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Tuesday, June 14, 2016

Karishma Kapoor’s Divorce

The newspaper headline is screaming, “Karishma Kapoor finally gets divorce”. The article also claims that she gets the custody of her children as bonus. Most of the people would go gaga at this development. Twitterati would celebrate this as a great achievement for the liberation of woman. A disturbing trend has been developing in recent years. Many gossip columns and TV channels began celebrating at the slightest whiff of divorce rumours about any celebrity couple. It was not long ago that there were celebrations on rumours of a break up between Malaika Arora and Arbaaz Khan; as if the vulture-eyed media derives some sort of sadistic pleasure at imminent or sudden break ups. If you will search in your memory bank; you can get an endless list of such news items. For example; break up of Amir Khan and Rina Khan, possible break up of Shahrukh Khan and Gauri Khan, break up of Farhan Akhtar and his wife, ……………you can go on and on.

Many gossip columns, reality shows and TV programmes (which come as fill ins in the absence of real news); always try to project such happenings as something worthy of celebration. Marriage is considered to be the oldest institution which survives so many tumultuous years because of mutual trust and respect for each other’s space. Sometimes, both the partners also learn to concede defeat in order to put their personal egos aside so that a larger cause of raising the family and strengthening the society can be pursued. In fact, the country which idolizes a Prime Minister who has to accept the existence of his estranged wife should only be expected to react on these lines.


I do not know how does the celebrity wife; or husband; feel after separation. Probably, they are too busy in their professional life that they may easily cope with the situation. Or probably, absence of financial insecurity may be helping them to tide over the mental agony. Have you ever thought about the poor mortals who may have suffered such setbacks in life? If you will carefully browse through the numerous matrimonial ads, you will discover that this trend is fast catching up even in the middle classes. There can be numerous ads seeking bride or groom for divorced and issueless men and women. There can be many cases in which the woman is duly returned to her parents’ house after the formal nuptials are over. Reasons can be of many hues; like lack of adipose tissues at adequate places, or lack of desirable goods in the dowry list, or even lack of potency on the man’s part. In almost all of the cases, it is the woman who has to face the ire from every member of her family and the society. The ‘Simran’; in this case; is no longer expected to live a life on her own terms. As it is a man’s world, the estranged man may easily get a second chance to reboot his life. But in most of the cases, the woman has to fight a long and weary battle for survival. 

Monday, June 13, 2016

नीलगाय का आतंक

संजय सड़क के नीचे गिरा पड़ा था। वह दर्द से कराह रहा था। पास में ही उसकी मोटरसाइकिल गिरी हुई थी। संजय की उम्र 25 से 28 के बीच रही होगी। उसके कपड़ों को देखकर लग रहा था कि वह किसी शहर का रहने वाला था। उसने काली फुलपैंट और सफेद शर्ट पहन रखी थी। शर्ट करीने से पैंट के अंदर की हुई थी। ऊपर से चमड़े का बेल्ट; जिसपर चमचमाती बकल लगी थी: अपनी जगह दुरुस्त थी। हेल्मेट अभी भी सिर के ऊपर ही था। शायद हेल्मेट के कारण ही उसे कोई गंभीर चोट नहीं आई थी और वह अपने पूरे होशो हवास में था। उसकी मोटरसाइकिल से थोड़ी दूर पर एक चमड़े का बड़ा सा बैग गिरा हुआ था। पास से दौड़कर आए गाँववालों में से एक ने जब उसके बैग को देखा तो सहसा चिल्ला पड़ा, “अरे ये तो कोई एमआर लगता है। इस तरह की मोटी चमड़ी वाले बैग तो एमआर लोग ही लेकर चलते हैं। देखो तो बेचारे को कितनी चोट लगी है।“

आपकी जानकारी के लिए यह बताना जरूरी होगा कि मेडिकल सेल्स रिप्रेजेंटेटिव को हिंदी बेल्ट के लोग प्यार से एमआर कहकर बुलाते हैं। ऐसा शायद उच्चारण की सहूलियत के लिए किया जाता है या भाषा की अपभ्रंशता के कारण।

एक दूसरे गाँव वाले ने पूछा, “और भैया! लगता है नई बाइक पर बिल्कुल आँधी तूफान की तरह चल रहे थे। तभी तो इस तरह रपटा गए।“

संजय ने कराहते हुए जवाब दिया, “अरे नहीं भैया, मैं ज्यादा स्पीड से नहीं चल रहा था। यही कोई पचास की स्पीड होगी।“

इसपर उस ग्रामीण ने पूछा, “तो फिर कैसे गिर गए? किसी भूत ने पटक दिया?”
संजय ने कहा, “अरे नहीं, मैं तो आराम से ही जा रहा था। तभी अचानक से एक नीलगाय बीच सड़क पर आ गई। मैं जब तक ब्रेक लगाता, उससे टकरा गया और गिर पड़ा।“

ऐसा सुनकर एक अन्य व्यक्ति ने कहा, “अरे मत पूछो। इन नीलगायों ने तो जीना हराम कर रखा है। पिछले साल तो मेरे चाचा को एक नीलगाय ने इतनी जबरदस्त लथाड़ मारी थी कि बेचारे फौरन स्वर्ग सिधार गए।“

एक अधेड़ से दिखने वाले आदमी ने कहा, “भैया, हम तो इनसे तंग आ चुके हैं। हर साल नीलगायों से हमारी फसलों को भारी नुकसान पहुँचता है। इसपर तो सरकार कोई मुआवजा भी नहीं देती। अभी हाल ही में अखबार में पढ़ा था कि किसी मंत्री ने नीलगायों को मारने की अनुमति देने की बात की थी। लेकिन एक अन्य मंत्री ने उसपर अपना वीटो लगा दिया। बोलने लगीं कि जानवरों को मारने से पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है। अरे जब गरीब किसान ही नहीं बचेगा तो फिर पर्यावरण बचाकर क्या मिलेगा?

तभी वहाँ पर उस गाँव के प्रधान भी आ गए। वे पास से ही गुजर रहे थे कि छोटी मोटी भीड़ को इकट्ठा देखकर अपनी जिज्ञासा शाँत करने आ पहुँचे। प्रधान का गेटअप बिलकुल माहिर नेता की तरह लग रहा था। सफेद कुर्ता पायजामा; जिसपर लगता था कि हर दो घंटे पर स्टार्च चढ़ाया जाता हो। पाँव में सफेद जूते और कँधे पर नीली चेक वाला सफेद गमझा। उनकी तलवार छाप रोबीली मूँछों को देखकर उस इलाके में उनके दबदबे का थोड़ा बहुत अंदाजा तो हो ही जाता था। प्रधान जी ने अपनी कड़कती आवाज में आदेश जैसा दिया, “सब अपना ही रोना रोओगे या इस लड़के को लेकर अस्पताल भी जाओगे।“

प्रधान जी की बात सुनते ही, दो लड़कों ने लपककर एक खटिया ले आई। फिर संजय को उस खटिया पर लादा गया और लोग अस्पताल की ओर चल दिए। एक युवक संजय की मोटरसाइकिल को खींचते हुए साथ में चल रहा था। एक अन्य व्यक्ति संजय का बैग टाँगे चल रहा था।
जैसे ही वे अस्पताल पहुँचे तो वहाँ के डॉक्टर ने संजय को देखते ही कहा, “अरे संजय जी आप! लगता है आप भी नीलगाय की चपेट में आ गए। भगवान का शुक्रिया अदा करो कि कोई गंभीर चोट नहीं आई। पिछले साल तो एक नीलगाय की वजह से मेरी टाँग टूट गई थी। पता नहीं इनका क्या इलाज है।“

डॉक्टर संजय की मरहम पट्टी करने लगा। इस बीच अन्य लोग आपस में खुसर पुसर कर रहे थे। फसल की कटाई के बाद वैसे भी उनके पास कोई खास काम तो था नहीं। वहीं पास में एक महिला भी बैठी थी। उसके मैले कुचैले कपड़ों को देखकर लग रहा था कि वह ऐसे परिवार से आती थी जिनके पास अपनी जमीन नहीं होती है। ऐसे लोग बड़े किसानों के खेतों में काम करके अपना गुजारा करते हैं। इनमें से कुछ लोग थोड़े बहुत मवेशी भी पाल लेते हैं ताकि कुछ आमदनी हो जाए। उस महिला ने मामले को समझने के बाद कहा, “अरे साहब, ये जंगली जानवर तो हम गरीबों को कुछ ज्यादा ही परेशान करते हैं। अभी इसी फागुन की बात है। एक तेंदुए ने मेरी बकरी चुरा ली। उस बकरी के जाने के बाद तो मेरी कमर ही टूट गई। दूध बेचकर जो भी थोड़ी बहुत कमाई होती थी, चली गई। अब तो किसी भी तरह दो जून की रोटी जुड़ जाए काफी है।“

उसकी बात सुनकर प्रधान ने कहा, “तुम ब्लॉक ऑफिस क्यों नहीं जाती? तुम्हें तो मुआवजे की माँग करनी चाहिए। आजकल दलितों की बात तो हर अफसर और मंत्री सुनता है।“
उस महिला ने जवाब दिया, “गई थी। लेकिन वहाँ के बाबू ने कहा कि तेंदुओं को सरकार की तरफ से संरक्षण मिला हुआ है। इसलिए कोई मुआवजा नहीं मिलेगा।“


एक अधेड़ से दिखने वाले व्यक्ति ने कहा, “हाँ भैया, जमाना बदल गया है। इंसानों को कोई संरक्षण नहीं लेकिन जानवरों को पूरा संरक्षण। अरे पिछले साल जब मैंने एक पागल कुत्ते को जान से मार दिया था पता नहीं कैसे किसी ने उसका वीडियो बनाकर इंटरनेट पर डाल दिया। फिर क्या था, दिल्ली से कुछ ऐसे लोग आ धमके जो अपने आप को आवारा कुत्तों के हितैषी बताते थे। लगभग एक महीने तक उन्होंने और टीवी चैनल वालों ने तो मेरा जीना हराम कर दिया था। अपनी जान बचाने के लिए मैं तो केदारनाथ भाग गया था।“ 

Thursday, June 9, 2016

आइआइटी में एडमिशन

सुबह सुबह दरवाजे की घंटी बजी। जब दरवाजा खोला तो सामने सिन्हा जी खड़े थे। उनके चेहरे पर इतनी खिली हुई मुसकान थी कि तंबाकू से काले पड़े हुए उनके दाँत बस कभी भी बाहर गिरने को बेताब लग रहे थे। मैंने उन्हें नमस्ते कहकर बैठने के लिए कहा तो उन्होंने कहा, “नहीं! नहीं! बड़ी जल्दी में हूँ। बस आपको निमंत्रण देने आया था। आज शाम में मेरे यहाँ सत्यनारायण भगवान की पूजा है और फिर उसके बाद प्रीतिभोज भी है। और जगह भी जाना है, निमंत्रण देने।“
“अरे वाह! लगता है कोई खास खुशखबरी है। तभी आप इतने बड़े अनुष्ठान का आयोजन करवा रहे हैं।“ मैंने पूछा।
सिन्हा जी ने खीसें निपोरते हुए कहा, “हाँ! हाँ! वो बात ऐसी है कि मेरे दोनों लड़कों का सेलेक्शन आइआइटी के लिए हो गया है। बहुत दिनों से मन्नत माँग रखी थी। इसलिए पूजा करवा रहा हूँ। पूरे परिवार के साथ आइएगा।“
सिन्हा जी तो अपना निमंत्रण देकर निकल लिए। लेकिन उनके जाने के बाद मैं सोच में पड़ गया कि आइआइटी के एंट्रेंस एग्जाम का रिजल्ट तो जून के महीने में आता है और अभी फरवरी के महीने में ही उनके लड़कों ने उस कंपिटीशन को कैसे निकाल लिया। बहरहाल, जब मैंने अपनी पत्नी से इस बात की चर्चा की तो वह उल्टा मुझपर ही भड़क पड़ी।
मेरी पत्नी ने कहा, “आपको तो बिना वजह किसी पर शक करने की आदत है। अपनी रिचा पर तो ध्यान ही नहीं देते। कहते हैं कि इंजीनियर नहीं बनेगी तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। अरे आज के जमाने में कोई इंजीनियर नहीं बनेगा तो फिर उसका जीवन तो व्यर्थ ही हो जाएगा। मुझे तो आजकल मुहल्ले के पार्क में भी जाने में हीन भावना सी लगती है। सबके बच्चे इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहे हैं। केवल मेरी ही बेटी इस सुख से मरहूम है।“
शाम होते ही मैं अपनी पत्नी और बेटी के साथ सिन्हा जी के घर पहुँच गया। बाहर का माहौल देखकर लग रहा था कि सिन्हा जी ने भव्य आयोजन किया था। बड़ा सा शामियाना लगा हुआ था। करीने से कुर्सियाँ लगी थीं जिनपर सफेद कपड़े मढ़े हुए थे। बीच में पूजा का हवन कुंड सजा हुआ था; जहाँ पर सिन्हा जी; अपनी पत्नी के साथ गठबंधन किए हुए पूजा के आसन पर विराजमान थे। पंडित जी पूरी तन्मयता के साथ मंत्र पढ़ा रहे थे। उसी बीच में सिन्हा जी सभी आने जाने वालों की तरफ नजरें उठाकर उनका अभिवादन भी स्वीकार कर रहे थे। सिन्हा जी के दोनों लड़कों ने नई शेरवानी पहन रखी थी; जैसे कि किसी की शादी में आए हों। शामियाने के पीछे से एक से एक व्यंजनों के पकने की खुशबू भी आ रही थी। मैंने सही जगह देखकर एक कुर्सी हथिया ली। मेरी पत्नी और बेटी महिलाओं के ग्रुप में चली गईं। मेरी बगल में वर्मा जी बैठे थे। पास में मेहता साहब, गुप्ता जी, मिश्रा जी, ठाकुर जी, आदि लोग बैठे थे। सब आपस में खुसर पुसर कर रहे थे। मैं भी उनकी बातों में शामिल हो गया।
मिश्रा जी ने बगल में पान की पीक फेंकते हुए कहा, “मेरी समझ में ये नहीं आ रहा है कि फरवरी के महीने में आइआइटी के एंट्रेंस एग्जाम के रिजल्ट कब से आने लगे। अरे मेरा बेटा तो पहले से ही पटना के एनआइआइटी में पढ़ रहा है। उसे भी यही टेस्ट निकालना पड़ा था।“
गुप्ता जी बीच में बोल पड़े, “अरे भाई साहब, सिन्हा जी का कोई भरोसा नहीं है। इनकी पहुँच बहुत ऊपर तक है। इनके जैसा शातिर आदमी कुछ भी कर सकता है। देखते नहीं, कैसे पिछले दस सालों से ऑफिस में एक ही टेबल को पकड़े हुए हैं; जहाँ से गाढ़ी कमाई होती है।“
ठाकुर जी अपनी बाइक की चाबी से अपने कान खुजा रहे थे। उन्होंने कहा, “अरे नहीं, मेरा बेटा तो आइआइटी खड़गपुर में ही पढ़ता है। उसके एंट्रेंस एग्जाम में कोई बेइमानी नहीं होती है। फिर चाहे सिन्हा जी हों या फिर उनके आका। मुझे तो लगता है कि इन्होंने इंस्टिच्यूट के नाम में एकाध आइगायब कर दिए होंगे। अब भला अन्य लोगों को कैसे बताएँ कि उनका बेटा आइआइटी में जाने से रह गया। यहाँ क्या है, लोग आएँगे, खाना खाएँगे और फिर सब अपनी जिंदगी में मशगूल हो जाएँगे। फिर किसे फुरसत है ये जानने की कि सिन्हा जी का बेटा कहाँ से इंजीनियरिंग कर रहा है।“
तभी पंडित जी की आवाज गूँजी, “अब सत्यनारायण भगवान की पूजा समाप्त हुई। बोलिए श्री सत्यनारायण भगवान की जय!”
सब लोग एक सुर में बोल उठे, “जय!”
उसके बाद आरती हुई। सभी लोगों ने खड़े होकर आरती को उचित सम्मान दिया। फिर प्रसाद वितरण के बाद लोग बुफे के लिए लगी हुई मेजों की तरफ टूट पड़े। जब खाने की प्लेटों को भरने का युद्ध कुछ शाँत हुआ तो अधिकाँश लोग फिर उसी गंभीर चर्चा में जुट गए कि आखिर सिन्हा जी ने बेमौसम पूजा और भोज का आयोजन क्यों किया। सब लोग बाल की खाल निकाल रहे थे। तभी वहाँ से ऑफिस का चपरासी जीतन जाता दिखा। कहते हैं कि किसी ऑफिस के चपरासी के पास जितनी गुप्त जानकारी होती है उतनी तो शायद कैबिनेट सेक्रेटरी के पास भी नहीं होती। हमारे आस पास खाना खा रहे लगभग सभी लोगों ने एक साथ जीतन को आवाज लगाई। जीतन फौरन वहाँ आ गया। फिर जीतन ने जो खुलासा किया उसे आप खुद ही सुन लीजिए।
जीतन ने बड़ा रहस्योद्घाटन किया, “नहीं साहब! आइआइटी में नहीं हुआ है। उसका टेस्ट तो जून में होता है। इनके लड़कों ने कोटा के किसी कोचिंग इंस्टिच्यूट में नाम लिखवाने के लिए कोई टेस्ट दिया था, उसी में पास हो गए हैं। कल ही तो ट्रेन से ये कोटा जा रहे हैं। साथ में मैं भी जा रहा हूँ। मेरा बच्चा भी वहाँ पढ़ता है। क्या है साहब, कि कोटा में जाना तो आइआइटी में जाने के बराबर है। सब लोग कहाँ भेज पाते हैं अपने बच्चे को। बड़ा खर्चा लगता है। मैंने तो अपनी पूरी जमीन बेच दी अपने बच्चे को कोटा भेजने में। खैर, मेरा क्या है। मेरे बच्चे को तो रिजर्वेशन मिलेगा; इसलिए आइआइटी की पढ़ाई में कोई फीस नहीं देनी पड़ेगी। इसलिए कोटा में ही सारे पैसे लगा दिए। मेरे बेटे को तो आइआइटी में जाने से अब कोई नहीं रोक सकता। लेकिन सिन्हा जी के बेटों को तो रिजर्वेशन मिलने से रहा। अब देखते हैं, आगे क्या होता है।“

भोज समाप्त होने के बाद सिन्हा जी से विदा लेकर हम अपने घर की ओर लौट चले। रास्ते भर मेरी पत्नी मुझे धिक्कारती रही। उसे लगता है कि मेरी वजह से पूरे मुहल्ले में उसकी नाक कट गई है। मैं अपनी बिटिया को वही बनाना चाहता हूँ जो वो चाहती है। मैं उसपर कोई भी दवाब नहीं डालना चाहता हूँ। 

Monday, June 6, 2016

क्या आप अखबार पढ़ते हैं?

आपके यहाँ अखबार तो आता ही होगा। हममें से अधिकतर लोगों के घरों में अखबार आता है। मैं जिस बिल्डिंग में रहता हूँ, वहाँ भी अधिकांश लोगों के घरों में अखबार आता है। कुछ मुहल्लों में अखबार वाले नीचे से ही अखबार को चौथी मंजिल तक पहुँचा देते हैं। उनका निशाना कमाल का होता है। इस काम में माहिर लड़के शायद ही कभी चूकते हैं। हाँ कभी कभी नए रंगरूटों को मैंने देखा है कि कई बार कोशिश करने के बाद ही वे अखबार को सही जगह तक पहुँचा पाते हैं। जब तक अखबार आपकी पकड़ में आता है तब तक वह कीचड़ से लथपथ हो चुका होता है। ऐसे में अखबार को पढ़ने का क्या, छूने तक का मन नहीं करता है। मेरी बिल्डिंग में इसकी कोई परेशानी नहीं है, क्योंकि इसमें बीस-बीस मंजिले टावर हैं। अखबार वाला अपना भारी बैग लेकर लिफ्ट से सबसे ऊपरी मंजिल तक पहुँच जाता है और फिर हर फ्लैट के दरवाजे के आगे निश्चित अखबार डालकर चला जाता है। मेरे जैसे कुछ लोग जैसे उसके इंतजार में ही रहते हैं और फौरन दरवाजा खोलकर अखबार उठाकर उसका उपभोग शुरु कर देते हैं; जैसे उसके बिना पेट ही नहीं भरता। मैं जिस मंजिल पर हूँ उसपर आठ फ्लैट हैं। मैंने गौर किया है कि एक फ्लैट में एक रिटायर्ड सज्जन रहते हैं जो मेरी तरह ही अखबार वाले का इंतजार करते रहते हैं। बाकी के लोगों को लगता है कि टीवी या मोबाइल पर हेडलाइन पता चल गई फिर अखबार पढ़ने की क्या ज्ल्दबाजी है। बाकी सभी दरवाजों के बाहर के अखबार देर तक यूँ ही पड़े रहते हैं।
कहते हैं कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। इसलिए मैं अपनी जिज्ञासा शांत करने की कोशिश करने लगा कि आखिर अन्य लोग अखबार को उतनी तवज्जो क्यों नहीं देते। अखबार वाला उनसे भी पूरा ही बिल वसूलता होगा। उन्हें कोई डिस्काउंट तो नहीं ही मिलता होगा। आजकल की टू बी एच के वाले फ्लैटों की जिंदगी में यह बात तो संभव नहीं कि आप सीधे-सीधे किसी से पूछ लें कि वह अखबार क्यों नहीं पढ़ता है। ऐसे परिवेश में तो अपने पड़ोसी का नाम और काम जानने में ही साल भर लग जाता है। या तो हर आदमी अपने जीवन में व्यस्त होता है या व्यस्त होने का ढ़ोंग करता है। इसलिए मैंने अपने पड़ोसियों की दिनचर्या पर जासूसी नजर रखना शुरु किया। बहुत दिनों तक अवलोकन करने पर मैंने अनुमान लगाया कि मेरे सामने के दो फ्लैटों और मेरी बगल की एक फ्लैट में रहने वाले लोग किसी बीपीओ में काम करते होंगे। वे दोपहर के बाद अपनी फॉर्मल ड्रेस पहनकर काम पर निकलते दिखते हैं और सुबह लगभग नौ बजे के आसपास वापस आते हुए दिखते हैं। अब मुझे पता चल गया था कि वे बिचारे रात भर की ड्यूटी से थके होने के कारण इस हालत में नहीं रहते होंगे कि कोई भी क्रिएटिव काम कर सकें।
अखबार का स्वाद लेने के साथ चाय की चुस्की लेते हुए मैंने अपनी पत्नी से पूछा, “ये बेचारे तो रात भर कॉल सेंटर में अमेरिका में बैठे लोगों के सवालों के जवाब दे देकर थक जाते होंगे, इसलिए इन्हें अखबार पढ़ने की कोई जल्दी नहीं होती। लेकिन मेरी समझ में ये बात नहीं आती कि इनकी पत्नियाँ तो पूरे रात सोती रहती हैं, फिर वे सुबह सुबह अखबार क्यों नहीं पढ़ती हैं। देखने से तो लगता है कि काफी पढ़ी लिखी हैं। नीचे पार्क में मैंने उन्हें बातें करते भी सुना है; हर बात में अंग्रेजी के एक दो शब्द का इस्तेमाल तो कर ही लेती हैं। लगता है शायद इनके पति इन्हें अखबार पढ़ने की अनुमति नहीं देते होंगे।“

मेरी पत्नी ने जवाब में कुछ नहीं कहा। वह मन ही मन अखबार को पढ़ रही थी और चाय की चुस्की ले रही थी। हाँ उसकी भृकुटियों की बदलती हुई भाव भंगिमा से मुझे अहसास हो गया कि मैंने कोई गलत सवाल पूछ लिया था। मामले की गंभीरता और किसी अनिष्ट की आशंका से मैं चुपके से उठा और अपनी गाड़ी साफ करने के बहाने नीचे पार्किंग में चला गया। 

Sunday, June 5, 2016

दिल्ली को कार-मुक्त कैसे बनाया जाए?

आज सुबह जब मैं अखबार पढ़ रहा था तो मेरी नजर एक हेडलाइन पर पड़ी। उसमें लिखा था कि 2025 तक नॉर्वे को पेट्रोल कारों से मुक्त कर दिया जाएगा। उसके बदले में वहाँ केवल जैविक ईंधन से चलने वाली कारें चलेंगी। ऐसा माना जाता है कि पूरे विश्व में यदि कोई पर्यवारण की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध देश है तो वह है नॉर्वे। अब आप सोच रहे होंगे कि भला नॉर्वे की इस खबर से हम हिंदुस्तानियों का क्या लेना देना। आप को याद दिलाना बेहतर होगा कि किसी भी विदेशी बात को; खासकर से पश्चिमी देशों की बात को हम खुशी-खुशी अपनाने को तैयार रहते हैं। यह हमारे रोज रोज के जीवन में भरपूर देखने को मिलता है। उदाहरण के लिए इटली का पिज्जा या फिर किसी इटैलियन नाम वाली कंपनी का मॉड्यूलर किचेन; हमें बहुत पसंद आता है। इसमें कुछ अपवाद भी हैं; जैसे कि कोई इटैलियन मूल का व्यक्ति यदि प्रधानमंत्री बनने की कोशिश करे या कोई ऐसा व्यक्ति जिसका ननिहाल इटली में हो तो फिर हम सब एक सुर में उसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं। खैर छोड़िये इन बातों को क्योंकि आज का मुख्य मुद्दा है कि कैसे किसी शहर को कार-मुक्त किया जाए।
अभी हाल के वर्षों में आपने देखा होगा कि हमारे कुछ राजनेता राजधानी दिल्ली को कार-मुक्त बनाने के लिए कितनी जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। और कुछ नहीं हो पाता है तो कुछ खास इलाकों में महीने में एक दिन कार-मुक्त दिवस जरूर मनाया जाता है। भले ही उसमें शरीक होने के लिए आने वाले नेता कारों में ही आते हैं। इसकी देखा देखी दिल्ली के आसपास के शहरों में भी कार-मुक्त दिवस मनाने का फैशन शुरु हो गया है। इसकी जानकारी के लिए आपको उस शहर के किसी हिंदी अखबार का अवलोकन करना पड़ेगा। किसी शहर को कार-मुक्त बनाने की पहल करना बड़ा ही आसान है। कम से कम पूरे देश को कांग्रेस-मुक्त बनाने से तो आसान है ही। इसमें शरीक होने वाले लोगों को अखबार में नाम और तस्वीर छपवाने का मौका भी मिल जाता है। ये अलग बात है कि इन सब कोशिशों के बावजूद कार की बिक्री रुकने का नाम ही नहीं ले रही है। इस साल तो अच्छे मानसून होने की उम्मीद भी है जिसके कारण कारों की बिक्री और भी बढ़ेगी।
अब इसी बात को लेकर दिल्ली के माननीय मुख्यमंत्री भी परेशान हैं; क्योंकि वायु प्रदूषण से सबसे अधिक तकलीफ उन्हें होती है। उनकी कभी न खतम होने वाली खाँसी की असली वजह वायु प्रदूषण ही है। नॉर्वे वाली खबर पढ़कर तो केजरीवाल जी अपनी कुर्सी से यूरेका! यूरेका!; कहते हुए उछल पड़े होंगे। उन्हें यह बात कतई गवारा नहीं कि दिल्ली के होते हुए कोई और शहर सुर्खियों में आ जाए; खासकर भारत से हजारों किलोमीटर दूर स्थित कोई देश। इसके पीछे भी एक वजह है। सभी नामी गिरामी टीवी चैनलों के दफ्तर नोएडा में हैं। उनमें काम करने वाले रिपोर्टरों के लिए दिल्ली पहुँचना बड़ा ही आसान है। चाहे तपती गर्मी हो या कड़कड़ाती ठंड; देश के अन्य भागों में भटककर रिपोर्टिंग करने से तो अच्छा है कि पलक झपकते दिल्ली जाओ और फ़टाक से कोई रिपोर्ट ले आओ; फिर उस दिन की नौकरी को जायज ठहराओ। केजरीवाल जी को भली भाँति पता है कि इसका लाभ कैसे उठाया जाए। वे खाँसी भी करें तो न्यूज बनता है; लेकिन बहुत कम ही लोग होंगे जिन्हें मिजोरम के मुख्यमंत्री का नाम पता होगा।

बहरहाल, कल्पना कीजिए कि दिल्ली को कार-मुक्त बनाने के लिए भविष्य में किस तरह के कदम उठाए जाएँगे। वैसे भी अप्रैल महीने में फ्लॉप हुए ऑड ईवेन स्कीम से तिलमिलाए केजरीवाल जी बहुत दिनों से किसी धाँसू आइडिया की तलाश में लगे हुए हैं। वे आनन फानन में प्रेस कॉन्फ्रेंस करेंगे; जिसमें उनके अगल-बगल मनीष सिसोदिया और आशुतोष होंगे। वो ऐलान करेंगे कि 2020 तक दिल्ली को कार मुक्त कर देंगे। इसके लिए वे पूरी दिल्ली के फ्लाइओवर को ध्वस्त कर देंगे। ऐसे भी एक दो दिन पहले छपी रिपोर्ट के मुताबिक उनका ऐसा कोई भी इरादा नहीं है कि दिल्ली में नए फ्लाइओवर या नई सड़कें बनेंगी। उन्हें लगता है कि अच्छी सड़क होने से कारों की संख्या में इजाफा होता है क्योंकि लोग बिना मतलब ही कार से घूमने लगते हैं। इस रिपोर्ट में तो मोटरसाइकिलों के बारे में भी बुरी बातें ही कही गई हैं। उन्हें यह बात बुरी लगती है कि दो-दो लोग एक बाइक पर सवार होकर अपना खर्चा बचाते हैं। वे ऐलान करेंगे कि दिल्ली में जैविक ईंधन वाली कारें भी नहीं चलेंगी क्योंकि ईंधन भला कोई भी हो, जलने के बाद तो कार्बन डाइऑक्साइड ही छोड़ता है। बदले में वे हर व्यक्ति को मुफ्त में साइकिल बाँटेंगे। यदि किसी व्यक्ति को चार किमी से कम की यात्रा करनी हो तो उसे पैदल ही जाना होगा। हाँ, चार से छ: किमी की यात्रा के लिए वह अपनी साइकिल का इस्तेमाल कर सकेगा। छ: किमी से अधिक की यात्रा के लिए उसे बस या मेट्रो रेल से सफर करना होगा। उन्होंने आइआइटी में जो ज्ञान प्राप्त किया है, उसका इस्तेमाल करते हुए वे बसों में भी पैडल लगवा देंगे। हर सीट के नीचे एक पैडल होगा। इस तरह से जब सभी मुसाफिर एक साथ सैंकड़ों पैडल को चलाएँगे तो बस अपने आप चल पड़ेगी। इससे वायु प्रदूषण भी नहीं होगा। दिल्ली में प्रवेश करने वाले ट्रकों पर इतना ज्यादा हरित टैक्स लगाया जाएगा कि ट्रक वाले दिल्ली की सीमा पर ही सामान उतारकर वापस चले जाएँगे। उसके बाद वह सामान ठेलागाड़ियों पर अपने गंतव्य तक पहुँचेगा। इससे एक तीर से दो शिकार हो जाएँगे। वायु प्रदूषण भी कम होगा और रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। ठेलागाड़ी चलाने का प्रशिक्षण देने के लिए वे प्रधानमंत्री से अपील करेंगे कि इसे भी स्किल इंडिया में शामिल कर लिया जाए। 

Monday, May 30, 2016

डाक से गंगाजल

“अरे पंडित जी, ऐसे मुँह लटकाए क्यों बैठे हैं? कोई बुरी खबर सुन ली?” लोटन हलवाई ने पूछा।
गगन पंडे ने चाय सुड़कते हुए बोला, “आज का अखबार नहीं पढ़ा है? अब डाक विभाग लोगों तक गंगाजल की सप्लाई करेगा। हमारा तो धंधा ही चौपट हो जाएगा।:
लोटन हलवाई ने कहा, “हाँ! हाँ! मैंने पढ़ा है। चलो अच्छा ही तो है। अब तक तुम गंगाजल के नाम पर बोतल में किसी भी पानी को भरकर लोगों को ठग रहे थे। उन्हें इससे छुटकारा तो मिलेगा।“
गगन पंडे ने कहा, “इसमें ठगी कहाँ से है। पानी तो कहीं का भी हो, होता एक ही है। मैंने विज्ञान की किताब में पढ़ा था कि पानी का निर्माण हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के मिलने से होता है। फिर मैंने जल चक्र के बारे में भी पढ़ा था जिसमें लिखा है कि पानी अलग-अलग रूपों में बदलता रहता है। फिर वही पानी पूरी दुनिया में इधर-उधर जाता रहता है।“
उसने आगे कहा, “फिर जब लोगों की भारी भीड़ आती है तो उन्हें कहाँ होश रहता है कि जल भगवान के ऊपर पड़ा भी या नहीं। वे तो बस किसी भी तरह से जल के लोटे या बोतल को भगवान तक फेंक कर अपनी तीर्थयात्रा पूरी करने की कवायद करते हैं।“
लोटन हलवाई ने बीच में ही टोका, “खैर छोड़ो इन बातों को, तुम्हारा सबसे ज्यादा मुनाफा तो गंगाजल के नाम पर पानी बेचने में ही होता है। एक रुपये की प्लास्टिक की बोतल में मुफ्त का पानी भरकर तुम उसे दस रुपये में बेचते हो। इतना मुनाफा तो दक्षिणा में भी नहीं आता होगा। दक्षिणा का कुछ भाग तो हफ्ते के रुप में ऊपर तक भी तो पहुँचाना होता है।“
गगन पंडे ने कहा, “हाँ भैया, दक्षिणा देते समय लोग आजकल बहुत मोलभाव करने लगे हैं। दस लाख रुपए में तो मेरे गुरुजी ने इस पूरे मंदिर का ठेका खरीदा था। उसकी भरपाई हो जाए वही बहुत है। लेकिन अब तो लगता है कि कोई दूसरा काम धंधा ढ़ूँढ़ना पड़ेगा।“
लोटन हलवाई ने कहा, “तुम डाक विभाग से इतने परेशान क्यों लग रहे हो? सुना है कि कई ई-कॉमर्स वाली कंपनियाँ पहले से ही गंगाजल बेच रही हैं। मेरे बेटे ने मुझे किसी ऐसी ही कंपनी का वेबसाइट दिखाया था। वे तो एक बोतल पर एक फ्री भी देते हैं। पाँच बोतल एक साथ लेने पर और अधिक छूट मिलती है। कुछ तो पाँच-पाँच लीटर वाली बोतलें भी बेच रहे हैं।“
गगन पंडे ने कहा, “ये या तो विदेशी कंपनियाँ हैं, या वैसी भारतीय कंपनियाँ जिन्हें इंगलिश स्कूलों में पढ़ चुके लोगों ने शुरु किया है। उन्हें पता ही नहीं है कि कोई भी पाँच लीटर गंगाजल का क्या करेगा। अरे हमारे अधिकतर यजमान तो एक पचास मिली लीटर की छोटी सी बोतल से महान से महान अनुष्ठान करवा लेते हैं। अब कोई आखिरी साँसे गिन रहा आदमी पाँच लीटर गंगाजल कैसे पिएगा? अरे, एक दो चम्मच मुँह में जाते ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है। मैंने भी ऐसी कंपनियों के वेबसाइट देखे हैं। उनके रेट बड़े ही महँगे हैं। ऐसे कामों के लिए कोई ग्यारह रुपए तो आसानी से दे देता है लेकिन भला दो सौ निन्यानवे रुपए कोई क्यों देगा। हो सकता है कि बड़े शहरों में इसका असर पड़े। लेकिन ये कंपनियाँ हमारे जैसे छोटे शहरों में कैश ऑन डिलिवरी की सुविधा नहीं देती हैं, इसलिए मुझे उनकी चिंता नहीं है।“
लोटन हलवाई ने पूछा, “फिर डाकिये से क्यों डर रहे हो?”
गगन पंडे ने कहा, “डाक विभाग को तुम नहीं जानते। उसे तो घाटे में बिजनेस करने की आदत पड़ चुकी है। वे तो हो सकता है कि पचास मिली की बोतल मुफ्त में देने लगें। राष्ट्रवाद के नाम पर सरकार इसके लिए अलग से बजट भी बना देगी और कोई उफ्फ तक नहीं करेगा।“
फिर इसका कोई उपाय सोचा है?” लोटन हलवाई ने पूछा।
“हाँ, मैंने अपने गुरुजी से बात की है। विपक्षी पार्टियों के कई नेताओं से उनकी अच्छी जान पहचान है। ऐसे भी विपक्ष को आजकल ठोस मुद्दों की सख्त जरूरत है। हम लोग इसके खिलाफ देशव्यापी आंदोलन करेंगे। पूरे देश में पंडों की अखिल भारतीया हड़ताल होगी, जिस दिन कोई भी पंडा किसी को भी सेवा नहीं देगा। एक हमारा ही तो काम है जिसके बिना बड़े से बड़े सेठ, वैज्ञानिक, राजनेता, डॉक्टर, आईएएस, आईपीएस, आदि किसी भी अहम काम की शुरुआत नहीं करते हैं। हम इसमें पंडितों पर बेरोजगारी के खतरे का मुद्दा उठाएँगे। हम इससे गंगा मैया के अनुचित दोहन का खतरा भी बताएँगे। सारा गंगाजल यदि गोमुख और हरिद्वार में ही निकाल लिया जाएगा तो फिर बनारस में अंत्येष्टि के लिए गए मृतकों को मोक्ष कैसे प्राप्त होगा?”

तभी वहाँ पर जोर का कोलाहल शुरु हो गया। तीर्थयात्रियों की एक नई फौज भगवान पर जल चढ़ाने के लिए तेजी से आ रही थी। गगन पंडा आनन फानन में उठा और नए ग्राहकों की खोज में निकल पड़ा। 

Friday, May 27, 2016

बैलगाड़ी का चालान

बहुत पुरानी बात है। उस जमाने में आज की तरह मोटरगाड़ियाँ नहीं बल्कि बैलगाड़ियाँ चला करती थीं। आम आदमी के लिए छोटी या लंबी यात्रा के लिए बैलगाड़ी ही एकमात्र साधन हुआ करती थी। जो थोड़े बहुत संपन्न किसान थे उनके पास अपने बैल और अपनी बैलगाड़ियाँ हुआ करती थीं। जो रईस व्यापारी या राजपरिवार से संबंधित लोग थे उनके पास घोड़ागाड़ी हुआ करती थी। बैलों को पालना सस्ता पड़ता था क्योंकि बैल कोई भी चारा खाने में नखरे नहीं दिखाते। लेकिन घोड़े तो अरब से निर्यात किए जाते थे और चारा खाने के मामले में बहुत नखरे दिखाते थे। कुछ ऐसे भी लोग थे जो अपने बैल रखने की औकात नहीं रखते थे। लेकिन यात्रा तो ऐसे लोगों को भी करनी पड़ती थी। इन लोगों की यात्रा को सुखमय बनाने के लिए कई व्यापारियों ने किराये पर बैलगाड़ी चलाना शुरु किया था। सही कीमत मिलने पर किराये की घोड़ागाड़ी भी उपलब्ध हो जाती थी।
पिछले दसेक वर्षों में लगातार अच्छे मानसून के कारण कृषि उत्पाद में काफी बढ़ोतरी हुई थी। उसका असर अन्य व्यवसायों पर भी दिखने लगा था। हर चीज की माँग बाजार में बढ़ गई थी। लोग पहले से अधिक खुशहाल लगने लगे थे। लगता था कि भारत में स्वर्ण युग का प्रवेश होने ही वाला है। अब ऐसे लोगों ने भी बैलगाड़ी खरीदना शुरु कर दिया था जो कुछ साल पहले तक बैलगाड़ी का सपना भी देखने से कतराते थे। जो लोग नई बैलगाड़ी नहीं खरीद पा रहे थे वे कम से कम किराया देकर ही सही इसका आनंद उठाते थे। जीवन का सफर हर आम आदमी के लिए आसान लगने लगा था। अब कोई भी भारत के सुदूर प्रदेशों की यात्रा करने की सोच सकता था। लोग जगह-जगह तीर्थ या पर्यटन के लिए जाने लगे थे। काशी, मथुरा, उज्जैन, पाटलीपुत्र और हस्तिनापुर जैसे बड़े शहरों में तो बैलगाड़ियों की जैसे बाढ़ आ गई थी। लोग अपनी निजी बैलगाड़ियों को रंग बिरंगे ओहार और पताकाओं से सजाते भी थे। कई बैलों के सींग तो सोने से मढ़े हुए होते थे। कुछ बैलों की पीठ पर मखमली कपड़ा भी पहनाया गया होता था।
सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि एक छोटे से राज्य में एक नए राजा ने गद्दी संभाल ली। लोग बताते हैं कि वह किसी राजसी खानदान से नहीं आया था। लेकिन अपनी अनोखी सूझबूझ के कारण उसने अपने से अधिक शक्तिशाली राजा को युद्ध में पटखनी देकर उस राज्य की गद्दी संभाल ली थी। वह राजसी कपड़े नहीं पहना था। उसके पहनावे से तो लगता था कि वह किसी सेठ के यहाँ मुंशी का काम करता होगा। गद्दी संभालते ही उसने प्रजा के लिए खजाना खोल दिया था। जिस भी गरीब को जब जरूरत पड़ती, उस राजा के राजसी खजाने से सहायता राशि ले जाता था। जिसे देखो वही नए राजा का गुणगान करने लगता था। लेकिन गद्दी संभालने के छ: महीने बीतते ही उस राजा ने अपना असली रंग दिखाना शुरु कर दिया। उसे गरीब लोग अधिक पसंद थे क्योंकि वे केवल सहायता राशि लेने में रुचि दिखाते थे और राजा या उसके आदमियों से कोई सवाल नहीं पूछते थे। लेकिन राजा की नजर में जो लोग खुशहाल थे वे बड़े ही खतरनाक थे। खासकर से उसे खुशहाल लोगों से इसलिए भी चिढ़ थी कि बढ़ती हुई बैलगाड़ियों के कारण अब राजा के काफिले को कहीं भी आने जाने में बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ता था। इनमें से तो कुछ लोग राजा के सिपाहियों से भी नहीं डरते थे। उनमें आजकल प्रजातांत्रिक भावना का रोग लग गया था।
राजा ने ऐसे लोगों से निपटने के लिए एक जाँच आयोग गठित कर दिया। समय सीमा के भीतर ही उस आयोग ने अपना रिपोर्ट पेश किया। उस रिपोर्ट में बड़ी ही चौंकाने वाली बातें निकलकर सामने आईं। उस रिपोर्ट के मुताबिक बैलगाड़ियों की बढ़ती संख्या से पर्यावरण को खतरा हो रहा था। अधिक बैल होने का मतलब था चारे और पेड़ पौधों की अधिक खपत। इससे वन संपदा को नुकसान पहुँच रहा था। हरियाली कम होने से वायु प्रदूषण बढ़ने लगा था। किसी वैज्ञानिक ने यह भी खुलासा किया था कि बैल जब गोबर करते हैं तो उससे न सिर्फ सड़क पर गंदगी फैलती है बल्कि वातावरण में मीथेन नाम की एक खतरनाक गैस भी भर जाती है। वह गैस सूरज से आने वाली सारी ऊष्मा को अपने में समाहित कर लेती है जिससे पूरे भूमंडल का तापमान बढ़ जाता है। उस वैज्ञानिक ने इस परिघटना को भूमंडलीय ऊष्मीकरण का नाम दिया था। कुल मिलाकर सीधे-सीधे शब्दों में कहा जाए तो बैलगाड़ियों के बढ़ने से न केवल उस राज्य की बल्कि पूरे देश की हवा खराब हो रही थी।
उस आयोग की रिपोर्ट पर उस नए राजा ने तुरंत कार्रवाई की। उसने फरमान जारी किया कि खराब होती हुई हवा को ठीक करने के लिए यह जरूरी है कि सड़क पर बैलगाड़ियों की संख्या कम कर दी जाए। अब महीने की तारीख के हिसाब से लोगों को अपनी बैलगाड़ी लेकर सड़क पर जाने की अनुमति होगी। विषम संख्या वाली तारीखों को केवल वे ही बैलगाड़ियाँ चलेंगी जिनमें एक ही बैल जुता हुआ हो। सम संख्या वाली तारीखों को केवल वे ही बैलगाड़ियाँ चलेंगी जिनमे दो बैल जुते हुए हों। इससे सड़कों पर बैलगाड़ियों की संख्या आधी हो जाएगी। घोड़ागाड़ी और गदहागाड़ी को इस नियम से बाहर रखा गया। इससे एक तीर से दो शिकार हो गए। घोड़ागाड़ी तो चुनिंदा रईसों और राजसी लोगों के पास ही होते हैं। गदहागाड़ी उन्हीं के पास होते हैं जो अत्यंत गरीब होते हैं। समाज के दो ऐसे अहम वर्गों को कोई नुकसान नहीं होने वाला था जिससे उस राजा को फायदा होता था। उस आदेश के बाद राजा ने एक और आदेश जारी किया जिसके मुताबिक उस तारीख के बाद से दो या दो से अधिक बैलों वाली गाड़ियों के उत्पादन पर रोक लगा दी गई। कहा गया कि न नई गाड़ियाँ बनेंगीं न वो बाजार में आएँगी।
इससे बैलगाड़ी बनाने वाली कंपनियों को तो जैसे पक्षाघात मार गया। एक लंबे अरसे की मंदी के बाद बड़ी मुश्किल से अर्थवयवस्था में सुधार हुआ था और वे जोर शोर से धंधा बढ़ा रहे थे कि इस सनकी राजा ने उनकी रफ्तार पर ब्रेक लगा दिया।
बैलगाड़ी निर्माता संघ ने आनन फानन में देश की व्यावसायिक राजधानी में अपनी बैठक बुलाई। वे इस बात पर मंत्रणा कर रहे थे कि इस अचानक से आई समस्या का समाधान कैसे ढ़ूँढ़ा जाए। बैलगाड़ियों की बढ़ती माँग से पूरी अर्थव्यवस्था में आमूल चूल सुधार आता है ऐसा किसी बड़े व्यवसाय शास्त्री का कहना है। इस उद्योग से हर क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़ते हैं; जैसे कि ओहार बनाने वाले, कोड़े बनाने वाले, सीटों की गद्दियाँ बनाने वाले, चारा बनाने वाले, आदि। सबसे बड़ी बात कि इससे पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिलता है। काफी लंबी मंत्रणा के बाद बैलगाड़ी निर्माता संघ का एक प्रतिनिधि उस राजा के पास अपनी बात रखने गया। राजा ने उसका गर्मजोशी से स्वागत किया। काफी लंबी बातचीत हुई लेकिन कोई रास्ता न निकला। वह निराश लौट आया। बाद में किसी गुप्तचर के मारफत संदेश आया कि शायद कुछ नजराना और हकराना देने से राजा अपनी नीतियों में कुछ बदलाव कर दे।
लेकिन बैलगाड़ी निर्माता संघ के अन्य पदाधिकारी उस राजा पर सीधे-सीधे विश्वास नहीं कर पा रहे थे। एक ने ये भी कहा कि यदि अन्य राजाओं को यह बात पता चल गई तो फिर अन्य राज्यों में नजराने और हकराने की परिपाटी शुरु हो जाएगी। उसके बाद धंधे में मुनाफे कि गुंजाइश ही नहीं बचेगी। उन सदस्यों में एक बहुत ही बुजुर्ग और अनुभवी व्यवसायी भी थे जिनका कारोबार न केवल पूरे भारतवर्ष में फैला हुआ था बल्कि अरब से आगे यूरोप और अमरीका के देशों में भी फल फूल रहा था। उन्हें इससे भी खुर्राट राजाओं से निबटने का तरीका मालूम था। उन्होंने सलाह दी कि एक छोटे से राज्य के सनकी राजा से डील करने से बेहतर होगा कि हिंदुस्तान के बादशाह से सीधी बात की जाए। लेकिन उसमें एक खतरा था। इस बादशाह ने अभी अभी गद्दी संभाली थी। यह बादशाह इस बात के लिए मशहूर था कि अपने विरोधियों को आनन फानन में ही पूरे विश्व के मानचित्र से गायब कर देता है। लेकिन हमारे अनुभवी व्यवसायी का मानना था कि सीधे या परोक्ष रूप से पूरे हिंदुस्तान के बादशाह से ही अपनी समस्या के सही निपटारे की उम्मीद की जा सकती है। काफी सोच विचार करने के बाद उन्होंने अपना एक अनुभवी प्रतिनिधि दिल्ली के दरबार के उस नवरत्न तक भेजा जो यातायात से संबंधित मामलों पर नीतियाँ तय करता था। कहा जाता है कि नवरत्न बनने से पहले वह एक बहुत ही सफल व्यवसायी रह चुका था इसलिए व्यवसायियों की बात वह बड़े गौर से सुनता है।

उसके बाद तय समय पर उस नवरत्न और बैलगाड़ी निर्माता संध के बीच एक लंबी मंत्रणा हुई। उस गोष्ठी से निकलने के बाद दोनों ने मुसकराते हुए चेहरे से राजसी चित्रकारों के सामने पोज दिया ताकि अच्छी से पेंटिंग बन सके। उसके बाद पूरे भारतवर्ष में बैलगाड़ी का कारखाना लगाने के लिए टैक्स में अतिरिक्त छूट की घोषणा की गई। हर शहर और हर गाँव में शिलालेख लगवाए गए जिनपर बैलगाड़ी से पर्यावरण को होने वाले फायदे का वर्णन था। उसके बाद से पूरे देश में बैलगाड़ी के एक से एक नए मॉडल बिकने लगे और हर तरफ समग्र विकास नजर आने लगा। बेचारा छोटे राज्य का राजा और कर भी क्या सकता था। उसे अपनी सीमित सामर्थ्य का पता था इसलिए उसने बादशाह के नवरत्न के फरमान की अवहेलना नहीं की। अब वह सिर्फ इस बात के सपने देख रहा है कि किस तरह से दिल्ली की गद्दी के नजदीक पहुँचा जाए।