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Tuesday, July 25, 2017

SMS from School

Text messages are still the rage with marketing guys, and it is evident from numerous messages which I get from numerous marketers. While normal mortals like me and you have long switched over to Whatsapp; private and government organizations still rely on text messages to sell their products or ideas to us. Recently, there was a flood of messages from the Income Tax Department urging all and sundry to pay taxes before 31st July. Private schools have also come on this bandwagon and have started sending messages to parents. Messages from schools generally include notice about due date for fees payment, on PTMs, examination schedules, Olympiads, etc. Some messages can be quite useful, e.g. if a child does not reach school then the parents may come to know that the child has bunked his classes and has landed up at the cinema hall instead of the classroom. Some messages can be plain boring while some can be hilarious. Recently, I got a text message from the school about which I am yet to understand whether it is serious or hilarious. Following is the message:

“Dear Parents,

This is to inform you all that dengue viral is going on. So, please use coconut oil below your knees till your footsteps. It is antibiotic. Dengue mosquito cannot fly higher than knees. Please keep this in mind and start using it. Spread this message as much as you can. Your one message can save many lives. Herbal tips: Kindly keep kapur, long and elaichi in your pocket too. “

This message is apparently a useful one because it is giving a warning about dengue. It appears to be on time; unlike delayed anti-dengue initiatives which the government authorities take. Chief Ministers and Health Ministers usually get a wakeup call only after news of dengue-related deaths start appearing in newspaper and on television.

This message urges the parents to apply coconut oil. Hopefully, school teachers must have conveyed the same message to their students in classrooms.

This message says that coconut oil is an antibiotic. Thanks to copy & paste culture prevalent even among teachers, coconut oil has been declared as an antibiotic. But an antibiotic is of no use against virus; which dengue parasite is. To the best of my knowledge, mosquitoes belong to the class Insecta of phylum Arthropoda. An antibiotic is not going to act against an insect. So, what is the use of applying coconut oil?

I searched Google to find answer. You will land up on hundreds of sites which write shenanigans about naturopathy and Ayurveda; in the name of promoting and conserving the ancient culture of India. All these sites give lot of information without an iota of credibility, i.e. without proper reference.

Mosquito repellant creams and some other concoctions work by masking the body odour of humans. But coconut oil is unable to do this.

This message also urges to stuff the pocket of a student with spices; as if the student is going to cook biryani in the school. I fear that the school may start selling packets of assorted prices and may make it mandatory for all parents to buy the packets for their wards. Schools will charge very high price for such packets, and parents will not be allowed to buy spices from the market. This will be a new revenue stream for the school; that too in the lean season. Schools have already made hefty amount of money at the beginning of academic session; by selling books, notebooks and uniforms for all occasions. But earning more money in the mid of the academic season must be the brainchild of school management with great business acumen.

A school is the place where we send our children to study and to learn certain aspects of life. All modern schools are expected to instill knowledge through scientific methods. They are not expected to brainwash the students with myths about whatever culture they believe in.


As an instant reaction to this message, I planned to meet the class-teacher. I wanted to argue with her about futility of sending such messages. But my wife advised me against doing so, because she fears that this will hamper the scores of my son. I had no other way than to surrender to my wife’s commands. 

Saturday, July 22, 2017

तुलसी किसके आँगन की?

रेखा आज बहुत खुश लग रही थी। आखिरकार उसे किराये के मकान से निजात मिल ही गई थी। कल ही उसने अपने पति और दो बच्चों के साथ अपने मकान में  शिफ्ट किया था। कहने को तो ये टू बी एच के फ्लैट था लेकिन था बड़ा ही छोटा। लेकिन मकानों की आकाश छूती कीमतों और अपने बजट को देखते हुए रेखा और उसके पति (राकेश) को वही फ्लैट पसंद आया। वह फ्लैट राजधानी दिल्ली की सीमा पर उस इलाके में था जिसे एन सी आर कहते हैं। आस पास के ग्रामीण परिवेश में बहुमंजिला इमारतों यह कतार ऐसी लगती थी जैसे किसी ने जबरदस्ती खेतों के बीच में कंक्रीट का एक विशाल बिजूका खड़ा कर दिया हो। बहरहाल, रॉयल सिटी नामक उस टाउनशिप में लगभग हर वह सुविधा थी जिससे किसी मिडल क्लास परिवार का जीवन सामान्य ढ़ंग से चल सके। उस टाउनशिप के अंदर बने शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में जरूरत की लगभग हर चीजें मिलती थीं।

उनका फ्लैट ग्राउंड फ्लोर पर था जिसके कारण उन्हें दोनों कमरों के आगे अच्छी खासी जगह मिल गई थी। ऊपर की मंजिलों पर तीन फीट की चौड़ाई वाली बालकनी में दो लोग भी बड़ी मुश्किल से खड़े हो पाते थे। लेकिन ग्राउंड फ्लोर की तथाकथित बालकनी में इतनी जगह थी की चार पाँच कुर्सियों के साथ साथ एक खटिया भी लगाई जा सकती थी। उस जगह में कपड़े सुखाने के लिए भी काफी जगह थी जो कि आजकल के सिमटे हुए फ्लैटों में किसी लक्जरी से कम नहीं थी।

सुबह सुबह नहाने धोने के बाद रेखा ने जल्दी से नाश्ता बनाकर अपने पति और बच्चों को खिलाया। राकेश ने घर का सामान ढ़ंग से रखवाने के खयाल से चार दिनों की छुट्टी ले ली थी। बच्चों के लिए इस नये इलाके में स्कूल एडमिशन का काम अभी बाकी था। नाश्ते का स्वाद लेते हुए राकेश को लगा कि रेखा थोड़ी परेशान लग रही थी। उसने जब रेखा से पूछा तो रेखा ने बताया, “नहीं, कुछ खास नहीं। सोच रही हूँ कि एक नया गमला लेकर उसमें तुलसी का पौधा लगा दूँगी। सुबह की पूजा ठीक से हो जायेगी।“

राकेश ने कहा, “अरे गमले की क्या जरूरत है। सामने जो पार्किंग स्पेस है, उसके आगे फूलों और डेकोरेटिव प्लांट्स की कतारें लगी हैं। उसी में कहीं जगह देखकर तुलसी का पौधा लगा दो। पौधे को फलने फूलने के लिये भरपूर जगह मिलेगी। फिर तुम भी खुश और तुलसी भी खुश।“

अगले दिन रेखा ने अपने फ्लैट के सामने वाली तथाकथित ग्रीन बेल्टमें तुलसी का पौधा लगा दिया। फिर रोज सुबह नहा धोकर तुलसी को पानी का अर्ध्य देना और उसकी पूजा करने का सिलसिला शुरु हो गया। महीने दो महीने बीतते बीतते वह तुलसी का पौधा काफी मशहूर हो गया। उस हाउसिंग सोसाइटी की कई महिलाएँ सुबह सुबह नहा धोकर तुलसी को जल चढ़ाने आने लगीं। कुछ महिलाएँ तो देर दोपहर को तुलसी को जल चढ़ाने आया करती थीं। यह सब देखकर रेखा को आत्मसंतुष्टि का अनुभव होता था।

छ: महीने बीतते बीतते वह तुलसी का पौधा काफी फैल चुका था। तीज त्योहारों के मौकों पर शाम की आरती के लिए वहाँ कई महिलाएँ इकट्ठी हुआ करती थीं। भजन कीर्तन का आयोजन भी होने लगा। इसी बहाने वहाँ पर अक्सर शाम को अच्छी खासी चहल पहल होने लगी। कुछ लोगों ने उस तुलसी के आस पास देवी देवताओं की छोटी-छोटी मूर्तियाँ भी रख दी थीं। इस तरह से वह स्थान एक पवित्र स्थलमें बदल चुका था।

अब रेखा को अक्सर तुलसी पर जल चढ़ाने के लिए अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता था। उसे लगता था कि उस तुलसी के पौधे पर उसका पहला अधिकार था क्योंकि उसी ने उस पौधे को लगाया था। लेकिन वह चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती थी। रेखा को यह बात अंदर से खाने लगी। वह अब हमेशा की तरह पूजा करने के बाद खुश नहीं होती थी। उसे अब कभी कभी सर दर्द का दौरा भी पड़ने लगा था। राकेश उसे अक्सर समझाने की कोशिश करता था, “तुम्हें तो खुश होना चाहिए। तुम्हारे कारण कितने लोगों को पूजा करने के लिए एक निश्चित स्थान मिल गया। भगवान तो सबके होते हैं। उन पर किसी की मोनोपॉली नहीं होती। इसमें इतना परेशान होने की बात ही नहीं है।“

इस बीच रेखा को सर दर्द के इलाज के लिए कई डॉक्टरों से दिखाया गया। लेकिन किसी भी दवा का उसपर कोई असर नहीं होता था। अब तो सर दर्द के और भी नये नये कारणों का जन्म होने लगा था। कभी कोई वहाँ पर भंडारे का आयोजन करा देता। भंडारे के समय जो खलबली मचती थी कि रेखा अपने घर में भी शांति से बैठ नहीं पाती थी। उससे भी ज्यादा जुल्म तब होता था जब कोई मंडली वहाँ पर माता के जागरण का अनुष्ठान कर देती थी। फिर तो रेखा और उसके परिवार को रात भर जाग कर ही बिताना पड़ता था। एकाध बार रेखा ने रेजिडेंट वेलफेअर एसोशियेशन में इसकी शिकायत की तो जवाब मिला कि धार्मिक मामलों में वे कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते। लगभग दो साल बीतने का बाद एक दिन उस हाउसिंग सोसाइटी के हर टावर के नोटिस बोर्ड पर एक नोटिस लग गया।

“बड़े हर्ष के साथ यह सूचना दी जाती है कि गंगा टावर के सामने जो पूजा स्थल है, वहाँ पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराने का फैसला लिया गया है। मंदिर बनाने में जो खर्च आयेगा उसका पचास प्रतिशत वहन करने का वादा बिल्डर के द्वारा किया गया है। बाकी की राशि चंदे के माध्यम से इकट्ठी की गई है। गंगा टावर के ग्राउंड फ्लोर के दो फ्लैट में रहने वाले परिवारों को फ्लैट खाली करने होंगे। बदले में उनके लिये सबसे ऊपरी मंजिल यानी एक्कीसवीं मंजिल पर नये फ्लैट बनाकर दिये जाएँगे। चूँकि वहाँ पर सबसे पहला तुलसी का पौधा रेखा जी ने लगाया था इसलिए उन्हें मंदिर का ट्रस्टी नियुक्त किया जायेगा। रॉयल सिटी के निवासी रेखा जी के सदैव आभारी रहेंगे।“


उस नोटिस को पढ़ने के बाद रेखा की समझ में नहीं आ रहा था कि हँसे या रोये। हाँ वह इस बात से जरूर खुश थी कि नये फ्लैट में शिफ्ट करने के बाद रोज रोज के कोलाहल से मुक्ति जरूर मिलेगी। 

Sunday, July 2, 2017

टिंकू जी ससुराल चले

टिंकू जी कोई पहली बार ससुराल नहीं जा रहे हैं। वे तो ससुराल जाने से बचना चाहते हैं। ऐसी ससुराल में जाने से क्या फायदा जहाँ बूढ़े सास ससुर के अलावा और कोई न रहता हो। टिंकू  जी की दो दो सालियाँ हैं लेकिन टिंकू  जी के ससुर ने टिंकू  जी पर शक करते हुए टिंकू  जी की दोनों सालियों को इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए दिल्ली भेज दिया है। दिल्ली के जिस हॉस्टल में वे रहती हैं वहाँ पुरुषों का प्रवेश पूरी तरह से वर्जित है। ये अलग बाद है कि उस हॉस्टल के गार्ड, वार्डन और रसोइया पुरुष ही हैं। वैसे भी टिंकू जी की शादी को इतने साल बीत चुके हैं कि उनकी दो बेटियाँ अब स्कूल जाने लगी हैं। फिर टिंकू  जी को अपनी किराने की दुकान से फुरसत ही नहीं मिलती कि दुकान और घर के सिवा कहीं और का रुख कर सकें।

गरमी की छुट्टियों के पहले से ही टिंकू जी की पत्नी के पास फोन आया था जिसके द्वारा उन्हें अपनी बेटियों समेत मायके में छुट्टियाँ बिताने का निमंत्रण मिला था। टिंकू जी बकायदा अपनी बीबी और बेटियों को अपने ससुराल छोड़ने भी गये थे। उसके बाद वो फौरन लौट आये थे ताकि दुकान ठीक ठाक चलती रहे।

अब जून का महीना बीतने वाला था जिसके बाद स्कूल खुलने वाले थे। स्कूल का खुलना तो एक बहाना था, टिंकू जी तो पत्नी वियोग में इतने सूख गये थे कि उनकी चालीस इंच की तोंद घटकर अड़तीस इंच की रह गई थी। इसलिए वह भी चाहते थे कि जल्दी से जल्दी अपनी बीबी को वापस ले आएँ। पिछ्ले बीस पच्चीस दिनों में पेट की भूख तो उन्होंने मैगी से शांत कर ली थी लेकिन बीबी के बिना उनका और उनके घर का हाल बेहाल हो चुका था।

उनके ससुराल जाने का रास्ता बड़ा ही कठिन है, इसलिए टिंकू जी ने पूरी प्लानिंग करके पटना से कटिहार का टिकट कटवाया। वहाँ तक का सफर ट्रेन से तय करने के बाद उन्हें आगे लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर का सफर बस से तय करना था और फिर आखिर के चंद किलोमीटर रिक्शे से। आने वाले सफर की संभावित कठिनाइयों को ध्यान करते करते जब टिंकू जी के सामने उनकी बीबी का चेहरा आ जाता था तो उनका सारा डर खतम हो जाता था।

आज टिंकू जी ने सुबह सुबह अपना बैग पैक कर लिया था। दुकान के स्टाफ को जरूरी बातें बताकर वे दोपहर तक घर वापस आ गये थे। उनकी ट्रेन रात को नौ बजे पटना जंक्शन से छूटने वाली थी। तैयार होने के बाद वे टाइम पास करने के लिए अखबार के पन्ने उलट रहे थे तभी उनकी नजर एक विज्ञापन पर पड़ी। लेवाइस जींस पर 50% की छूट वाला वह विज्ञापन टिंकू  जी को ललचा रहा था। उसमें लिखा था कि एक जुलाई से जीएसटी लागू होने को देखते हुए यह छूट दिया जा रहा था। टिंकू जी ने सोचा कि ऐसे तो लेवाइस की जींस या टी शर्ट उनकी पहुँच के बाहर थी लेकिन 50% छूट के सहारे वे भी उन ब्रांडेड कपड़ों को पा सकते थे। टिंकू जी उस दृश्य की कल्पना करके रोमांचित हो रहे थे जब उनके यार दोस्त उन्हें, उनकी बीबी को और उनकी बेटियों को लेवाइस की जींस पहनकर जल भुन रहे होंगे। बस फिर क्या था, टिंकू  जी ने अपने कंधे पर बैग टांगा, एक रिक्शे पर सवार हुए और चल पड़े लेवाइस के शोरूम की ओर।

लेवाइस के शोरूम में ऐसा लग रहा था जैसे डकैती हो रही हो। लोग कपड़े पसंद करने के चक्कर में एक दूसरे से धक्कामुक्की कर रहे थे। रैकों पर एक भी कपड़े नजर नहीं आ रहे थे। सारे कपड़े फर्श पर इधर उधर बिखरे पड़े थे। लोग फर्श पर घुटनों के बल बैठ रहे थे, चल रहे थे, लुढ़क रहे थे ताकि अपनी पसंद के कपड़े छाँट सकें।

टिंकू  जी ने पहले तो अंदाजे से अपनी बेटियों और बीबी के लिए जींस और टीशर्ट ले लिये। उसके बाद उन्होंने अपने लिए पाँच छ: जींस छाँट कर किनारे किये। तभी उनके मोबाइल का अलार्म बजने लगा। वह अलार्म उन्हें यह याद दिलाने के लिए था कि अब समय आ गया था कि वे स्टेशन के लिए रवाना हो जाएँ। लेकिन टिंकू  जी ने अलार्म को अनसुना कर दिया और वे अपनी बगल में जींस को दबाये ट्रायल रूम की ओर चल पड़े।

ट्रायल रूम के बाहर लंबी सी लाइन लगी हुई थी। इससे लंबी लाइन तो नोटबंदी के समय एटीएम के बाहर ही दिखा करती थी। लगभग आधे घंटे के इंतजार के बाद टिंकू जी का नम्बर आया। ट्रायल लेने के बाद उन्होंने अपने लिए तीन जींस छाँट लिए।

बिल चुकता करते करते पौने आठ बज चुके थे। घड़ी देखते ही टिंकू जी के होश उड़ गये। अब तो शेयर ऑटो से जाने से ट्रेन न पकड़ पाने की शत प्रतिशत गारंटी थी। टिंकू जी रोड के किनारे खड़े होकर किसी खाली ऑटो का इंतजार करने लगे ताकि रिजर्व कराकर जा सकें। लगभग दस मिनट तक कोशिश करने के बाद भी एक भी खाली ऑटो नहीं मिला। हारकर टिंकू जी ने ओला कैब बुक किया। उसके आते आते दस मिनट और बीत चुके थे। लगभग आठ बजकर पाँच मिनट पर टिंकू जी टैक्सी में सवार हुए और भगवान भगवान करने लगे। टिंकू जी केवल इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि उनकी ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर एक से खुलती है इसलिए वो ट्रेन में समय रहते चढ़ पाएँगे। ओला का ड्राइवर उस शहर के लिए नया लगता था क्योंकि बार बार वह नैविगेशन मैप पर देख रहा था। टिंकू जी उसे दाएँ या बाएँ मुड़ने का इशारा करते थे लेकिन वह उन लोगों में से था जो मॉडर्न टेक्नॉलोजी पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करते हैं। बहरहाल, टिंकू जी की टैक्सी ठीक नौ बजे पटना जंक्शन के गेट के पास पहुँच चुकी थी। टिंकू जी भगवान से मना रहे थे कि ट्रेन चार पाँच मिनट बाद छूटे जब वे ट्रेन में चढ़ जाएँ। टैक्सी का बिल चुकता करने के बाद टिंकू जी ने प्लेटफॉर्म की ओर दौड़ लगा दी। उनकी बीबी ने प्यार से घी चुपड़े पराठे जो उन्हें इतने वर्षों में खिलाये थे, उनका असर टिंकू जी की तोंद और उनकी रफ्तार पर पूरा दिख रहा था। टिंकू जी जैसे ही प्लेटफॉर्म पर पहुँचे उनकी ट्रेन ने सरकना शुरु कर दिया था। गार्ड की बोगी से बाहर लहराती हुई हरी झंडी टिंकू जी को मुँह चिढ़ा रही थी। टिंकू जी मन मसोसकर रह गये। जब वो कॉलेज में पढ़ते थे तो कई बार दौड़कर ट्रेन में चढ़े थे, लेकिन अब उनमें वो बात रही नहीं। भारतीय रेल जो कि अपनी लेट लतीफी के लिए मशहूर है, आज समय की पाबंद हो चुकी थी। उस ट्रेन को भी टिंकू  जी से ही दुश्मनी थी।

टिंकू जी कुछ देर तो वहीं अवाक खड़े रहे और फिर अपने आप को संयत किया। अपने स्मार्टफोन पर उन्होंने रेलवे का वेबसाइट खोला तो पता चला कि कटिहार के लिए अभी दो ट्रेनें जानी और बाकी थीं। लेकिन दोनों ट्रेनें पटना से न होकर हाजीपुर से जाती थीं। एक साढ़े दस बजे रात में जानी थी और दूसरी सवा ग्यारह बजे। अब नौ साढ़े नौ बजे अगर पटना से टैक्सी से चला जाए और गांधी सेतु पर कोई जाम न मिले तो दस बजते बजते हाजीपुर पहुँचा जा सकता है। टिंकू जी ने आनन फानन में टैक्सी बुक की और चल पड़े हाजीपुर की ओर। टैक्सी ड्राइवर भी शायद समझ चुका था कि टिंकू जी अपनी बीबी को लाने जा रहे हैं इसलिए उसने पाँच सौ रुपए प्रीमियम माँगे थे। टिंकू जी ने कोई मोलभाव नहीं किया और टैक्सी में बैठ गये।

जबतक टिंकू जी हाजीपुर स्टेशन पहुँचते तबतक साढ़े दस बजे वाली ट्रेन निकल चुकी थी। अभी भी टिंकू  जी के लिए एक आखिरी उम्मीद बची थी। वे काउंटर पर गये और जेनरल क्लास का एक टिकट खरीदा। उसके बाद उस प्लेटफॉर्म पर पहुँचे जिसपर उनकी ट्रेन आने वाली थी। अब जब टिंकू जी समय से पहले पहुँच चुके थे तो भला फिर ट्रेन को क्यों जल्दबाजी होने लगी। ट्रेन के ड्राइवर और गार्ड को तो अपनी बीबी को लाने जाना नहीं था। सिग्नल वाले स्टाफ को तो एक ही जगह रहना था। इसलिए किसी को भी इस बात की परवाह नहीं थी कि टिंकू जी समय से पहले स्टेशन पहुँच चुके थे।

बीच बीच में पब्लिक एड्रेस सिस्टम पर बताया जा रहा था कि ट्रेन दस मिनट देरी से चल रही है, ट्रेन आधे घंटे देरी से चल रही है, ट्रेन एक घंटे ........................, यात्रियों की असुविधा के लिए खेद है, आदि, आदि। लेकिन रेलवे के कुछ स्टाफ जिस आराम से चहलकदमी कर रहे थे उसे देखकर लगता था कि यात्रियों की असुविधा के लिए किसी को भी खेद नहीं था। लगभग चार घंटे के इंतजार के बाद टिंकू  जी की ट्रेन आ ही गई और लगभग ढ़ाई पौने तीन बजे रात में टिंकू जी ट्रेन में सवार हुए। जेनरल बोगी की भीड़ को देखते हुए किसी भी साधारण मनुष्य के लिए उसमें सवार होने के बारे में सोचना भी दुष्वार होता है। इसलिए टिंकू जी एसी थ्री टियर में सवार हो गये और जाकर सात नंबर बर्थ पर बैठ गये। उनका ज्ञान उन्हें बताता था कि वह बर्थ टीटी की होती है। थोड़ी देर में जब टीटी आया तो उसने टिंकू  जी से साफ साफ कह दिया कोई भी बर्थ खाली नहीं था। टिंकू जी धीरे से टीटी के कान में कुछ फुसफुसाये और फिर अपने हाथ में कुछ छुपाकर टीटी की जेब में सरका दिया। फिर क्या था, टीटी की मुसकान ऐसे खिल गई जैसे वह टिंकू जी का वो जुड़वाँ भाई था जो कुंभ के मेले में बिछड़ गया था। टिंकू जी आराम से सात नंबर बर्थ पर लेट गये और अपने बैग को अपना तकिया बना लिया। थोड़ी ही देर में टिंकू जी के भयानक खर्राटों से पूरा कंपार्टमेंट गूंजने लगा।

जब कोई ट्रेन एक बार लेट हो जाती है तो उसके और भी लेट होने की संभावना में गुणात्मक रूप से वृद्धि होती है। यह नियम कई लोगों के भारतीय रेलवे के प्रति संचयित ज्ञान से प्रतिपादित हुआ है। टिंकू  जी की ट्रेन भी जितना हो सकता था लेट होती चली गई। जिस ट्रेन को सुबह के सात बजे कटिहार पहुँचना था वह दोपहर के तीन बजे जाकर कटिहार पहुँची।

टिंकू जी की नींद पूरी हो चुकी थी। स्टेशन से बाहर आकर उन्होंने रिक्शा लिया और बस अड्डे की तरफ चल पड़े। बस में खिड़की के पास वाली सीट मिलने से थोड़ी राहत मिली। खिड़की के पास वाली सीट से कई फायदे होते हैं। आपको ठंडी हवा का आनंद प्राप्त होता है। इसके अलावा आप जब जाहें तब पान या गुटके की पीक बाहर फेंक सकते हैं। अपनी सीट पर बैठते ही टिंकू जी ने अपना मुँह खोला और उसमें गुटके की एक पुड़िया खाली कर दी।

लगभग तीन घंटे चलने के बाद बस रुक गई। टिंकू जी ने खिड़की के बाहर झाँका तो पाया कि बस तो हाइवे पर ही रुकी हुई थी। कंडक्टर ने बताया कि अचानक हुई तेज बारिश से आगे की सड़क बह गई थी और आगे कोई भी गाड़ी नहीं जा रही थी। टिंकू जी बस से नीचे उतरे ताकि आगे जाने का मार्ग पता कर पाएँ। पता चला कि आस पास के गाँव के कुछ लोग, अपने कंधों पर बिठाकर जलभरे कटाव को पार करवा रहे थे। इसके बदले में वे हर व्यक्ति से दो सौ रुपए चार्ज कर रहे थे। टिंकू जी की बड़ी सी तोंद देखकर उन्होंने अपनी फीस तीन सौ रुपए बताई। टिंकू जी के पास और कोई चारा नहीं था, इसलिए उन्होंने तीन सौ रुपए दिये और आगे बढ़ गये।

उस कटाव को पार करने के बाद रिक्शेवाले खड़े दिखाई दिये। वे रिक्शेवाले भी मांग और आपूर्ति के बैलेंस के नियम के एक्स्पर्ट लग रहे थे। टिंकू जी की ससुराल पहुँचाने के लिए रिक्शेवाले ने पाँच सौ रुपए माँगे। टिंकू जी रिक्शे पर बैठ गये और मानसून की नम हवाओं का आनंद लेते हुए अपनी बीबी और बेटियों से मिलने की कल्पना में खो गये।

आखिरकार जब टिंकू जी नौ बजे रात में अपने ससुराल पहुँचे तो उनकी दोनों बेटियाँ दौड़कर उनसे लिपट गईं। उस ग्रामीण माहौल में बीबी से लिपटने के लिए उन्हें रात होने का इंतजार करना था। जब टिंकू  जी चाय पी रहे थे तो अपनी बीबी को अपना यात्रा वृत्तांत सुनाने लगे। उनकी रामकहानी सुनकर उनकी बीबी धीरे से मुसकाई और बोलीं, “मुझे नहीं पता था कि आपको मुझे लिवाने के लिए इतनी बेचैनी हो रही होगी। बीबी से मिलने के लिए इतनी परेशानी तो शायद तुलसीदास ने भी न झेली होगी।“


टिंकू जी हौले से मुसकाए और कहा, “अब ये न कहना कि जाओ पहले रामचरितमानस लिख कर आओ फिर अपना मुँह दिखाना।“ 

Friday, June 30, 2017

What is GST?

Midnight is quite important for all of us. This is the time when you become one day older. This is the time when a famous author may have decided to write about ‘Midnight’s Children’. This is the time when India had its first ‘Tryst With Destiny’. As they say that postman always rings twice; our modern-day great PM has come up with another episode of ‘Tryst with Destiny’ for a billion plus people on the largest contiguous mass of land.

GST has been hogging the limelight and newspaper headlines for a long time. Given the long term exposure to this important tax reform it is natural to expect the people of India to know all about GST. We decided to do a reality check and hence promptly sent our investigative reporters to confirm from the real people what and how much they know about GST. Our reporters shoved the mike to unsuspecting public and threw a simple and unloaded question, “What is GST?’ We got numerous kinds of reply. It is not possible to mention each reply in the limited attention span of internet visitors, so here are some examples.

Public 1: Hmm, GST is the short form of Gross Sales Tax.

Public 2: GST is one nation one tax. It will unite our country like never before. They way the original Iron Man of India unified the country after independence, the modern day Iron Man will further cement that unification. Long live the iron man of India.

Public 3: I am a housewife. I seldom get time from household chores. You can ask my husband. He appears to be an expert on solving various political and economic problems of the world. I have heard him discussing important topics with his friends. When he speaks, everyone else listens because I supply the tea and snacks for the motley group of his friends.

Public 4: GST is a tool to bring all these crooked businessmen to fall in line. The local kirana store always cheats while weighing the goods. He never gives discount the way I get from Big Bazar. Have you seen the palatial house the store owner has built near the Mohall clinic?

Public 5: OMG, what are you asking? Actually, I am a student of science stream; preparing for entrance tests for engineering and medical. I don’t have time for topics on commerce stream. You should ask this question to a commerce guy. Why don’t you go to Lakshmi Nagar. You will definitely get an answer because so many CA institutes are there.

Public 6: GST stands for the Great Super Tax. India is great. Modi is Great. Bharat Mata Ki Jai. I love my India. (His voice suddenly started sounding similar to the TV anchor who presents a show on crime investigation.)

Public 7: I have been preparing for the IAS since 10 years. As I am on the verge of expiry date, GST will prove to be a boon for me. I will start preparations for GST Administrative Services. I am hopeful that the PM will come with Pradhanmantri Rojgar Yojna on the line of Pradhanmantri Awas Yojna. Every youth will get employment under this scheme. This is what you call the action PM.

Public 8: GST is nothing but a sellout to the neo-colonial forces. The way East India Company made us slave, the US MNCs will start ruling us. They have already started that process. Can you survive today without Google or Facebook? You cannot. I can tell you with authority because I am a research scholar doing my PHD from JNU. I want azadi from GST.

Public 9: Why are you asking this question to a poor golgappa seller? My turnover is nowhere near the limit set for GST. This metro station has good number of footfalls. I do brisk business on most of the days. But I hardly cross 2 lakh’s turnover in a year. Why should I bother about these high sounding words?

Public 10: This appears to be good for the business. I have already started charging more premium on pan masala, guthka and cigarette. This is the beauty of selling these essential items. Nobody bats an eyelid while paying some premium. I must have earned at least 5000 extra in the last week; thanks to all the rumours on GST. I love our super PM. He surely knows how to uplift the business spirit.

Chintu aka Chintaswamy has almost become bald because he has pulled off most of his hairs. He has been trying to understand the real meaning of GST. He owns a small business with a turnover of about ten lakh per annum. After deducting operational expenses he somehow manages to earn about 50,000 per month; barely enough to maintain the middle class status. He had applied for GST number about a month back but is still waiting for the number. He is making back of the envelope calculation to understand the costs involved in hiring the services of an accountant for filing GST details thrice in a month. He cannot even file his IT return without the help of an accountant. He even went to a local Kali Baba to ward off evils of GST but it was of no avail.



Monday, June 26, 2017

ससुराल का खाना

“क्या हुआ? ननकउ सबेरे से भन्ना क्यों रहे हैं?” शर्मा जी ने जबरदस्त ढंग से मर्दाना खखार करते हुए पूछा।

चौके में से छलनी और कड़ाही के टकराने की तालबद्ध धुन के बीच से शर्माइन की आवाज आई, “अरे कुछ नहीं, जब से पता चला है कि उनको हम अपने साथ मिश्रा जी के यहाँ डिनर पर नहीं ले जा रहे हैं तभी से भुनभुना रहे हैं। कहते हैं बुखार भी है आज काम पर नहीं जाएँगे।“

शर्मा जी ठठाकर हँसे और कहा, “उमर हो गई है और अब तक समझ नहीं आई। मॉडर्न बनते हैं। अरे हमारे जमाने में तो लड़के और लड़की एक दूसरे का चेहरा तक नहीं देखते थे। अब तो शगुन हुआ नहीं कि चक्कर में रहते हैं कि रोमांस शुरु कर दें। अरे मुझे भी पता है कि रोज रात को बारह एक बजे तक मोबाइल से चिपके क्यों रहते हैं। ठीक है, बदले जमाने में इतना तो चलता है। लेकिन शादी से पहले लड़के को लड़की वाले के यहाँ जाना कहाँ शोभा देता है।“

शर्माइन तब तक चौके से बाहर आ गईं और शर्मा जी की बगल में बैठ गईं। वो कहने लगीं, “अजी नाराज क्यों होते हो। जवान लड़का है। मैने समझा दिया है। जाने की जिद नहीं करेगा। आज बुखार के बहाने छुट्टी पर है। मैने रात का खाना बनाकर रख दिया है।“

शर्मा जी ने कहा, “हाँ आने में हमें देर तो हो ही जाएगी।“

शाम में शर्मा जी और शर्माइन सज धजकर तैयार हो गये। शर्मा जी ने कत्थई रंग का कुर्ता पहना जिसपर कशीदाकारी की हुई थी। शर्माइन ने अपनी पुरानी बनारसी साड़ी निकाली जो उनकी शादी में मिली थी। बालों की सफेदी छुपाने के लिए काली मेंहदी का दो पैकेट इस्तेमाल किया था। चेहरे पर से उम्र छिपाने के लिए मेकअप की मोटी परत चढ़ा ली थी। तय समय पर उनके दरवाजे के बाहर ओला कैब आकर लग गई। उधर ननकउ इतना नाराज था कि उन्हें बाहर दरवाजे तक छोड़ने भी नहीं आया।

लगभग पैंतालीस मिनट की टैक्सी यात्रा के बाद वे मिश्रा जी के घर के पास पहुँचे। टैक्सी वाले का बिल चुकता करने के बाद शर्मा जी पास की ही एक मिठाई की दुकान में गये जिसके बोर्ड पर बीकानेरलिखा था। एक किलो काजू कतली के लिए सात सौ रुपए देते वक्त शर्मा जी के हाथ काँप रहे थे। उन्हें देखकर शर्माइन ने चुटकी ली, “अजी इतने नरभसा क्यों रहे हैं। लड़की वालों से मोटी रकम तो तिलक में मिलने ही वाली है। पहले कुछ इंवेस्ट तो करना पड़ता है।“

जवाब में शर्मा जी कुछ न बोले, बस चेहरे पर एक फीकी मुसकान आ गई। मिठाई लेने के बाद शर्मा जी और शर्माइन अपने मेजबान के घर पहुँचे। मिश्रा जी और मिश्राइन ने बड़ी गर्मजोशी से उनका स्वागत किया। शर्मा जी और शर्माइन के सोफे पर विराजमान होते ही उनके सामने कोल्ड ड्रिंक से भरे गिलास पेश किये गये जिनमें आइस क्यूब रखे गये थे। कोल्ड ड्रिंक की चुस्की लेते हुए शर्मा जी ने ड्राइंग रूम का मुआयना किया। लगता था जैसे सोफे पर आज ही खरीदा हुआ सोफा कवर डाला गया था। सामने की दीवार पर एक बड़ी से पेंटिंग टंगी थी जिसपर शकुंतला पेट के बल लेटकर कमल के पत्ते पर प्रेमपत्र लिख रही थी। शकुंतला के पीछे हिरण का एक छौना कुलाँचे मार रहा था। उन्हें पेंटिंग निहारते देखकर मिश्राइन ने कहा, “इस पेंटिंग को मेरी लाडो ने बनाया है। छ: महीने का कोर्स किया था पेंटिंग का। डिग्री के बाद हमने सोचा कि लड़की है इसलिए सारे हुनर तो जानने ही चाहिए। फिर उसने डॉल मेकिंग, केक मेकिंग और कुकरी का कोर्स भी किया है।“

शर्मा जी ने खीसें निपोरते हुए कहा, “हें, हें, याद है। मिश्रा जी जब शादी की बात करने गये थे तभी बताया था।“

थोड़ी देर के बाद लाडो किसी दुल्हन की तरह सजधजकर आई। उसने हाथ में चाय की ट्रे पकड़ रखी थी। ट्रे को टेबल पर रखने के बाद उसने शर्मा जी और शर्माइन के पैर छुए और सामने पड़े दीवान पर बैठ गई। काफी देर तक इधर उधर की बातें करने के बाद मिश्रा जी ने कहा, “आपकी आज्ञा हो तो खाना लगवा दिया जाये।“

शर्मा जी ने कहा, “हाँ, हाँ, देर हो जाने के बाद टैक्सी मिलने में परेशानी होती है।“

शर्मा जी और शर्माइन डाइनिंग टेबल के पास रखी कुर्सियों पर विराजमान हो गये। टेबल पर चीनी मिट्टी के झक सफेद बरतन करीने से लगे हुए थे। उनपर बारीक डिजाइन बने थे, फूलों और बेलों वाले। हर प्लेट की बाईं ओर एक छुरी और दाईं ओर एक काँटा रखा गया था। प्लेट के सामने पेपर नैपकिन भी रखा गया था। खाने में चिकन बटर मसाला, पराठे, मटर पनीर, पुलाव, रायता और सलाद परोसा गया। शर्मा जी छुरी और काँटे से खाने की जद्दोजहद में पसीने पसीने हुए जा रहे थे। शर्माइन ने छुरी काँटे की मौजूदगी को खारिज करते हुए हाथ से ही खाना शुरु कर दिया। बगल वाली कुर्सियों पर मिश्रा जी और मिश्राइन बैठे हुए थे। मिश्रा जी देश और विदेश की राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं पर अपना ज्ञान बघार रहे थे। लाडो और उसकी छोटी बहन बड़े ही लगन से चौके और डाइनिंग टेबल के बीच की स्प्रिंट पूरी कर रही थीं। खाना इतने प्यार और आग्रह से परोसा जा रहा था कि शर्मा जी और शर्माइन का पेट गले तक भर चुका था। उसके बाद अफगान पिस्ता फ्लेवर वाली आइसक्रीम को देखकर ना चाहते हुए भी वे अपने आप को कटोरी भर आइसक्रीम खाने से रोक नहीं पाये।

जब वे खाना खाकर चलने को हुए तो मिश्राइन ने शर्माइन के हाथों में प्लास्टिक का एक थैला थमाते हुए कहा, “कितना अच्छा होता यदि ननकउ भी आते। इसमें ननकउ के लिए खाना रखा है। लाडो ने अपने हाथों से बड़े प्यार से बनाया है। ना मत कीजिएगा।“

लगभग बारह बजे रात में शर्मा जी और शर्माइन अपने घर पहुँचे। ननकउ जगा ही हुआ था। शर्मा जी ने पूछा, “खाना खा लिया?”

ननकउ ने कहा, “हाँ, अम्मा ने पराठे और सब्जी बनाये थे। चार पराठे खा लिए।“

शर्माइन ने कहा, “अरे, तुम्हारी होने वाली सास ने तुम्हारे लिये खाना भेजा है। चलो, कल सुबह खा लेना।“

ननकउ ने अपना उतावलापन छिपाने की असफल कोशिश करते हुए कहा, “अरे नहीं, कल बासी हो जायेगा। अभी खा लेता हूँ।“

फिर ननकउ ने बड़े चाव से उस स्वादिष्ट भोजन का आनंद लिया। उसे खाते देखकर शर्मा जी ने कहा, “अरे फूँक फूँक कर खाओ नहीं तो मुँह जल जाएगा। ऐसी भी कैसी बेचैनी। शादी के बाद तो लाडो के हाथ का खाना रोज मिलेगा।“

जब खाना खाकर ननकउ अपना मुँह धो रहा था तो शर्माइन ने पूछा, “अब बुखार कैसा है तुम्हारा?”
ननकउ ने कहा, “अम्मा, अब बुखार बिलकुल गायब हो चुका है। तुम चिंता मत करो।“


शर्मा जी ने कहा, “हाँ बेटा, अब तो तेरा बुखार उतर ही चुका होगा।“ 

Monday, June 19, 2017

पहली बारिश

मौसम का मिजाज देखकर और अखबार में मौसम रिपोर्ट पढ़ने के बाद ऐसा लगने लगा कि आज मानसून ने मेरे शहर में शुरुआत कर ही दी। अखबार पढ़ने के साथ जब चाय की चुस्कियाँ खतम हुई तो सोचा जरा टीवी न्यूज चैनलों पर भी देख लूँ कि मौसम का क्या हाल होने वाला है। सारे न्यूज चैनल के एंकर गला फाड़ फाड़ कर यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि भारत के बड़े भूभाग में मानसून का आगमन हो चुका है। उनके द्वारा यह भी पता चला कि स्वयं प्रधानमंत्री ने ट्वीट करके पूरे देश को मानसून के आने की बधाई दी है। यह सुनकर मेरा रोम-रोम कृतज्ञ हो गया। चैनल सर्फ करते करते मैने पाया कि एक चैनल पर बकायदा एक पैनल भी बैठ चुका था। उस पैनल में टीवी चैनल पर हमेशा दिखने वाले कुछ गणमान्य व्यक्ति मानसून के नफे नुकसान पर बहस में उलझे पड़े थे। कभी कभी इन व्यक्तियों की ऊर्जा देखकर बड़ा ताज्जुब होता है। मेरी समझ में नहीं आता कि जब सारे चैनल लाइव बहस दिखाते हैं तो एक ही साथ ये ज्ञानी लोग एक से अधिक चैनल पर कैसे नजर आते हैं। शायद इन लोगों ने नोएडा की फिल्म सिटी में अपने चैंबर खोल रखे होंगे। कुछ न्यूज एंकर तो मानसून के आगमन को इस तरह से पेश कर रहे थे जैसे भारत की आजादी के सत्तर वर्षों में पहली बार मानसून आया हो।

थोड़ी देर बाद मै कुछ ऐसे न्यूज चैनलों तक पहुँच गया जिनके पास बजट की इतनी कमी होती है कि वे बारिश की भी रिकार्डिंग नहीं कर पाते। ऐसे चैनल के लिए बॉलीवुड एक रामबाण की तरह काम करता है। जब कोई उपाय काम नहीं करता है तो ये चैनल वाले हिंदी फिल्मों के हिट गाने बजाने लगते है। क्रिकेट या हॉकी का मैच जीतने के बाद यदि एंकर का गला बैठ जाए तो बैकग्राउंड में चक दे इंडिया वाला गाना बजाने से बात बन जाती है। सीमा पर गोलीबारी के वीडियों के साथ सुनो गौर से दुनिया वालो....के बोल सही मेल खाते हैं। उसी तर्ज बर कुछ चैनल वाले टिप टिप बरसा पानी..........” बजा रहे थे जिसमें रवीना टंडन अपनी मादक अदाएँ दिखा रही थी। उस गाने को देखकर मुझे अपने कॉलेज के दिनों की याद आ गई। लेकिन बगल में मेरा जवान होता हुआ बेटा बैठा था इसलिए मैंने चैनल बदलने में ही भलाई समझी। अगले चैनल पर बरसो रे मेघा मेघा ..........” बज रहा था। एक दो चैनल के बाद सावन का महीना पवन करे सोर ..........सुनकर तसल्ली मिली। मुझे पक्का यकीन था कि आजकल के रैप सुनने वाले बच्चे सुनील दत्त और नूतन पर फिल्माए गये उस गाने को भजन ही समझेंगे।

मैं गाने का मजा ले ही रहा था कि मेरी पत्नी बगल में आकर बैठ गई और कहा, “याद है जब हम जौनपुर में थे तो पहली बारिश में छत पर कितना भीगे थे?’

मैने पुरानी यादें ताजा करते हुए कहा, “हाँ, फिर तुमने कमाल का डांस किया था। उसके बाद हमारे मकान मालिक ऊपर आ गये थे और बहुत डाँटा था कि बारिश में भीगने से तबीयत खराब हो जाती ह।“

मेरी पत्नी ने कहा, “अरे वो बुड्ढ़ा, ऐसे ही दाल भात में मूसलचंद बन रहा था।“

मेरी पत्नी ने आगे कहा, “याद है, जब अपना गोलू छोटा था तो हम छतरपुर वाले मकान की छत पर इसको भी बारिश में नहलाते थे।“

तभी कॉलबेल की आवाज आई। मेरे बेटे ने दरवाजा खोला तो पता चला कि ग्राउंड फ्लोर वाली पड़ोसन अपने दोनों बच्चों के साथ खड़ी थी। उसने मेरी पत्नी से कहा, “भाभी, वो क्या है कि दोनों बारिश में भीगने की जिद कर रहे थे।“

मैने कहा, “नीचे तो इतनी खुली जगह है, पूरा पार्क है। भीगने दो।“

मेरी पड़ोसन ने कहा, “नहीं, मुझे नीचे सबके सामने भीगने में अच्छा नहीं लगता। सोचा ऊपर छत पर जाकर बारिश में भीगने का मजा लूँगी। वहाँ कोई नहीं देखेगा।“

मैने कहा, “नीचे जब लोग देखेंगे तो उन्हें भी तो मजा आयेगा। कम से कम बाकी लोगों का तो खयाल किया होता।“

मेरी पत्नी ने मुझे चुप होने का इशारा किया, और छत के गेट की चाबी पड़ोसन को दे दी। वह अपने बच्चों को लेकर छत पर चली गई।

उसके बाद मैं भी सुहाने मौसम का लुत्फ उठाने के लिए बालकनी में खड़ा हो गया क्योंकि छत पर नहीं जा सकता था। बगल वाली बालकनी में मेरे पड़ोसी बनियान पहने हुए अपनी तोंद सहला रहे थे। उनकी पत्नी अपने बच्चों के साथ गर्मी की छुट्टियाँ बिताने अपने मायके गई हुई हैं। मुझे देखकर मेरे पड़ोसी ने मुसकराकर मेरी उपस्थिति के बारे में अपनी भिज्ञता का इशारा किया। वे अपने मोबाइल फोन पर लगे हुए थे। लगता है अपनी पत्नी से बात कर रहे थे, “हाँ, हाँ, मैने सभी खिड़कियाँ बंद कर दी है। बारिश बहुत तेज होने वाली है। अपनी सेहत का खयाल रखना। नेहा और मेघा को बारिश में मत भीगने देना। एहतियात के लिए तुलसी का काढ़ा पिला देना। खुद भी काढ़ा पीना ना भूलना। ...........”

कहते हैं कि भारत के लिए मानसून का बड़ा महत्व है। यहाँ की पूरी अर्थव्यवस्था पर मानसून का गहरा असर पड़ता है। मानसून यदि खराब होता है तो सरकारें गिर जाती हैं। मानसून के आने की खुशी सब अपने अपने तरीके से मनाते हैं। मोर नाचने लगते हैं। झुग्गी झोपड़ी के बच्चे सड़क पर लगे पानी में उछल कूद मचाते हैं। नये-नये जवान हुए लड़के अपनी बाइक लेकर सड़कों पर पानी उड़ाते हुए चलते हैं। अब तो लड़कियाँ भी अपनी स्कूटी लेकर उनसे टक्कर लेती हुई यह चरितार्थ करती हैं, “व्हाई शुड ब्वायज हैव ऑल द फन?” नवविवाहित जोड़े बारिश में भीग कर ऊल जलूल हरकतें करते हैं। जिनके बच्चे बड़े हो जाते है वे एक दूसरे को और अपने बच्चों को सर्दी जुकाम से बचने की सलाह देते हैं।


लेकिन पहली बारिश के बाद जो बारिश होती है उसके नाम से ही दिल दहल जाता है। जगह जगह जलजमाव होने से महाजाम लगता है। लोगों को अपने ऑफिस पहुँचने में घंटों लग जाते हैं। उसके बाद मन शायद यह गाने लगता है, “बादल यूँ गरजता है, डर कुछ ऐसा लगता है, चमक चमक के लपक के ये बिजली हम पे गिर जाएगी।“ 

Sunday, June 11, 2017

A New Smartphone

Bunty was looking somewhat sad. He was munching at a leisurely pace on his breakfast; as if he was engrossed somewhere else. Bunty’s mother; Pooja asked, “Why this long face? I have served your favourite dish in breakfast. You love Maggi. What happened?”

Bunty’s head sank further towards the ground. Without lifting his eyes, he said, “No use of telling you. You won’t be able to fulfill my demand. I know we are not affluent.”

Pooja said, “Yeah, I know that we are not affluent. But we have tried our best to keep you happy. After all, you are the apple of my eyes.”

Bunty raised his head and looked straight into his mother’s eyes. He said, “I need a smartphone on my birthday. Most of my friends have smartphones. It looks awkward when I take out my Samsung Guru in front of them. They call me all sorts of name.”

Hearing that, Pooja said, “Do you know the price of a smartphone with proper configuration? Some of them cost more than what your father earns in a month. We can manage with Akash tablet. That is quite cheap.”

Bunty threw away the steel bowl towards the kitchen sink and shouted, “No way. I need a phone with top quality camera and RAM. Otherwise, I am fine with my basic mobile phone.”

Bunty’s father; who was sitting in another room too heard their discussion. He came out and caressed Bunty’s hair, and said, “Don’t worry son. I will do whatever it takes to get you a nice smartphone. Hope a phone in the range of ten to twelve thousands shall be fine for you.”

Bunty’s face flashed with a winning smile. Pooja interrupted her husband; Shyam and said, “How will you pay so much for a phone. You are just getting twenty thousand as salary. Do you know how tough it is to manage the household expenses, school fees and other expenses in this meagre amount? It is you who has spoiled this brat.”

After finishing his breakfast, Bunty took out his bicycle and rushed to his school. Shyam too got ready to go to the factory where he was working as supervisor of factory workers. During lunch break, Shyam took his lunch-box and went to the manager’s chamber. Alok Mehra; the manager had already started having the lunch. Looking at Shyam, he said, “Hey, Shyam. How are you? Good to see you coming to enjoy lunch with me. Hope everything is fine at your family front.”

Shyam nodded his head in affirmative and took out his lunch-box. After eating a couple of morsels, Shyam said to Alok Mehra, “Sir, can I ask you for some favour?”

Alok Mehra said, “Yeah! Go ahead.”

Shyam further said, “In fact, I am in urgent need of some money. Will you be kind enough to recommend an advance payment of ten thousand for me? The company can adjust the amount from my salary in the next ten or twelve months.”

Alok Mehra’s forehead began to show some creases; as if he was putting some strain on his mind. He said, “What is the matter? Is someone sick in your family? If I am not wrong, your parents have already left for heavenly abode a long time back.”

Shyam brought a fake smile on his face and said, “No, no, everyone is hale and hearty. Actually, I need to buy a smartphone for my son. I need money for that.”

Alok Mehra’s eyeballs almost popped out of the sockets. His voice became somewhat louder when he said, “Are you in your senses? Do you think you can afford a phone which costs ten thousand rupees? Shyam, you should cut your coat according to your cloth. Try to explain the reality to your son instead of spoiling him.”

Shyam did not utter a single word. It was pin-drop silence when Shyam and Alok Mehra were finishing their food. After the lunch-break, Shyam went to the shop-floor to finish that day’s work. But his mind was not on his job rather it was waiting for the final hooter sound. The final hooter of the factory appeared to be taking too long to announce the end of the working hours. After what appeared to be an endless wait, the hooter made a hoarse sound at five in the evening. Shop-floor workers started coming out in a queue; like products on the conveyor belt in the assembly line. Each worker was smiling and saying Namaste to Shyam. But Shyam was finding it difficult to bring smile on his face. Most of the workers found his behaviour amusing but nobody dared to ask about it. Ramlal; who was the most senior worker was the last man in the queue. Looking at Shyam’s face, he asked, “Shyam Ji, what happened? You don’t appear to be in your normal mood.”

Ramlal put his hand on Shaym’s shoulder; while they were emerging out of the main gate of the factory. Shyam said to Ramlal, “You know Bunty; my son? He has become stubborn. I know that I am the culprit for this. You know that he is my only son. He wants a smartphone as his birthday gift. I don’t know how to manage the money for that.”

Ramlal kept mum for a few moments and then said, “Don’t worry. I know a person who lends money on interest. You can borrow from him. The interest rate is quite steep, but I am sure you shall be able to repay the loan in no time.”

When Shyam reached his home in the evening, he was carrying a small box which was nicely wrapped in colourful paper. Seeing that pack, Bunty’s joy knew no bound. He was elated as if he found some treasure. He kept awake throughout that night; playing all the games which that phone could offer. He also took many photos of him and his parents.

After about a week, it was celebration time on Bunty’s birthday. Bunty had invited many of his friends; which included one of his neighbours named Tinku. Tinku’s father Mohan was working in the same factory; under Shyam. The tiny drawing room was decorated with colourful balloons, stars, stripes and sparkles. When Bunty blew the candles, one of his friends popped a canister which burst to release a cloud of sparkles to add the proverbial dash of colours to the party. Bunty’s mother was busy taking photos of the party. She must have taken hundreds of photos but she was not done yet. In the meantime, Tinku took out his Samsung Guru and started taking some photos. Looking at him, Bunty burst into laughter. Bunty said, “Hey Tinku! What do you think? Your useless phone cannot take good photos. Why are you spoiling my image in front of my friends?”

Other boys too joined the round of laughter. Even Bunty’s parents started mocking Tinku. Tinku’s parents did not like that spectacle. They held Tinku by his arms and left the party in a huff.

The next evening, Bunty appeared to have had too much of his new smartphone. He took out a bubble-maker which he got from someone as birthday gift. Bunty was at the rooftop; making soap bubbles of all sizes. There were bubbles of all sizes; big, medium and small. Bunty was overjoyed at seeing the colours of rainbow in those bubbles. Tinku was playing in the lane below the rooftop. When he craned his neck to see those bubbles and Bunty, one of the bubbles hit his face and burst in his eyes. Tinku felt a burning sensation in his eyes because of soap. It was not too much of a pain but nevertheless Tinku started crying as if he was stung by a wasp. Hearing his cries, Tinku’s parents rushed out into the lane. Mohan (Tinku’s father) took no time in rushing through the staircase to reach the rooftop. He grabbed Bunty’s hairs and started thrashing Bunty. Within no time, Bunty was beaten black and blue. All that Bunty was left with were sore eyes and swollen face.

After venting his anger on Bunty, Mohan returned to the lane. He was shouting at the top his voice, “What do they think? I know that Shyam is my boss in the factory. So what? He is earning just five thousand rupees more than me. Does he think that I cannot afford a smartphone for my son? Even I can borrow money from the same person from whom Shyam has borrowed. I am going to buy even costlier phone for my son.”


Most of the people from the neighbourhood had already come out in the lane. Some of them were trying to figure out what had happened. Some of them were taking a sadistic pleasure of that quarrel. But none of them tried to intervene in the matter.