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Thursday, July 21, 2016

लजीज मोमो

पहले मुझे लगता था कि दिल्ली का सबसे मशहूर खाना है राजमा चावल क्योंकि यह आपको दिल्ली की हर गलियों में मिल जायेगा। फिर कुछ दिन मुझे लगता था कि ब्रेड पकौ‌ड़ा ही दिल्ली का सबसे लोकप्रिय खाना है। वैसे तो करीम की दुकान के कवाब और तंदूरी चिकन भी मशहूर हैं। फिर दरियागंज की गलियों में बिकने वाले तरह तरह के चाट भी मशहूर हैं। लेकिन आप रोज रोज चाट या कवाब तो नहीं खा सकते। लेकिन आजकल मेरी धारणा बदल गई है। अब मुझे पक्का यकीन हो गया है कि दिल्ली का सबसे लोकप्रिय खाना है मोमो। मोमो मूल रूप से दिल्ली की डिश नहीं है बल्कि यह पहाड़ों से यहाँ आया है। आप यदि गौर करेंगे तो पाएँगे कि दिल्ली कि हर गली और नुक्कड़ पर आपको सबसे ज्यादा मोमो बेचने वाले मिल जाएँगे। सेहत के हिसाब से भी देखा जाए तो मोमो बिल्कुल हेल्दी डिश है क्योंकि यह स्टीम पर कुक किया जाता है और इसमें तेल का इस्तेमाल नहीं होता है। अधिकाँश लोग चिकन मोमो को तरजीह देते हैं लेकिन नवरात्रों के समय वेज मोमो की माँग ज्यादा होती है।

मेरे मुहल्ले में ऐसा ही एक मोमो बेचने वाला था। उसका नाम मुझे मालूम नहीं लेकिन दिखता था वो बिलकुल पहाड़ी। गोरी चमड़ी, छोटी-छोटी आँखें, चपटी नाक और लाली लिए हुए भूरे बाल। आपकी सुविधा के लिए उसका नाम रख देता हूँ डैनी डैन जोंगपा जो हिंदी फिल्मों के एक मशहूर ऐक्टर से मिलता है। डैनी की दुकान बड़ी ही साधारण सी थी। एक साइकिल पर पीछे की सीट की जगह उसका स्टीमर का सेट लगा हुआ रहता था जिसमें कई खानों में मोमो गरम होते थे। साइकिल की कैरियर पर गैस का एक छोटा सा सिलिंडर लगा होता था जिससे स्टीमर के नीचे रखा बर्नर जलता रहता था। आगे की हैंडल में बड़े भारी झोले लटके होते थे जिसमें कच्चे मोमो और चटनी रखी होती थी। एक दूसरे झोले में कागज की प्लेटें, प्लास्टिक की थैलियाँ और पेपर नैपकिन रखे होते थे। कुल मिलाकर दुकान के नाम पर उसे बहुत ज्यादा इंवेस्ट नहीं करना पड़ा होगा। यदि मैनेजमेंट की भाषा में कहा जाए तो उसका कार्बन फुटप्रिंट बहुत ही छोटा था। ज्यादातर मोमो बेचने वालों की दुकान आपको ऐसी ही मिलेगी।

लेकिन साधारण सी दुकान होने के बावजूद डैनी के मोमो असाधारण हुआ करते थे। उसके हाथ में कोई जादू था। उसके मोमो तो स्वादिष्ट थे ही साथ में उसकी लाजवाब चटनी तो जैसे सोने पर सुहागे का काम करती थी। वह लगभग पाँच बजे शाम में अपनी तय जगह पर आकर अपनी दुकान लगाता था। मुहल्ले के टीनएज लड़के उसके पहले से ही उसका इंतजार करते रहते थे। हमारे जैसे वयस्क लोगों को भी जल्दी ही जाना होता था क्योंकि यदि 8 से ऊपर बज गये तो उसके पास मोमो मिलने की कम ही संभावना होती थी। हालाँकि मुहल्ले में मोमो की और भी दुकानें लगती हैं लेकिन कोई भी लोकप्रियता और सेल के मामले में डैनी से टक्कर नहीं ले पाता था।

उसके मोमो के जादू का पता आपको उसी मुहल्ले में रहने वाले एक आवारा कुत्ते के उदाहरण से पता चल जाएगा। मुहल्ले के टीनएज लड़कों की तरह वह कुत्ता भी उस मोमो वाले के इंतजार में चार बजे ही वहाँ पहुँच जाता था। उस कुत्ते का थुलथुल शरीर देखकर आपको डैनी के मोमो की न्यूट्रिशन वैल्यू का भी अंदाजा लग जाता। मैंने उससे कई बार कहा था कि उस कुत्ते की फोटो डालकर एक बड़ा सा पोस्टर बगल में लगा दे। वह हमेशा इस बात का हँसकर जवाब दिया करता था। डैनी मोमोवाला मंगलवार को अपनी दुकान नहीं लगाता था क्योंकि मंगलवार के दिन ज्यादातर हिंदु नॉन वेज नहीं खाते हैं। मंगलवार के दिन वह आवारा कुत्ता उस जगह के आस पास भी नहीं दिखता था। कभी-कभी डैनी छुट्टियाँ मनाने के लिए अपने गाँव भी जाया करता था और फिर लगभग आठ दस दिनों तक नजर नहीं आता था। ऐसे में ना केवल मुहल्ले के टीनएज लड़के पागल हो जाते थे बल्कि वह कुत्ता भी बौराया हुआ फिरता था।

कई ऐसे लड़के और लड़कियाँ जो नौकरी करते थे, शाम में उससे चार पाँच प्लेट मोमो खरीद लेते थे। वे ऐसा इसलिए करते थे ताकि ब्रेकफास्ट लंच और डिनर में मोमो खा सकें। भला इतना अच्छा खाना वो भी सस्ते रेट में मिले तो कोई भी खानबदोश जीवन जीने वाला खाना बनाने की जहमत क्यों लेगा।

सबकुछ ठीक ठाक चल रहा था फिर जैसे उस डैनी मोमो वाले को किसी की नजर लग गई। उसके फैंस की लिस्ट में एक नया नाम शुमार हो गया था; राहुल मेहरा। राहुल मेहरा लगभग पच्चीस साल का था। उसने हाल ही में आइआइएम से एमबीए किया था और नौकरी ज्वाइन की थी। इसके पहले उसने आइआइटी से बीटेक भी किया था। कहते हैं कि भारत या अमेरिका के जॉब मार्केट में डिग्रियों का इससे अच्छा कॉंबिनेशन हो ही नहीं सकता। मेरी नजर में राहुल की डिग्रियों का कॉंबिनेशन वैसे ही है जैसे एक तो करेला दूजा नीम चढ़ा। राहुल मेहरा ने डैनी से अन्य ग्राहकों की तरह बातचीत करना भी शुरु कर दिया। लेकिन उसने डैनी के बिजनेस में कुछ ज्यादा ही रुचि लेनी शुरु कर दी जैसा कि वह केस स्टडी सोल्व करते समय किया करता था। जब राहुल और डैनी की दोस्ती गहरी हो गई तो एक दिन राहुल ने डैनी से कहा, “भैया तुम इतने अच्छे मोमो बनाते हो कि लोग उनके लिए पागल रहते हैं। देखकर तो लगता है कि कमाई भी मोटी हो जाती होगी। लेकिन कभी सोचा है कि हमारे मुहल्ले के बाहर कोई तुम्हारा नाम तक नहीं जानता?”

डैनी ने मुसकराते हुए जवाब दिया, “नहीं साहब, मेरे गाँव में कई लोग मेरा नाम जानते हैं।“

राहुल ने कहा, “तुम मेरी बात समझ नहीं रहे हो। देखा है किस तरह से मैकडॉनल्ड और पिज्जा हट पूरी दुनिया में मशहूर हैं। उन्होंने भी कभी ऐसे ही शुरु किया होगा लेकिन आज उनका ब्रांड पूरी दुनिया में छाया हुआ है।“

राहुल ने आगे कहा, “सोचो कैसा लगेगा जब पूरी दुनिया के लोग डैनी मोमोके नाम से तुम्हारे मोमो की माँग करेंगे। साइकिल से ऊपर उठकर सोचो। एक बढ़िया सा रेस्तरां खोल लो। कुछ ही महीनों में पूरी दिल्ली में तुम्हारी ब्राँचें होंगी। फिर सबकुछ ठीक चला तो पूरे हिंदुस्तान में और उसके बाद तुम पूरी दुनिया में छा जाओगे।“

डैनी ने कहा, “साहब मैं तो ठहरा अनपढ़ आदमी। अब मुझसे ये सब कहाँ हो पाएगा। मेरी जिंदगी जैसी चल रही है वैसे ही कट जाए काफी है।“

राहुल ने कहा, “क्या बात करते हो। तुम्हारा दोस्त राहुल कब काम आएगा? मैं तुम्हारी पूरी मदद करूँगा ताकि तुम्हारा नाम रोशन हो सके।“


डैनी को अब फेमस होने के कीड़े ने काट लिया। वह राहुल की बातों में आ गया और उसके कहे अनुसार रेस्तरां खोलने की कवायद शुरु कर दी। उसने उसी मुहल्ले में एक नए बने शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में एक दुकान किराये पर ले ली जिसका किराया था 20,000 रुपए। दुकान की सजावट और फर्नीचर में ही दो लाख रुपए खर्च हो गए। फिर उसके बाद पता चला कि सरकार से फूड लाइसेंस, फायर क्लिअरेंस और न जाने कई और सर्टिफिकेट लेने होंगे। सारे पेपरवर्क करवाने में रिश्वत के रूप में भी मोटी रकम खर्च हो गई। अब चूँकि वह एक बड़ी दुकान का मालिक हो गया था इसलिए मोमो बनाने के लिए कुछ नौकर भी रख लिए। फिर पता चला कि मोमो बेचते समय उसे बिल भी काटने होंगे जिसपर वैल्यू ऐडेड टैक्स, सर्विस टैक्स, एजुकेशन सेश, स्वच्छ भारत सेस और ना जाने और कई टैक्स लगाने होंगे। उन टैक्सों को समय पर भरने के लिए किसी एकाउंटेंट की सेवा भी लेनी होगी। जब एमबीए राहुल ने इन खर्चों के साथ हिसाब लगाया तो पता चला कि मुनाफा कमाने के लिए मोमो को कम से कम एक सौ रुपए प्लेट बेचना होगा। अब जो लोग डैनी से चालीस रुपए की प्लेट खरीदते थे वो भला उन्हीं मोमो के सौ रुपए क्यों देते। शुरु में तो कुछ दिन दुकान चली लेकिन फिर शायद ही कभी कोई इक्का दुक्का ग्राहक आता था। छ: महीने बीतते बीतते बेचारे डैनी की दुकान बंद हो गई। उसने तो अपनी सारी जमा पूँजी अपना रेस्तरां खोलने में लगा दिया था इसलिए अब उसके पास कुछ भी नहीं बचा था। फिर लोगों को पता चला कि डैनी वापस अपने गाँव चला गया। इस बीच ये भी पता चला कि राहुल मेहरा को अमेरिका कि किसी बड़ी कंपनी में लाखों डॉलर की नौकरी मिल गई और वह भी उस मुहल्ले को छोड़कर चला गया। 

Tuesday, July 19, 2016

गठिया का इलाज

दादी अब बहुत बूढ़ी हो चली थीं। वर्षों पुराना गठिया अब कुछ ज्यादा ही तकलीफ देने लगा था। घरवालों से उनकी तकलीफ देखी न जाती थी। दादी के दो बेटे और एक बेटी दिल्ली में रहते थे। बड़े पोते ने कहा कि दादी को दिल्ली लाकर एम्स में दिखवाना चाहिए। उसे लगता था कि एम्स में हर तरह के मरीज का इलाज होता है और पुराने से पुराना मर्ज भी ठीक हो जाता है। फिर एम्स में ऑनलाइन नंबर लगाया गया और कोई डेढ़ महीने के बाद का नंबर मिला। उसी हिसाब से ट्रेन का टिकट कटवाया गया और दादी दादा एक नौकर के साथ गाँव से दिल्ली के लिए रवाना हो गए।
दिल्ली पहुँच कर एक दिन दादी को एम्स में दिखाया गया। डॉक्टर ने कहा कि फिजियोथेरापी में जाकर सप्ताह में तीन दिन मशीन से गर्दन की नसें खिंचवानी होगी। डॉक्टर ने ये भी बताया कि पुराना मर्ज है इसलिए ठीक होने में समय लगेगा। अब यदि दादी के परिवार वाले एम्स के आसपास होते तो कोई बात नहीं थी। लेकिन वे तो पूर्वी दिल्ली से भी आगे ग्रेटर नोएडा में रहते थे। वहाँ से तड़के निकलना पड़ता था ताकि वे समय से एम्स पहुँच सके। पिछली सीट पर दादी को लिटाया जाता था और बंटी की अम्मा साथ में बैठती थीं। अगली सीट पर चिंटु बैठता था और लड्डू गाड़ी ड्राइव करता था। लौटते लौटते शाम हो जाती थी। रास्ते की सफर की थकान के कारण एम्स में जो कुछ भी होता उसका असर नोएडा पहुँचते पहुँचते खतम हो जाता था। ग्रेटर नोएडा पहुँचते पहुँचते तो दादी का दर्द घटने की बजाय बढ़ जाता था।

अब पोते पोती बच्चे तो रह नहीं गए थे। उन्हें भी काम पर जाना होता था। इसलिए घर में विचार विमर्श हुआ कि कोई और व्यवस्था की जाए। फिर पास के ही नर्सिंग होम में दादी को फिजियोथेरापिस्ट के पास ले जाया जाने लगा। वहाँ तक रास्ता बस पाँच मिनट का था इसलिए दादी को रोज ले जाया जाने लगा। लगभग पंद्रह दिन तक जाने के बाद भी दादी को कोई आराम नहीं मिला।

फिर नजफगढ़ में रहने वाले फूफा जी ने बताया कि डिफेंस कॉलोनी में कोई होमियोपैथी का बड़ा हॉस्पिटल है जो ऐसे जीर्ण और असाध्य बीमारियों के शर्तिया इलाज करता है। बाबूजी और अम्मा को हमेशा से ही होमियोपैथी पर ज्यादा भरोसा था। दादी को भी लगता था कि होमियोपैथी दवाइयों की तासीर ठंढ़ी होती है इसलिए वे बेहतर होती हैं।

फिर क्या था, एक दिन दादी को कार में लादकर डिफेंस कॉलोनी ले जाया गया, होमियोपैथी अस्पताल में दिखाने। डॉक्टर ने लगभग डेढ़ घंटे तक दादी की राम कहानी सुनी। वे बता रहे थे कि केस हिस्ट्री लेने के लिए ऐसा जरूरी होता है। दादी को तो मजा ही आ गया। बहुत समय के बाद उन्हें कोई तो मिला था जो उनकी गप्पें सुन सके। डॉक्टर ने कुछ मीठी गोलियाँ दीं और उन्हें कितना बार खाना है ये बताया। फिर डॉक्टर ने एक अनोखा इलाज बताया। उसने कहा कि काँच की हरी बोतल में पानी रखकर उसे धूप में पूरे दिन छो‌ड़ना है। फिर उस पानी को दो-दो चम्मच करके हर आधे घंटे पर पीना है। ऐसा करने से शरीर में विटामिन डी की कमी पूरी होती है जो मजबूत हड्डियों के लिए जरूरी है।

दादी को लेकर सब घर वापस आ गये। उसके बाद घर में हरी बोतल; वो भी काँच की; ढ़ूँढ़ी जाने लगी। अब तो ज्यादातर सामान प्लास्टिक की बोतलों में आने लगे हैं इसलिए काँच की बोतल शायद ही किसी घर में मिले। तभी बंटी ने धीरे से अम्मा को बताया कि बीयर के कुछ गिने चुने ब्रांड हरी बोतलों में आते हैं। उनकी बातों को बाबूजी ने भी सुन लिया। उन्होंने फौरन बंटी को हजार रुपए का नोट दिया और हरी बोतल लेकर आने को कहा। बंटी तुरंत चिंटू को लेकर परी चौक के पास वाले बाजार की ओर चल पड़ा। साथ में गप्पू और लड्डू भी लटक लिए। वहाँ पर उन्होंने बीयर की आठ बोतले खरीदीं; हर किसी के लिए दो-दो बोतलें। फिर साथ में नमकीन और कुछ ऑमलेट भी खरीदा। फिर एक ढ़ाबे में बैठकर चारों ने छककर बीयर का मजा लिया ताकि हरी बोतलें खाली हो सकें। उस ढ़ाबे वाले से ही बोतलों को साफ भी करवा लिया और फिर घर की ओर चल पड़े।


जब दादी ने आठ-आठ हरी बोतलें देखीं तो खुशी से फूली न समाईं। उन्होंने अपने पोतों को तहे दिल से आशीर्वाद दिया, “भगवान इतने लायक पोते सबको दे। देखा कैसे झट से इन्होंने अपनी दादी के इलाज का इंतजाम कर लिया।“ उधर पिताजी की आँखों को देखकर साफ पता चल रहा था कि आठ-आठ हरी बोतलों को देखकर वे कत्तई खुश नहीं थे। 

Monday, July 18, 2016

दिल्ली की बरसात

दिल्ली की सर्दी काफी मशहूर है। इसके बारे में कई हिंदी फिल्मों ने हम सबका ज्ञान बढ़ाया है। ठीक उसी तरह जैसे कि हिंदी फिल्मों ने मुंबई की बारिश के बारे में हम सबका ज्ञान बढ़ाया है। लेकिन आज तक किसी ने भी दिल्ली की बरसात पर कोई टीका टिप्पणी नहीं की है। इस कहानी से हो सकता है कि आपको दिल्ली की बरसात के बारे में काफी कुछ पता चल जाएगा।

मनजीत सुबह सुबह सज धज कर तैयार हो रहा था तभी उसकी बीबी ने पूछा, “कहाँ की तैयारी है? आज तो लगता है बहुत तेज बारिश होने वाली है। ऐसे मौसम में घर बैठकर चाय पकौड़ी का मजा ही कुछ और है।“

मनजीत ने टाई बाँधते हुए कहा, “एक बड़ा क्लाएंट है जिसने आज ही मिलने के लिए बुलाया है। फिर काम करने नहीं जाऊँगा तो पकौड़ी और चाय की पत्ती कैसे खरीदूँगा।“

मनजीत ने ताजा आयरन की हुई पैंट शर्ट पहनी थी और उसपर लाल रंग की टाई भी लगा रखी थी। उसके ऊपर से उसने एक बदरंग हो चुकी खाकी बरसाती पहन ली। अब इस बारिश के मौसम में साफ सुथरे कपड़ों और अपने आप को बचाने के लिए बरसाती पहनना तो जरूरी हो जाता है। क्या पता कौन कार वाला बगल से तेजी से निकल जाए और आपको कीचड़ से सराबोर कर दे। बरसाती पहनने से कम से कम इस बात का तो भरोसा रहता है कि किसी पोटेंशियल कस्टमर के पास आपकी इम्प्रेशन न खराब हो।

बहरहाल, मनजीत ने अपनी बाइक स्टार्ट की और काम पर निकल पड़ा। उसे बदरपुर से साकेत की ओर जाना था इसलिए उसने महरौली बदरपुर रोड का सीधा-सीधा रूट पकड़ा। थोड़ी देर में वह तुगलकाबाद के पास पहुँचा जहाँ सड़क के ऊपर से एक रेलवे लाइन जाती है। जो सड़क किसी पुल के नीचे से गुजरती है उसे अंडरपास कहते हैं। इस अंडरपास की सड़क सालों भर खराब ही रहती है और वहाँ हमेशा कीचड़ लगा रहता है। भारी बारिश के कारण वहाँ का बुरा हाल था। मनजीत ने अपनी बाइक एक किनारे लगा ली और स्थिति का जायजा लेने लगा। आगे तीन चार कारें पानी में फँसी हुई थीं। कुछ लोग पैदल ही उस वैतरणी को पार करने की कोशिश कर रहे थे। उन्हें देखकर पता चल रहा था कि पानी कमर भर गहरा था। मनजीत की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। तभी एक सोलह सत्रह साल का लड़का उसके पास आया और पूछा, “भाई साहब, आओ तुम्हारी बाइक पार करवा दूँ।“

मनजीत ने पूछा, “लेकिन कैसे।“

उस लड़के ने कहा, “अरे हमारे ताऊ की बैलगाड़ी किस दिन काम आएगी। सौ रुपए लगेंगे। फिर तुम और तुम्हारी बाइक गीले हुए बिना इसे पार कर जाओगे।“

मनजीत ने कहा, “सौ रुपए ज्यादा नहीं माँग रहे हो?”

उस लड़के ने कहा, “अगर बाइक बीच में बंद हो गई, साइलेंसर में पानी चला गया तो ठीक करवाने के पाँच सौ रुपए लगते हैं। फायदा तुम्हारा ही है।“

मनजीत ने तुरंत हामी भर दी। फ़टाफट तीन लड़के और आए और सबने मिलकर मनजीत और उसकी बाइक को बैलगाड़ी पर लाद दिया। फिर बैल बड़े आराम से उस अंडरपास को पार कर गया। कमाल का नजारा था। कीचड़ से लथपथ एक बैल अपनी पुरानी बैलगाड़ी को कमर भर मटमैले पानी में से खींच रहा था। ऊपर दो मजदूर से दिखने वाले लड़के एक लाल रंग की मोटरसाइकिल को संभाल कर पकड़े हुए थे। मोटरसाइकिल की बगल में मनजीत खड़ा था, काली पैंट धारीदार शर्ट और लाल टाई लगाकर। एक ही फ्रेम में भारत का भूतकाल और वर्तमान दिख रहा था जो किसी उज्ज्वल भविष्य की ओर संकेत नहीं कर पा रहा था। 

पर मनजीत ने गौर किया कि कुछ ट्रैक्टर वाले भी तेज बिजनेस कर रहे थे। एक कार को पानी से बाहर निकालने के वे पाँच सौ रुपए चार्ज कर रहे थे। अब जिसकी कार फँसी हुई थी वह बेचारा क्या करता। उसके पास और कोई उपाय नहीं था। किसी ने ये भी बताया कि 100 नंबर डायल करते करते थक गया था लेकिन सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं आई। बताया गया कि आगे इतना ज्यादा जाम था कि किसी भी गाड़ी को नजदीक के पुलिस स्टेशन से आने में कम से कम एक घंटा लग जाए।


अंडरपास को पार करने के बाद  मनजीत की बाइक को बैलगाड़ी से उतारा गया। समीर उस लड़के को सौ रुपए का नोट दे रहा था। उनके पीछे एक बड़ी होर्डिंग लगी थी जिसपर दिल्ली के मुख्यमंत्री का चिर परिचित चेहरा नजर आ रहा था। नीचे लिखा था, “हम काम करते रहे, ये बदनाम करते रहे।“ 

Sunday, July 17, 2016

सीरियस मरीज?

कई बार डॉक्टर की क्लिनिक में कुछ मजेदार घटनाएँ होती हैं। कुछ मरीज और उनके एटेंडेंट जरूरत से ज्यादा परेशान रहते हैं। यह किसी भी मरीज के साथ आए आदमी के लिए नॉर्मल हो सकता है। लेकिन डॉक्टर, नर्स, कंपाउंडर या मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव जैसे प्राणियों के लिए यह आम बात होती है। ऐसी ही एक घटना का जिक्र इस कहानी में है।

एक बार मैं मुंगरा बादशाहपुर नाम के एक गाँव में काम करने गया था। यह गाँव जौनपुर इलाहाबाद वाली सड़क पर जौनपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर है। उस गाँव के बाजार के आखिर में एक बूढ़ा डॉक्टर बैठता था। वह डॉक्टर पहले किसी सरकारी हॉस्पिटल में हुआ करता था और रिटायर होने के बाद अपने पैतृक गाँव में अपनी क्लिनिक चलाता था। उस डॉक्टर को गप्पें मारना बहुत पसंद था इसलिए हम लोग उसकी कॉल सबसे आखिर में किया करते थे।

अपना बाकी काम निबटा कर मैं उस डॉक्टर की क्लिनिक पर पहुँचा। दोपहर के ढ़ाई बज रहे थे इसलिए क्लिनिक पर सन्नाटा था। नमस्ते करने के बाद मैं उस डॉक्टर के पास बैठ गया और फिर हम इधर उधर की बातें करने लगे। थोड़ी देर बाद मैंने अपना विजुअल ऐड निकाला और मुद्दे की बात करने लगा।

अभी मैंने शुरु ही किया था कि उसकी क्लिनिक में दो लड़के तेजी से आए। दोनों की उम्र सोलह सत्रह के आसपास रही होगी। उनमें से एक को देखकर लगता था कि वह किसी तेज दर्द से तड़प रहा था। उसने अपनी आँखें भींच रखी थी और अजीब ढँग से मुँह बना रहा था। उसके साथ आया लड़का जोर-जोर से चिल्ला रहा था, “अरे डाक्टर साहब, देखो इसको। पता नहीं क्या हो गया है। पेट में बहुत दर्द हो रहा है। लगता है अभी दम तोड़ देगा। जल्दी कुछ करो डाक्टर साहब।“

डॉक्टर ने उसकी ओर देखा और बड़े ही शांत भाव से कहा, “बैठो और थोड़ा इंतजार करो। पहले इन साहब से बात कर लें फिर इसे देख लेंगे।“

डॉक्टर की बातों में वजन था। उसके कहने पर दोनों लड़के शांत हो गए और पास रखी बेंच पर बैठ गये। फिर डॉक्टर मेरी बातें सुनने में मशगूल हो गया था। अभी कोई दो तीन मिनट ही बीते होंगे कि वह लड़का फिर से चिल्लाने लगा, “अरे डाक्टर साहब, यहाँ मेरे भाई की जान जा रही है और तुमको गप्पें लड़ाना सूझ रहा है। जल्दी कुछ करो, नहीं तो यह दर्द से मर जाएगा।“ साथ में दूसरा लड़का जोर जोर से उफ्फ! आह! मर गया रे! आदि चिल्ला रहा था।

उन्हें ऐसा करते देख उस डॉक्टर ने मुझे रुकने का इशारा किया और बड़े आराम से अंदर एक कमरे में चला गया। उसके बाद जो हुआ उसे याद करके आज भी मैं अपनी हँसी रोक नहीं पाता हूँ। थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि डॉक्टर उस कमरे से बड़ी तेजी से निकल रहा था। उसके हाथ में एक बड़ी सी सीरिंज थी; जो जानवरों को इंजेक्शन देने के काम आती है। उस सीरिंज में पानी जैसा कुछ भरा हुआ था। उसकी मोटी सूई से तेज धार निकल रही थी। डॉक्टर नपे तुले कदमों से उन लड़कों की तरफ बढ़ रहा था। उसका चेहरा भाव शून्य था। जब उन लड़कों ने डॉक्टर को इस तरह अपनी ओर आते देखा तो उन दोनों को तो जैसे करेंट लग गया। दोनों तेजी से उठे और बाजार की तरफ दौड़ पड़े। थोड़ी ही देर में वे दोनों नजरों से ओझल हो गए।


उसके बाद मैं और डॉक्टर जोर-जोर से हँसने लगे। डॉक्टर ने कहा, “अरे बाल सफेद हो गए ऐसे नाटक देखते देखते।“ 

Saturday, July 16, 2016

मेले वाला डॉक्टर

भारत एक अनोखा देश है। यहाँ पर हमेशा कुछ न कुछ ऐसा होता है जो रेशनल थिंकिंग से परे होता है। इनमें से कुछ तो कई दिन तक अखबार की सुर्खियों में छाये रहते हैं; जैसे गणेश भगवान द्वारा दूध पीना। लेकिन ज्यादातर घटनाएँ आसपास के इलाके के कुछ चंद लोगों को ही मालूम हो पाती हैं।

बात शायद 2002 की है। मैग्नेक्स नया नया लॉंच हुआ था। इसे बेचना जौनपुर जैसे मार्केट में आसान काम नहीं था। मैं अपने मैनेजर साहब के साथ पास के ही एक कस्बे मछलीशहर में काम कर रहा था। हम वहाँ के एक बड़े केमिस्ट की दुकान में खड़े थे और उससे डॉक्टरों के प्रेस्क्रिप्शन हैबिट के बारे में पूछ रहे थे। तभी एक पतला दुबला आदमी आया और उसने ट्रैक्सॉल का एक कार्टन खरीदा। जब तक हम उससे कुछ पूछ पाते वह साइकिल पर गत्ता लादे तेजी से चला गया। ट्रैक्सॉल एक महंगी एंटिबायोटिक है और इसलिए मैग्नेक्स का कंपिटीटर भी है। जो भी डॉक्टर ट्रैक्सॉल उतनी भारी मात्रा में लिख सकता है वह मैग्नेक्स के लिए आयडियल डॉक्टर हो सकता है।

मेरे मैनेजर साहब ने छूटते ही उस केमिस्ट के मालिक से पूछा, “भैया इस मछलीशहर जैसे गाँव में कौन आ गया जो इतना ज्यादा ट्रैक्सॉल लिखता है?”

उस केमिस्ट ने जवाब दिया, “अरे, आपको पता नहीं है? एक नया डॉक्टर आवा है जो इहाँ से दो तीन किलोमीटर दूर बैठता है। इतना ट्रैक्सॉल तो वह रोज लिखता है।“

मैने पूछा, “क्या नाम है? कहाँ से आया है? क्या क्वालिफिकेशन है?”

केमिस्ट ने फिर बताया, “नाम और डिग्री तो मालूम नहीं। सुना है कानपुर का रहने वाला है। दूर-दूर से उसके पास मरीज आ रहे हैं। बड़ी जबरदस्त दुकान चल रही है। मछलीशहर के डॉक्टरों की तो नींद उड़ गई है। अभी एक दो महीने ही हुए हैं उसे आए हुए। शुरु में कुछ साधुओं को लेकर आसपास के गाँवों में घूमा था; अपना प्रचार करने।“

मैने पूछा, “आप जरा पता बता दें। हमलोग भी जाकर देखते हैं।“

केमिस्ट ने बताया, “आगे इलाहाबाद की तरफ जाइए। बाजार खतम होने के बाद बाएँ एक रास्ता गया है उसपर मुड़ जाइए। दो तीन किलोमीटर जाने के बाद आपको दूर से ही बड़ी भीड़ नजर आएगी। बस वहीं पर डॉक्टर बैठता है। वहाँ के लिए तो जीप और ऑटो भी चलने लगे हैं आजकल।“

उस बातचीत के बाद हमलोग मेरी बाइक पर सवार हुए और उस गाँव की ओर चल पड़े। उस केमिस्ट द्वारा बताए रास्ते पर जब हम कोई दो किलोमीटर चले होंगे तो दूर से ही मेले जैसा नजारा दिखा। दूर से गुब्बारे वालों के उँचे डंडे पर लटके रंग बिरंगे गुब्बारे दिखाई दिए। एक छोटी सी फेरी व्हील भी लगा रखी थी किसी ने जिसपर वहाँ आए बच्चे मजे कर रहे थे। थोड़ा और पास पहुँचने पर चाट पकौड़ी के ठेले भी सजे हुए मिले। गर्म गर्म जलेबियाँ भी बन रहीं थीं। सड़क की दोनो तरफ लोहे के पाइप के फ्रेम से बनी खाटें एक लाइन से लगी हुई थीं। उन खाटों पर मरीज लेटे हुए थे और हर मरीज के हाथ में कैथेटर लगा था जिससे ड्रिप चढ़ रही थी। बिल्कुल पास पहुँचकर तो और भी अजीब नजारा था। ठेलों पर दवाई की दुंकानें भी सजी थीं। लगभग दो से तीन हजार लोगों की भीड़ थी वहाँ पर।

वहाँ पहुँचकर हमलोगों ने एक किनारे बाइक लगाई और वहाँ का जायजा लेने लगे। अपने दिमाग की नसें ढ़ीली करने के लिए मैं और मेरे मैनेजर साहब ने मुँह में गुटका दबा लिया। जब निकोटिन का असर हमारी नसों पर हुआ तो मैनेजर साहब ने मुझसे कहा, “जाओ जरा इन ठेले वाले केमिस्टों से पता करो कि ये क्या क्या लिखता है। फिर इससे मिलने की कोशिश करो।“

मैं थोड़ी देर उन ठेले वाले केमिस्टों से पूछताछ करता रहा। पता चला कि वे सब मछलीशहर के केमिस्टों के स्टाफ थे। उनकी रिपोर्ट के मुताबिक वह डॉक्टर हर दिन कम से कम एक हजार मरीज देखता था। एक से एक पुराने मरीज; जो हर जगह से थक हार चुके थे; वहाँ ठीक होने की उम्मीद में आते थे। उस डॉक्टर के पिछले इतिहास के बारे में कोई नहीं जानता था। किसी की ये भी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक से उसने इतनी भीड़ कैसे जुटा ली। किसी भी डॉक्टर को अपनी प्रैक्टिस जमाने में वर्षों लग जाते हैं।

बहरहाल, उसके बाद मैं उस डॉक्टर से मिलने का रास्ता ढ़ूँढ़ने लगा। डॉक्टर के कमरे तक जाने के लिए मुझे एक बड़ी भीड़ को चीरकर जाना पड़ा। मेरी मदद के लिए साथ में एक केमिस्ट भी चल रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे किसी मेले में मैं भीड़ को चीरकर मूर्ति के दर्शन करने जा रहा था। भीड़ की आखिर में वह एक कमरे में बैठा था जिसे देखकर लगता था कि उसे अभी हाल ही में ईंटों को मिट्टी से जोड़कर बनाया गया था। बाहर कोई प्लास्टर भी नहीं था। हाँ ऊपर एक पक्की छत जरूर थी। कमरे के बाहर एक बोर्ड लगा था जिसपर डॉक्टर का नाम लिखा था, “वाइ एम दूत”। उसके नाम के नीचे लिखा था “एम डी (का यू टी)। यदि आप “वाइ एम दूत” को हिंदी में पढ़ें तो यह यमदूत की तरह सुनाई पड़ता है। मैंने गेस किया कि का यू टीका मतलब होगा कानपुर यूनिवर्सिटी। उस कमरे के बाहर एक चालीस पैंतालीस साल का पतला दुबला लेकिन लंबा आदमी खड़ा था। उसकी मूँछें बड़ी रौबदार थीं। उसके साथ खाकी रंग के कपड़ों पर उसकी दुनाली बंदूक ऐसी लग रही थी जैसे शोले फिल्म से कोई डकैत साक्षात वहाँ पर आ गया हो।

मैंने उससे कहा, “भैया, मैं दवा कंपनी से आया हूँ। डॉक्टर साहब से मिलवा देते तो अच्छा होता।“
उस आदमी ने कुछ नहीं कहा और मुझे अपने पीछे आने का इशारा किया। मैने अपने मैनेजर साहब को; जो दूर खड़े थे; इशारे से बुलाया। फिर हमलोग डॉक्टर के कमरे में दाखिल हो गए। अंदर थोड़ा अंधेरा था। दीवार में बने एक ताखे में लक्ष्मी जी की मूर्ति लगी थी जिसके आगे एक लाल बल्ब जल रहा था। मूर्ति के पास अगरबत्तियों का एक गुच्छा जल रहा था जिसकी भीनी-भीनी खुशबू पूरे कमरे में फैली थी। आसपास कुछ मरीज बैठे थे जिनके साथ उनके ऐटेंडेंट भी थे। उस डॉक्टर ने सफेद शर्ट और सफेद पतलून पहना हुआ था और पाँव में भी सफेद जूते थे। उस भारी सफेदी के बीच उसका काला कलूटा चेहरा मुश्किल से नजर आता था। हाँ उसकी पान खाने से काली पड़ी हुई बत्तीसी जरूर दिख जाती थी। डॉक्टर से थोड़ी ही देर बात करके मैंने अनुमान लगाया कि वह पढ़ा लिखा नहीं था। फिर मैंने ठेठ हिंदी में उसे मुद्दे की बात समझाई कि हम उससे मैग्नेक्स लिखवाना चाहते थे।

कॉल खतम करने के बाद हम बाहर आ गए और उस कॉल की सार्थकता पर विचार विमर्श करने लगे। तभी डॉक्टर का दरबान मेरे पास आया और बताया कि वह डॉक्टर केवल मुझसे मिलना चाहता था; मैनेजर साहब के बगैर। मैं फौरन अंदर गया। उस डॉक्टर ने बताया कि किस तरह से किसी कंपनी ने उसे स्कूटर दिया था तो किसी ने खाटें खरीदीं थीं। वह चाहता था कि उसके मरीजों की सुविधा के लिए हमारी तरफ से कोई पचास पेडेस्टल फैन लगवा दिए जाएँ। मैंने उसे फाइजर की परिपाटी के बारे में बताया और बताया कि हम ऐसा करने में असमर्थ थे। फिर उसके बाद मैंने उससे एक डील तय की जो फाइजर के कायदे कानून की सीमा में थी। उसका यहाँ पर उल्लेख करना मुझे उचित नहीं लगता है इसलिए आप अपने बुद्धि विवेक से अनुमान लगाते रहिए।


उसके बाद मैं हर सोमवार की सुबह को मैग्नेक्स का रेडी स्टॉक लेकर उस डॉक्टर के पास पहुँच जाता था। दो तीन घंटे बैठकर उससे पर्चे लिखवाता था और कैश पेमेंट पर वहाँ बैठे केमिस्टों को मैग्नेक्स सप्लाई करता था। यह सिलसिला लगभग तीन महीने तक चला। उस डॉक्टर के पर्चों के कारण मेरी टेरिटरी में इतना मैग्नेक्स बिका कि मैं रीजनल टॉपर हो गया। मेरे साल भर के टार्गेट का 200% एचीवमेंट हो चुका था। मेरी टीम के सभी लोगों को उस साल जबरदस्त इंसेंटिव मिला। फिर तीन महीने के बाद खबर आई कि आसपास के लोगों ने उस डॉक्टर की जमकर धुनाई की और वह हमेशा से उस जगह को छोड़कर चला गया। 

आगरे का पेठा

फाइजर की लॉंच मीटिंग के मजे ज्यादातर लोगों को वर्षों तक याद रहते हैं। ये कहानी मैग्नेक्स लॉंच की है जो आगरा में हुई थी। जिस होटल में हम ठहरे थे वह अपने आप में एक छोटे से मुहल्ले की तरह ही आकार लिए हुए था। उस मीटिंग में फाइजर की हर बड़ी मीटिंग की तरह कवाब और शराब का लुत्फ सबों ने उठाया था इसलिए मैं उस का विवरण यहाँ पर नहीं करूँगा। 

मीटिंग के आखिरी दिन हमारे पास ट्रेन पकड़ने से पहले कुछ समय था। उस समय का सदुपयोग करने के लिए पहले तो हम ताजमहल घूमने गए और उसके बाद शॉपिंग करने। वहाँ के लोकल पीएसओ हमारे साथ थे ताकि हमें शॉपिंग में कोई परेशानी न हो। हमारी टीम के सभी लोगों ने कई जोड़ी जूते खरीदे। उसके बाद सबने वह चीज खरीदी जो शायद ताजमहल के बाद आगरा की दूसरी मशहूर चीज है। जी हाँ आपने ठीक समझा; आगरे का पेठा। मैं उस समय कुँवारा था इसलिए मैंने केवल एक किलो सूखे पेठे खरीदे। मुझ जैसी अकेली जान के लिए वही काफी था। जो लोग शादीशुदा थे उन्होंने अधिक मात्रा में पेठे खरीदे थे ताकि उसका पूरे परिवार के साथ मजा ले सकें। हमारे मैनेजर साहब ने तो सबसे ज्यादा मात्रा में पेठे खरीदे थे। सूखे पेठों के अलावा उन्होंने चाशनी वाले पेठे भी खरीदे थे। टीम के बॉस होने के नाते भी उनके लिए लाजिमी था कि उनके पेठों का पैकेट सबसे बड़ा हो।

बहरहाल, शाम में हमारी टीम के सभी लोगों ने आगरा स्टेशन से मरुधर एक्सप्रेस ट्रेन पकड़ी। यह ट्रेन वाराणसी तक जाती है। हमारे मैनेजर साहब और चार पीएसओ को फैजाबाद उतरना था। उनमे से दो लोगों को मैनेजर साहब के साथ फैजाबाद में ही रहना था और बाकी दो में से एक को गोंडा और दूसरे को बहराइच जाना था। उसके बाद दो सज्जन को सुल्तानपुर उतरना था। आखिर में मुझे जौनपुर उतरना था।

ट्रेन में हमारा रिजर्वेशन एसी थ्री में था और एक ही जगह हमारे आठ बर्थ थे। चूँकि टिकट एक ही था और सबमें आपस में तालमेल अधिक था इसलिए पहले आओ पहले पाओ की पॉलिसी अपनाते हुए बोगी में पहले अंदर जाने वाले छ: लोगों ने बीच के छ: बर्थ पर अपना कब्जा जमा लिया। मैनेजर साहब को उनकी पोजीशन के कारण नीचे वाले बर्थ पर बैठने की सुविधा दी गई। उनके सामने फैजाबाद में लंबे समय से काम करने वाले एक पीएसओ को बर्थ दी गई। मैं और सुलतानपुर के पीएसओ बोगी में सबसे पीछे गए थे। इसलिए हम दोनों को साइड वाली बर्थ दी गई। चूँकि मुझे सबसे आगे तक जाना था इसलिए मुझे साइड की ऊपर वाली बर्थ दी गई।

ट्रेन चलते ही हमारी दुकान शुरु हो गई। यदि आप फाइजर में लंबे अर्से से काम करते हैं तो आपको दुकान शुरुहोने का मतलब तो पता ही होगा। लगभग रात के दस बजे कुछ अन्य यात्रियों द्वारा शिकायत आने के बाद हमने अपनी दुकान बंद कर दी और अपने-अपने बर्थ पर सोने चले गये। 

सबने मेरी बर्थ पर अपने-अपने पेठों के पैकेट रख दिये क्योंकि उनका मानना था कि साइड बर्थ पर वे सुरक्षित रहेंगे। उन पैकेटों के ऊँचे ढ़ेर के कारण मुझे सोने में थोड़ी तकलीफ हो रही थी। मैंने जब सोचा कि किसी और के बर्थ पर कुछ पैकेट रखवा दूँ तो पाया कि तब तक सभी खर्राटे ले रहे थे। मेरे पास अब कोई चारा नहीं था और मैं उसी स्थिति में सोने की कोशिश कर रहा था। रात के लगभग तीन बजे मुझे जोरों की भूख लगी। मेरे पास चिंता की कोई वजह नहीं थी क्योंकि मेरे पास पेठों का भरपूर स्टॉक था। मुझे लगा कि बॉस की चीजों पर किसी पीएसओ का पूरा अधिकार होता है। इसलिए मुझे उनके पैकेट से ही पेठे खाना उचित लगा। मैंने उनका वो पैकेट खोला जिसमें चाशनी वाले पेठे रखे हुए थे। वे वाकई स्वादिष्ट थे। वैसे तो मेरी खुराक बहुत ही कम है लेकिन कभी किसी से शर्त लगे तो बात कुछ और होती है। मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और चाशनी वाले पेठे के एक पूरे पैकेट को सफाचट कर दिया। फिर मैंने उसे जैसे का तैसा पैक करके उसकी जगह पर करीने से रख दिया।

सुबह होते-होते फैजाबाद स्टेशन आया और कुछ लोग वहाँ उतर लिए। आखिरकार मेरा भी सफर समाप्त हुआ और मैं अपनी मंजिल पर पहुँच गया।

इस बात को बीते कुछ ही दिन हुए थे कि हमारी साइकिल मीटिंग फैजाबाद में हुई। जैसे ही मैं सुबह सुबह तैयार होकर मीटिंग हॉल में पहुँचा तो हमारे मैनेजर साहब ने जो पहला सवाल पूछा वो आप किसी भी मैनेजर से साइकिल मीटिंग में उम्मीद नहीं कर सकते हैं। उन्होंने न तो पिछले क्वार्टर की सेल के बारे में पूछा और न ही किसी पेंडिंग पेमेंट के बारे में पूछा। उन्होंने छूटते ही सवाल दागा, “अबे, ये बताओ कि आगरा से वापस लौटते वक्त साइड की ऊपर वाली बर्थ पर तो तुम ही थे?”

मैंने उन्हें कहा, “हाँ! क्या हुआ?”

उन्होंने फिर पूछा, “मेरे पेठों के पैकेट में से एक पैकेट पूरा खाली था; वो भी चाशनी वाले पेठों का। ऐसा कैसे हुआ?”

मैंने देखा कि अब छुपाने से कुछ नहीं होने वाला। वैसे भी वे पेठे तो कब के हजम हो चुके थे। मैंने बिलकुल निर्दोष सा चेहरा बनाते हुए कहा, “मैंने सोचा कि आपने वे पेठे तो अपने परिवार के लिए खरीदे थे। हम लोग भी तो आपके परिवार जैसे ही हैं। मुझे भूख लगी थी और वे पेठे वाकई स्वादिष्ट थे। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने पूरा पैकेट साफ कर दिया।“


मेरी बात समाप्त होते ही वहाँ बैठे बाकी लोग जोर-जोर से हँसने लगे। हमारे मैनेजर साहब का चेहरा तो बस देखते ही बनता था। 

Thursday, July 14, 2016

एमआर की आमदनी

मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव को भारत के हिंदी बेल्ट में लोग एमआर के नाम से जानते हैं। ज्यादातर लोगों को लगता है कि ये प्राइवेट नौकरी करने वाले लोग होते हैं जिन्हें काम भर का पैसा मिल जाता है अपना गुजारा करने के लिए। इसलिए कई नातेदार रिश्तेदार तो ये भी पूछ बैठते हैं, “अरे बंटी अभी तक एमआर ही हो? कोई नौकरी क्यों नहीं कर लेते? भागलपुर वाले फूफा जी से बात करो। उनकी बड़ी पहुँच है। वे तुम्हें कम से कम शिक्षा मित्र की नौकरी तो लगवा ही देंगे।“

एमआर के बारे में लोगों की धारणा सच्चाई से बहुत दूर भी नहीं होती है क्योंकि अधिकांश कंपनियों में सैलरी और एक्सपेंस मिलाकर इतना ही मिल पाता है कि बेचारा एमआर किसी तरह से जिंदगी काट सके। बहरहाल, कुछ बड़ी कंपनियों में बहुत ही अच्छा पे पैकेज होता है जिसके बारे में बहुत ही कम लोगों को पता होता है। इसी धारणा से संबंधित एक मजेदार वाकया याद आता है जिसका बयान आगे है।

हमलोग फैजाबाद में किसी स्त्री रोग विशेषज्ञ की कॉल करने के लिए उसके क्लिनिक में इंतजार कर रहे थे। मेरे साथ कैडिला, ग्लैक्सो, कोपरान, इंडोको, रैनबैक्सी, आदि कंपनियों के एमआर भी बैठे थे। अभी हमारी बारी आने में देर थी इसलिए हम गप्पें लड़ाकर टाइम पास कर रहे थे। जाड़े का मौसम था इसलिए लगभग सभी एमआरों ने कोट और टाई पहन रखे थे और कुछ ज्यादा ही बने ठने दिख रहे थे। हमारी बगल में एक चालीस की उम्र के सज्जन बैठे हुए थे। वे एक पतलून और चेकवाली शर्ट पहने हुए थे। उसके ऊपर बाजार में बिकने वाले सस्ते ऊन का हाथ से बुना स्वेटर पहन रखा था। साथ में गले में मफलर भी था जो कुछ कुछ अरविंद केजरीवाल की स्टाइल में कानों को ढ़के हुए था। उन सज्जन की दो तीन दिन की दाढ़ी भी बढ़ी हुई थी। कुल मिलाकर वे किसी सरकारी दफ्तर के बाबू लग रहे थे। पता चला कि उनकी पत्नी अंदर डॉक्टर से जाँच करवाने गईं थीं।

वे सज्जन भी हमारी गप्प में रुचि ले रहे थे और बीच बीच में एक दो एक्सपर्ट कमेंट कर दिया करते थे। फिर थोड़ी देर बाद जब वे अपनी जिज्ञासा पर काबू नहीं कर पाए तो उन्होंने हमसे पूछा, “आप लोग तो प्राइवेट नौकरी करते हैं। यदि बुरा ना मानें तो एक सवाल पूछूँ?”

हममें से कैडिला वाले ने कहा, “हाँ हाँ पूछिए।“

उन सज्जन ने पूछा, “आपको इस काम के लिए सैलरी मिलती है या कमीशन?

इस पर इंडोको वाले ने जवाब दिया, “सर, हमलोगों को सैलरी मिलती है और टार्गेट से ज्यादा सेल करने पर इंसेंटिव भी मिलता है।“

कोपरान वाले ने बीच में अपनी बात रखी, “वैसे आप इंसेंटिव को एक तरह का कमीशन समझ सकते हैं।“

उसके बाद उन सज्जन ने अपना अगला सवाल पूछा, “अच्छा ये बताइए कि काम भर का पैसा तो मिल ही जाता होगा जिससे गुजारा हो सके।“

उनकी बात पर कैडिला वाले ने जवाब दिया, “हाँ हमलोगों को इतना तो मिल ही जाता है जिसमे गुजारा हो सके। अब क्या करें, सरकारी नौकरी तो आसानी से मिलती नहीं। सोचा समय रहते नौकरी शुरु कर देंगे तो कम से कम कुछ कमाएँगे तो सही।“

उन सज्जन ने कहा, “हाँ ठीक ही कहा आपने। अरे आप मेहनत ही तो कर रहे हैं। कोई चोरी तो नहीं कर रहे हैं। भगवान पर भरोसा रखिए। एक दिन आपलोगों की भी माली हालत ठीक हो जाएगी।“
उसकी ये बात सुनकर शायद कोपरान वाले को गुस्सा आ गया, “हमारी माली हालत ठीक ही है। उसकी चिंता आप न करें।“

फिर उसने फाइजर वाले की तरफ यानि मेरी तरफ इशारा करके कहा, “इन्हें देख रहे हैं कितने इतमीनान से बैठे हैं। ये बहुत बड़ी कंपनी में काम करते हैं। पता है इनको कितना मिल जाता है? अरे एक महीने में इन्हें कम से कम 80 से 90 हजार रुपए तो मिल ही जाते होंगे।“


उसका ऐसा कहना था कि वे सज्जन कुछ देर के लिए चुप हो गए। फिर वे वहाँ से उठकर बाहर चले गए। हमलोगों ने गौर किया कि बाहर जाकर वे ठहाके लगा कर हँस रहे थे। शायद उन्हें लग रहा था कि कोपरान वाले ने लंबी फेंक दी।