मालूम नहीं कि इस परंपरा की शुरुआत
कैसे हुई, लेकिन पंद्रह अगस्त के दिन मेरे मुहल्ले के लगभग हर घर में
जलेबियाँ जरूर मंगवाई जाती थीं। जिस तरह से अन्य त्योहारों को हम किसी न किसी
मिठाई से मुँह मीठा करके मनाते हैं उसी तरह से हम स्वतंत्रता दिवस को भी मनाते थे।
यह दिन भी हमारे लिये किसी त्योहार जैसा ही होता है। कई लोग पंद्रह अगस्त के दिन
देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत होते हैं इसलिए उन्हें यह दिन त्योहार जैसा लगता है।
कई लोगों को यह दिन तभी त्योहार जैसा लगता है जब यह सोमवार को पड़ जाये जैसा कि इस
साल हुआ है। इससे तीन दिनों की लगातार छुट्टी मिल जाती है। तीन दिन की छुट्टी में
बहुत कुछ करने को मिल जाता है। कुछ लोगों ने तो शुक्रवार को ही काम से लौटते समय
व्हिस्की या बीयर का इंतजाम कर लिया होगा ताकि ड्राई डे के दिन भी मजे ले सकें।
फिर शनिवार से लेकर सोमवार तक तरह तरह के भोजन का दौर चला होगा। जैसे शनिवार को
मैं शाम में चिकन लेकर आ गया ताकि तवा चिकन के साथ पराठे के मजे ले सकूँ। रविवार
को मैं मछली लेकर आ गया और फिर ठेठ बंगाली स्टाइल में सरसों वाली मछली बनाई गई। अब
दो दिन नॉन-वेज खाने के कारण यह तय किया गया कि सोमवार को वेज बनेगा। उस दिन कुछ
दोस्तों और रिश्तेदारों के आने की भी संभावना थी। तो सोमवार को चाइनीज बनाया गया।
मैं और मेरी पत्नी ने मिलकर नूडल, फ्राइड राइस और वेज
मंचूरियन बनाया। साथ में चिंग के सूप मिक्स से लजीज सूप भी बना लिया। लेकिन उसके
पहले सबकी फरमाइश हुई जलेबी खाने की। ऐसा सुनकर मुझे मेरा बचपन याद आ गया। अब
देखिये कि जलेबी लाने में मुझे कितनी मेहनत करनी पड़ी।
मैं इस शहर में नया हूँ इसलिए मुझे यहाँ के बाजार के बारे
में बहुत कुछ पता नहीं है। यहाँ के बाजारों की तंग गलियों में कार पार्किंग की जगह
नहीं होती और कार चलाना बहुत ही मुश्किल साबित होता है। इसलिए मैंने अपनी पुरानी
बाइक निकाली और उसे धो पोंछकर तैयार किया। काफी मान मनौवल के बाद मेरी पुरानी
मोटरसाइकिल स्टार्ट हो गई और चलने के लिए तैयार भी हो गई। मेरे एक रिश्तेदार पिछली
सीट पर बैठ गये। फिर अपने थोड़े बहुत अनुभव के आधार पर हमलोग शास्त्री नगर नाम के
इलाके में पहुँचे। यह इलाका मेरे मकान से कोई चार किलोमीटर दूर है। उस इलाके के
बाजार में काफी देर घूमने पर भी कोई भी ऐसा हलवाई नहीं मिला जो जलेबियाँ बना रहा
हो। सबके पास पहले से बनी हुई छेने और खोए की मिठाइयाँ रखी हुई थीं। मुझे तो ताजी
जलेबियों की जरूरत थी इसलिए हमने कहीं और कोशिश करने की सोची।
उसके बाद हम एक दूसरे इलाके में गये जिसका नाम है नेहरू
नगर। यह इस शहर के पॉश इलाकों में से एक है इसलिए यहाँ की मिठाई की दुकानें ज्यादा
भव्य नजर आ रहीं थीं। ज्यादातर दुकानों में वही बर्फी और लड्डू नजर आ रहे थे। कुछ
के यहाँ बाहर रखे चूल्हे पर चाउमिन बन रहा था जिसे एक खास उम्र के लोग बड़े चाव से
खा रहे थे। एक छोटी सी दुकान में ब्रेड पकौड़ा मिल रहा था जो दिल्ली और उसके आस पास
के इलाकों में लगभग हर जगह मिल जाता है। इसके अलावा केक, पेस्ट्री,
डोनट, बर्गर और पिज्जा की दुकानें भी थीं
लेकिन जलेबी की दुकान एक भी नहीं मिली। हाँ एक जगह कुछ अजीब नजारा देखने को जरूर
मिला।
मैक डॉनल्ड की दुकान के पास ही एक ठेले पर भी बर्गर बिक रहा
था। ठेले की छत पर लगे बोर्ड पर लिखा था ‘गुप्ता जी का मशहूर हॉट डॉग बर्गर’। उस ठेले के पास एक मेरी ही उम्र के सज्जन खड़े थे जिन्हें कई बच्चों ने
घेर रखा था। बच्चों की उम्र दस से लेकर पंद्रह साल तक रही होगी। सभी बच्चे एक सुर
में चिल्ला रहे थे, “ताऊ जी, हम इस
ठेले वाले का बर्गर नहीं खाएँगे। हमें तो मैक डॉनल्ड का बर्गर खाना है।“
उन बच्चों के ताऊ जी ने कहा, “नहीं बेटा, आज स्वतंत्रता दिवस है। आज हम आजादी की सत्तरवीं सालगिरह मना रहे हैं। आज
के दिन यदि हमने किसी विदेशी कंपनी का बर्गर खाया तो गाँधी जी की आत्मा को ठेस
पहुँचेगी। इसलिए आज के दिन हम गुप्ता जी का बर्गर ही खाएँगे।“
यह सुनकर वे बच्चे चुप हो गये। उन्हें लगा होगा कि उनके ताऊ
जी ने कोई बहुत बड़ी बात कह दी थी। या उन्हें अपने कंजूस ताऊ जी पर पूरा भरोसा होगा
कि उतने बच्चों को लेकर वे मैक डॉनल्ड जाने की हिम्मत नहीं रखते होंगे। ठीक कारण
तो मुझे नहीं मालूम लेकिन उन बच्चों ने गुप्ता जी के बर्गर खाने में ही अपनी भलाई
समझी।
वहीं पर किसी ने बताया कि हमें घंटाघर के पास जाना चाहिए।
घंटाघर इस शहर का पुराना इलाका है जहाँ बहुत पुरानी दुकानें भी हैं। मैंने अपनी
बाइक घंटाघर की ओर मोड़ दी। घंटाघर मेरे मकान से लगभग दस किलोमीटर दूर है। घंटाघर
पहुँच कर किसी भी छोटे शहर के पुराने मुहल्ले और बाजार की महक आ रही थी। पतली सी
गली में मोटरसाइकिल और रिक्शों से ही जाम लगा हुआ था। गली की दोनों तरफ लगभग हर
किस्म की दुकानें दिख रहीं थीं; जैसे कि पतंग वाला, कपड़े
वाला, फल वाला, गहने वाला, बर्तन वाला, सब्जी वाला, खिलौने
वाला, किराने वाला, आदि। लगभग दो सौ
मीटर जाने के बाद मुझे अपनी बाँई ओर एक बोर्ड दिखा जिसपर लिखा था, ‘लालाराम हलवाई’। उसके नीचे वाली लाइन में लिखा था ‘जलेबी वाले’। फिर क्या था, मेरी
बाइक अपने आप रुक गई।
वह एक छोटी सी दुकान थी। आगे एक छ: फुट लंबी मेज लगी थी
जिसके नीचे कई खाने बने थे। ऊपर के खाने में मिठाईयाँ रखी थीं। बीच वाले खाने में
मठरी और नीचे वाले खाने में सेव और सुहाल। आगे से मोटा सा ग्लास लगा था ताकि
मक्खियाँ और धूल न जाने पाएँ। उस काउंटर के पीछे एक पतले दुबले सेठ जी बैठे थे। वे
एक गद्दे पर बैठे थे जिसपर सफेद कवर चढ़ा था। सेठ जी ने सफेद पजामा कुर्ता और टोपी
पहनी हुई थी। माथे पर चावल और रोली का तिलक लगा हुआ था। सेठ जी के पीछे एक ताखे पर
गणेश जी और लक्ष्मी जी की मूर्ति रखी थी जिसके ऊपर एक लाल रंग का जीरो वाट का बल्ब
जल रहा था। सेठ जी के आगे एक स्टोव जल रहा था जिसपर जलेबी तलने वाली कड़ाही चढ़ी थी।
उस कड़ाही को देखकर मैं और भी आश्वस्त हो गया और सेठ जी से पूछा, “भाई
साहब जलेबियाँ मिल जाएँगी?”
सेठ जी ने कहा, “हाँ हाँ, लेकिन आपको
थोड़ी देर बैठना पड़ेगा।“
मैं वहीं पास रखी बेंच पर बैठ गया और उनसे एक किलो जलेबियाँ
बनाने को बोला। जब वे बड़े प्यार से जलेबियाँ तल रहे थे तो मैंने कहा, “क्या
बताऊँ भाई साहब। जलेबियों की तलाश में बड़ी दूर से आ रहा हूँ। बीच में कई बाजारों
में पता किया लेकिन जलेबियाँ कहीं नहीं मिलीं।“
सेठ जी ने मुसकराते हुए कहा, “अजी साहब, आजकल जलेबियाँ बिकती ही नहीं। जिसे देखो वही नए जमाने की डिश खा रहा है।
आजकल के बच्चों को तो बर्गर और पिज्जा चाहिए। वो रोज रोज तो नहीं खा सकते इसलिए
पैकेट वाले चिप्स से ही काम चला लेते हैं।“
मैंने कहा, “ज्यादातर दुकान वाले न तो अब अच्छी
जलेबियाँ बनाते हैं और न ही समोसे। उनसे तेल की अजीब सी महक आती है। अब तो बहुत कम
ही दुकानों से आप भरोसा कर के ऐसी चीजें खरीद सकते हैं।“
सेठ जी ने हामी भरते हुए कहा, “ठीक कह रहे हैं। लेकिन मेरी
जलेबियाँ आप आँखें मूंद कर ले जाइए। मेरा दावा है कि आप दोबारा भी मेरे पास ही आएँगे।“
मैंने कहा, “वह तो आपकी दुकान देखकर ही पता चलता है। फिर
आप जितने प्यार से इन्हें तल रहे हैं उससे भी पता चलता है।“
सेठ जी ने कहा, “वो दिन दूर नहीं जब जलेबियाँ मिलनी बंद हो
जाएँगी।“
मैंने कहा, “हाँ, अब आज को ही लीजिए।
जलेबियाँ खरीदने के लिए मुझे अपने घर से दस किलोमीटर आना पड़ा।“
जलेबियाँ मिल जाने के बाद मैने अपनी मोटरसाइकिल स्टार्ट की और
अपने रिश्तेदार से पीछे बैठने को कहा। जैसे ही हम उस गली से मेन रोड पर आये तो सुबह
से पहली बार ऐसा माहौल देखने को मिला जिससे लगे कि पंद्रह अगस्त को मनाया जा रहा है।
अभी तक पूरे रास्ते में मुझे पंद्रह अगस्त के नाम पर कुछ मोटरसाइकिल और स्कूटर पर छोटे-छोटे
झंडे दिखाई दिए थे। कुछ बड़ी कारों से फुल वाल्युम में फिल्मी गाने बजते जरूर सुनाई
दिये थे। लेकिन इसके अलावा कहीं भी वह जोश या माहौल नहीं दिखा जिससे लगे कि कोई उत्सव
हो रहा हो। मेरे आगे-आगे दो ट्रक चल रहे थे। उन ट्रकों के पीछे कुछ नवयुवक और किशोर
लड़के लदे हुए थे। दोनों ट्रकों पर एक बड़े से डंडे के ऊपर एक बड़ा सा झंडा लहरा रहा था
जिसे वे इधर उधर हिला रहे थे। ट्रकों पर बहुत बड़े-बड़े स्पीकर भी लदे हुए थे जिनसे कानफोड़ू
संगीत बज रहा था। ज्यादातर गाने हाल के दशकों की फिल्मों से थे। इन गानों में देशभक्ति
का थोड़ा बहुत पुट था। सबसे बड़ी बात ये थी कि इन गानों के बीट और स्टाइल आधुनिक युवकों
के टेस्ट से मेल खा रहे थे। उन गानों पर सभी लड़के इस तरह से डांस कर रहे थे जैसे माइकल
जैक्सन को भी पीछे छोड़ दें। बीच बीच में देश के सम्मान में नारेबाजी भी हो रही थी।
उन ट्रकों के पीछे-पीछे लंबा जाम लगा हुआ था। अगले चौराहे तक की दूरी तय करने में मुझे
लगभग आधा घंटा लग गया। उन ट्रकों को चौराहे पर से दाहिने मुड़ते देखकर मैने राहत की
सांस ली क्योंकि मुझे बाईं ओर जाना था।
जब जलेबियाँ लेकर मैं अपने घर पहुँचा तो मेरी पत्नी ने एक बड़ी सी थाली में जलेबियाँ परोस दी। उन जलेबियों को केवल वही लोग हाथ लगा रहे थे जिनकी उम्र पैंतीस से अधिक थी। पचास से अधिक उम्र के कुछ लोगों ने डायबिटीज होने के बावजूद जलेबियाँ उठा ली। लेकिन तीस से नीचे के किसी ने भी जलेबियों को छुआ तक नहीं। उनका कहना था कि टेस्टी चाइनीज फूड खाने से पहले वे अपने मुँह का स्वाद बिगाड़ना नहीं चाहते थे।
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