यह बात 1997 के आस पास की होगी।
मैं उस समय बहराइच में काम करता था। मुझे उस शहर में आये हुए कुछ ही महीने हुए थे।
वह एक छोटा सा शहर है इसलिए शहर में घूमते फिरते कई लोगों से जान पहचान होना लाजिमी
था। इसी तरह एक सीनियर मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव से मेरी जान पहचान हुई। वह बिहार के मुजफ्फरपुर
शहर से आते थे। एक बिहारी होने के नाते मुझे उस आदमी से थोड़ा अपनापन सा महसूस हुआ इसलिए
हमलोग जब भी कभी मिलते तो रास्ते में रुककर ही थोड़ी देर के लिए इधर उधर की बातें कर
लिया करते थे। वह किसी ऐसी कम्पनी में काम करते थे जो एक सरकारी कम्पनी थी।
एक बार
उन्होंने बताया, “मेरी हालत बहुत खराब है। मुझे पिछले दो साल से सैलरी नहीं मिली है। मेरी बीबी एक प्राइवेट स्कूल में
पढ़ाती है और मैं कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता हूँ। तब जाकर बड़ी मुश्किल से घर का खर्चा
चल पाता है। अब तो बच्चे भी बड़े हो रहे हैं जिससे हमारे खर्चे बढ़ रहे हैं। समझ में
नहीं आता क्या करूँ।“
मैने उनसे सहानुभूति दिखाते हुए कहा, “ये तो
बड़ी गंभीर समस्या है। लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आ रहा है कि जब आपको पिछले दो सालों
से सैलरी नहीं मिली है तो आप ये नौकरी छोड़ क्यों नहीं देते। कोई भी दूसरी कम्पनी ज्वाइन
कर लीजिए। कम से कम परिवार चलाने लायक आमदनी तो होने लगेगी।“
इसपर उन सज्जन ने जवाब दिया, “तुम नहीं समझोगे। अभी तुम्हारी
उमर कम है और तुम कुँवारे भी हो। मैं किसी भी कीमत पर एक सरकारी कम्पनी की नौकरी नहीं
छोड़ना चाहता हूँ। सरकारी नौकरी की अपनी ही शान है।“
मैने कहा, “क्या बात करते हैं? ऐसी
झूठी शान को लेकर क्या करना जिससे आपके अस्तित्व पर ही खतरा हो।“
फिर उन्होंने कहा, “पैसों की कमी के कारण मैं ठीक से काम भी नहीं
कर पाता हूँ। तुम यदि मेरी मदद करना चाहते हो तो कभी कभी किसी इंटीरियर जाते समय मुझे
भी साथ ले लेना ताकि मैं भी वहाँ कुछ काम कर पाऊँ। सुना है कि तुम बड़ा ही बढ़िया काम
कर रहे हो।“
उसके कुछ दिनों बाद मैं पास के एक बाजार नानपारा जाने वाला था।
संयोग से शाम में बाजार में टहलते समय उनसे मुलाकात हुई और मैंने कहा, “भैया,
कल मुझे नानपारा जाना है। यदि आप चाहें तो मेरे साथ चल सकते हैं। सुबह
आठ बजे तैयार होकर अपने दरवाजे के पास खड़े रहियेगा। मैं आपको वहीं से ले लूँगा।“
उन्होंने हामी भर दी और मैं खाना खाने के लिए पास के ही एक ढ़ाबे
में चला गया। खाना खाकर मैं अपने घर गया और अगले दिन के काम के लिए अपने बैग में जरूरी
सामान रख लिया। अगले दिन सुबह आठ बजे मैं जब उनके घर के पास पहुँचा तो वे दिखे ही नहीं।
खैर, दरवाजे पर थोड़ी देर तक दस्तक देने के बाद वे आये, मुझसे
देरी के लिए माफी माँगी और मेरी बाइक की पिछली सीट पर बैठ गये। उनकी गली से निकलकर
मैं मेन रोड पर आया और दाहिने मुड़ गया। उसके बाद छावनी चौराहे से मैं बाँए मुड़ने लगा।
जैसे ही मेरी बाइक बाईं ओर चलने लगी वे पीछे से जोर से चिल्लाए, “अरे इधर किधर जा रहे हो? तुम तो बता रहे थे कि नानपारा
जाना है।“
मैने जवाब दिया, “मैं पिछले पाँच महीनों से लगातार नानपारा जा
रहा हूँ। जहाँ तक मुझे पता है यही रास्ता नानपारा को जाता है। आप आराम से बैठिये।“
उन्होंने थोड़ी देर तक मुझसे नानपारा के सही रास्ते के बारे में
बहस लड़ाने की कोशिश की। लेकिन जैसे ही हाइवे आया तो मेरी रफ्तार तेज हो गई और तेज हवा
चलने के कारण हमारी कोई बातचीत संभव नहीं थी। लगभग आधे घंटे चलने के बाद हम नानपारा
पहुँच गये। नानपारा पहुँचते ही मैने एक चाय की दुकान के पास बाइक रोकी और उनसे उतरने
को कहा। जब हम वहाँ बैठकर चाय पी रहे थे तो उन्होंने कहा, “तुम तो
यहाँ के रास्तों से कम ही समय में भली भाँति परिचित हो गये हो। दरअसल मुझे नानपारा
आये हुए एक लंबा अरसा बीत गया इसलिए क्न्फ्यूजन था।“
मुझे बड़ा गुस्सा आ रहा था। मैने कहा, “अब मेरी
समझ में आ गया कि आपकी कम्पनी दो साल से सैलरी क्यों नहीं दे रही है। आप यहाँ पर पिछले
दो तीन साल से काम कर रहे हैं फिर भी आपको नानपारा जैसे अहम बाजार का रास्ता नहीं मालूम
है। आप कोई दूसरी कम्पनी भी ज्वाइन कर लेंगे तो वहाँ भी आपकी सैलरी बंद कर दी जाएगी।
आपके लिए बेहतर होगा कि वापस मुजफ्फरपुर जाकर वहीं ट्यूशन पढ़ाने का काम शुरु कर दें।“
जवाब में उन सज्जन ने कुछ नहीं कहा। बस चुप चाप चाय की चुस्कियाँ
लेते रहे।