कोई बाहरी दरवाजे की सांकल
को जोर जोर से भड़भड़ा रहा था। घर के अंदर बैठे तीन प्राणियों में से हर कोई एक
दूसरे का मुँह देख रहा था और इस बात का इंतजार कर रहा था कि जाकर दरवाजा खोलने की
पहल कौन करता है। लड्डू, उसकी अम्मा और
उसका बड़ा भाई राजू के सिवा घर में और कोई नहीं था। लड्डू के पापा ऑफिस गये थे
इसलिए वह आकर दरवाजा तो नहीं खोल सकते थे। अभी दोपहर के तीन ही बजे थे सो उनके आने
की कोई उम्मीद भी नहीं थी। अब अम्मा ठहरीं सबसे बड़ी सो उन्होंने राजू को इशारा
किया। राजू अपने नाम के मुताबिक राजा बेटा था, बड़ा बेटा था इसलिये यह
उसकी शान के खिलाफ होता कि वह अपने पैरों को कष्ट दे। राजू ने लगभग घुड़की देते हुए
लड्डू को आदेश दिया। लड्डू मन ही मन भनभनाते हुए उठा और दरवाजा खोल दिया। सामने
पड़ोस के मिश्राजी का बेटा सोनू खड़ा था। उसके बड़े भाई के बेटे का जन्मदिन था इसलिये
निमंत्रण देने आया था। कह रहा था कि रात का भोज है।
उस छोटे से शहर में लड्डू और उसका परिवार कोई दसेक सालों से
रहते थे इसलिए उनकी जान पहचान अच्छी खासी हो गई थी। हर महीने कहीं न कहीं से
निमंत्रण जरूर आता था और उसमें भोज खाने जाना अनिवार्य हो जाता था। अब लड्डू का
परिवार एक खाता पीता परिवार था सो खाने पीने में उसके घर में किसी की भी रुचि अधिक
नहीं थी। उसके पापा राज्य सरकार में अफसर की हैसियत से काम करते थे इसलिये लड्डू
और उसके बड़े भाई राजू को संस्कार भी अच्छे ही मिले थे। कुल मिलाकर बात यह थी कि
कोई भी उस भोज में जाने की इच्छा नहीं रखता था। लेकिन हर घर से कम से कम एक आदमी
को जाना ही था। ऐसा मुहल्ले में रिश्ते बनाये रखने की औपचारिकता निभाने के लिये
जरूरी था। लड्डू की अम्मां ने कहा कि उन्हें गैस की शिकायत रहती है सो वो नहीं
जायेंगी। राजू ने कहा कि उसे ग्रेजुएशन के इम्तिहान की तैयारी करनी है इसलिये वह
भोज जैसे फालतू के कामों में अपना वक्त बरबाद नहीं कर सकता। लिहाजा ध्वनिमत से यह
जिम्मेदारी लड्डू के कंधों पर सौंप दी गई कि मिश्राजी के यहाँ भोज खाने वही
जायेगा। लड्डू थोड़ा शर्मीला और अंतर्मुखी किस्म का किशोरवय लड़का था इसलिये उसे ऐसे
आयोजनों में शिरकत करने में बड़ी परेशानी होती थी। लड्डू की अम्मां उसकी परेशानी को
समझती थीं।
इसलिए लड्डू की अम्मां ने कहा, “बेटा
लड्डू, ऐसा करना कि पड़ोस के वर्माजी के साथ चले जाना। मैं
उनको बोल दूँगी। वो इस बात का पूरा खयाल रखेंगे कि तुम आराम से भोज खाकर आ जाओगे।“
उनके ऐसा कहने पर राजू ने हँसते हुए बताया, “हाँ,
पूरे मुहल्ले में भोज खाने में यदि कोई एक्सपर्ट है तो वो हैं वर्मा
जी। जा लड्डू तुम्हें बहुत मजा आयेगा।“
लड्डू ने कुछ नहीं कहा, बस एक खिसियानी हँसी हँस
कर रह गया। उसके बाद राजू अपने इम्तिहान की तैयारी में लग गया। लड्डू अपनी अम्मां
का मनपसंद टीवी सीरियल देखने में व्यस्त हो गया। शाम के लगभग सात बजे वर्मा जी
आये। लगता था कि ऑफिस से लौटने के बाद वर्माजी ने नहाने में कुछ खास मेहनत की थी।
उनके आने से पहले ही उनके परफ्यूम की खुशबू कमरे में प्रवेश कर चुकी थी। वर्मा जी
ने मौके के हिसाब से कपड़े भी पहने थे। झक सफेद पायजामे पर ताजा कलफ किया हुआ
कुर्ता काफी जँच रहा था। उन्हें देखते ही लड्डू ने कहा, “आइये
अंकल। आप कुछ जल्दी नहीं आ गये?”
वर्मा जी ने कहा, “अरे नहीं, मै बिलकुल
टाइम पर हूँ। तुम जानते नहीं हो अपने मुहल्ले के लोगों को। मुफ्त का खाना देखते ही
ऐसे टूट पड़ते हैं कि अगर हम नौ बजे पहुँचेंगे तो मैदान साफ हो चुका होगा। फिर
हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगेगा।“
राजू ने उन्हें बीच में टोकते हुए कहा, “तो
कौन सी आफत आ जायेगी अंकल। घर आकर खा लेंगे।“
वर्माजी ने कहा, “हाँ बेटा, तुम ठहरे
अफसर के बेटे। तुम्हें कोई आफत नहीं आयेगी। हम तो ठहरे क्लर्क। आखिर न्योते में एक
सौ एक रुपये जो देंगे उसकी वसूली कौन करेगा। जब तुम बड़े होकर कमाने लगोगे तब समझ
आयेगा।“
थोड़ी देर बाद वर्माजी आगे आगे और लड्डू उनके पीछे-पीछे
मिश्राजी के घर की तरफ रवाना हो गये। वर्माजी का मकान पुराने स्टाइल का था। बाहर
एक बड़ा सा बरामदा था जहाँ लगभग पचास साठ लोग बैठे हुए थे। वर्माजी ने एक खाली
कुर्सी हथिया ली और बगल वाली कुर्सी पर लड्डू को बैठने का इशारा किया। कुछ जाने
पहचाने चेहरों को नमस्कार करने के बाद वर्माजी ने दरवाजे से आंगन की ओर नजर डाली।
अंदर लगभग तीस लोग अपने हाथों में प्लेटें लिये हुए भोज का मजा ले रहे थे। आंगन
ज्यादा बड़ा नहीं था इसलिए भीड़ जैसा नजारा लग रहा था। वर्माजी की पैनी नजर और उनके
अनुभव से एक बात पता चल रही थी कि मिश्रा जी ने बुफे का इंतजाम करवाया था। इस पर
कुछ लोग खीझ भी रहे थे। कोई पड़ोसी वर्माजी से कह रहे थे, “अरे
भाई, जमाना बदल रहा है। अब लोग फैशन में बुफे लगवा देते हैं।
अब ये कोई बम्बई दिल्ली तो है नहीं। अब हमारे जमाने के लोगों को खड़े-खड़े खाने में
अच्छी खासी परेशानी होती है। कोई पूछने भी नहीं आता है और अपने हाथों से कोई
मनपसंद मिठाई निकालने में शर्म भी आती है।“
उनके जवाब में वर्माजी ने कहा, “हाँ
सही कहा आपने। अब लोग करे भी तो क्या करे। अब पहले की तरह खाली लोग मिलते कहाँ हैं,
जो एक साथ पचास सौ लोगों की पंगत को भोजन परोस सकें। बुफे के लिये
टेबल लगवा देने से लोगों की मेहनत तो बच ही जाती है।“
एक अन्य पड़ोसी भी उस वाद विवाद में शामिल हो गये और बोले, “अरे
नहीं भाई साहब, सबसे बड़ी परेशानी होती है कुछ भी लेने के
लिये जब धक्कामुक्की करनी होती है। अब आजकल के लड़कों से हम कहाँ टक्कर ले पाएंगे।“
तभी मिश्राजी का बेटा सोनू हाजिर हुआ। उसने बताया, “आपलोग
अंदर चलिये। लोगों का एक बैच अभी अभी खाना खा चुका है। अब आप लोगों की बारी है।“
वर्माजी पूरी आतुरता दिखाते हुए उठे और पूछा, “ये
बताओ बेटा, नॉन-वेज का इंतजाम है या नहीं?”
सोनू के सकारात्मक जवाब से वर्माजी का जोश दोगुना हो गया।
वे लड्डू को लगभग घसीटते हुए आंगन में दाखिल हो गये। अंदर जाने वाले लोगों में से
अधिकतर लोग ऐसी तेजी दिखा रहे थे मानो वे स्कूल में रस्सी से लटके हुए संतरे की
फाँकें खाने की रेस में जा रहे हों। अंदर पहुँचते ही प्लेट हथियाने के लिये
धक्कामुक्की होने लगी। वर्माजी ने एक प्लेट अपने लिये और एक लड्डू के लिये हथिया
ली। उसके बाद वर्मा जी सीधे उस कड़ाह के पास पहुँचे जिसमें चिकन करी नजर आ रही थी।
वर्माजी पाँच छ: पीस अपनी प्लेट में डाल लिये। लड्डू ने केवल एक ही पीस लिया। उसके
बाद लड्डू ने अपनी प्लेट में एक रोटी और थोड़ी सी दाल ली और एक कोने में खड़ा होकर
खाने लगा। थोडी देर में वर्माजी उसके पास पहुँच गये। वर्माजी की प्लेट में पुलाव
का एक छोटा सा पहाड़ बना हुआ था। उसके ऊपर से पीली दाल ऐसे बह रही थी जैसे किसी
ज्वालामुखी के मुँह से लावा निकल रहा हो। अगल बगल आठ दस पूरियाँ सजी थीं। अब प्लेट
में जगह तो थी नहीं सो पूरी के ऊपर ही पनीर की सब्जी थी और उसके ऊपर दो गुलाबजामुन
और दो रसगुल्ले शोभायमान हो रहे थे। वर्माजी ने कुर्ते की आस्तीन को कोहनी के ऊपर चढ़ा
लिया था। वे जितना जल्दी हो सके उस प्लेट पर के भार को हटाना चाहते थे और उसीमें तल्लीन
थे। वहाँ आये मेहमानों में ज्यादातर लोगों की प्लेटों की हालत ऐसी ही थी। कुछ लोगों
की प्लेटों में तो मुर्गे की बोटियों को छोड़कर और कुछ भी नहीं नजर आ रहा था। वे लोग
सही मायने में अपने मांसाहारी होने को जायज ठहरा रहे थे। शाकाहारी लोगों के लिये अलग
से टेबल लगे हुए थे, लेकिन उस टेबल के आगे ज्यादा भीड़भाड़ नहीं थी। इसलिये मुहल्ले की
ही पूनम आंटी बड़े आराम से अपनी प्लेट में रखे गुलाबजामुनों के पहाड़ को ध्वस्त करने
में तल्लीन थीं।
भोजन समाप्त होने के बाद वर्माजी ने सोनू के पिताजी को ढ़ूँढ़ा, उन्हें
नमस्ते किया, बधाइयाँ दीं, और उसके बाद
उनके हाथ में अपना और लड्डू के लिफाफे थमाते हुए उनसे विदा लिया। उन्होंने बर्थडे ब्वॉय
से मिलने की जरूरत भी नहीं समझी। घर लौटने के बाद वर्माजी ने लड्डू की अम्मां से कहा,
“पता नहीं भाभीजी, क्या खिलाकर बड़ा किया है आपने
अपने लड़के को। ये तो जहाँ भी जायेगा मुहल्ले का नाम ही हँसायेगा। अरे कम से कम मेजबान
के अरमानों की इज्जत ही रख लिया करे। इतना कम खाना है तो फिर भोज में जाने की जरूरत
ही क्या है। आप ऐसा करिये, इस बार गर्मी की छुट्टियों में मेरे
साथ मेरे गाँव भेज दीजिए। वहाँ मैं इसे इस बात के लिये अच्छी तरह ट्रेनिंग दूँगा कि
भोज में कैसे खाया जाता है।“
लड्डू की अम्मां ने मुसकराते हुए हामी भरी, फिर उन्हें
नमस्ते कहते हुए विदा कर दिया। उनके जाने के बाद लड्डू, राजू
और उनकी अम्मां ठठाकर हँस पड़े।
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