यह कहानी प्रेमचंद की मूल कहानी
नमक का दारोगा से थोड़ी बहुत प्रेरित है। लेकिन उससे अधिक यह कहानी अभी अभी फैली नमक
की कमी की अफवाह से प्रेरित है। आपने न्यूज सुना होगा कि कैसे दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और कई अन्य राज्यों में शाम में एकाएक
अफवाह फैल गई कि नमक पर बैन लगने जा रहा है। बस लोग पागल हो गये। दौड़ दौड़कर लोग नमक
खरीदने लगे। थोड़ी ही देर में नमक 50 रुपए किलो के भाव से बिकने लगा। कहीं कहीं तो नमक
के 450 रुपए किलो भी बिकने की बात सुनी जा रही है।
मुझ जैसे लोग जो उस भीड़ का हिस्सा नहीं बन पाये शायद यह सोच
रहे होंगे कि कुछ लोग कितने मूर्ख हो सकते हैं। अब नमक ऐसी चीज तो है नहीं कि महीने
भर में एक किलो की जगह दस किलो खपत हो जाये। कुछ लोग टीवी पर किसी आदमी को नमक की दस
किलो की बोरी के साथ जाता देख कर भी हँसे होंगे। ऐसे लोग नमक की शक्ति को उसी तरह नजरअंदाज
कर रहे थे जैसे कि अंग्रेजों ने किया था। अंग्रेजों को लगा था कि नमक जैसी तुच्छ चीज
को किसी आंदोलन का मुद्दा बनाकर गांधीजी कुछ नहीं कर पाएँगे। लेकिन गांधीजी जनता की
नब्ज को भलीभाँति जानते थे। उन्हें नमक की शक्ति के बारे में पूरी तरह से पता था। यह
सब गांधीजी के नमक आंदोलन की सफलता से जाहिर होता है।
सरकार के कुछ मंत्री भी गांधीजी के ज्ञान का महत्व शायद समझते
हैं। इसलिए सरकार के नुमाइंदे झटपट टीवी पर आकर नमक की कमी का खंडन करने लगे और जनता
से धैर्य रखने की अपील करने लगे। ऊपर वाले का लाख लाख शुक्रिया कि नमक के लिये यह पागलपन
थोड़ी देर तक ही चला और फिर सबकुछ सामान्य हो गया। लेकिन इस बीच पूरे देश में करोड़ों
रुपए के नमक की बिक्री तो जरूर हो गई होगी। मामला बहुत संगीन हो गया था और उसकी गंभीरता
का आकलन इस बात से लगाया जा सकता है कि टीवी पर कई जिलों के जिलाधिकारियों को इस मुद्दे
पर बयान देते हुए दिखाया गया।
अब नमक के अप्रत्याशित उछाल और जिलाधिकारियों के बयान में क्या
संबंध है यह शोध का विषय हो सकता है। इसकी कुछ बानगी मेरे मुहल्ले में लोगों से पता
चली। मुहल्ले के पास स्थित थाने में एक दारोगा जी पदस्थापित हैं। इसमें कोई बड़ी बात
नहीं है क्योंकि ऐसे दारोगा तो हर थाने में होते हैं। अब ये दारोगा कोई नमक के दारोगा
तो नहीं हैं जैसा कि मुंशी प्रेमचंद के जमाने में होते थे। नमक के दारोगा की कमी को
इस दारोगा ने दूर करने की भरपूर कोशिश की। उसने तुरंत अपने सिपाहियों को बुलाया और
उनसे कहा, “सुनने में आया है कि कल शाम मुहल्ले के किराना वालों ने जमकर
नमक बेचा है; वो भी ऊँचे दामों पर। जब से नोट बंदी हुई है तब
से कोई चढ़ावा भी नहीं दे गया। अभी मौका है। फौरन जाओ और उनसे वसूली करके ले आओ।“
सिपाहियों ने एक सुर में कहा, “यस सर।“
सिपाही जैसे ही बाहर की ओर दौड़ने लगे तो दारोगा जी ने कहा, “ध्यान
रहे, किसी से 500 या 1000 के नोट मत ले लेना। खपाने में मुश्किल
होगी। फिर इनकम टैक्स वाले भी अपना हिस्सा माँगने लगेंगे।“
सिपाहियों ने फिर कहा, “यस सर।“
दारोगा जी ने भी लगता है प्रेमचंद की नमक का दारोगा वाली कहानी
पढ़ी थी। वे उस कहानी के नायक से प्रभावित नहीं थे। वे तो उस नमक के दारोगा के पिता
से अधिक प्रभावित थे। आपको याद दिलाने के लिए बता दूँ कि नमक के दारोगा के पिताजी ने
बताया था कि वेतन तो पूर्णमासी का चाँद होता है जो दिन प्रतिदिन घटता जाता है। ऊपरी
आमदनी तो बहते झरने के समान होती है जिसमें कोई जब चाहे अपनी प्यास बुझा लेता है।
लगभक एक घंटे बाद दारोगा जी के सिपाही विजयी मुसकान के साथ वापस
आये। प्रति दुकानदार पचास हजार रुपए के दर से उन्होंने दस लाख रुपये की उगाही की थी।
दारोगा जी ने प्रति सिपाही दस दस हजार रुपये बाँट दिये। इस तरह से पचास हजार रुपये
सिपाहियों में बँट गये। फिर दारोगा जी ने अपनी जेब में एक लाख रुपये रख लिए। ऐसा देखकर
एक सिपाही ने पूछा, “साहब, इतना कम।“
इस पर दारोगा जी ने एक ठंडी सांस ली और कहा, “अबे गदहों,
मालूम नहीं है कि ऊपर तक पहुँचाना होता है।“