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Saturday, April 14, 2018

आई ए एस से आइ एस एस तक की नौकरी


आई ए एस का नाम शायद भारत में हर उस व्यक्ति को पता होगा जिसका जेनरल नॉलेज थोड़ा सा भी दुरुस्त होगा। अंग्रेजों ने भारत में आइ सी एस की शुरुआत की थी, जिसका नाम आजादी के बाद आइ ए एस हो गया। आइ ए एस बनने के लिये घोर परिश्रम करना होता है और एक कठिन इम्तिहान पास करना होता है। लेकिन एक बार अगर कोई आइ ए एस बन गया तो फिर वह हर मर्ज की दवा बन जाता है। सरकारी अफसरशाही के हर बड़े पद पर अक्सर आइ ए एस की ही नियुक्ति होती है। चाहे जिले में कलेकटर की तरह राज करना हो या राजधानी में कैबिनेट सेक्रेटरी बनकर मंत्री की जी हुजूरी करनी हो, एक आइ ए स अधिकारी को हर काम में महारत हासिल होती है। आइ ए एस बनते ही उस आदमी और उसके परिवार पर गरीबी हटाओ की योजना आश्चर्यजनक रूप से सफलतापूर्वक काम करती है। नौकरी लगने के तुरंत बाद ही शादी हो जाती है जिसमें करोड़ों की संपत्ति दहेज में मिल जाती है। परिवार वाले भी अपने आप को आइ ए एस ही समझने लगते हैं। उसके बाद थोड़े ही वर्ष बीतने के बाद एक आइ ए एस अधिकारी सिस्टम को इतनी दक्षता से चूसने लगता है कि उसके रस से उसका और उसके ऊपर तक के आकाओं का पेट भरने लगता है।

जैसा की पहले ही बताया गया है, सरकारी नुमाइंदों को कोई भी ऐसा काम नहीं लगता है, जिसे एक आइ ए स नहीं कर सकता हो। इसी मानसिकता का अनुसरण करने के प्रक्रम में एक आइ ए एस अधिकारी की पोस्टिंग आइ एस एस यानि इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर हो गई। एक बार अमेरिका की नासा (नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन) में एक योजना बनी कि कुछ ऐसे विकासशील देश जो विकसित होने का भ्रम पालते हैं, वहाँ के चुनिंदा लोगों को छ: महीने के लिये आइ एस एस में रहने की व्यवस्था की जाये। ऐसा इसलिए किया गया ताकि विज्ञान की नई खोजों से दुनिया के हर कोने को अवगत कराया जा सके।

भारत के आला मंत्रियों ने उचित व्यक्ति के लिये आइ ए एस के अफसरशाहीनुमा खजाने को खंगालना ही उचित समझा। बड़ी पैरवी और बयाना और नजराना देने के बाद श्रीप्रसाद वर्मा नामक एक आइ ए एस अधिकारी ने इस काम के लिये अपना चयन करवा ही लिया। चयन होते ही, उनकी घोषित आय द्रुत गति से बढ़ गई। अब उन्हें भारत सरकार से मिलने वाले वेतन के अलावा अमेरिकी सरकार से भी विशेष भत्ता दिया जाने लगा। इसका असर उनके घर में भी दिखने लगा। श्रीप्रसाद वर्मा की बीबी अब केवल बर्गर, हॉट डॉग और पैनकेक ही खाने लगीं। उनका कहना था कि देसी खाना खाने से बदहजमी हो जाती है। कुछ ही दिनों में उनकी तरक्की इतनी हो गई कि अपने प्यारे कुत्ते टॉमी से भी वे अमेरिकन लहजे में हिंगलिश में बतियाने लगीं। जल्दी ही वह दिन भी आ गया जब भारत के इसरो में कुछ जरूरी ट्रेनिंग लेने के बाद श्रीप्रसाद वर्मा अमेरिका के लिये रवाना हो गये। जाते समय उनका कलेजा थोड़ा बैठ गया था क्योंकि अमेरिकी सरकार ने सरकारी खर्चे पर बीबी और बच्चों को ले जाने के लिये मना कर दिया था।

बहरहाल, अमेरिका के नासा में अगले छ: महीने तरह तरह की ट्रेनिंग लेने के बाद वे स्पेशशिप में जाकर बैठ गये और उसके उड़ने का इंतजार करने लगे। जब वे काउंट्डाउन का इंतजार कर रहे थे तो भारत के किसी मशहूर टीवी चैनल के एक मशहूर एंकर ने उनसे टेलीकॉन्फ्रेंसिंग के जरिये सवाल पूछा, “वर्मा जी, आपकी आत्मा को कैसा महसूस हो रहा है?”

इस पर श्रीप्रसाद वर्मा जी ने जवाब दिया, “मेरी आत्मा तो उसी दिन बिक गई थी जिस दिन मैं आइ ए एस बना था। इसलिये कुछ भी महसूस नहीं हो रहा है। मेरा भारत महान।“

थोड़ी ही देर में रॉकेट बिलकुल नियत समय पर लॉन्च पैड से उठ गया और अपने पीछे लाल पीले धुंए के गुबार छोड़ता हुआ नीले आकाश में गायब हो गया। भारत के हर टीवी चैनल पर उस घटना का सीधा प्रसारण चल रहा था। हर चैनल वाला उस प्रसारण को एक्सक्लूसिव बता रहा था। उसके कुछ दिनों के बाद बात आई गई हो गई और लोग श्रीप्रसाद वर्मा का नाम तक भूल गये। टीवी चैनल वाले भी नये नये और अधिक रोचक ब्रेकिंग न्यूज को एक्सक्लूसिव बनाने में रम गये।

छ: महीने बीतने के बाद श्रीप्रसाद वर्मा वापस धरती पर आये और फिर स्वदेश भी लौट गये। देश लौटने पर प्रधानमंत्री द्वारा उनका उचित सम्मान किया गया। उन्हें प्रधानमंत्री की ओर से एक शॉल और प्रशस्ति पत्र भी दिया गया। वह जिस राज्य के कैडर के अधिकारी थे, उस राज्य के मुख्यमंत्री ने उन्हें दस लाख रुपए पुरस्कार देने की घोषणा की। उसके बाद उनके गृह राज्य के मुख्यमंत्री ने उन्हें पंद्रह लाख रुपए पुरस्कार देने की घोषणा की। उसके बाद लगभग दो महीने तक विभिन्न समारोहों में उन्हें सम्मानित करने का एक लंबा सिलसिला चला। जब इन सब कार्यक्रमों से वे फारिग हुए तो अपने पैत्रिक गांव पहुँचे। वहाँ पहुँचने पर गांववालों ने उन्हें पूरा सम्मान दिया। गांव के एक मूर्तिकार ने उनकी मूर्ति बनाई थी जिसमें उनकी बगल में आइ एस एस की मूर्ति भी लगी थी। आइ एस एस की मूर्ति तो हू ब हू लग रही थी, लेकिन उनकी मूर्ति की शक्ल उनसे एक फीसदी भी नहीं मिलती थी। फिर भी लोगों के प्यार और उन्माद को देखते हुए उन्होंने मूर्ति का अनावरण अपने ही कर कमलों से किया।

इन सब गतिविधियों से निजात पाने के बाद बड़ी मुश्किल से श्रीप्रसाद वर्मा को अपने नजदीकी रिश्तेदारों और कुछ घनिष्ठ मित्रों के साथ शाम गुजारने का वक्त मिल पाया। उनके चाचा ने पूछा, “तुम देश के लिये इतना बड़ा काम कर आये, सुनकर सीना चौड़ा हो गया। लेकिन ये बताओ कि इस काम में कुछ माल बना पाये या बस थोथी इज्जत ही कमा कर लौट आये।“

इसी बीच एक और रिश्तेदार बोल पड़े, “हाँ भई, आज के जमाने में धन संपत्ति है तो ही इज्जत है। वरना कोई किसी को नहीं पूछता है। अरे साल भर तो तुम्हारी अनुपस्थिति में हमें भी कोई नया टेंडर नहीं मिल पाया।“

उनकी बात सुनकर श्रीप्रसाद वर्मा ने मंद मंद मुसकाते हुए कहा, “क्या चाचा, आप हमेशा मुझे कम क्यों आंकते हैं। मैं तो वो बला हूँ कि निर्जन मंगल ग्रह पर भी भेज दो तो कुछ न कुछ जुगाड़ कर ही लूंगा। वहाँ से आते वक्त मैंने जुगाड़ लगाकर स्पेस स्टेशन के सोलर पैनल का आधा हिस्सा बेच दिया। उसके अलावा स्पेस स्टेशन के एक कैप्सूल को भी बेच दिया। पूरे तीस करोड़ बनाकर आया हूँ। सबसे बड़ी बात ये कि इसमें से यहाँ किसी ऊपर वाले को चढ़ावा भी नहीं देना है। सब वहीं से मैनेज कर लिया था। स्विस बैंक में पहुँच चुका है।“

उनके ऐसा कहने पर मामाजी थोड़ा भड़कते हुए बोले, “हमको उल्लू समझे हो का? वहाँ क्या कोई ट्रक जाता है जो माल पार कर दिये?”

श्रीप्रसाद वर्मा ने कहा, “अरे नहीं मामाजी, स्पेस शिप जाता है। लेकिन उसमें आदमी तो इसी धरती से जाता है। खून का स्वाद चखाओ तो किसी भी देश का आदमी मांस खाने को तैयार हो जाता है। था एक किसी तीसरे देश से। कुछ रिपेयर का सामान लेकर गया था। शुरु में तो बहुत दुहाई दे रहा था, इमानदरी की। लेकिन एक बार देसी स्टाइल में उसका ब्रेनवाश किया तो फिर आ गया लाइन पर। वहाँ कोई चौबीस घंटे का ब्रेकिंग न्यूज तो है नहीं। रिपोर्ट में लिखवा दिया कि सोलर आंधी चलने से सोलर पैनल और कैप्सूल दूर कहीं अंतरिक्ष में खो गये। अब भला कागज कलम में हमसे कोई जोर ले सकता है।“

इसी तरह बातचीत के बीच खाने पीने का प्रोग्राम चलता रहा। लोग श्रीप्रसाद वर्मा के किस्सों का मजा लेते रहे। उसके बाद जीवन फिर से अपनी सामान्य गति से चलने लगा।

इस घटना को कोई तीसेक साल बीत चुके होंगे। श्रीप्रसाद वर्मा सेवानिवृत हो चुके थे। अपने पैत्रिक गांव में एक बड़ी सी हवेली में वे रिटायर्ड लाइफ के मजे ले रहे थे। शाम का समय था। वर्माजी सोफे पर बैठे ठंडी बियर के घूंट भर रहे थे। बगल में बैठी उनकी बीबी काजू फ्राइ के छोटे छोटे निवाले उनके मुंह में बड़े प्यार से डाल रही थी। एक वर्दीधारी नौकर हाथ में डोंगा लेकर डाइनिंग टेबल पर भोजन परोस रहा था। सामने की दीवार पर 56 इंच का टेलिविजन ऑन था। किसी न्यूज चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज आ रहा था, “क्या अंतरिक्ष में भी भ्रष्टाचार होता है?”
लगभग तीन बजे भोर में सीबीआइ वालों ने श्रीप्रसाद वर्मा को उनके घर से आधी नींद में ही हिरासत में ले लिया। अगली शाम तक उन्हें एक विशेष फ्लाइट से अमेरिका भेज दिया गया क्योंकि केस अब एफबीआइ के हाथों में था। सीबीआइ तक तो कुछ न कुछ जुगाड़ लगाया जा सकता था। लेकिन बात अपने देश की सीमा से बाहर निकल चुकी थी। अमेरिका में द्रुत गति से सुनवाई होती है। एक महीने के अंदर फैसला भी आ गया। बेचारे श्रीप्रसाद वर्मा जी को चार सौ बीस साल की जेल हो गई।



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