बहुत पुरानी बात है। उस
जमाने में आज की तरह मोटरगाड़ियाँ नहीं बल्कि बैलगाड़ियाँ चला करती थीं। आम आदमी के
लिए छोटी या लंबी यात्रा के लिए बैलगाड़ी ही एकमात्र साधन हुआ करती थी। जो थोड़े
बहुत संपन्न किसान थे उनके पास अपने बैल और अपनी बैलगाड़ियाँ हुआ करती थीं। जो रईस
व्यापारी या राजपरिवार से संबंधित लोग थे उनके पास घोड़ागाड़ी हुआ करती थी। बैलों को
पालना सस्ता पड़ता था क्योंकि बैल कोई भी चारा खाने में नखरे नहीं दिखाते। लेकिन
घोड़े तो अरब से निर्यात किए जाते थे और चारा खाने के मामले में बहुत नखरे दिखाते थे।
कुछ ऐसे भी लोग थे जो अपने बैल रखने की औकात नहीं रखते थे। लेकिन यात्रा तो ऐसे
लोगों को भी करनी पड़ती थी। इन लोगों की यात्रा को सुखमय बनाने के लिए कई
व्यापारियों ने किराये पर बैलगाड़ी चलाना शुरु किया था। सही कीमत मिलने पर किराये
की घोड़ागाड़ी भी उपलब्ध हो जाती थी।
पिछले दसेक वर्षों में
लगातार अच्छे मानसून के कारण कृषि उत्पाद में काफी बढ़ोतरी हुई थी। उसका असर अन्य
व्यवसायों पर भी दिखने लगा था। हर चीज की माँग बाजार में बढ़ गई थी। लोग पहले से
अधिक खुशहाल लगने लगे थे। लगता था कि भारत में स्वर्ण युग का प्रवेश होने ही वाला
है। अब ऐसे लोगों ने भी बैलगाड़ी खरीदना शुरु कर दिया था जो कुछ साल पहले तक
बैलगाड़ी का सपना भी देखने से कतराते थे। जो लोग नई बैलगाड़ी नहीं खरीद पा रहे थे वे
कम से कम किराया देकर ही सही इसका आनंद उठाते थे। जीवन का सफर हर आम आदमी के लिए
आसान लगने लगा था। अब कोई भी भारत के सुदूर प्रदेशों की यात्रा करने की सोच सकता
था। लोग जगह-जगह तीर्थ या पर्यटन के लिए जाने लगे थे। काशी, मथुरा, उज्जैन, पाटलीपुत्र
और हस्तिनापुर जैसे बड़े शहरों में तो बैलगाड़ियों की जैसे बाढ़ आ गई थी। लोग अपनी
निजी बैलगाड़ियों को रंग बिरंगे ओहार और पताकाओं से सजाते भी थे। कई बैलों के सींग
तो सोने से मढ़े हुए होते थे। कुछ बैलों की पीठ पर मखमली कपड़ा भी पहनाया गया होता
था।
सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि एक छोटे से राज्य में एक नए
राजा ने गद्दी संभाल ली। लोग बताते हैं कि वह किसी राजसी खानदान से नहीं आया था।
लेकिन अपनी अनोखी सूझबूझ के कारण उसने अपने से अधिक शक्तिशाली राजा को युद्ध में
पटखनी देकर उस राज्य की गद्दी संभाल ली थी। वह राजसी कपड़े नहीं पहना था। उसके
पहनावे से तो लगता था कि वह किसी सेठ के यहाँ मुंशी का काम करता होगा। गद्दी
संभालते ही उसने प्रजा के लिए खजाना खोल दिया था। जिस भी गरीब को जब जरूरत पड़ती, उस
राजा के राजसी खजाने से सहायता राशि ले जाता था। जिसे देखो वही नए राजा का गुणगान
करने लगता था। लेकिन गद्दी संभालने के छ: महीने बीतते ही उस राजा ने अपना असली रंग
दिखाना शुरु कर दिया। उसे गरीब लोग अधिक पसंद थे क्योंकि वे केवल सहायता राशि लेने
में रुचि दिखाते थे और राजा या उसके आदमियों से कोई सवाल नहीं पूछते थे। लेकिन
राजा की नजर में जो लोग खुशहाल थे वे बड़े ही खतरनाक थे। खासकर से उसे खुशहाल लोगों
से इसलिए भी चिढ़ थी कि बढ़ती हुई बैलगाड़ियों के कारण अब राजा के काफिले को कहीं भी
आने जाने में बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ता था। इनमें से तो कुछ लोग राजा के
सिपाहियों से भी नहीं डरते थे। उनमें आजकल प्रजातांत्रिक भावना का रोग लग गया था।
राजा ने ऐसे लोगों से निपटने के लिए एक जाँच आयोग गठित कर
दिया। समय सीमा के भीतर ही उस आयोग ने अपना रिपोर्ट पेश किया। उस रिपोर्ट में बड़ी
ही चौंकाने वाली बातें निकलकर सामने आईं। उस रिपोर्ट के मुताबिक बैलगाड़ियों की
बढ़ती संख्या से पर्यावरण को खतरा हो रहा था। अधिक बैल होने का मतलब था चारे और पेड़
पौधों की अधिक खपत। इससे वन संपदा को नुकसान पहुँच रहा था। हरियाली कम होने से
वायु प्रदूषण बढ़ने लगा था। किसी वैज्ञानिक ने यह भी खुलासा किया था कि बैल जब गोबर
करते हैं तो उससे न सिर्फ सड़क पर गंदगी फैलती है बल्कि वातावरण में मीथेन नाम की
एक खतरनाक गैस भी भर जाती है। वह गैस सूरज से आने वाली सारी ऊष्मा को अपने में
समाहित कर लेती है जिससे पूरे भूमंडल का तापमान बढ़ जाता है। उस वैज्ञानिक ने इस
परिघटना को भूमंडलीय ऊष्मीकरण का नाम दिया था। कुल मिलाकर सीधे-सीधे शब्दों में
कहा जाए तो बैलगाड़ियों के बढ़ने से न केवल उस राज्य की बल्कि पूरे देश की हवा खराब
हो रही थी।
उस आयोग की रिपोर्ट पर उस नए राजा ने तुरंत कार्रवाई की।
उसने फरमान जारी किया कि खराब होती हुई हवा को ठीक करने के लिए यह जरूरी है कि सड़क
पर बैलगाड़ियों की संख्या कम कर दी जाए। अब महीने की तारीख के हिसाब से लोगों को
अपनी बैलगाड़ी लेकर सड़क पर जाने की अनुमति होगी। विषम संख्या वाली तारीखों को केवल
वे ही बैलगाड़ियाँ चलेंगी जिनमें एक ही बैल जुता हुआ हो। सम संख्या वाली तारीखों को
केवल वे ही बैलगाड़ियाँ चलेंगी जिनमे दो बैल जुते हुए हों। इससे सड़कों पर
बैलगाड़ियों की संख्या आधी हो जाएगी। घोड़ागाड़ी और गदहागाड़ी को इस नियम से बाहर रखा
गया। इससे एक तीर से दो शिकार हो गए। घोड़ागाड़ी तो चुनिंदा रईसों और राजसी लोगों के
पास ही होते हैं। गदहागाड़ी उन्हीं के पास होते हैं जो अत्यंत गरीब होते हैं। समाज
के दो ऐसे अहम वर्गों को कोई नुकसान नहीं होने वाला था जिससे उस राजा को फायदा
होता था। उस आदेश के बाद राजा ने एक और आदेश जारी किया जिसके मुताबिक उस तारीख के
बाद से दो या दो से अधिक बैलों वाली गाड़ियों के उत्पादन पर रोक लगा दी गई। कहा गया
कि न नई गाड़ियाँ बनेंगीं न वो बाजार में आएँगी।
इससे बैलगाड़ी बनाने वाली कंपनियों को तो जैसे पक्षाघात मार
गया। एक लंबे अरसे की मंदी के बाद बड़ी मुश्किल से अर्थवयवस्था में सुधार हुआ था और
वे जोर शोर से धंधा बढ़ा रहे थे कि इस सनकी राजा ने उनकी रफ्तार पर ब्रेक लगा दिया।
बैलगाड़ी निर्माता संघ ने आनन फानन में देश की व्यावसायिक
राजधानी में अपनी बैठक बुलाई। वे इस बात पर मंत्रणा कर रहे थे कि इस अचानक से आई
समस्या का समाधान कैसे ढ़ूँढ़ा जाए। बैलगाड़ियों की बढ़ती माँग से पूरी अर्थव्यवस्था
में आमूल चूल सुधार आता है ऐसा किसी बड़े व्यवसाय शास्त्री का कहना है। इस उद्योग
से हर क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़ते हैं; जैसे कि ओहार बनाने वाले, कोड़े बनाने वाले, सीटों की गद्दियाँ बनाने वाले,
चारा बनाने वाले, आदि। सबसे बड़ी बात कि इससे
पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिलता है। काफी लंबी मंत्रणा के बाद बैलगाड़ी निर्माता संघ
का एक प्रतिनिधि उस राजा के पास अपनी बात रखने गया। राजा ने उसका गर्मजोशी से
स्वागत किया। काफी लंबी बातचीत हुई लेकिन कोई रास्ता न निकला। वह निराश लौट आया।
बाद में किसी गुप्तचर के मारफत संदेश आया कि शायद कुछ नजराना और हकराना देने से
राजा अपनी नीतियों में कुछ बदलाव कर दे।
लेकिन बैलगाड़ी निर्माता संघ के अन्य पदाधिकारी उस राजा पर
सीधे-सीधे विश्वास नहीं कर पा रहे थे। एक ने ये भी कहा कि यदि अन्य राजाओं को यह
बात पता चल गई तो फिर अन्य राज्यों में नजराने और हकराने की परिपाटी शुरु हो
जाएगी। उसके बाद धंधे में मुनाफे कि गुंजाइश ही नहीं बचेगी। उन सदस्यों में एक
बहुत ही बुजुर्ग और अनुभवी व्यवसायी भी थे जिनका कारोबार न केवल पूरे भारतवर्ष में
फैला हुआ था बल्कि अरब से आगे यूरोप और अमरीका के देशों में भी फल फूल रहा था।
उन्हें इससे भी खुर्राट राजाओं से निबटने का तरीका मालूम था। उन्होंने सलाह दी कि
एक छोटे से राज्य के सनकी राजा से डील करने से बेहतर होगा कि हिंदुस्तान के बादशाह
से सीधी बात की जाए। लेकिन उसमें एक खतरा था। इस बादशाह ने अभी अभी गद्दी संभाली
थी। यह बादशाह इस बात के लिए मशहूर था कि अपने विरोधियों को आनन फानन में ही पूरे
विश्व के मानचित्र से गायब कर देता है। लेकिन हमारे अनुभवी व्यवसायी का मानना था कि
सीधे या परोक्ष रूप से पूरे हिंदुस्तान के बादशाह से ही अपनी समस्या के सही निपटारे
की उम्मीद की जा सकती है। काफी सोच विचार करने के बाद उन्होंने अपना एक अनुभवी प्रतिनिधि
दिल्ली के दरबार के उस नवरत्न तक भेजा जो यातायात से संबंधित मामलों पर नीतियाँ तय
करता था। कहा जाता है कि नवरत्न बनने से पहले वह एक बहुत ही सफल व्यवसायी रह चुका था
इसलिए व्यवसायियों की बात वह बड़े गौर से सुनता है।
उसके बाद तय समय पर उस नवरत्न और बैलगाड़ी निर्माता संध के बीच
एक लंबी मंत्रणा हुई। उस गोष्ठी से निकलने के बाद दोनों ने मुसकराते हुए चेहरे से राजसी
चित्रकारों के सामने पोज दिया ताकि अच्छी से पेंटिंग बन सके। उसके बाद पूरे भारतवर्ष
में बैलगाड़ी का कारखाना लगाने के लिए टैक्स में अतिरिक्त छूट की घोषणा की गई। हर शहर
और हर गाँव में शिलालेख लगवाए गए जिनपर बैलगाड़ी से पर्यावरण को होने वाले फायदे का
वर्णन था। उसके बाद से पूरे देश में बैलगाड़ी के एक से एक नए मॉडल बिकने लगे और हर तरफ
समग्र विकास नजर आने लगा। बेचारा छोटे राज्य का राजा और कर भी क्या सकता था। उसे अपनी
सीमित सामर्थ्य का पता था इसलिए उसने बादशाह के नवरत्न के फरमान की अवहेलना नहीं की।
अब वह सिर्फ इस बात के सपने देख रहा है कि किस तरह से दिल्ली की गद्दी के नजदीक पहुँचा
जाए।
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