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Wednesday, May 18, 2016

नक्शे का लाइसेंस

भारत सरकार एक बिल लाने वाली है जिसके मुताबिक हर किसी को भारत के किसी भी भाग का नक्शा इस्तेमाल करने के लिए लाइसेंस लेना होगा। अब इससे दक्षिण एशिया की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा इस पर विचार विमर्श करने का जिम्मा मैं अपने से अधिक ज्ञानी लोगों पर छोड़ता हूँ। मुझे तो ये चिंता सता रही है कि इससे आम आदमियों के जीवन पर क्या असर पड़ेगा। इस विषय पर गहन चिंतन करके मैंने कुछ पहलुओं पर प्रकाश डालने की कोशिश की है।
कल्पना कीजिए कि सुबह सुबह किसी स्कूल में भूगोल की क्लास शुरु हो रही है और मास्टर साहब बच्चों से पिछले दिन दिए गए होमवर्क के बारे में पूछ रहे हैं।
मास्टर साहब, “कल मैंने एक होमवर्क दिया था जिसमें भारत के मानचित्र पर अधिक वर्षा और कम वर्षा वाले क्षेत्रों को दिखाना था। उस होमवर्क को जिसने भी पूरा किया हो वह अपने हाथ ऊपर कर ले।“
जवाब में कोई भी हाथ ऊपर नहीं उठा। जब मास्टर साहब ने कारण पूछा तो सबसे मेधावी छात्र गोपाल का जवाब आया।
गोपाल, “सर, मेरे पापा ने उस होमवर्क को बनाने से मना किया था क्योंकि मेरे पास उस नक्शे का लाइसेंस नहीं है। मेरे पापा नक्शा विभाग के दफ्तर के कई चक्कर लगा चुके हैं लेकिन यह पता ही नहीं चल पा रहा है कि लाइसेंस कितने में मिलेगा और किस काउंटर से मिलेगा।“
मास्टर साहब, “कोई बात नहीं है। मैंने प्रिंसिपल मैडम से बात की है ताकि स्कूल के लिए एक लाइसेंस ले लिया जाए। लेकिन वो बता रहीं हैं कि इसमें बहुत खर्चा आयेगा। उस खर्चे की भरपाई के लिए सभी छात्रों से डेवलपमेंट चार्ज के नाम पर एक मोटी राशि ली जाएगी। अभी तक के कानून के हिसाब से हम नक्शे के लाइसेंस के लिए छात्रों से कोई चार्ज नहीं कर सकते हैं। अरे हाँ, लगता है राहुल कुछ बोलना चाहता है। बोलो राहुल।“
राहुल, “मेरे पापा के कुछ दोस्त नक्शे वाले दफ्तर के बाहर दलाली का काम करते हैं। उनका कहना है कि लाइसेंस लिए बगैर भी काम चल सकता है। हाँ इसके बदले में स्कूल की तरफ से उस दफ्तर के लिए हर महीने कुछ नजराना चला जाता तो...............।“
मास्टर साहब, “ठीक है, ठीक है। चलो मैं शाम में तुम्हारे पापा से मिल लूँगा। लेकिन ये बात बाहर किसी को नहीं बताना।“
मास्टर साहब फिर कहते हैं, “लेकिन तुम्हारे घर का पता मुझे ठीक से मालूम नहीं है। आजकल मेरे फोन का नैविगेशन सिस्टम भी काम नहीं कर रहा है। उसमें मैसेज आ रहा है कि लाइसेंस की फीस के लिए हजार रुपए जमा करने पड़ेंगे। अब तक तो उनकी सेवा फ्री में मिल रही थी। अब फिर पुराने तरीके से कोई पता ढ़ूँढ़ना पड़ेगा। लेकिन अब किसी अंजान आदमी से पता पूछने में भी डर लगता है। जमाना खराब हो गया है। कहीं किसी चोर उचक्के के चक्कर में न पड़ जाऊँ।“
तभी स्कूल के डाइरेक्टर क्लास में आते हैं। वे मास्टर साहब से पूछते हैं, “सर, ये बताइए कि आपको यहाँ से एयरपोर्ट का रास्ता मालूम तो है? आजकल रेडियो टैक्सी के ड्राइवर भी जाने से इनकार कर रहे हैं। कहते हैं कि शहर में इतना अधिक नया कंस्ट्रक्शन हो गया है कि बिना नैविगेशन सिस्टम के रास्ता ढ़ूँढ़ना बहुत मुश्किल हो गया है। अब तो गूगल मैप ने भी भारत में अपनी सेवा देना बंद कर दिया है। सुना है कि भारत सरकार ने उसपर करोड़ों रुपयों का जुर्माना लगाया है।“
मास्टर साहब, “सर आप भूभाग क्यों नहीं इस्तेमाल करके देखते हैं। हाल ही में मशहूर बाबा झामदेव की कंपनी ने गूगल मैप जैसी ही सेवा शुरु की है। सुना है कि ग्राफिक्स कुछ धुँधले होते हैं लेकिन किसी रास्ते का मोटा-मोटा आइडिया लग जाता है। वैसे बहुत स्पेस लेता है और बहुत महँगे स्मार्टफोन में ही चल पाता है। आपके पास तो एक लैपटॉप भी है। लैपटॉप की हार्ड डिस्क में ज्यादा जगह होती है।“
डाइरेक्टर साहब, “डाउनलोड किया था। लेकिन उसका इस्तेमाल करना अपने आप में एक जद्दोजहद है। हर नई जगह का डाइरेक्शन बताने से पहले आधार नंबर और पैन नंबर डालना पड़ता है। उनका कहना है कि इससे काले धन पर रोक लगने में मदद मिलती है।“
मास्टर साहब, “सर एक बात पूछना चाहता हूँ। भूगोल की क्लास मानचित्र के बिना अधूरी हो जाती है। यदि आप एक स्कूल के लिए एक लाइसेंसे ले लेते तो............।“

डाइरेक्टर साहब, “अरे सर, आजकल के बच्चे कहाँ भूगोल में रुचि लेते हैं। उन्हें साइंस और गणित पर ही फोकस करने दीजिए। अंत में इन सबको इंजीनियर ही तो बनना है। उसके बात ये अपना रास्ता खुद ढ़ूँढ़ लेंगे।“ 

Tuesday, May 17, 2016

हॉलिडे होमवर्क

गर्मी की छुट्टियाँ कुछ स्कूलों में शुरु हो गई हैं और कुछ में शुरु हो चुकी हैं। इन छुट्टियों मे बच्चों की छुट्टी के मूड में यदि कोई सबसे बड़ा खलल डालता है तो वह है हॉलिडे होमवर्क। मेरे एक पड़ोसी की बेटी के हॉलिडे होमवर्क में से मैंने कुछ महत्वपूर्ण अंश छाँट कर निकाले हैं।
अंग्रेजी
“MAKE IN INDIA is an initiative launched by the government of India to encourage MNCs as well as national companies to manufacture their products in India. It was launched by our honourable …………….”
गणित
“Give the mathematical presentation of sector-wise growth and overall growth in terms of increased production……………………..under the proposed planning of MAKE IN INDIA.”
विज्ञान
“Make a poster on A4 sheet on ‘SMART cities in India’.
समाज शास्त्र
“Make a project on Make in India; with special reference to the automobile industry in India.”
हिंदी
“बुलेट ट्रेन के काम के मॉडल पर एक पावर पॉइंट परियोजना रिपोर्ट तैयार करे।“

जब मैंने उस कागज की शीट को ध्यान से पढ़ा तो मेरा तो पसीना निकल गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि यह हॉलिडे होमवर्क था या किसी सरकारी अध्यादेश से निकाला गया एक पन्ना या फिर किसी पार्टी की कार्यकारिणी का एजेंडा। जहाँ तक मेरी समझ है कि बच्चों को प्रोजेक्ट रिपोर्ट इसलिए बनाने दिए जाते हैं ताकि उनका समग्र मानसिक विकास हो। मुझे न तो मेक इन इंडिया के नारे से कोई शिकायत है न ही स्मार्ट सिटी के नारे से; लेकिन टीचर को अलग-अलग विषय के लिए अलग-अलग मुद्दे क्यों नहीं दिखाई दिए; यह सोचने की बात है। केवल विज्ञान को छोड़कर सभी विषयों में एक ही टॉपिक है; जैसे भारत में मुद्दों का उसी तरह से अकाल पड़ गया हो जैसे कि सूखाग्रस्त राज्यों में पानी का अकाल पड़ जाता है।
वह दिन दूर नहीं है जब होमवर्क के सवाल कुछ इस तरह से हुआ करेंगे:
  • हमारे नेता जी ने जो साइकिल ट्रैक बनाया है उसपर एक प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करें।
  • मुख्यमंत्री जी ने ऑड ईवेन लागू करके जनता जनार्दन पर जो अहसान किया उसपर एक पावर पॉइंट तैयार करें।
  • प्रधानमंत्री पद की महात्वाकांक्षा रखने वाले एक उम्मीदवार ने पूरे देश में शराबबंदी की बात शुरु कर दी है। इसपर एक मूल कविता लिखें।
  • नई सरकार के आने से लोगों को फ्री में टीवी, स्कूटी और लैपटॉप दिए जाने से राज्य का जो संभावित विकास होगा उसपर आँकड़े इकट्ठा कर के पाइ-चार्ट के रूप में दर्शाएँ।
  • एक महिला मुख्यमंत्री साधारण सी साड़ी पहनती हैं और एक महिला मंत्री बहुत उच्च कोटि की साड़ी पहनती हैं। दोनों के पहनावे के परिप्रेक्ष्य में भारत के हथकरघा उद्योग में काम करने वाले मजदूरों की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालें।“

इस तरह के सवालों के कई फायदे हैं। उम्मीद है कि अब छात्रों को आर्किमिडीज या न्यूटन साहब सपने में नहीं सताया करेंगे। उम्मीद है कि उन्हें अब इसकी भी चिंता नहीं करनी पड़ेगी कि पानीपत की पहली लड़ाई पानीपत में हुई थी या झुमरीतिलैया में। हिंदी में भी अब सूरदास या कबीरदास की कठिन शब्दावली वाले पदों के भावार्थ के चक्कर में नहीं पड़ना पड़ेगा।

मैं अभी से ये कोशिश कर रहा हूँ कि मेरे पड़ोस में रहने वाले अन्य बच्चों के हॉलिडे होमवर्क में कैसे-कैसे प्रश्न आते हैं यह पता करूँ। आपसे भी अनुरोध है कि इस तरह के अनूठे प्रश्नों पर यदि नजर पड़े तो मेरे पास जरूर भेजें। 

Wednesday, May 11, 2016

ऑड ईवेन का नया फार्मूला

आज सुबह-सुबह जब अखबार पलटा तो एक ज्ञान की बात पता चली। उस अखबार में छपी खबर के अनुसार अभी हाल ही में अप्रैल के महीने में संपन्न हुए ऑड-ईवेन अभियान के दौरान प्रदूषण स्तर में कोई सुधार नहीं आया था और न ही कंजेशन से कोई मुक्ति मिली थी। उस खबर में एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा गया था कि ऐसा स्कूलों के खुले रहने के कारण हुआ। जब जनवरी में दिल्ली के मुख्यमंत्री ने यह अभियान चलाया था तो उस समय स्कूलों की छुट्टियाँ होने के कारण ऑड-ईवेन का बेहतर रिजल्ट आया था। उसी खबर में ये भी लिखा था कि जब स्कूली बच्चों का सर्वे किया गया तो ये पता चला कि आधे से ज्यादा बच्चे प्राइवेट कारों या बाइकों से स्कूल जाते हैं। मैं  भी अपने बच्चे को स्वयं स्कूल छोड़ने जाता हूँ लेकिन मेरा अनुभव तो कहता है कि दस प्रतिशत से अधिक बच्चों के पिता उतने भी खाली नहीं हैं कि अपने बच्चे को स्कूल छोड़ सकें। हमारा जमाना ही अच्छा था जब हम पैदल ही स्कूल जाया करते थे। कम से कम ये डर तो नहीं रहता था कि प्रदूषण जैसी विकराल समस्या के लिए स्कूली बच्चों पर दोषारोपण होगा। अब तो शायद ही कोई बच्चा पैदल स्कूल जाता होगा। केजरीवाल भी अपनी जगह सही हैं क्योंकि अब तो हर आम दिल्लीवासी कारों में सफर करता है। इससे मंत्रियों और अधिकारियों को बहुत परेशानी होती है; क्योंकि उनके काफिले को जाम में फँसना पड़ता है। अब दिल्ली में इन हुक्मरानों की उतनी मनमानी तो चल नहीं पाती जितनी बिहार या उत्तर प्रदेश में चलती है। पटना या लखनऊ में तो मंत्री के काफिले के आगे-आगे डंडाधारी पुलिसवाले चलते हैं ताकि रास्ते में आने वाले किसी को भी डंडे की चोट पर हटाया जा सके। दिल्ली में अगर ऐसा हो गया तो फिर सारे मीडिया वाले हंगामा मचा देंगे। बेचारे मीडिया वालों की भी कोई गलती नहीं है। दिल्ली के बारे में खबर बनाना आसान है, क्योंकि इससे मीडियाकर्मियों को अपने दफ्तर से अधिक दूर जाने की जरूरत नहीं पड़ती।
खैर, इन सब बातों को छोड़कर असली मुद्दे पर आते हैं। अखबार में छपी उस रिपोर्ट पर मंत्रियों और अधिकारियों में खलबली मच जाएगी। कल्पना कीजिए कि अगले ऑड-ईवेन प्लान में कैसी-कैसी शर्तें रखी जाएँगी। जरा सोचिए कि अगला ऑड-ईवेन प्लान के लिए मीटिंग चल रही है और दिल्ली सरकार के आला मंत्री और अधिकारी अपने-अपने सुझाव रख रहे हैं। एक मंत्री बड़ा ही आसान तरीका सुझाता है कि अब से जब भी ऑड-ईवेन लागू हो तो सारे स्कूल बंद करने का आदेश निकाल दिया जाए। इससे बच्चे भी खुश हो जाएँगे कि जम कर खेलने-कूदने का मौका मिल जाएगा। इस पर मुख्यमंत्री जी कि राय होती है कि यदि मध्यम वर्ग को ठीक से परेशान न किया गया तो फिर टीवी चैनलों पर फुटेज नहीं मिलेगी। फिर एक अधिकारी कहता है कि जिन-जिन बच्चों के जन्म ऑड तारीख को हुए हैं वे ऑड तारीख को स्कूल नहीं जा सकेंगे। यही नियम ईवेन तारीखों को जन्म लेने वाले बच्चों पर भी लागू होगा। स्कीम को सही से लागू करने के लिए स्कूल पहुँचाने जाते समय हर माँ या बाप को साथ में बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र रखना होगा। लेकिन इसमें खतरा ये है कि जो बच्चे बसों या वैन से स्कूल जाते हैं उनको तो बेमौसम छुट्टी का मजा नहीं मिल पाएगा। फिर वे आंदोलन न कर दें? किसी ने कहा कि बच्चे कैसे आंदोलन कर सकते हैं तो किसी ने जवाब दिया कि आजकल के बच्चे; खासकर जिन्हें जुवेनाइल कहा जाता है; एक से एक जघन्य अपराध कर रहे हैं तो फिर आंदोलन या अनशन कौन सी बड़ी बात है।
उसके बाद एक बड़े ही काबिल मंत्री ने कहा कि जिन माता पिता के संतानों की संख्या ऑड है वे ऑड डेट को अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने नहीं जा पाएँगे। जिन माता पिता के संतानों की संख्या ईवेन है वे ईवेन डेट को अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने नहीं जा पाएँगे। इसके लिए किसी को भी जन्म प्रमाण पत्र लेकर चलने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अभियान शुरु होने से पहले हर पेट्रोल पंप पर स्टिकर मुफ्त बाँटे जाएँगे। उस स्टिकर पर बड़े-बड़े अक्षरों में ऑड बच्चेया ईवेन बच्चेलिखा होगा। उस स्टिकर को कार के अगले शीशे पर लगाना होगा। अब तो ज्यादातर लोगों के दो ही बच्चे होते हैं इसलिए यह स्कीम कारगर साबित होगी। महानगरों में तो बहुत से लोगों के अब एक ही बच्चा रहता है इसलिए यह स्कीम दोगुनी असरदार होगी।
मेरा सिर अब यह सोच-सोच कर भन्ना रहा है कि ऐसी स्थिति में मेरे जैसे कितने ही माँ-बाप क्या करेंगे। हम कुछ कर भी नहीं सकते, क्योंकि हम आम आदमी हैं। अधिकतर नेताओं को मध्यम वर्ग की उपस्थिति का अहसास ही नहीं होता क्योंकि इस वर्ग के लोगों को वोट बैंक की तरह नहीं हाँका जा सकता है। उन्हें तो केवल उस तरह के लोग पसंद होते हैं जिन्हें आसानी से अपनी बातों में फँसा कर सामूहिक रूप से वोटिंग के लिए मना लिया जाए। 

Tuesday, May 10, 2016

साइकिल ट्रैक के फायदे


हाल के वर्षों में जिस भी बड़े आदमी को देखिए वही आपको पर्यावरण के बारे में अपना ज्ञान बघारता मिल जाएगा। आप शायद जानते होंगे कि हमारे मुल्क में बड़े लोग कौन होते हैं। जी हाँ! वही जिनके हाथ में सत्ता होती है या फिर वे जो सत्ताधारियों को अपने इशारों पर नचाते हैं। इनमें से हर किसी के पास पर्यावरण को बचाने के लिए कोई न कोई बेहतर सुझाव अवश्य होता है। जैसे कि एक एजेंसी है जिसे ऐसा लगता है कि चंद कारों को पंद्रह दिन के लिए शहर में चलने से रोक देने पर वह शहर प्रदूषण मुक्त हो जाएगा। उन्हें शायद हजारों की संख्या में वे सरकारी वाहन नहीं दिखते हैं जिनका PUC सर्टिफिकेट कब का समाप्त हो गया है किसी को याद नहीं। इसी कड़ी में कुछ नए लोग शुमार हो गए हैं जिन्हें लगता है कि साइकिल ट्रैक बनाने से पर्यावरण को बहुत फायदा होगा। अभी हाल ही में मेरे शहर में साइकिल ट्रैक बनाने का काम जोर शोर पर है। संयोग से मैं उस रास्ते से रोज सुबह सुबह गुजरता हूँ इसलिए इस ऐतिहासिक परिवर्तन का गवाह बनने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। मैं भी कभी जीव विज्ञान का छात्र था इसलिए मैंने भी पर्यावरण से संबंधित कुछ अध्याय को पढ़ा था। इसलिए मुझे लगा कि मैं भी इस विषय पर शोध कर सकता हूँ कि साइकिल ट्रैक बनने से क्या-क्या फायदे हो सकते हैं। अब मैं ठहरा एक लेखक इसलिए मेरे पास खाली समय की कोई कमी नहीं है। इसलिए मैंने सोचा कि सुबह-सुबह अपने बेटे को स्कूल छोड़ने के बाद कुछ लोगों का इंटरव्यू लेकर यह पता करना चाहिए कि साइकिल ट्रैक बनने से क्या फायदा होगा। आपके ज्ञान के लिए यह बता देना उचित होगा कि यह साइकिल ट्रैक सड़क के बीच के डिवाइडर पर बन रहा है; जहाँ पर पहले थोड़ी बहुत हरियाली दिखाई देती थी।
सबसे पहले मुझे उस साइकिल ट्रैक पर कुछ स्कूली बच्चे और कुछ टीचर अपने-अपने स्कूटी पर फर्राटे से जाते दिखाई दिए। उनमें से कुछ ने रुककर मेरे सवालों का जवाब देने के लिए हामी भर दी। कई छात्रों ने बताया कि अब उन्हें इसका हिसाब नहीं लगाना पड़ेगा कि वे सड़क के राइट साइड से जा रहे हैं या रॉंग साइड से। टीचर ने भी उनकी हाँ में हाँ की। जब टीचर से मैंने अंडर एज ड्राइविंग पर उनके विचार जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि उन्होंने अभी-अभी अपना अठाहरवाँ जन्मदिन मनाया है इसलिए उनके पास बकायदा ड्राइविंग लाइसेंस भी है। बच्चों के बारे में कुछ भी बोलने से वे कतराती रहीं।
उसके बाद मुझे एक मजदूर मिला जो एक ठेले पर कूड़ा भरकर लाया था। उसका कहना था कि पहले डिवाइडर के बीचोबीच कूड़ा डालने में बड़ी परेशानी होती थी, लेकिन अब समतल साइकिल ट्रैक बन जाने से उसका काम आसान हो जाएगा।
वहीं आगे जाने पर मुझे एक यू टर्न के ठीक पहले एक झोपड़ी मिली जिसमें एक ढ़ाबा चल रहा था। उस ढ़ाबे वाले ने बताया कि साइकिल ट्रैक बनने से उसे अपनी बिक्री बढ़ने की उम्मीद है। अब वह आसानी से अपने ग्राहकों के लिए कई बेंचें साइकिल ट्रैक पर लगा पाएगा।
थोड़ा आगे जाने पर मैंने देखा कि कुछ कार भी साइकिल ट्रैक पर लगी हुई थी। उनमें से एक के मालिक ने कहा कि अब पार्किंग के लिए जगह ढ़ूँढ़ने में कोई परेशानी नहीं होगी। पहले ते वे मेन रोड पर कहीं भी पार्किंग कर देते थे लेकिन उसमें हमेशा ये खतरा बना रहता था कि कोई कार को ठोक कर न चला जाए। अब उसका खतरा कम हो जाएगा। थोड़ा आगे जाने पर मुझे एक बड़ी सी एसयूवी मिली जिस पर पुलिस का लोगो लगा था। उसमें बैठे पुलिस वाले भी साइकिल ट्रैक बनने से बड़े खुश थे। उन्होंने बताया कि पहले उनकी गश्ती वाली गाड़ी के लिए माकूल जगह नहीं मिल पाती थी। अब वे आसानी से साइकिल ट्रैक पर अपनी गाड़ी खड़ी कर सकते हैं। इससे थोड़ी बहुत छाया भी मिल जाएगी और आराम भी रहेगा।

लेकिन उतनी देर इधर उधर चक्कर लगाने के बाद भी मुझे कोई साइकिल वाला नहीं मिला। जिसे देखो वही या तो कार से जा रहा था या मोटरसाइकिल या स्कूटर से। यहाँ तक स्कूली बच्चे भी अपनी चमचमाती हुई स्कूटी से ही स्कूल जा रहे थे। हाँ, तभी मुझे एक बड़ी सी कार जाती दिखी जिसपर पीछे एक साइकिल टॅंगी हुई थी। वह भी बकायदा किसी मजबूत फ्रेम से जकड़ कर लगाई गई थी; जैसा कि हम अक्सर विदेशों के दृश्य में देखते हैं। मेरे आस पास लगी भीड़ को देखकर वह कारवाला अपनी जिज्ञासा शांत करने के उद्देश्य से रुका। जब मैंने उससे पूछा कि साइकिल ट्रैक बन जाने के बावजूद वह अपनी कार से कहाँ जा रहा है। उसने कहा कि वह साइकिल चलाने के लिए अपने फार्म हाउस जा रहा था जो वहाँ से कोई पचास किलोमीटर दूर था। उसने बताया कि उस साइकिल ट्रैक के अगल बगल से भारी ट्रैफिक गुजरता है इसलिए उसे ताजी हवा नहीं मिल पाती है। इसलिए वह अपने फार्म हाउस में साइकिल चलाना ज्यादा पसंद करता है। 

Friday, May 6, 2016

दशरथ ने कोप भवन क्यों बनवाया था?

यह किसी अत्यधिक काबिल टीचर द्वारा पूछा गया सवाल नहीं है और न ही किसी प्राइवेट स्कूल की प्रोजेक्ट का हिस्सा है। ये और बात है कि इस तरह के ऊलजलूल टॉपिक अक्सर प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों को प्रोजेक्ट के तौर पर मिलते हैं। हो सकता है कि यह सवाल इसके पहले भी किसी के मन में आया हो लेकिन उसने उसे वहीं पर खारिज कर दिया हो। यह सवाल मेरे दिमाग की भी मूल उपज नहीं है।
आजकल सैंकड़ो टीवी चैनल हो गए हैं और लगभग हर चैनल पर एक जैसे ही प्रोग्राम दिखाई देते हैं। कुछ में तो कलाकार भी एक ही होते हैं जो पोशाक भी एक ही पहने रहते हैं। ऐसा लगता है कि वे न्यूज चैनल पर दिखने वाले पार्टी प्रवक्ताओं की तरह हो गए हैं जो एक ही बार में कई चैनलों पर दिख जाते हैं। इसी तरह के एक जैसे प्रोग्रामों की दौड़ में धार्मिक सीरियलों की भी बाढ़ आ गई है। अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है जब हमें रामायण में राम, सीता, लक्ष्मण, मेघनाद और रावण की भूमिका कर रहे कलाकारों के नाम याद होते थे। उस जमाने में रामायण नाम का एक ही धारावाहिक हुआ करता था क्योंकि टीवी चैनल भी इकलौता था; दूरदर्शन। अब तो एक महाभारत खत्म नहीं होती है कि दूसरी शुरु हो जाती है। कोई रामायण को रावण के नजरिये से दिखाने की कोशिश करता है तो कोई सीता की नजर से। ऐसा ही एक धारावाहिक किसी लोकप्रिय चैनल पर आ रहा है जिसमें निर्माता का दावा है कि वो सीता के दृष्टिकोण से रामायण को बनाने की कोशिश कर रहा है। बढ़ती हुई टीआरपी से जितना हो सके उतना पैसे बटोर लेने के चक्कर में रामायण के छोटे से छोटे प्रसंग को भी इतना खींचा जाता है जितना कि वाल्मीकि या तुलसीदास ने भी नहीं खींचा होगा। मेरी समझ में नहीं आता है कि कुछ दर्शक; खासकर गृहस्वामिनियाँ; इस बात को कैसे बर्दाश्त कर लेती हैं कि उनकी आँखों के सामने ही कोई बाल की खाल को उनसे बेहतर निकाल रहा होता है।
ऐसा ही कोई एपिसोड चल रहा था जिसमें वह मशहूर प्रसंग पिछले चार सप्ताह से चल रहा था जिसमें कैकेई कोपभवन में चली जाती है और फिर दशरथ को यह कड़वा सच पता चल जाता है कि मर्द कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, अपनी पत्नी के सामने उसे एक न एक दिन हथियार डालना ही पड़ता है। मैं भी मजबूरी में उस एपिसोड को देख रहा था क्योंकि रिमोट पर का कंट्रोल मेरे हाथ में नहीं था। कैमरामैन बड़ी ही दक्षता के साथ कैकेई के क्लोज अप शॉट दिखा रहा था ताकि कैकेई के रौद्र रूप के हर पहलू को दिखा सके। बीच बीच में दशरथ के फुटेज से करुणा रस की झलक भी मिल रही थी। पास में ही मेरा बारह साल का बेटा भी बैठा था। उसे इन पुरानी कहानियों में जरा भी दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि उसे फेसबुक और यूट्यूब पर समय बिताना अधिक उपयोगी लगता है। फिर भी अपने बाप की मजबूरी देखकर उसे भी यह अहसास हो गया था कि शराफत से उस सीरियल को झेलता रहे। बारह वर्ष के बच्चे बड़े जिज्ञासु प्रवृत्ति के होते हैं। यह वह समय होता है जब उनका बचपन जा रहा होता है और वे किशोरावस्था की दहलीज पर खड़े होते हैं। सीरियल देखते देखते उसने ऐसा सवाल दाग दिया कि मैं निरुत्तर हो गया।
उसने मुझसे पूछा, “पापा, ये बताओ कि दशरथ तो बड़ा ही ज्ञानी राजा था। फिर उसने कोप भवन क्यों बनवाया? ना वो कोपभवन बनवाता ना इतना बड़ा कांड होता। आखिर उसने इतनी बड़ी गलती क्यों कर दी?”
मैं मन ही मन उसकी बातों से सहमत था लेकिन पास में अपनी पत्नी के बैठे होने की वजह से कुछ लाचार भी था। जब बच्चे कोई कठिन सवाल पूछते हैं तो उसका इमानदारी से जवाब देना चाहिए; ऐसा बहुत सारे सेल्फ हेल्प बुक का कहना है। लेकिन उस तरह की सभी किताबों में केवल थ्योरेटिकल ज्ञान होता है जिसे व्यावहारिकता के धरातल पर उतारना उतना ही मुश्किल होता है जितना किसी नए प्रधानमंत्री को हवाई यात्रा पर जाने से रोकना। मैंने किसी दक्ष बाप की तरह उस सवाल को सदा के लिए दफन करने की कोशिश करते हुए कहा, “अरे बेटा, ये तो कहानी के प्लॉट का अहम हिस्सा है। यदि कैकेई कोपभवन नहीं जाती तो फिर ये कहानी आगे कैसे बढ़ती। फिर राम वन कैसे जाते और सीता का हरण कैसे होता। ये सब नहीं होता तो इस कहानी का विलेन मारा कैसे जाता।“
मेरे बेटे के चेहरे से लगा कि वह मेरे उत्तर से संतुष्ट नहीं था। लेकिन उसने शायद अपने पिता की इज्जत रखने के लिए हामी भर दी और फिर बात आई गई हो गई।
लेकिन उसके बाद से यह सवाल मेरे मन में वैसे ही घुमड़ रहा है जैसे कि कब्ज के मरीज के पेट में पिछले छ: दिन का कचरा घुमड़ रहा हो। मैं भी सोचने को विवश हो गया हूँ कि दशरथ जैसे महान राजा ने कोपभवन क्यों बनवाया होगा। वह अपनी रानियों के लिए सुंदर अटारियाँ बनवाते, बाग बगीचे लगवाते, गहने जेवर बनवाते, आलीशान फर्नीचर बनवाते। ये सब तो उन्होंने जरूर बनवाए होंगे, फिर कोपभवन बनवाने की क्या जरूरत थी।
अब तो अधिकाँश लोग दो या तीन कमरों के मकान में रहते हैं। उसमें से भी यदि एक कमरे को कोपभवन बना दिया गया तो फिर टू बी एच के फ्लैट का क्या होगा? यदि किसी की पत्नी ने फरमाइश कर दी कि एक कोपभवन बनवाओ तो बेचारे आदमी की पूरी जिंदगी की कमाई ही उसे बनवाने में लुट जाएगी। फिर वह पहले से लोन पर लिए हुए घर की ईएमआई कहाँ से भरेगा। सोचिए, यदि शाहजहाँ ने ताजमहल की जगह कोपभवन बनवाया होता तो उसका क्या हश्र होता। वैसे ताजमहल बनवाने के बाद भी उसके साथ कुछ अच्छा नहीं हुआ था। उसे एक सनकी बुड्ढ़ा समझकर उसके ही बेटे ने उसे कैदखाने में डाल दिया था।
इस सवाल को एक और दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है। सच पूछा जाए तो कोपभवन की जरूरत ही क्या है। जब भी किसी गृहिणी का मूड बिगड़ जाता है तो वह बड़े आराम से अपने किसी भी कमरे को कोपभवन बना लेती है। कभी-कभी तो वह पूरे घर को कोपभवन बना लेती है। आप में से कई लोगों ने इस दर्द को करीब से झेला होगा। शाम को बेचारा मर्द जब अपने काम की थकान के बाद ट्रैफिक की मार झेलने के बाद घर पहुँचता है तो दरवाजा खुलने के स्टाइल से ही पकड़ लेता है कि उसका घर कोपभवन बना हुआ है। पीने का पानी तो वह खुद ही फ्रिज से निकाल लेता है लेकिन चाय की प्याली धम्म से उसके पास रख दी जाती है। रसोई में से जब चकले और बेलन की जोर-जोर की खटपट सुनाई देती है तो वह इस वजह से नहीं कि गृहस्वामी के लिए बड़ी मेहनत से भोजन तैयार हो रहा है बल्कि इसलिए कि मैडम का आज मूड खराब है। दशरथ तो फिर भी भाग्यशाली थे, क्योंकि कैकेई ने उन्हें अपने गुस्से का कारण बता दिया था। लेकिन आजकल के ज्यादातर पतियों की वैसी किस्मत कहाँ। पूछने पर कोई कारण ही नहीं पता चलता। यह ऐसा सवाल बन जाता है जिसका जवाब गूगल के पास भी न हो। मुद्दा उतना बड़ा भी नहीं होता है जैसा कि रामायण में था; सत्ता का हस्तानांतरण। क्योंकि भारत के एक आधुनिक आम आदमी के पास कोई दशरथ जैसा राज पाट भी नहीं है और न ही चार बेटे। अब तो कुल जमा एक बीवी होती है और एक या बहुत हुआ तो दो बच्चे। एक बात के लिए दशरथ की दाद तो देनी ही चाहिए। वे तीन-तीन पत्नियों के स्वामी होने की हिम्मत जो रखते थे।
बहरहाल, मैंने अपने कई मित्रों से इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश की लेकिन अभी तक कुछ भी हाथ न लगा। हो सकता है कि हमारे यहाँ के बड़े रईसों; जैसे टाटा, अंबानी, अडानी, आदि के घरों में कोपभवन हो और हमें पता भी नहीं हो। यदि उनके घरों से ये बात बाहर आ गई तो हो सकता है कि सरकार उनपर कोपभवन टैक्सलगाना शुरु कर दे। उसके बाद ये भी हो सकता है कि सरकार गरीबों को मुफ्त में कोपभवन मुहैया कराने के चक्कर में कोपभवन सेसलगा दे। इस पर कोई विरोध भी नहीं होगा क्योंकि इसमें नारी का सम्मान निहित है। यह भी हो सकता है कि कोई ऐसा कानून पास हो जाए जिसके कारण कोई भी महिला अपने पति और ससुराल वालों को कोपभवन ना बनवाने के जुर्म में जेल की हवा खिला सके।

यह एक पेचीदा सवाल है। यदि आपमें से किसी को भी इसका जवाब मालूम हो तो कृपया मेरे ज्ञान चक्षु खोलने की कोशिश जरूर करिएगा। 

Monday, April 25, 2016

Jungle Book Hindi Translation

जंगल का कानून बिना कारण किसी को मारने की अनुमति नहीं देता है। इस कानून के मुताबिक कोई भी जानवर मनुष्य का शिकार नहीं कर सकता। वह केवल तभी किसी मनुष्य का शिकार कर सकता है जब वह अपने बच्चों को शिकार का प्रशिक्षण दे रहा होता है। लेकिन ऐसा करने के लिए उसे अपने दल के शिकार के इलाके को छोड़कर जाना होगा। क्योंकि सभी जानवर जानते हैं कि ऐसा करने से जल्दी ही गोरे लोग हाथियों पर सवार होकर और बंदूकों से लैस होकर आते हैं और उनके साथ सैंकड़ों की तादाद में तांबई चमड़ी वाले लोग भी होते हैं जिनके हाथ में मशाल, ढ़ोल और भाले होते हैं। ऐसा होने पर जंगल के हर जानवर को घोर दुख झेलना पड़ता है। जानवर आपस में यह बात भी करते हैं कि मनुष्य सबसे कमजोर प्राणी है और ऐसे प्राणी को छूना भी उचित नहीं है। वे ऐसा भी कहते हैं; जो कि काफी हद तक सच है; कि एक आदमखोर जानवर के कीड़े पड़ते हैं और उसके दाँत झड़ जाते हैं। 

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Saturday, July 11, 2015

मुर्ग मसल्लम

परीक्षा ख़त्म होने के बाद सुमन गेट के बाहर राकेश का इंतजार कर रहा था।  राकेश और सुमन रांची से बोकारो आये थे, किसी सरकारी नौकरी में भर्ती के लिए परीक्षा देने। राकेश बाइस साल का है और सुमन पच्चीस साल का।  दोनों प्राइवेट कंपनी में सेल्स रिप्रेजेंटेटिव के तौर पर काम करते हैं।  दोनों रांची में एक ही मकान में साथ रहते है। दोनों एक ही शहर दरभंगा से आते हैं इसलिए दोनों में अच्छी पटरी खाती है।  तनख्वाह के हिसाब से देखा जाए तो दोनों अच्छी खासी नौकरी कर रहे है। लेकिन सरकारी नौकरी करने वालों की समाज में अच्छी इज्जत मानी जाती है, इसलिए ये दोनों इस प्रयास में लगे हैं की किसी तरह सरकारी नौकरी लग जाए।  अब सेल्स के काम में इतना ज्यादा घूमना पड़ता है की इन्हे इतना समय नहीं मिलता कि सरकारी नौकरी के लिए ठीक से तैयारी कर सकें।  बहरहाल, दोनों ने बस ठीक ठाक उत्तर दिए थे और बहुत ज्यादा उम्मीद लगाए नहीं बैठे थे।  वैसे भी उन्हें नौकरी की चिंता तो थी नहीं।  
 परीक्षा के बाद दोनों ने एक रिक्शा किया और सेक्टर १ के राम चौक से चास की और चल पड़े।  चास में उन्होेने किसी होटल में एक कमरा ले रखा था।  दोनों ही अपने काम के सिलसिले में अक्सर बोकारो आया करते थे इसलिए उनके लिए यह शहर नया नहीं था।  यदि परीक्षा एतवार को न होती तो ये तो कंपनी के खर्चे पर ही रांची से बोकारो का ट्रिप कर लेते।  होटल पहुंचने के बाद दोनों ने कुछ देर आराम किया।  फिर परीक्षा में उम्मीद से अच्छा करने की ख़ुशी में सोचा कि थोड़ी मस्ती की जाए।  सुमन ने रिसेप्शन पर फोन करके बियर और नमकीन मंगवाए।  बियर पीने के बाद दोनों ने सोचा कि कुछ अच्छा खाना खाया जाए।  वे ऐसे लोगों में थे जिनके लिए अच्छे खाने का मतलब होता है नॉन वेज के नाम पर कुछ भी परोस दो।  जिस होटल में वे ठहरे थे उसमे पता चला कि नॉन वेज नहीं मिलता था।  इसलिए दोनों होटल से बाहर आए और पैदल ही किसी रेस्तरां की तलाश में निकल पड़े।  चास का यह इलाका किसी चिर परिचित बाजार की तरह लगता है।  यहाँ पर थोक विक्रेताओं की मंडी है।  विभिन्न कम्पनियों के सेल्स के लोग यहाँ  आते-जाते रहते हैं इसलिए यहां हर रेट के ठीक-ठाक होटल है।  
आखिरकार उन्हें एक ऐसा रेस्तरां मिला गया जो अच्छा दिख रहा था और उनके बजट में भी आ रहा था।  वह नया ही खुला था।  सुमन ने उसके मैनेजर के सामने लम्बी चौड़ी डींगें मारी यह दिखाने के लिए कि वह किसी कंपनी का बड़ा साहब है।  उसके लिए यह आसान भी था क्योंकि वे वहां पर के सबसे  मंहगे होटल में ठहरे हुए थे।  जी नहीं, यह कोई तीन या पांच सितारा होटल नहीं था, लेकिन चास जैसे बाजार की नाक था।  थोड़ी देर में उनके सामने एक पूरे मुर्गे का मुर्ग मसल्लम आ गया।  साथ में पराठे और सलाद भी।  दोनों को तेज भूख लगी थी, इसलिए दोनों उस लजीज खाने पर टूट पड़े।  मैनेजर ने उन्हें अपनी तरफ से आइसक्रीम भी पेश किया।  वह इस उम्मीद में था कि इससे अगली बार से सुमन की कंपनी के सभी साहब उसी रेस्तरां में जाया करेंगे।  फिर बिल चुकता करने के बाद वे दोनों वापस उस होटल में चले गए जहां वे ठहरे हुए थे।  
दोनों बिस्तर पर लेटे हुए स्वादिष्ट भोजन पर टीका टिप्पणी कर ही रहे थे कि सुमन को ध्यान आया कि उस रेस्तरां वाले ने गलती से कम पैसे लिए थे।  राकेश ने सुमन को ध्यान दिलाया कि सुबह से ही दोनों अपनी औकात से ज्यादा रईसी कर रहे थे।  अब उनके पास इतने ही पैसे बचे थे कि वे इस होटल का बिल चुकता करने के बाद किसी तरह से बोकारो स्टेशन पहुंच कर ट्रेन की टिकट कटाकर रांची पहुंच सके।  सुमन एकदम से बिस्तर से उठा और दोनों जल्दी-जल्दी अपना सामान पैक करने लगे।  राकेश ने घड़ी में देखा कि अभी तीन बजे हैं।  उन्होंने तय किया की उन्हें फ़ौरन बोकारो स्टेशन के लिए चल देना चाहिए इसके पहले कि उस रेस्तरां का मैनेजर उन्हें ढूंढता हुआ आ जाए।  जब वे इस होटल का बिल चुकता कर रहे थे तभी उस रेस्तरां से एक वेटर उनके पास आया; एक सही बिल के साथ।  सुमन से उसे खूब खरी खोटी सुनाई और कहा कि वह अपने मैनेजर को भेज दे, क्योंकि उस जैसे वेटर से बात करना सुमन जैसे साहब की तौहीन होती।  
उन्हें पूरा भरोसा था कि जब तक वेटर रेस्तरां तक पहुंचेगा, वे चास की सीमा से निकल चुके होंगे।  बोकारो स्टेशन वहां से इतनी दूर था कि एक बार वहां पहुंचने का मतलब था खतरे से मुक्ति।  वे दोनों आनन-फानन में बाहर निकले, एक ऑटो पर सवार हुए और उसे तेज चलने को कहा।  बोकारो स्टेशन पहुंचने पर पता चला कि वर्धमान हटिया पैसेंजर ट्रेन आने ही वाली थी।  जब तक ट्रेन नहीं छूटी, तब तक उनका दिल किसी अनिष्ट की आशंका से तेजी से धड़क रहा था।  जैसे ही ट्रेन ने प्लेटफॉर्म छोड़ा, दोनों ने चैन की सांस ली।