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Sunday, July 2, 2017

टिंकू जी ससुराल चले

टिंकू जी कोई पहली बार ससुराल नहीं जा रहे हैं। वे तो ससुराल जाने से बचना चाहते हैं। ऐसी ससुराल में जाने से क्या फायदा जहाँ बूढ़े सास ससुर के अलावा और कोई न रहता हो। टिंकू  जी की दो दो सालियाँ हैं लेकिन टिंकू  जी के ससुर ने टिंकू  जी पर शक करते हुए टिंकू  जी की दोनों सालियों को इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए दिल्ली भेज दिया है। दिल्ली के जिस हॉस्टल में वे रहती हैं वहाँ पुरुषों का प्रवेश पूरी तरह से वर्जित है। ये अलग बाद है कि उस हॉस्टल के गार्ड, वार्डन और रसोइया पुरुष ही हैं। वैसे भी टिंकू जी की शादी को इतने साल बीत चुके हैं कि उनकी दो बेटियाँ अब स्कूल जाने लगी हैं। फिर टिंकू  जी को अपनी किराने की दुकान से फुरसत ही नहीं मिलती कि दुकान और घर के सिवा कहीं और का रुख कर सकें।

गरमी की छुट्टियों के पहले से ही टिंकू जी की पत्नी के पास फोन आया था जिसके द्वारा उन्हें अपनी बेटियों समेत मायके में छुट्टियाँ बिताने का निमंत्रण मिला था। टिंकू जी बकायदा अपनी बीबी और बेटियों को अपने ससुराल छोड़ने भी गये थे। उसके बाद वो फौरन लौट आये थे ताकि दुकान ठीक ठाक चलती रहे।

अब जून का महीना बीतने वाला था जिसके बाद स्कूल खुलने वाले थे। स्कूल का खुलना तो एक बहाना था, टिंकू जी तो पत्नी वियोग में इतने सूख गये थे कि उनकी चालीस इंच की तोंद घटकर अड़तीस इंच की रह गई थी। इसलिए वह भी चाहते थे कि जल्दी से जल्दी अपनी बीबी को वापस ले आएँ। पिछ्ले बीस पच्चीस दिनों में पेट की भूख तो उन्होंने मैगी से शांत कर ली थी लेकिन बीबी के बिना उनका और उनके घर का हाल बेहाल हो चुका था।

उनके ससुराल जाने का रास्ता बड़ा ही कठिन है, इसलिए टिंकू जी ने पूरी प्लानिंग करके पटना से कटिहार का टिकट कटवाया। वहाँ तक का सफर ट्रेन से तय करने के बाद उन्हें आगे लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर का सफर बस से तय करना था और फिर आखिर के चंद किलोमीटर रिक्शे से। आने वाले सफर की संभावित कठिनाइयों को ध्यान करते करते जब टिंकू जी के सामने उनकी बीबी का चेहरा आ जाता था तो उनका सारा डर खतम हो जाता था।

आज टिंकू जी ने सुबह सुबह अपना बैग पैक कर लिया था। दुकान के स्टाफ को जरूरी बातें बताकर वे दोपहर तक घर वापस आ गये थे। उनकी ट्रेन रात को नौ बजे पटना जंक्शन से छूटने वाली थी। तैयार होने के बाद वे टाइम पास करने के लिए अखबार के पन्ने उलट रहे थे तभी उनकी नजर एक विज्ञापन पर पड़ी। लेवाइस जींस पर 50% की छूट वाला वह विज्ञापन टिंकू  जी को ललचा रहा था। उसमें लिखा था कि एक जुलाई से जीएसटी लागू होने को देखते हुए यह छूट दिया जा रहा था। टिंकू जी ने सोचा कि ऐसे तो लेवाइस की जींस या टी शर्ट उनकी पहुँच के बाहर थी लेकिन 50% छूट के सहारे वे भी उन ब्रांडेड कपड़ों को पा सकते थे। टिंकू जी उस दृश्य की कल्पना करके रोमांचित हो रहे थे जब उनके यार दोस्त उन्हें, उनकी बीबी को और उनकी बेटियों को लेवाइस की जींस पहनकर जल भुन रहे होंगे। बस फिर क्या था, टिंकू  जी ने अपने कंधे पर बैग टांगा, एक रिक्शे पर सवार हुए और चल पड़े लेवाइस के शोरूम की ओर।

लेवाइस के शोरूम में ऐसा लग रहा था जैसे डकैती हो रही हो। लोग कपड़े पसंद करने के चक्कर में एक दूसरे से धक्कामुक्की कर रहे थे। रैकों पर एक भी कपड़े नजर नहीं आ रहे थे। सारे कपड़े फर्श पर इधर उधर बिखरे पड़े थे। लोग फर्श पर घुटनों के बल बैठ रहे थे, चल रहे थे, लुढ़क रहे थे ताकि अपनी पसंद के कपड़े छाँट सकें।

टिंकू  जी ने पहले तो अंदाजे से अपनी बेटियों और बीबी के लिए जींस और टीशर्ट ले लिये। उसके बाद उन्होंने अपने लिए पाँच छ: जींस छाँट कर किनारे किये। तभी उनके मोबाइल का अलार्म बजने लगा। वह अलार्म उन्हें यह याद दिलाने के लिए था कि अब समय आ गया था कि वे स्टेशन के लिए रवाना हो जाएँ। लेकिन टिंकू  जी ने अलार्म को अनसुना कर दिया और वे अपनी बगल में जींस को दबाये ट्रायल रूम की ओर चल पड़े।

ट्रायल रूम के बाहर लंबी सी लाइन लगी हुई थी। इससे लंबी लाइन तो नोटबंदी के समय एटीएम के बाहर ही दिखा करती थी। लगभग आधे घंटे के इंतजार के बाद टिंकू जी का नम्बर आया। ट्रायल लेने के बाद उन्होंने अपने लिए तीन जींस छाँट लिए।

बिल चुकता करते करते पौने आठ बज चुके थे। घड़ी देखते ही टिंकू जी के होश उड़ गये। अब तो शेयर ऑटो से जाने से ट्रेन न पकड़ पाने की शत प्रतिशत गारंटी थी। टिंकू जी रोड के किनारे खड़े होकर किसी खाली ऑटो का इंतजार करने लगे ताकि रिजर्व कराकर जा सकें। लगभग दस मिनट तक कोशिश करने के बाद भी एक भी खाली ऑटो नहीं मिला। हारकर टिंकू जी ने ओला कैब बुक किया। उसके आते आते दस मिनट और बीत चुके थे। लगभग आठ बजकर पाँच मिनट पर टिंकू जी टैक्सी में सवार हुए और भगवान भगवान करने लगे। टिंकू जी केवल इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि उनकी ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर एक से खुलती है इसलिए वो ट्रेन में समय रहते चढ़ पाएँगे। ओला का ड्राइवर उस शहर के लिए नया लगता था क्योंकि बार बार वह नैविगेशन मैप पर देख रहा था। टिंकू जी उसे दाएँ या बाएँ मुड़ने का इशारा करते थे लेकिन वह उन लोगों में से था जो मॉडर्न टेक्नॉलोजी पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करते हैं। बहरहाल, टिंकू जी की टैक्सी ठीक नौ बजे पटना जंक्शन के गेट के पास पहुँच चुकी थी। टिंकू जी भगवान से मना रहे थे कि ट्रेन चार पाँच मिनट बाद छूटे जब वे ट्रेन में चढ़ जाएँ। टैक्सी का बिल चुकता करने के बाद टिंकू जी ने प्लेटफॉर्म की ओर दौड़ लगा दी। उनकी बीबी ने प्यार से घी चुपड़े पराठे जो उन्हें इतने वर्षों में खिलाये थे, उनका असर टिंकू जी की तोंद और उनकी रफ्तार पर पूरा दिख रहा था। टिंकू जी जैसे ही प्लेटफॉर्म पर पहुँचे उनकी ट्रेन ने सरकना शुरु कर दिया था। गार्ड की बोगी से बाहर लहराती हुई हरी झंडी टिंकू जी को मुँह चिढ़ा रही थी। टिंकू जी मन मसोसकर रह गये। जब वो कॉलेज में पढ़ते थे तो कई बार दौड़कर ट्रेन में चढ़े थे, लेकिन अब उनमें वो बात रही नहीं। भारतीय रेल जो कि अपनी लेट लतीफी के लिए मशहूर है, आज समय की पाबंद हो चुकी थी। उस ट्रेन को भी टिंकू  जी से ही दुश्मनी थी।

टिंकू जी कुछ देर तो वहीं अवाक खड़े रहे और फिर अपने आप को संयत किया। अपने स्मार्टफोन पर उन्होंने रेलवे का वेबसाइट खोला तो पता चला कि कटिहार के लिए अभी दो ट्रेनें जानी और बाकी थीं। लेकिन दोनों ट्रेनें पटना से न होकर हाजीपुर से जाती थीं। एक साढ़े दस बजे रात में जानी थी और दूसरी सवा ग्यारह बजे। अब नौ साढ़े नौ बजे अगर पटना से टैक्सी से चला जाए और गांधी सेतु पर कोई जाम न मिले तो दस बजते बजते हाजीपुर पहुँचा जा सकता है। टिंकू जी ने आनन फानन में टैक्सी बुक की और चल पड़े हाजीपुर की ओर। टैक्सी ड्राइवर भी शायद समझ चुका था कि टिंकू जी अपनी बीबी को लाने जा रहे हैं इसलिए उसने पाँच सौ रुपए प्रीमियम माँगे थे। टिंकू जी ने कोई मोलभाव नहीं किया और टैक्सी में बैठ गये।

जबतक टिंकू जी हाजीपुर स्टेशन पहुँचते तबतक साढ़े दस बजे वाली ट्रेन निकल चुकी थी। अभी भी टिंकू  जी के लिए एक आखिरी उम्मीद बची थी। वे काउंटर पर गये और जेनरल क्लास का एक टिकट खरीदा। उसके बाद उस प्लेटफॉर्म पर पहुँचे जिसपर उनकी ट्रेन आने वाली थी। अब जब टिंकू जी समय से पहले पहुँच चुके थे तो भला फिर ट्रेन को क्यों जल्दबाजी होने लगी। ट्रेन के ड्राइवर और गार्ड को तो अपनी बीबी को लाने जाना नहीं था। सिग्नल वाले स्टाफ को तो एक ही जगह रहना था। इसलिए किसी को भी इस बात की परवाह नहीं थी कि टिंकू जी समय से पहले स्टेशन पहुँच चुके थे।

बीच बीच में पब्लिक एड्रेस सिस्टम पर बताया जा रहा था कि ट्रेन दस मिनट देरी से चल रही है, ट्रेन आधे घंटे देरी से चल रही है, ट्रेन एक घंटे ........................, यात्रियों की असुविधा के लिए खेद है, आदि, आदि। लेकिन रेलवे के कुछ स्टाफ जिस आराम से चहलकदमी कर रहे थे उसे देखकर लगता था कि यात्रियों की असुविधा के लिए किसी को भी खेद नहीं था। लगभग चार घंटे के इंतजार के बाद टिंकू  जी की ट्रेन आ ही गई और लगभग ढ़ाई पौने तीन बजे रात में टिंकू जी ट्रेन में सवार हुए। जेनरल बोगी की भीड़ को देखते हुए किसी भी साधारण मनुष्य के लिए उसमें सवार होने के बारे में सोचना भी दुष्वार होता है। इसलिए टिंकू जी एसी थ्री टियर में सवार हो गये और जाकर सात नंबर बर्थ पर बैठ गये। उनका ज्ञान उन्हें बताता था कि वह बर्थ टीटी की होती है। थोड़ी देर में जब टीटी आया तो उसने टिंकू  जी से साफ साफ कह दिया कोई भी बर्थ खाली नहीं था। टिंकू जी धीरे से टीटी के कान में कुछ फुसफुसाये और फिर अपने हाथ में कुछ छुपाकर टीटी की जेब में सरका दिया। फिर क्या था, टीटी की मुसकान ऐसे खिल गई जैसे वह टिंकू जी का वो जुड़वाँ भाई था जो कुंभ के मेले में बिछड़ गया था। टिंकू जी आराम से सात नंबर बर्थ पर लेट गये और अपने बैग को अपना तकिया बना लिया। थोड़ी ही देर में टिंकू जी के भयानक खर्राटों से पूरा कंपार्टमेंट गूंजने लगा।

जब कोई ट्रेन एक बार लेट हो जाती है तो उसके और भी लेट होने की संभावना में गुणात्मक रूप से वृद्धि होती है। यह नियम कई लोगों के भारतीय रेलवे के प्रति संचयित ज्ञान से प्रतिपादित हुआ है। टिंकू  जी की ट्रेन भी जितना हो सकता था लेट होती चली गई। जिस ट्रेन को सुबह के सात बजे कटिहार पहुँचना था वह दोपहर के तीन बजे जाकर कटिहार पहुँची।

टिंकू जी की नींद पूरी हो चुकी थी। स्टेशन से बाहर आकर उन्होंने रिक्शा लिया और बस अड्डे की तरफ चल पड़े। बस में खिड़की के पास वाली सीट मिलने से थोड़ी राहत मिली। खिड़की के पास वाली सीट से कई फायदे होते हैं। आपको ठंडी हवा का आनंद प्राप्त होता है। इसके अलावा आप जब जाहें तब पान या गुटके की पीक बाहर फेंक सकते हैं। अपनी सीट पर बैठते ही टिंकू जी ने अपना मुँह खोला और उसमें गुटके की एक पुड़िया खाली कर दी।

लगभग तीन घंटे चलने के बाद बस रुक गई। टिंकू जी ने खिड़की के बाहर झाँका तो पाया कि बस तो हाइवे पर ही रुकी हुई थी। कंडक्टर ने बताया कि अचानक हुई तेज बारिश से आगे की सड़क बह गई थी और आगे कोई भी गाड़ी नहीं जा रही थी। टिंकू जी बस से नीचे उतरे ताकि आगे जाने का मार्ग पता कर पाएँ। पता चला कि आस पास के गाँव के कुछ लोग, अपने कंधों पर बिठाकर जलभरे कटाव को पार करवा रहे थे। इसके बदले में वे हर व्यक्ति से दो सौ रुपए चार्ज कर रहे थे। टिंकू जी की बड़ी सी तोंद देखकर उन्होंने अपनी फीस तीन सौ रुपए बताई। टिंकू जी के पास और कोई चारा नहीं था, इसलिए उन्होंने तीन सौ रुपए दिये और आगे बढ़ गये।

उस कटाव को पार करने के बाद रिक्शेवाले खड़े दिखाई दिये। वे रिक्शेवाले भी मांग और आपूर्ति के बैलेंस के नियम के एक्स्पर्ट लग रहे थे। टिंकू जी की ससुराल पहुँचाने के लिए रिक्शेवाले ने पाँच सौ रुपए माँगे। टिंकू जी रिक्शे पर बैठ गये और मानसून की नम हवाओं का आनंद लेते हुए अपनी बीबी और बेटियों से मिलने की कल्पना में खो गये।

आखिरकार जब टिंकू जी नौ बजे रात में अपने ससुराल पहुँचे तो उनकी दोनों बेटियाँ दौड़कर उनसे लिपट गईं। उस ग्रामीण माहौल में बीबी से लिपटने के लिए उन्हें रात होने का इंतजार करना था। जब टिंकू  जी चाय पी रहे थे तो अपनी बीबी को अपना यात्रा वृत्तांत सुनाने लगे। उनकी रामकहानी सुनकर उनकी बीबी धीरे से मुसकाई और बोलीं, “मुझे नहीं पता था कि आपको मुझे लिवाने के लिए इतनी बेचैनी हो रही होगी। बीबी से मिलने के लिए इतनी परेशानी तो शायद तुलसीदास ने भी न झेली होगी।“


टिंकू जी हौले से मुसकाए और कहा, “अब ये न कहना कि जाओ पहले रामचरितमानस लिख कर आओ फिर अपना मुँह दिखाना।“ 

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