पहले मुझे लगता था कि
दिल्ली का सबसे मशहूर खाना है राजमा चावल क्योंकि यह आपको दिल्ली की हर गलियों में
मिल जायेगा। फिर कुछ दिन मुझे लगता था कि ब्रेड पकौड़ा ही दिल्ली का सबसे लोकप्रिय
खाना है। वैसे तो करीम की दुकान के कवाब और तंदूरी चिकन भी मशहूर हैं। फिर
दरियागंज की गलियों में बिकने वाले तरह तरह के चाट भी मशहूर हैं। लेकिन आप रोज रोज
चाट या कवाब तो नहीं खा सकते। लेकिन आजकल मेरी धारणा बदल गई है। अब मुझे पक्का
यकीन हो गया है कि दिल्ली का सबसे लोकप्रिय खाना है मोमो। मोमो मूल रूप से दिल्ली
की डिश नहीं है बल्कि यह पहाड़ों से यहाँ आया है। आप यदि गौर करेंगे तो पाएँगे कि
दिल्ली कि हर गली और नुक्कड़ पर आपको सबसे ज्यादा मोमो बेचने वाले मिल जाएँगे। सेहत
के हिसाब से भी देखा जाए तो मोमो बिल्कुल हेल्दी डिश है क्योंकि यह स्टीम पर कुक
किया जाता है और इसमें तेल का इस्तेमाल नहीं होता है। अधिकाँश लोग चिकन मोमो को
तरजीह देते हैं लेकिन नवरात्रों के समय वेज मोमो की माँग ज्यादा होती है।
मेरे मुहल्ले में ऐसा ही एक
मोमो बेचने वाला था। उसका नाम मुझे मालूम नहीं लेकिन दिखता था वो बिलकुल पहाड़ी।
गोरी चमड़ी, छोटी-छोटी आँखें, चपटी
नाक और लाली लिए हुए भूरे बाल। आपकी सुविधा के लिए उसका नाम रख देता हूँ डैनी डैन
जोंगपा जो हिंदी फिल्मों के एक मशहूर ऐक्टर से मिलता है। डैनी की दुकान बड़ी ही
साधारण सी थी। एक साइकिल पर पीछे की सीट की जगह उसका स्टीमर का सेट लगा हुआ रहता
था जिसमें कई खानों में मोमो गरम होते थे। साइकिल की कैरियर पर गैस का एक छोटा सा
सिलिंडर लगा होता था जिससे स्टीमर के नीचे रखा बर्नर जलता रहता था। आगे की हैंडल
में बड़े भारी झोले लटके होते थे जिसमें कच्चे मोमो और चटनी रखी होती थी। एक दूसरे
झोले में कागज की प्लेटें, प्लास्टिक की थैलियाँ और पेपर
नैपकिन रखे होते थे। कुल मिलाकर दुकान के नाम पर उसे बहुत ज्यादा इंवेस्ट नहीं
करना पड़ा होगा। यदि मैनेजमेंट की भाषा में कहा जाए तो उसका कार्बन फुटप्रिंट बहुत
ही छोटा था। ज्यादातर मोमो बेचने वालों की दुकान आपको ऐसी ही मिलेगी।
लेकिन साधारण सी दुकान होने के बावजूद डैनी के मोमो असाधारण
हुआ करते थे। उसके हाथ में कोई जादू था। उसके मोमो तो स्वादिष्ट थे ही साथ में
उसकी लाजवाब चटनी तो जैसे सोने पर सुहागे का काम करती थी। वह लगभग पाँच बजे शाम
में अपनी तय जगह पर आकर अपनी दुकान लगाता था। मुहल्ले के टीनएज लड़के उसके पहले से
ही उसका इंतजार करते रहते थे। हमारे जैसे वयस्क लोगों को भी जल्दी ही जाना होता था
क्योंकि यदि 8 से ऊपर बज गये तो उसके पास मोमो मिलने की कम ही संभावना होती थी।
हालाँकि मुहल्ले में मोमो की और भी दुकानें लगती हैं लेकिन कोई भी लोकप्रियता और
सेल के मामले में डैनी से टक्कर नहीं ले पाता था।
उसके मोमो के जादू का पता आपको उसी मुहल्ले में रहने वाले
एक आवारा कुत्ते के उदाहरण से पता चल जाएगा। मुहल्ले के टीनएज लड़कों की तरह वह
कुत्ता भी उस मोमो वाले के इंतजार में चार बजे ही वहाँ पहुँच जाता था। उस कुत्ते
का थुलथुल शरीर देखकर आपको डैनी के मोमो की न्यूट्रिशन वैल्यू का भी अंदाजा लग
जाता। मैंने उससे कई बार कहा था कि उस कुत्ते की फोटो डालकर एक बड़ा सा पोस्टर बगल
में लगा दे। वह हमेशा इस बात का हँसकर जवाब दिया करता था। डैनी मोमोवाला मंगलवार
को अपनी दुकान नहीं लगाता था क्योंकि मंगलवार के दिन ज्यादातर हिंदु नॉन वेज नहीं
खाते हैं। मंगलवार के दिन वह आवारा कुत्ता उस जगह के आस पास भी नहीं दिखता था।
कभी-कभी डैनी छुट्टियाँ मनाने के लिए अपने गाँव भी जाया करता था और फिर लगभग आठ दस
दिनों तक नजर नहीं आता था। ऐसे में ना केवल मुहल्ले के टीनएज लड़के पागल हो जाते थे
बल्कि वह कुत्ता भी बौराया हुआ फिरता था।
कई ऐसे लड़के और लड़कियाँ जो नौकरी करते थे, शाम
में उससे चार पाँच प्लेट मोमो खरीद लेते थे। वे ऐसा इसलिए करते थे ताकि ब्रेकफास्ट
लंच और डिनर में मोमो खा सकें। भला इतना अच्छा खाना वो भी सस्ते रेट में मिले तो
कोई भी खानबदोश जीवन जीने वाला खाना बनाने की जहमत क्यों लेगा।
सबकुछ ठीक ठाक चल रहा था फिर जैसे उस डैनी मोमो वाले को
किसी की नजर लग गई। उसके फैंस की लिस्ट में एक नया नाम शुमार हो गया था; राहुल
मेहरा। राहुल मेहरा लगभग पच्चीस साल का था। उसने हाल ही में आइआइएम से एमबीए किया
था और नौकरी ज्वाइन की थी। इसके पहले उसने आइआइटी से बीटेक भी किया था। कहते हैं
कि भारत या अमेरिका के जॉब मार्केट में डिग्रियों का इससे अच्छा कॉंबिनेशन हो ही
नहीं सकता। मेरी नजर में राहुल की डिग्रियों का कॉंबिनेशन वैसे ही है जैसे एक तो
करेला दूजा नीम चढ़ा। राहुल मेहरा ने डैनी से अन्य ग्राहकों की तरह बातचीत करना भी
शुरु कर दिया। लेकिन उसने डैनी के बिजनेस में कुछ ज्यादा ही रुचि लेनी शुरु कर दी
जैसा कि वह केस स्टडी सोल्व करते समय किया करता था। जब राहुल और डैनी की दोस्ती
गहरी हो गई तो एक दिन राहुल ने डैनी से कहा, “भैया तुम इतने
अच्छे मोमो बनाते हो कि लोग उनके लिए पागल रहते हैं। देखकर तो लगता है कि कमाई भी
मोटी हो जाती होगी। लेकिन कभी सोचा है कि हमारे मुहल्ले के बाहर कोई तुम्हारा नाम
तक नहीं जानता?”
डैनी ने मुसकराते हुए जवाब दिया, “नहीं
साहब, मेरे गाँव में कई लोग मेरा नाम जानते हैं।“
राहुल ने कहा, “तुम मेरी बात समझ नहीं रहे हो। देखा है
किस तरह से मैकडॉनल्ड और पिज्जा हट पूरी दुनिया में मशहूर हैं। उन्होंने भी कभी
ऐसे ही शुरु किया होगा लेकिन आज उनका ब्रांड पूरी दुनिया में छाया हुआ है।“
राहुल ने आगे कहा, “सोचो कैसा लगेगा जब पूरी दुनिया के लोग ‘डैनी मोमो’ के नाम से तुम्हारे मोमो की माँग करेंगे।
साइकिल से ऊपर उठकर सोचो। एक बढ़िया सा रेस्तरां खोल लो। कुछ ही महीनों में पूरी
दिल्ली में तुम्हारी ब्राँचें होंगी। फिर सबकुछ ठीक चला तो पूरे हिंदुस्तान में और
उसके बाद तुम पूरी दुनिया में छा जाओगे।“
डैनी ने कहा, “साहब मैं तो ठहरा अनपढ़ आदमी। अब मुझसे ये
सब कहाँ हो पाएगा। मेरी जिंदगी जैसी चल रही है वैसे ही कट जाए काफी है।“
राहुल ने कहा, “क्या बात करते हो। तुम्हारा दोस्त राहुल
कब काम आएगा? मैं तुम्हारी पूरी मदद करूँगा ताकि तुम्हारा
नाम रोशन हो सके।“
डैनी को अब फेमस होने के कीड़े ने काट लिया। वह राहुल की बातों
में आ गया और उसके कहे अनुसार रेस्तरां खोलने की कवायद शुरु कर दी। उसने उसी मुहल्ले
में एक नए बने शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में एक दुकान किराये पर ले ली जिसका किराया था 20,000 रुपए।
दुकान की सजावट और फर्नीचर में ही दो लाख रुपए खर्च हो गए। फिर उसके बाद पता चला कि
सरकार से फूड लाइसेंस, फायर क्लिअरेंस और न जाने कई और सर्टिफिकेट
लेने होंगे। सारे पेपरवर्क करवाने में रिश्वत के रूप में भी मोटी रकम खर्च हो गई। अब
चूँकि वह एक बड़ी दुकान का मालिक हो गया था इसलिए मोमो बनाने के लिए कुछ नौकर भी रख
लिए। फिर पता चला कि मोमो बेचते समय उसे बिल भी काटने होंगे जिसपर वैल्यू ऐडेड टैक्स,
सर्विस टैक्स, एजुकेशन सेश, स्वच्छ भारत सेस और ना जाने और कई टैक्स लगाने होंगे। उन टैक्सों को समय पर
भरने के लिए किसी एकाउंटेंट की सेवा भी लेनी होगी। जब एमबीए राहुल ने इन खर्चों के
साथ हिसाब लगाया तो पता चला कि मुनाफा कमाने के लिए मोमो को कम से कम एक सौ रुपए प्लेट
बेचना होगा। अब जो लोग डैनी से चालीस रुपए की प्लेट खरीदते थे वो भला उन्हीं मोमो के
सौ रुपए क्यों देते। शुरु में तो कुछ दिन दुकान चली लेकिन फिर शायद ही कभी कोई इक्का
दुक्का ग्राहक आता था। छ: महीने बीतते बीतते बेचारे डैनी की दुकान बंद हो गई। उसने
तो अपनी सारी जमा पूँजी अपना रेस्तरां खोलने में लगा दिया था इसलिए अब उसके पास कुछ
भी नहीं बचा था। फिर लोगों को पता चला कि डैनी वापस अपने गाँव चला गया। इस बीच ये भी
पता चला कि राहुल मेहरा को अमेरिका कि किसी बड़ी कंपनी में लाखों डॉलर की नौकरी मिल
गई और वह भी उस मुहल्ले को छोड़कर चला गया।
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