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Tuesday, May 10, 2016

साइकिल ट्रैक के फायदे


हाल के वर्षों में जिस भी बड़े आदमी को देखिए वही आपको पर्यावरण के बारे में अपना ज्ञान बघारता मिल जाएगा। आप शायद जानते होंगे कि हमारे मुल्क में बड़े लोग कौन होते हैं। जी हाँ! वही जिनके हाथ में सत्ता होती है या फिर वे जो सत्ताधारियों को अपने इशारों पर नचाते हैं। इनमें से हर किसी के पास पर्यावरण को बचाने के लिए कोई न कोई बेहतर सुझाव अवश्य होता है। जैसे कि एक एजेंसी है जिसे ऐसा लगता है कि चंद कारों को पंद्रह दिन के लिए शहर में चलने से रोक देने पर वह शहर प्रदूषण मुक्त हो जाएगा। उन्हें शायद हजारों की संख्या में वे सरकारी वाहन नहीं दिखते हैं जिनका PUC सर्टिफिकेट कब का समाप्त हो गया है किसी को याद नहीं। इसी कड़ी में कुछ नए लोग शुमार हो गए हैं जिन्हें लगता है कि साइकिल ट्रैक बनाने से पर्यावरण को बहुत फायदा होगा। अभी हाल ही में मेरे शहर में साइकिल ट्रैक बनाने का काम जोर शोर पर है। संयोग से मैं उस रास्ते से रोज सुबह सुबह गुजरता हूँ इसलिए इस ऐतिहासिक परिवर्तन का गवाह बनने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। मैं भी कभी जीव विज्ञान का छात्र था इसलिए मैंने भी पर्यावरण से संबंधित कुछ अध्याय को पढ़ा था। इसलिए मुझे लगा कि मैं भी इस विषय पर शोध कर सकता हूँ कि साइकिल ट्रैक बनने से क्या-क्या फायदे हो सकते हैं। अब मैं ठहरा एक लेखक इसलिए मेरे पास खाली समय की कोई कमी नहीं है। इसलिए मैंने सोचा कि सुबह-सुबह अपने बेटे को स्कूल छोड़ने के बाद कुछ लोगों का इंटरव्यू लेकर यह पता करना चाहिए कि साइकिल ट्रैक बनने से क्या फायदा होगा। आपके ज्ञान के लिए यह बता देना उचित होगा कि यह साइकिल ट्रैक सड़क के बीच के डिवाइडर पर बन रहा है; जहाँ पर पहले थोड़ी बहुत हरियाली दिखाई देती थी।
सबसे पहले मुझे उस साइकिल ट्रैक पर कुछ स्कूली बच्चे और कुछ टीचर अपने-अपने स्कूटी पर फर्राटे से जाते दिखाई दिए। उनमें से कुछ ने रुककर मेरे सवालों का जवाब देने के लिए हामी भर दी। कई छात्रों ने बताया कि अब उन्हें इसका हिसाब नहीं लगाना पड़ेगा कि वे सड़क के राइट साइड से जा रहे हैं या रॉंग साइड से। टीचर ने भी उनकी हाँ में हाँ की। जब टीचर से मैंने अंडर एज ड्राइविंग पर उनके विचार जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि उन्होंने अभी-अभी अपना अठाहरवाँ जन्मदिन मनाया है इसलिए उनके पास बकायदा ड्राइविंग लाइसेंस भी है। बच्चों के बारे में कुछ भी बोलने से वे कतराती रहीं।
उसके बाद मुझे एक मजदूर मिला जो एक ठेले पर कूड़ा भरकर लाया था। उसका कहना था कि पहले डिवाइडर के बीचोबीच कूड़ा डालने में बड़ी परेशानी होती थी, लेकिन अब समतल साइकिल ट्रैक बन जाने से उसका काम आसान हो जाएगा।
वहीं आगे जाने पर मुझे एक यू टर्न के ठीक पहले एक झोपड़ी मिली जिसमें एक ढ़ाबा चल रहा था। उस ढ़ाबे वाले ने बताया कि साइकिल ट्रैक बनने से उसे अपनी बिक्री बढ़ने की उम्मीद है। अब वह आसानी से अपने ग्राहकों के लिए कई बेंचें साइकिल ट्रैक पर लगा पाएगा।
थोड़ा आगे जाने पर मैंने देखा कि कुछ कार भी साइकिल ट्रैक पर लगी हुई थी। उनमें से एक के मालिक ने कहा कि अब पार्किंग के लिए जगह ढ़ूँढ़ने में कोई परेशानी नहीं होगी। पहले ते वे मेन रोड पर कहीं भी पार्किंग कर देते थे लेकिन उसमें हमेशा ये खतरा बना रहता था कि कोई कार को ठोक कर न चला जाए। अब उसका खतरा कम हो जाएगा। थोड़ा आगे जाने पर मुझे एक बड़ी सी एसयूवी मिली जिस पर पुलिस का लोगो लगा था। उसमें बैठे पुलिस वाले भी साइकिल ट्रैक बनने से बड़े खुश थे। उन्होंने बताया कि पहले उनकी गश्ती वाली गाड़ी के लिए माकूल जगह नहीं मिल पाती थी। अब वे आसानी से साइकिल ट्रैक पर अपनी गाड़ी खड़ी कर सकते हैं। इससे थोड़ी बहुत छाया भी मिल जाएगी और आराम भी रहेगा।

लेकिन उतनी देर इधर उधर चक्कर लगाने के बाद भी मुझे कोई साइकिल वाला नहीं मिला। जिसे देखो वही या तो कार से जा रहा था या मोटरसाइकिल या स्कूटर से। यहाँ तक स्कूली बच्चे भी अपनी चमचमाती हुई स्कूटी से ही स्कूल जा रहे थे। हाँ, तभी मुझे एक बड़ी सी कार जाती दिखी जिसपर पीछे एक साइकिल टॅंगी हुई थी। वह भी बकायदा किसी मजबूत फ्रेम से जकड़ कर लगाई गई थी; जैसा कि हम अक्सर विदेशों के दृश्य में देखते हैं। मेरे आस पास लगी भीड़ को देखकर वह कारवाला अपनी जिज्ञासा शांत करने के उद्देश्य से रुका। जब मैंने उससे पूछा कि साइकिल ट्रैक बन जाने के बावजूद वह अपनी कार से कहाँ जा रहा है। उसने कहा कि वह साइकिल चलाने के लिए अपने फार्म हाउस जा रहा था जो वहाँ से कोई पचास किलोमीटर दूर था। उसने बताया कि उस साइकिल ट्रैक के अगल बगल से भारी ट्रैफिक गुजरता है इसलिए उसे ताजी हवा नहीं मिल पाती है। इसलिए वह अपने फार्म हाउस में साइकिल चलाना ज्यादा पसंद करता है। 

Friday, May 6, 2016

दशरथ ने कोप भवन क्यों बनवाया था?

यह किसी अत्यधिक काबिल टीचर द्वारा पूछा गया सवाल नहीं है और न ही किसी प्राइवेट स्कूल की प्रोजेक्ट का हिस्सा है। ये और बात है कि इस तरह के ऊलजलूल टॉपिक अक्सर प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों को प्रोजेक्ट के तौर पर मिलते हैं। हो सकता है कि यह सवाल इसके पहले भी किसी के मन में आया हो लेकिन उसने उसे वहीं पर खारिज कर दिया हो। यह सवाल मेरे दिमाग की भी मूल उपज नहीं है।
आजकल सैंकड़ो टीवी चैनल हो गए हैं और लगभग हर चैनल पर एक जैसे ही प्रोग्राम दिखाई देते हैं। कुछ में तो कलाकार भी एक ही होते हैं जो पोशाक भी एक ही पहने रहते हैं। ऐसा लगता है कि वे न्यूज चैनल पर दिखने वाले पार्टी प्रवक्ताओं की तरह हो गए हैं जो एक ही बार में कई चैनलों पर दिख जाते हैं। इसी तरह के एक जैसे प्रोग्रामों की दौड़ में धार्मिक सीरियलों की भी बाढ़ आ गई है। अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है जब हमें रामायण में राम, सीता, लक्ष्मण, मेघनाद और रावण की भूमिका कर रहे कलाकारों के नाम याद होते थे। उस जमाने में रामायण नाम का एक ही धारावाहिक हुआ करता था क्योंकि टीवी चैनल भी इकलौता था; दूरदर्शन। अब तो एक महाभारत खत्म नहीं होती है कि दूसरी शुरु हो जाती है। कोई रामायण को रावण के नजरिये से दिखाने की कोशिश करता है तो कोई सीता की नजर से। ऐसा ही एक धारावाहिक किसी लोकप्रिय चैनल पर आ रहा है जिसमें निर्माता का दावा है कि वो सीता के दृष्टिकोण से रामायण को बनाने की कोशिश कर रहा है। बढ़ती हुई टीआरपी से जितना हो सके उतना पैसे बटोर लेने के चक्कर में रामायण के छोटे से छोटे प्रसंग को भी इतना खींचा जाता है जितना कि वाल्मीकि या तुलसीदास ने भी नहीं खींचा होगा। मेरी समझ में नहीं आता है कि कुछ दर्शक; खासकर गृहस्वामिनियाँ; इस बात को कैसे बर्दाश्त कर लेती हैं कि उनकी आँखों के सामने ही कोई बाल की खाल को उनसे बेहतर निकाल रहा होता है।
ऐसा ही कोई एपिसोड चल रहा था जिसमें वह मशहूर प्रसंग पिछले चार सप्ताह से चल रहा था जिसमें कैकेई कोपभवन में चली जाती है और फिर दशरथ को यह कड़वा सच पता चल जाता है कि मर्द कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, अपनी पत्नी के सामने उसे एक न एक दिन हथियार डालना ही पड़ता है। मैं भी मजबूरी में उस एपिसोड को देख रहा था क्योंकि रिमोट पर का कंट्रोल मेरे हाथ में नहीं था। कैमरामैन बड़ी ही दक्षता के साथ कैकेई के क्लोज अप शॉट दिखा रहा था ताकि कैकेई के रौद्र रूप के हर पहलू को दिखा सके। बीच बीच में दशरथ के फुटेज से करुणा रस की झलक भी मिल रही थी। पास में ही मेरा बारह साल का बेटा भी बैठा था। उसे इन पुरानी कहानियों में जरा भी दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि उसे फेसबुक और यूट्यूब पर समय बिताना अधिक उपयोगी लगता है। फिर भी अपने बाप की मजबूरी देखकर उसे भी यह अहसास हो गया था कि शराफत से उस सीरियल को झेलता रहे। बारह वर्ष के बच्चे बड़े जिज्ञासु प्रवृत्ति के होते हैं। यह वह समय होता है जब उनका बचपन जा रहा होता है और वे किशोरावस्था की दहलीज पर खड़े होते हैं। सीरियल देखते देखते उसने ऐसा सवाल दाग दिया कि मैं निरुत्तर हो गया।
उसने मुझसे पूछा, “पापा, ये बताओ कि दशरथ तो बड़ा ही ज्ञानी राजा था। फिर उसने कोप भवन क्यों बनवाया? ना वो कोपभवन बनवाता ना इतना बड़ा कांड होता। आखिर उसने इतनी बड़ी गलती क्यों कर दी?”
मैं मन ही मन उसकी बातों से सहमत था लेकिन पास में अपनी पत्नी के बैठे होने की वजह से कुछ लाचार भी था। जब बच्चे कोई कठिन सवाल पूछते हैं तो उसका इमानदारी से जवाब देना चाहिए; ऐसा बहुत सारे सेल्फ हेल्प बुक का कहना है। लेकिन उस तरह की सभी किताबों में केवल थ्योरेटिकल ज्ञान होता है जिसे व्यावहारिकता के धरातल पर उतारना उतना ही मुश्किल होता है जितना किसी नए प्रधानमंत्री को हवाई यात्रा पर जाने से रोकना। मैंने किसी दक्ष बाप की तरह उस सवाल को सदा के लिए दफन करने की कोशिश करते हुए कहा, “अरे बेटा, ये तो कहानी के प्लॉट का अहम हिस्सा है। यदि कैकेई कोपभवन नहीं जाती तो फिर ये कहानी आगे कैसे बढ़ती। फिर राम वन कैसे जाते और सीता का हरण कैसे होता। ये सब नहीं होता तो इस कहानी का विलेन मारा कैसे जाता।“
मेरे बेटे के चेहरे से लगा कि वह मेरे उत्तर से संतुष्ट नहीं था। लेकिन उसने शायद अपने पिता की इज्जत रखने के लिए हामी भर दी और फिर बात आई गई हो गई।
लेकिन उसके बाद से यह सवाल मेरे मन में वैसे ही घुमड़ रहा है जैसे कि कब्ज के मरीज के पेट में पिछले छ: दिन का कचरा घुमड़ रहा हो। मैं भी सोचने को विवश हो गया हूँ कि दशरथ जैसे महान राजा ने कोपभवन क्यों बनवाया होगा। वह अपनी रानियों के लिए सुंदर अटारियाँ बनवाते, बाग बगीचे लगवाते, गहने जेवर बनवाते, आलीशान फर्नीचर बनवाते। ये सब तो उन्होंने जरूर बनवाए होंगे, फिर कोपभवन बनवाने की क्या जरूरत थी।
अब तो अधिकाँश लोग दो या तीन कमरों के मकान में रहते हैं। उसमें से भी यदि एक कमरे को कोपभवन बना दिया गया तो फिर टू बी एच के फ्लैट का क्या होगा? यदि किसी की पत्नी ने फरमाइश कर दी कि एक कोपभवन बनवाओ तो बेचारे आदमी की पूरी जिंदगी की कमाई ही उसे बनवाने में लुट जाएगी। फिर वह पहले से लोन पर लिए हुए घर की ईएमआई कहाँ से भरेगा। सोचिए, यदि शाहजहाँ ने ताजमहल की जगह कोपभवन बनवाया होता तो उसका क्या हश्र होता। वैसे ताजमहल बनवाने के बाद भी उसके साथ कुछ अच्छा नहीं हुआ था। उसे एक सनकी बुड्ढ़ा समझकर उसके ही बेटे ने उसे कैदखाने में डाल दिया था।
इस सवाल को एक और दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है। सच पूछा जाए तो कोपभवन की जरूरत ही क्या है। जब भी किसी गृहिणी का मूड बिगड़ जाता है तो वह बड़े आराम से अपने किसी भी कमरे को कोपभवन बना लेती है। कभी-कभी तो वह पूरे घर को कोपभवन बना लेती है। आप में से कई लोगों ने इस दर्द को करीब से झेला होगा। शाम को बेचारा मर्द जब अपने काम की थकान के बाद ट्रैफिक की मार झेलने के बाद घर पहुँचता है तो दरवाजा खुलने के स्टाइल से ही पकड़ लेता है कि उसका घर कोपभवन बना हुआ है। पीने का पानी तो वह खुद ही फ्रिज से निकाल लेता है लेकिन चाय की प्याली धम्म से उसके पास रख दी जाती है। रसोई में से जब चकले और बेलन की जोर-जोर की खटपट सुनाई देती है तो वह इस वजह से नहीं कि गृहस्वामी के लिए बड़ी मेहनत से भोजन तैयार हो रहा है बल्कि इसलिए कि मैडम का आज मूड खराब है। दशरथ तो फिर भी भाग्यशाली थे, क्योंकि कैकेई ने उन्हें अपने गुस्से का कारण बता दिया था। लेकिन आजकल के ज्यादातर पतियों की वैसी किस्मत कहाँ। पूछने पर कोई कारण ही नहीं पता चलता। यह ऐसा सवाल बन जाता है जिसका जवाब गूगल के पास भी न हो। मुद्दा उतना बड़ा भी नहीं होता है जैसा कि रामायण में था; सत्ता का हस्तानांतरण। क्योंकि भारत के एक आधुनिक आम आदमी के पास कोई दशरथ जैसा राज पाट भी नहीं है और न ही चार बेटे। अब तो कुल जमा एक बीवी होती है और एक या बहुत हुआ तो दो बच्चे। एक बात के लिए दशरथ की दाद तो देनी ही चाहिए। वे तीन-तीन पत्नियों के स्वामी होने की हिम्मत जो रखते थे।
बहरहाल, मैंने अपने कई मित्रों से इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश की लेकिन अभी तक कुछ भी हाथ न लगा। हो सकता है कि हमारे यहाँ के बड़े रईसों; जैसे टाटा, अंबानी, अडानी, आदि के घरों में कोपभवन हो और हमें पता भी नहीं हो। यदि उनके घरों से ये बात बाहर आ गई तो हो सकता है कि सरकार उनपर कोपभवन टैक्सलगाना शुरु कर दे। उसके बाद ये भी हो सकता है कि सरकार गरीबों को मुफ्त में कोपभवन मुहैया कराने के चक्कर में कोपभवन सेसलगा दे। इस पर कोई विरोध भी नहीं होगा क्योंकि इसमें नारी का सम्मान निहित है। यह भी हो सकता है कि कोई ऐसा कानून पास हो जाए जिसके कारण कोई भी महिला अपने पति और ससुराल वालों को कोपभवन ना बनवाने के जुर्म में जेल की हवा खिला सके।

यह एक पेचीदा सवाल है। यदि आपमें से किसी को भी इसका जवाब मालूम हो तो कृपया मेरे ज्ञान चक्षु खोलने की कोशिश जरूर करिएगा। 

Monday, April 25, 2016

Jungle Book Hindi Translation

जंगल का कानून बिना कारण किसी को मारने की अनुमति नहीं देता है। इस कानून के मुताबिक कोई भी जानवर मनुष्य का शिकार नहीं कर सकता। वह केवल तभी किसी मनुष्य का शिकार कर सकता है जब वह अपने बच्चों को शिकार का प्रशिक्षण दे रहा होता है। लेकिन ऐसा करने के लिए उसे अपने दल के शिकार के इलाके को छोड़कर जाना होगा। क्योंकि सभी जानवर जानते हैं कि ऐसा करने से जल्दी ही गोरे लोग हाथियों पर सवार होकर और बंदूकों से लैस होकर आते हैं और उनके साथ सैंकड़ों की तादाद में तांबई चमड़ी वाले लोग भी होते हैं जिनके हाथ में मशाल, ढ़ोल और भाले होते हैं। ऐसा होने पर जंगल के हर जानवर को घोर दुख झेलना पड़ता है। जानवर आपस में यह बात भी करते हैं कि मनुष्य सबसे कमजोर प्राणी है और ऐसे प्राणी को छूना भी उचित नहीं है। वे ऐसा भी कहते हैं; जो कि काफी हद तक सच है; कि एक आदमखोर जानवर के कीड़े पड़ते हैं और उसके दाँत झड़ जाते हैं। 

This book is available on Amazon.com and on Createspace

http://www.amazon.com/Jungle-Book-Hindi-Translation/dp/153097867X/ref=sr_1_1?ie=UTF8&qid=1461596420&sr=8-1&keywords=jungle+book+hindi+translation

https://tsw.createspace.com/title/6198191 

Saturday, July 11, 2015

मुर्ग मसल्लम

परीक्षा ख़त्म होने के बाद सुमन गेट के बाहर राकेश का इंतजार कर रहा था।  राकेश और सुमन रांची से बोकारो आये थे, किसी सरकारी नौकरी में भर्ती के लिए परीक्षा देने। राकेश बाइस साल का है और सुमन पच्चीस साल का।  दोनों प्राइवेट कंपनी में सेल्स रिप्रेजेंटेटिव के तौर पर काम करते हैं।  दोनों रांची में एक ही मकान में साथ रहते है। दोनों एक ही शहर दरभंगा से आते हैं इसलिए दोनों में अच्छी पटरी खाती है।  तनख्वाह के हिसाब से देखा जाए तो दोनों अच्छी खासी नौकरी कर रहे है। लेकिन सरकारी नौकरी करने वालों की समाज में अच्छी इज्जत मानी जाती है, इसलिए ये दोनों इस प्रयास में लगे हैं की किसी तरह सरकारी नौकरी लग जाए।  अब सेल्स के काम में इतना ज्यादा घूमना पड़ता है की इन्हे इतना समय नहीं मिलता कि सरकारी नौकरी के लिए ठीक से तैयारी कर सकें।  बहरहाल, दोनों ने बस ठीक ठाक उत्तर दिए थे और बहुत ज्यादा उम्मीद लगाए नहीं बैठे थे।  वैसे भी उन्हें नौकरी की चिंता तो थी नहीं।  
 परीक्षा के बाद दोनों ने एक रिक्शा किया और सेक्टर १ के राम चौक से चास की और चल पड़े।  चास में उन्होेने किसी होटल में एक कमरा ले रखा था।  दोनों ही अपने काम के सिलसिले में अक्सर बोकारो आया करते थे इसलिए उनके लिए यह शहर नया नहीं था।  यदि परीक्षा एतवार को न होती तो ये तो कंपनी के खर्चे पर ही रांची से बोकारो का ट्रिप कर लेते।  होटल पहुंचने के बाद दोनों ने कुछ देर आराम किया।  फिर परीक्षा में उम्मीद से अच्छा करने की ख़ुशी में सोचा कि थोड़ी मस्ती की जाए।  सुमन ने रिसेप्शन पर फोन करके बियर और नमकीन मंगवाए।  बियर पीने के बाद दोनों ने सोचा कि कुछ अच्छा खाना खाया जाए।  वे ऐसे लोगों में थे जिनके लिए अच्छे खाने का मतलब होता है नॉन वेज के नाम पर कुछ भी परोस दो।  जिस होटल में वे ठहरे थे उसमे पता चला कि नॉन वेज नहीं मिलता था।  इसलिए दोनों होटल से बाहर आए और पैदल ही किसी रेस्तरां की तलाश में निकल पड़े।  चास का यह इलाका किसी चिर परिचित बाजार की तरह लगता है।  यहाँ पर थोक विक्रेताओं की मंडी है।  विभिन्न कम्पनियों के सेल्स के लोग यहाँ  आते-जाते रहते हैं इसलिए यहां हर रेट के ठीक-ठाक होटल है।  
आखिरकार उन्हें एक ऐसा रेस्तरां मिला गया जो अच्छा दिख रहा था और उनके बजट में भी आ रहा था।  वह नया ही खुला था।  सुमन ने उसके मैनेजर के सामने लम्बी चौड़ी डींगें मारी यह दिखाने के लिए कि वह किसी कंपनी का बड़ा साहब है।  उसके लिए यह आसान भी था क्योंकि वे वहां पर के सबसे  मंहगे होटल में ठहरे हुए थे।  जी नहीं, यह कोई तीन या पांच सितारा होटल नहीं था, लेकिन चास जैसे बाजार की नाक था।  थोड़ी देर में उनके सामने एक पूरे मुर्गे का मुर्ग मसल्लम आ गया।  साथ में पराठे और सलाद भी।  दोनों को तेज भूख लगी थी, इसलिए दोनों उस लजीज खाने पर टूट पड़े।  मैनेजर ने उन्हें अपनी तरफ से आइसक्रीम भी पेश किया।  वह इस उम्मीद में था कि इससे अगली बार से सुमन की कंपनी के सभी साहब उसी रेस्तरां में जाया करेंगे।  फिर बिल चुकता करने के बाद वे दोनों वापस उस होटल में चले गए जहां वे ठहरे हुए थे।  
दोनों बिस्तर पर लेटे हुए स्वादिष्ट भोजन पर टीका टिप्पणी कर ही रहे थे कि सुमन को ध्यान आया कि उस रेस्तरां वाले ने गलती से कम पैसे लिए थे।  राकेश ने सुमन को ध्यान दिलाया कि सुबह से ही दोनों अपनी औकात से ज्यादा रईसी कर रहे थे।  अब उनके पास इतने ही पैसे बचे थे कि वे इस होटल का बिल चुकता करने के बाद किसी तरह से बोकारो स्टेशन पहुंच कर ट्रेन की टिकट कटाकर रांची पहुंच सके।  सुमन एकदम से बिस्तर से उठा और दोनों जल्दी-जल्दी अपना सामान पैक करने लगे।  राकेश ने घड़ी में देखा कि अभी तीन बजे हैं।  उन्होंने तय किया की उन्हें फ़ौरन बोकारो स्टेशन के लिए चल देना चाहिए इसके पहले कि उस रेस्तरां का मैनेजर उन्हें ढूंढता हुआ आ जाए।  जब वे इस होटल का बिल चुकता कर रहे थे तभी उस रेस्तरां से एक वेटर उनके पास आया; एक सही बिल के साथ।  सुमन से उसे खूब खरी खोटी सुनाई और कहा कि वह अपने मैनेजर को भेज दे, क्योंकि उस जैसे वेटर से बात करना सुमन जैसे साहब की तौहीन होती।  
उन्हें पूरा भरोसा था कि जब तक वेटर रेस्तरां तक पहुंचेगा, वे चास की सीमा से निकल चुके होंगे।  बोकारो स्टेशन वहां से इतनी दूर था कि एक बार वहां पहुंचने का मतलब था खतरे से मुक्ति।  वे दोनों आनन-फानन में बाहर निकले, एक ऑटो पर सवार हुए और उसे तेज चलने को कहा।  बोकारो स्टेशन पहुंचने पर पता चला कि वर्धमान हटिया पैसेंजर ट्रेन आने ही वाली थी।  जब तक ट्रेन नहीं छूटी, तब तक उनका दिल किसी अनिष्ट की आशंका से तेजी से धड़क रहा था।  जैसे ही ट्रेन ने प्लेटफॉर्म छोड़ा, दोनों ने चैन की सांस ली।  

Thursday, May 28, 2015

बच्चे का शगुन

मेरी ट्रेन काफी लेट हो चुकी थी।  जिस ट्रेन को सुबह के पाँच बजे ही पटना पहुंच जाना चाहिए था वह दिन के १० बजे भी अपनी मंजिल से लगभग ६० किमी पीछे थी।  ज्यादातर मुसाफिर जाग चुके थे और सीटों पर बैठ गए थे।  लोग अपने अपने अंदाज में भारतीय रेल की लेट लतीफी को कोस रहे थे।  हालांकि यह स्लीपर वाली बोगी थी लेकिन बहुत सारे यात्री ऐसे भी चढ़ गए थे जिनके पास जेनरल टिकट था।  इनमे से अधिकांश डेली पैसेंजर थे, जो अपने काम से रोज पटना तक जाया करते थे।  कुछ तो डेली पैसेंजर के डर से और कुछ सब कुछ एडजस्ट करने की मानसिकता के कारण रिजर्व टिकट वाले यात्री सभी को बैठने की जगह दे रहे थे।  ऐसे भी जेनरल क्लास के डिब्बे में इतनी कशमकश होती है कि कमजोर दिल और शरीर वाले आदमी का उसमे घुसने की हिम्मत करना भी असंभव है।  बेचारे डेली पैसेंजर करें भी तो क्या करें।  उनके लिए जो ई एम यू ट्रेन चलती है वह कहीं भी जितनी देर मर्जी रुकी रहती है और कई लोग इस कारण से अपने काम पर देरी से पहुंचते हैं।  
तो कुल मिलाकर ट्रेन में ठीक ठाक भीड़ थी जिसे बढ़ती गर्मी और उमस के कारण बर्दाश्त करना मुश्किल हो रहा था।  इसी भीड़ में फेरीवाले बड़े आराम से अपना रास्ता निकाल ले रहे थे और बड़ी जबरदस्त सेल कर रहे थे।  कुछ भिखारी भी उतने ही आराम से पूरी ट्रेन में घूम फिर रहे थे और दान दक्षिणा बटोर रहे थे।  
मैं साइड बर्थ पर बैठा था और खिड़की से आती हुई हवा का आनंद ले रहा था।  मेरी बगल में एक महिला खड़ी थी जिसकी गोद में कोई डेढ़ दो साल का बच्चा था।  महिला ने नई साड़ी पहन रखी थी और उसके बालों से किसी सुगंधित तेल की तेज महक आ रही थी।  इस महक को बर्दाश्त कर पाना मुश्किल हो रहा था।  पहनावे और बोलचाल से वह पास के ही किसी गाँव की महिला लग रही थी।  बच्चे ने पीले रंग की नई ड्रेस पहन रखी थी और उसके ललाट पर नजर से बचाने के लिए काला टिका लगा हुआ था।  बच्चे के हाथ में ५० रूपए का नोट था जिसे उसने भींच कर पकड़ रखा था।  मुझे कभी-कभी ताज्जुब होता है कि छोटे बच्चे ये कैसे जान लेते हैं कि नोट की क्या वैल्यू होती है।  
थोड़ी देर में सामने से एक साधु आया।  उसने गेरुआ कपड़े पहन रखे थे।  माथे पर भभूत लगा था, गले में रुद्राक्ष की मोटी सी माला और हाथ में एक कमंडल था।  वह हर किसी के कल्याण और उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए बड़ी उम्मीद से सबके सामने हाथ फैला रहा था।  ज्यादातर लोग ऐसे दृश्य के अभ्यस्त थे इसलिए साधु के हाथ कुछ भी न आ रहा था।  साधु थोड़ी देर तक मेरे पास ही खड़ा रहा और फिर जो हुआ उस घटना ने मेरे मन पर एक अमिट छाप छोड़ दी।  
साधु ने तेजी से बच्चे के हाथ से ५० रूपए का नोट झपट लिया।  बच्चा जोर-जोर से रोने लगा।  उसकी माँ में शायद इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह साधु का विरोध कर सके।  वह भी सुबक-सुबक कर रोने लगी।  उसने बताया कि बच्चे के नाना ने शगुन के रूप में वह रुपए दिए थे और कहा था कि उससे बच्चे के लिए जलेबियाँ खरीद दे।  
चलिए उस औरत की मन:स्थिति तो समझ में आती है; क्योंकि ज्यादातर महिलाओं को यही सिखाया जाता है कि अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को चुपचाप सहन कर लेना चाहिए।  वहाँ पर बैठे किसी भी यात्री की यह हिम्मत न हुई कि उस साधु का विरोध कर सकें।  मैं भी उन्हीं में से एक था।  लगता है सबने पंचतंत्र की बंदर और लकड़ी के फंटे वाली कहानी से बड़ी अच्छी शिक्षा ली थी।  

इतने में एक मूंगफली बेचने वाला आया।  उसकी उम्र १६ - १७ साल से अधिक नहीं रही होगी।  उसने ठेठ बिहारी लहजे में उस साधु को चुनिंदा गालियाँ दी और उसके हाथ से वह नोट छीन कर बच्चे के हाथों में दे दिया।  मैं मन ही मन उस किशोरवय लड़के के प्रति नतमस्तक हो गया।  

Saturday, May 23, 2015

दूध का दूध और पानी का पानी

 किसी विधानसभा चुनाव से पहले किसी नेताजी ने कहा था कि कुछ लोग ऐसा करेंगे कि दूध के दाम आसमान छुएंगे। मुझे तो लगता है कि ज्यादातर चीजों के दाम आज आसमान छू रहे है।  लेकिन हमारे देश के नेता हमेशा कुछ न कुछ ऐसा करते हैं जिससे हमें लगता रहे कि वो वाकई हमारी सुध लेते है।  इसी सोच को अमली जामा पहनाते हुए एक मुख्यमंत्री ने आदेश जारी कर दिया कि अब से दूध उत्पादकों को गेहूं और धान की तरह समर्थन मूल्य मिलेगा।  यह समाचार सुनकर मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए।  जो जो चीजें समर्थन मूल्य की राजनीति से प्रभावित होती हैं उनके दाम सुरसा के मुख की तरह बढ़ने लगते हैं।  लेकिन लगता है कि मुख्यमंत्री जी को मेरी चिंता की चिंता होने लगी।  अगले ही दिन यह समाचार आया की पैकेट वाले दूध के दाम ५ रूपए प्रति लीटर घटाने का भी अध्यादेश आ गया।  जब मैंने इसकी चर्चा अपनी पत्नी से की तो मुझे पता चला यह तो मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने के बराबर है।  जी नहीं मैं अपनी पत्नी के संभावित गुस्से की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि दूध पर भविष्य में होने वाली राजनीति के बारे में चिंतित  हो रहा हूँ।  अब आप गौर से मेरी भविष्यवाणी को पढ़िए।  अब पूरे देश के किसान नेताओं को आंदोलन करने का एक और नया बहाना मिल जाएगा।  दूध के समर्थन मूल्य को बढाने की मांग को लेकर धरना प्रदर्शन हुआ करेंगे।  टीवी चैनलों पर एक से बढ़ कर एक पैनल इस पर चर्चा करके हमारे ज्ञान को निखारने की कोशिश करेंगे।  दिल्ली के मुख्यमंत्री आनन फानन में दूध पर सब्सिडी की घोषणा कर देंगे।  यह सब्सिडी केवल उन परिवारो को ही मिलेगी जो महीने में दस लीटर से कम दूध खरीदेंगे।  प्रधानमंत्री जी दूध पर मिलने वाली सब्सिडी को सीधे बैंक खाते में डलवा देंगे ताकि दूध की कालाबाजारी रोकी जा सके।  इसपर एक पहल योजना भी आएगी जिसमे जनता जनार्दन से यह अपील की जाएगी कि वैसे लोग जो आसानी से दूध खरीद सकते हैं; स्वेक्षा से दूध की सब्सिडी लेने से मना कर दे।
नोट: अर्थशास्त्र की कई किताबो में मैंने पढ़ा है की भारत पूरे विश्व में दूध का सबसे बड़ा उत्पादक देश है।  

Thursday, March 12, 2015