोने का इंतजार कर रहे थे। जैसे ही घर में सन्नाटा सा लगने लगा तो चारों ने एक दूसरे के मोबाइल फोन पर मिस कॉल दिया और फिर ऊपर छत पर जमा हो गये। डब्बन के हाथ में एक भारी झोला था जिसमें बीयर की ठंडी बोतलें रखी हुई थीं। पिंटू के हाथ में एक छोटा सा थैला था जिसमें नमकीन के पैकेट थे। लड्डू ने एक हाथ में चटाई पकड़ी थी और दूसरे हाथ में बर्फ से भरी थैली। सबने चटाई बिछाई और फिर नमकीन के पैकेट और बीयर की बोतलों को करीने से रख दिया। पप्पू ने अपनी जेब में से सिगरेट का पैकेट भी निकाल लिया। उसके बाद चारों ने अपनी पार्टी शुरु कर दी।

डब्बन ने बीयर का पहला घूँट लेते हुए कहा, “आह! ये तो जबरदस्त ठंडा है। सचमुच मजा आ गया।“
पिंटू ने नमकीन मुँह में डालते हुए कहा, “बहुत देर तक इंतजार करना पड़ा। आज तो लग रहा था कि कोई सोने के मूड में ही नहीं था। घर की छत पर बैठकर पीने में जो सुकून मिलता है वह और कहीं नहीं।“

लड्डू ने कहा, “हाँ, पिछली बार याद नहीं है क्या हुआ था? हम उस दुकान के पीछे वाले कूड़े के ढ़ेर पर खड़े होकर पी रहे थे कि दो पुलिस वाले आ गये थे। पाँच सौ रुपए लेने का बाद भी डंडा मार ही दिया था उसने। ऊपर से मुहल्ले में जो थू थू हुई वो अलग।“

पप्पू ने कहा, “अब हम इतने रईस तो हैं नहीं कि जाकर किसी बार में अपने शौक पूरे करें। दोगुने से भी ज्यादा पैसे ऐंठते हैं ये बार वाले। घर में पियो तो लफंगे करार कर दिये जाओ। हमारी तो कोई जिंदगी ही नहीं।“

अभी उनपर बीयर ने रंग जमाना शुरु भी नहीं किया था कि तभी जीने पर से किसी के छत पर आने की आवाज आने लगी। आनन फानन में वे सब कुछ छुपाने की जगह ही ढ़ूँढ़ रहे थे कि देखा कि उनके सत्तर वर्षीय दादाजी छत पर उदित हो गये। दादाजी तो गुस्से से काँप रहे थे। वे बोले, “अबे नालायकों, शर्म नहीं आती। शरीफों के घर में क्या कर रहे हो? तुम्हारी वजस से पूरे मुहल्ले में नाक कट जाएगी।“

अब तो चारों रंगे हाथ पकड़े गये थे। बहाने बनाने का कोई फायदा नहीं था। पप्पू ने कहा, “दादाजी, कुछ नहीं बस यूँ ही थोड़ा मन बहला रहे थे। अब गर्मी भी तो बहुत पड़ रही है।“

लड्डू ने कहा, “बीयर कोई हार्ड ड्रिंक थोड़े ही है। इतना तो चलता है।“

दादाजी ने कहा, “मैं अभी तुम्हारे बापों को जगाता हूँ। जब डंडे पड़ेंगे तो सारी गर्मी निकल जाएगी। जानता नहीं कि शराब की लत कितनी खराब होती है?

डब्बन ने कहा, “लेकिन मैने सुना है कि अपनी जवानी में तो आप भी महुआ वाली शराब ले लिया करते थे। दादी ने बताया था एक बार।“

दादाजी ने कहा, “हाँ जवानी में गलती कर दी थी। लेकिन जैसे ही अपनी भूल का पता चला, फिर सब छोड़ दिया। अब वह गलती मैं तुम्हें हरगिज नहीं करने दूँगा।“

पिंटू ने कहा, “दादाजी, कम से कम जवानी में तो हमें गलतियाँ करने का मौका दीजिये। हम भी जब आपकी तरह बूढ़े हो जाएँगे तो छोड़ देंगे।“

तभी दादाजी ने कहा, “अरे बाप रे, तुमलोग तो सिगरेट भी पी रहे हो। शर्म नहीं आती।“

लड्डू ने कहा, “और आप जो हुक्का पीते हैं तो कुछ नहीं।“

दादाजी ने कहा, “अपने दादा से बहस लड़ाता है। शर्म नहीं आती?

डब्बन ने कहा, “दादाजी, अब आप ही कोई रास्ता बताएँ। घर में पी नहीं सकते क्योंकि आपकी नाक कटती है। बार में पी नहीं सकते क्योंकि महँगी मिलती है। चौराहे पर पी नहीं सकते क्योंकि मुहल्ले की नाक कटती है। हमारी उमर के लड़के पी नहीं सकते और आपकी उमर के लोगों को पीना नहीं चाहिए। तो फिर ये दुकान वाले बेचते किसके लिये हैं? आप तो बिल्कुल नीतीश कुमार की तरह बरताव कर रहे हैं।”

फिर दादाजी ने कुछ नहीं कहा और चुपचाप वापस नीचे चले गये। 

Too Much Sales!

Achieving sales target for a particular product cannot be enough. The sales which may be enough for an over-budget performance for one guy may not be even sufficient to save the job of another guy. Sales budget is a relative thing which depends on many factors; like the company, product, territory, past performance, etc. But I can vouch about one thing. Sales budget of big companies is usually on a higher side compared to the sales budget of small companies. Sometimes, the sales budget of a medical representative (of a big company) can be way beyond the sales budget of a first line manager of a small company. Nevertheless, people celebrate in their own way whenever they meet or surpass their targets. Celebration is good for further motivation of the concerned person but it should not annoy any other person. This story is related to such incident in which a celebration for one can become an irritation for another.

I was posted at Faizabad where two other PSOs and a DM were also based along with me. Once I was sitting at a wholesaler along with my senior PSO. The senior guy was a Bengali with rudimentary knowledge of Hindi. Moreover, he was somewhat reserved in nature and seldom talked to unknown person. While we were sitting there, a young medical representative from some small company came there. He paid his due respect to our Dada and said with a sense of jubilation, “Dada! Do you know how much protein powder I have sold this month?

Dada was maintaining a poker face and said in his baritone voice, “How do I know unless you tell me?”

That guy said, “I have sold five hundred tins of our protein powder this month. Isn’t it great?”

Dada had been maintaining the same stoic face and told, “Hmm! It is good. Congrats.”

That guy was probably expecting some pat on his back or at least somewhat enthusiastic response from our Dada. Failing to get the desired response, the guy left the shop in a hurry and could be seen slowly trundling down the street.

I took that as a one off incident. But the guy kept on popping his head in the market whenever he met our Dada. Every time, he used to make same statement, “Dada! This month I have sold 300 tins of our protein powder. Dada, I have booked 20 tins of protein powder from Mishra Medical Stores. Dada, I am the regional topper for selling our protein powder.”

Every time, he got the same cold response from Dada; which was further accentuated by the cold glare which Dada gave to him through high-powered thick glasses. Since I was new in that territory, so I never made a comment. I was just playing the role of a mute spectator.

One day, the guy probably crossed the threshold of Dada’s patience. We were waiting for our turn outside the clinic of a doctor. That guy also appeared in front of us and kept his detailing bag on the bench. While we were gossiping to kill time, the guy popped his head and said, “Dada! Do you know? I have sold 600 tins of protein powder.”

Dada gave the same cold response to him, “Good! Well Done!”

The guy was probably fed up of Dada’s cold response. He said, “Dada, I have been sharing with you many good news of my performance. But you have always given me a cold response. You should have at least given me a pat on the back if not a high five. You appear to be annoyed by me.”


Dada said, “Listen you greenhorn. You cannot be my chum because of the huge age gap between us. So, don’t expect that I will hug you. Whatever you are doing is fine. You are overshooting your target and getting a good name in your company. It will boost your career. But why should I bother about your performance. I am not your friend, not your local guardian and I am not even your boss. Moreover, before jumping in joy in front of me you should have confirmed about the sales figure of Protinex. You must be aware that Protinex is our brand of protein. There are many retailers who end up selling 500 tins of Protinex in a month. Do you know my budget for Protinex? It is much higher than the budget of your second line manager. It was ok when you shared your achievements for the first time. But doing it repetitively can end up annoying anybody. Hope you will understand the reason for my cold response.”