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Wednesday, July 27, 2016

Gullu Had a Haircut

It was a Sunday and Gullu wanted to have a haircut. Gullu is about 12 years old. Gullu was pressing since early morning to go for a haircut. He told his father, “Dad, when are we going to have a haircut?”

Gullu’s father replied, “I think you last had a haircut around fifteen days back. So, what is the hurry now? Your hairs don’t appear to be too long to go to a barber’s shop.”

Gullu was adamant and said, “But you know Dad that I prefer to keep short hairs; like crew cut. This is in fashion. This is cool.”

Gullu’s father had to concede to his son’s demand. He asked Gullu to be ready in five minutes. Gullu’s grandfather Mr. Sinha was sitting nearby foraging through the newspaper. He peeped through his glasses and said, “I also need a haircut. Let us go together to the barber’s shop.”

So, all three of them went out together to the barber’s shop. Gullu’s father; Rajan does not like to visit a barber’s shop on weekends because of the long queue which is normal for Saturdays and Sundays. He usually takes out time on any of the weekdays in order to avoid the hassle of waiting at the barber’s shop. But for his son’s sake he had to go. When they reached the barber’s shop there was a sizeable crowd. The barber’s shop has five special chairs on which the customers sit while getting served by the barbers. Gullu always loves to sit on those chairs because they look really grand; with high back and hydraulic mechanism. The faux leather cover on the chair gives somewhat rich feel to the ambience. There was a long sofa on which eight or nine people were already sitting; waiting for their turn. Two benches outside the shop were also occupied. When Gullu enquired he came to know that they would have to wait for at least forty five minutes. Gullu’s grandfather; Mr. Sinha pulled out a couple of pages of the newspaper and began to savor the news articles. Gullu’s father; Rajan; opened a sachet of Pan Masala and started chewing on it to kill away the time. He bought a lollypop for Gullu. Gullu’s father was pacing left and right which was showing the lack of peace in his mind. Gullu was at ease and was sitting on a stool.

After a long wait of about an hour, their turn came. Being the youngest of the lot, Gullu got the privilege to be the first to occupy the vacant chair. The barber asked from Rajan, “Sir, any special instructions for this cute baby’s haircut?”

Rajan said, “Ask this baby. He is smart enough to tell you about his favorite hairstyle.”

After that Gullu instructed the barber, “Keep it as short as possible. You can use trimmer instead of scissors. This will give a neat look.”

Within a few minutes, Rajan and Mr. Sinha could also get to sit on different vacant chairs. When the barber asked Rajan about his favorite style, Rajan said, “Keep it medium cut on the front but keep it little bit longer at the back. Have you seen the film stars of the 90s? I love their hairstyle.”
The barber said, “But your hairline is receding very fast. Keeping it short on the front would not look good.”

Rajan replied, “I know that my hairline is receding but I have yet to develop a bald pate. Don’t worry about the look. It goes well with my age. Do whatever you are told to do.”

When Mr. Sinha’s turn came, he said, “In fact, I don’t need a haircut. I just need a little bit of trimming. Keep them long on front, side as well as on the back. Have you seen the film stars of the 70s and 80s? I love their hairstyle. I am a big fan of Amitabh Bachchan.”

The barber said, “You still have dense hair on your head. You must have taken good care of your hairs.”

Mr. Sinha said, “Yeah, I know. Even my wife says so.”

After about fifteen minutes, all of them were through with the haircut. Gullu; the youngest of the lot was sporting small stubbles in the name of hairs. Rajan; his father; was sporting somewhat longer locks. But the senior-most of the lot was sporting the longest hairs. The person who was collecting the bill smilingly said, “Sir, doesn’t it look odd that the baby of the family has got the cleanest cut and the grandpa is trying to ape a film star?”

Rajan said, “Yeah, some things never change with time but many other things change. During my childhood, I too was a big fan of Amitabh Bachchan. I used to request the barber to leave long locks on my head. But my father always scolded me and used to send me back to the barber to make my hairs shorter. Even our teachers were never happy when we copied the popular film stars. Things have changed now. I have never dictated my choice of hairstyle on my son. He is free to keep his hairs as he wishes. These are his hairs and he has every right to indulge in them. But my father has not changed during all these years.”

Rajan then turned to his father and said, “Dad, I still remember how many lies you told to my mother for going to watch the hit movie Dewaar umpteenth times. But do you know, this Gullu does not even like to go to a cinema hall. He probably gets a better worldview by peeping into his computer. “
Then Rajan and Mr. Sinha had a hearty laugh. Gullu was amusingly looking at them; as he was engrossed in his own world.


मेरा मरीज तेरा मरीज

डॉक्टर के पेशे में तगड़ा कंपिटीशन है। डॉक्टरी की पढ़ाई में बहुत पैसे खर्च होते हैं और कई साल लग जाते हैं। केवल एमबीबीएस करने में ही छ: साल लग जाते हैं। उसके बाद पोस्ट ग्रैजुएशन करने में दो साल और लग जाते हैं। ठीक तरह से डॉक्टर बनने में लगभग दस साल तो लग ही जाते हैं। यदि किस्मत अच्छी रही तो सरकारी नौकरी मिल जाती है नहीं तो प्राइवेट प्रैक्टिस जमाना आसान नहीं होता। परिवार और समाज की उम्मीदों पर खड़ा उतरने के लिए हर डॉक्टर पर अधिक से अधिक पैसे कमाने का प्रेशर भी रहता है। कुछ डॉक्टर इस चक्कर में बहुत सारे ऐसे काम कर बैठते हैं जो उनके पेशे पर ही धब्बा लगाता है। हर मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव को ये बातें नजदीक से देखने और समझने का मौका मिलता है।

एक बार मैं सुबह दस बजे के आसपास तैयार होकर काम करने के लिए जिला अस्पताल पहुँचा। मुझे ऑर्थो डिपार्टमेंट में कॉल करना था। उस डिपार्टमेंट की ओपीडी के बाहर पहुँचकर मैने देखा कि वहाँ पर कई डॉक्टरों की भीड़ लगी थी और बहुत हो हल्ला मचा हुआ था। अपनी जिज्ञासा शाँत करने के लिए मैं भी वहाँ रुक गया। मेरे पूछने पर डॉक्टर शर्मा; जो हड्डी रोग विशेषज्ञ थे; ने बताया, “सुना आपने, उस डॉक्टर बैरोलिया के बारे में?”

मैने कहा, “नहीं, क्या हुआ?”

डॉक्टर शर्मा ने बताया, “अरे उसने आजकल एक नया नर्सिंग होम खोला है। साथ में उनकी पत्नी भी वहीं बैठती हैं। उन्हें शायद पता नहीं कि प्रैक्टिस जमाने में एड़ी चोटी एक करनी पड़ती है। आजकल उसने गुंडे पाल रखे हैं। कल रात उसके गुंडे यहाँ आये और ऑर्थो वार्ड से एक मरीज को उठाकर जबरन अपनी वैन में डाला और उनके नर्सिंग होम में पहुँचा दिया।“

मैने सुना तो अचरज में पड़ गया। अब सोचिये उस मरीज के बारे में जिसके सिर से पाँव तक प्लास्टर चढ़ा हुआ हो। वो बेचारा तो अपनी जान बचाने के लिए भाग भी नहीं सकता है। उसे उठाकर जब कोई वैन में डालने लगे तो उसे ये भी समझ में नहीं आयेगा कि उसका अपहरण किस वजह से हो रहा है। वैसे भी सरकारी अस्पतालों मे इतने गरीब मरीज आते हैं जो फिरौती के तौर पर कुछ भी नहीं दे सकते।

फिर डॉक्टर शर्मा ने बताया, “हमलोगों ने आज ही सीएमओ के साथ एक मीटिंग बुलाई है। वे जिला प्रशासन को लिखेंगे कि सदर अस्पताल में पुलिस की समुचित व्यवस्था हो। अब यहाँ के डॉक्टर या नर्स उन गुंडों से दो दो हाथ तो नहीं कर सकते।“

मैने कुछ नहीं कहा बस उनकी हाँ में हाँ मिलाता रहा। फिर मेरे मन में खयाल आया कि चलकर डॉक्टर बैरोलिया से मिल लेता हूँ। अब बैरोलिया जी की कहानी उन्हीं की जुबानी सुन लीजिए।
डॉक्टर बैरोलिया ने कहा, “अरे भाई साहब क्या बताऊँ? इस नर्सिंग होम को बनवाने में ही सत्तर अस्सी लाख खर्च हो गये। मरीज हैं कि आने का नाम ही नहीं लेते। फिर मेरे एक सीनियर ने यह अनूठा सुझाव दिया। वैसे जिला अस्पताल के डॉक्टर भी तो ओपीडी किसी सेवा भावना से जाते नहीं हैं। वे तो वहाँ से मरीजों को बरगला कर शाम में अपनी क्लिनिक पर ही बुलवाते हैं। एकाध मरीज मैने हड़प लिये तो कौन सा गुनाह कर दिया?”

डॉक्टर बैरोलिया ने आगे कहा, “मैने सोचा है कि खुद जाकर सदर अस्पताल के डॉक्टरों से मिलूँगा। उन्हें उनका शेयर मिल जायेगा। लेकिन वे तो मुझे ऐसी नीची नजर से देखते हैं जैसे मैं कोई वार्ड ब्वाय हूँ।“ 

Tuesday, July 26, 2016

तानसेन पर मुकदमा

तानसेन का नाम आप सभी ने सुना होगा। तानसेन एक महान संगीतकार थे और अकबर के दरबार में नवरत्न हुआ करते थे। उनकी गायकी इतनी जबरदस्त थी कि कहा जाता है कि जब वो मेघराग गाते थे तो बारिश होने लगती और जब वो दीपक राग गाते थे तो चिराग जल उठते थे। अकबर के दरबार में नवरत्न होने की वजह से तानसेन की आमदनी करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं में थी। साथ में पूरे हिंदुस्तान में मशहूर होने की वजह से शादी, त्योहार, मेले आदि जलसे में उनकी बहुत माँग हुआ करती थी। एक प्रोफेशनल होने के नाते तानसेन किसी भी पब्लिक या प्राइवेट फंक्शन में गाने के लिए मोटी रकम चार्ज किया करते थे। साथ में कई कंपनियों के प्रोडक्ट के इश्तहार में भी वे नजर आते थे। कुल मिलाकर कहा जाए तो तानसेन को भगवान ने छप्पड फाड़कर धन संपत्ति दी थी। इसके साथ साथ वो पूरे हिंदुस्तान में बला के लोकप्रिय थे। जब उनका रथ निकलता था तो उन्हें देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। तानसेन तो हैंडसम थे ही। इसलिए उनके रथ के आगे उस जमाने की युवतियाँ लेट जाया करती थीं। कई लड़कियों ने तो तानसेन की तस्वीर से ही शादी रचा ली थी।

तानसेन की शोहरत कुछ अन्य नवरत्नों को हजम नहीं होती थी; जैसा कि इन मामलों में अक्सर होता है। टोडरमल; जो कि स्वयं भी नवरत्न थे; इस मौके की फिराक में रहते थे कि कैसे तानसेन को नीचा दिखाया जा सके। इसके लिए उन्होंने संगीत सीखना भी शुरु किया लेकिन उसमें असफल रहे। वे पहले भी कई बार बीरबल को नीचा दिखाने की चक्कर में मुँह की खा चुके थे इसलिए इस बार वे कड़ी सावधानी बरत रहे थे।

आखिरकार टोडरमल को एक सुनहरा मौका मिल गया; बल्कि दो मौके मिल गये। हुआ यूँ कि एक बार तानसेन जंगल में आखेट के लिए गये। अब तानसेन तो ठहरे एक कलाकार इसलिए वे खुद जानवरों का शिकार क्या करते। उनके अमलों चमलों ने एक हिरण को मार गिराया। बताया जाता है कि बादशाह की पटरानियों को हिरण बहुत सुंदर लगते थे इसलिए पूरे हिंदुस्तान में हिरण के शिकार पर रोक लगी थी। बस फिर क्या था, टोडरमल ने तानसेन पर एक मुकदमा दायर कर दिया। आरोप था कि तानसेन ने हिरण का शिकार किया था। उसके कुछ ही दिनों बाद एक बार तानसेन का काफिला रात में मुंबई की मायनगरी में रात्रि भ्रमण का आनंद ले रहा था। लगता है कि सारथी के नशे में धुत होने के कारण रथ ने फुटपाथ पर सो रहे कुछ लोगों को कुचल दिया। टोडरमल को एक और मौका मिल गया, तानसेन पर मुकदमा दायर करने का।

तानसेन ने बहुत कोशिश की कि उन मुकदमों से बरी हो जाएँ लेकिन तबतक बादशाह अकबर बूढ़े हो चुके थे और उनकी शक्ति भी कम हो रही थी। उनकी लाख पैरवी के बावजूद तानसेन को कई रात कारागार में भी गुजारने पड़े और उसके बाद अदालतों में तारीख पर तारीख का जो सिलसिला चला वह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। बादशाह अकबर के इंतकाल के बाद उनके बेटे जहाँगीर ने गद्दी सँभाली। जहाँगीर को भी संगीत से उतना ही लगाव था जितना कि उनके वालिद अकबर को। लेकिन जहाँगीर का मानना था कि कानून की नजर में हर कोई बराबर होता है इसलिए वे तानसेन की कोई मदद नहीं कर पा रहे थे। उधर निचली अदालतों के वकील और जज तानसेन पर हुए मुकदमे से बड़े खुश थे। वे तानसेन को नोचने खसोटने का कोई मौका हाथ से नहीं छोड़ते थे। वकील मोटी रकम चार्ज किया करते थे और उसका तय प्रतिशत जज साहब को बतौर नजराना पेश किया जाता था। उसके ऐवज में जज किसी भी तारीख पर कोई फैसला नहीं सुनाते थे बल्कि अगली तारीख के बारे में इत्तला कर दिया करते थे।

तानसेन ने कई मंत्रियों और अफसरों को सेट करने की कोशिश की। सबने उनसे नजराने के रुप में लाखों स्वर्ण मुद्राएँ, कीमती जवाहरात और रेशमी शाल ले लिए लेकिन मुकदमा था कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था।

इस बात से जहाँगीर भी तंग आ गये थे। एक बार उन्होंने जज को बुलाया और उनसे पूछा, “यदि तानसेन दोषी हैं तो उन्हें उचित सजा देकर इस मुकदमे को खत्म क्यों नहीं कर देते?”

इस पर जज ने जवाब दिया, “जिल्ले इलाही, तानसेन तो एक सागर की तरह हैं। उनके पास इश्तहारों और रॉयल्टी से करोड़ों की आमदनी आती है। उस सागर में से एक दो लोटा यदि हम लोग ले भी लें तो क्या फर्क पड़ता है। आखिर वे मरने के बाद अपनी संपत्ति को लादकर तो नहीं ले जाएँगे। फिर उनकी लोकप्रियता को देखकर भी डर लगता है। इतने दिनों से मुकदमा चलने के बावजूद उनके नए गाने और नाटक जबरदस्त हिट होते हैं। कभी कभी ये भी डर लगता है उनको सजा सुनाने से प्रजा विद्रोह न कर दे और कहीं फिर आपका ही तख्तापलट न हो जाए। इसलिए जैसा चल रहा है चलने दीजिए। आप कहें तो आपके पास भी नजराना पहुँच जाया करेगा और किसी को कानों कान खबर नहीं होगी।“

बादशाह जहाँगीर ने कुछ नहीं कहा बस नजरों ही नजरों में जज के आगे हामी भर दी। बेचारे तानसेन परेशान हो चुके थे। उन्हें डर था कि कहीं सौ वर्षों की सजा हो गई तो उनकी वर्षों की कमाई इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। उनके बच्चों का क्या होगा; ऐसा सोचकर तानसेन ने डर से शादी भी नहीं की थी; जबकी वे चालीस के पार पहुँच चुके थे।

अदालतों में मुकदमे खिंचते रहे और साल बीतते गये। तानसेन अब पचास को पार करने ही वाले थे। उनकी उम्मीद में कई युवतियाँ तबतक अधेड़ हो चुकी थीं। कई प्रैक्टिकल दिमाग वाली युवतियों के तो अब बच्चे भी युवा हो चुके थे। तानसेन की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। उनकी हालत वैसे मरीज की तरह हो गई थी जो ऐसी बीमारी से पीड़ित होता है जो उसे पंगु तो बना देती है लेकिन उसे मारती नहीं है। उस बेचारे को पड़े पड़े ही सबकुछ करना पड़ता है। वह केवल मौत के इंतजार में दिन गिनता रहता है। एक दिन तानसेन को लगा कि हिंदुस्तान के सबसे अकलमंद आदमी यानि बीरबल से सलाह ली जाए। बीरबल को तो उनके केस के बारे में पता ही था। बीरबल ने कहा, “मैं भी आपकी तकलीफ देखकर दुखी था। लेकिन मैं बिना माँगे किसी को मुफ्त की सलाह नहीं देता हूँ। आपको तो मेरी कँसल्टेंशी फीस के बारे में पता ही होगा।“

उचित फीस मिलने के बाद बीरबल ने तानसेन को बिलकुल सटीक सलाह दी। यह वह वक्त था जब नये बादशाह शाहजहाँ ने अभी अभी गद्दी सँभाली थी। वे अपने शौक के लिए पहले से ही मशहूर थे। तानसेन ने उनके लिए एक नया राग रचा था। तानसेन ने नये बादशाह के सामने राग मुमताज पेश किया। बादशाह खुश हुए और तानसेन से गुफ्तगू करने के लिए उन्हें अपने दीवान-ए-खास में ले गये। वहाँ पर उनके बीच कुछ डील तय हुई। उसके बाद तानसेन ने ऐलान किया कि ताजमहल बनाने का सारा खर्चा वे अपने चैरिटी की तरफ से देंगे। उन्होंने ये भी कहा कि एक प्यार की निशानी बनाना मानवता की सेवा करने जैसा है। उन्होंने इस बात को भी कबूल किया कि मुकदमों की वजह से वे पचास की उम्र तक भी सच्चे प्यार से मरहूम थे।

फिर कुछ दिनों में ही एक अदालत ने फैसला सुनाया, “तानसेन को रथ चलाना ही नहीं आता। रथ तो उनके सारथी चला रहे थे। वैसे भी रथ चलाना किसी नवरत्न की शान के खिलाफ होता है। इसलिए उस दुर्घटना में मरने वालों के दोषी सारथी थे। अब चूँकि सारथी का देहाँत हो चुका है इसलिए इस मुकदमे को खारिज किया जाता है। तानसेन को इस मुकदमे से बरी किया जाता है।“
एक दो महीने बाद एक दूसरी अदालत ने फैसला सुनाया, “एक तानपूरा उठाने वाला संगीतकार बंदूक कैसे उठा सकता है। जिसके कान सितार के मधुर धुनों को सुनने के आदी हों वो भला गोलियों की आवाज कैसे बर्दाश्त कर सकता है। पुख्ता सबूत न मिलने के कारण तानसेन को हिरण के शिकार के आरोप से बरी किया जाता है।“


उस ऐतिहासिक फैसले के बाद प्रजा में एक नए जोश का संचार हो गया। कई महिलाएँ जो तानसेन के इंतजार में अधेड़ हो चुकीं थीं ने ऐलान किया कि वे तानसेन के लिए अपनी बेटियों को सौंपने तक को तैयार हैं। सुनने में ये भी आया कि टोडरमल अब सर्वोच्च न्यायालय जाने की सोच रहे हैं लेकिन नये बादशाह की डर से उनकी हिम्मत नहीं हो रही है। 

Monday, July 25, 2016

नौकरी मिल गई

“अजी सुनते हो, पटना वाली मौसी का फोन आया था। बता रहीं थीं विक्की की नौकरी लग गई।“ पत्नी ने कहा।

पति ने पूछा, “अब ये विक्की कौन है?”

पत्नी ने झुँझलाते हुए कहा, “विक्की मेरी मौसी का लड़का है। याद नहीं है हमारी शादी में उसीने तुम्हारे पिछवाड़े में पटाखों की लड़ियाँ बाँध दी थी।“

पति ने कहा, “अब उस भीड़भाड़ में मैं तुम्हारे विक्की को देखता या फिर पटाखों से अपनी जान बचाता? ऐसे भी दस साल से ऊपर हो गये उस दुखद घटना को। अब तक किस किस विक्की को याद रखूँ?”

पत्नी ने कहा, “लगता है तुम विक्की की नौकरी से खुश नहीं हो?”

पति ने कहा, “अब भला उसकी नौकरी से मैं क्यों खुश होने लगा। तुम तो ऐसे कह रही हो कि पगार मिलते ही वह सारे पैसे लाकर मेरे चरणों में डाल देगा।“

पत्नी ने कहा, “पता है, विक्की ने दुर्गापुर के किसी अच्छे कॉलेज से इंजीनियरिंग की है। इसी साल तो उसने बीटेक निकाला है। अभी रिजल्ट भी नहीं आया है। लेकिन कैंपस प्लेसमेंट में उसका सेलेक्शन हो गया। मौसा जी बता रहे थे कि किसी प्रेशर कुकर बनाने वाली कम्पनी में बिजनेस डेवलपमेंट मैनेजर की पोस्ट मिली है। है न बहुत बड़ी बात?”

पति ने कहा, “ये बहुत अच्छी बात है। लेकिन यदि रिजल्ट आने पर फेल कर गया तो क्या होगा? तब तो उसे नौकरी से निकाल देंगे।“

पत्नी ने कहा, “तुम्हें शायद पता नहीं है। इन प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेजों में किसी को फेल नहीं करते। इसलिए इसका कोई रिस्क नहीं है।“

पति ने कहा, “लेकिन एक बात समझ में नहीं आई। उसने पढ़ाई तो इंजीनियरिंग की की है। फिर प्रेशर कुकर का सेल्समैन कैसे बन गया?”

पत्नी ने कहा, “तुम्हारी तो आदत बन चुकी है मेरे परिवार वालों का मजाक उड़ाने की। अरे सेल्समैन नहीं है, बिजनेस डेवलपमेंट मैनेजर है।“

पति ने कहा, “अब तुम्हारे परिवार वालों से तो मेरा मजाक का रिश्ता है। उनका मजाक उड़ाना तो मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। खैर छोड़ो, तुम्हें पता नहीं है कि आजकल ये कम्पनी वाले इसी तरह के फैंसी डेजिग्नेशन देकर लोगों को उल्लू बनाते हैं। कोई बिजनेस डेवलपमेंट मैनेजर, तो कोई टेरिटरी डेवलपमेंट मैनेजर, तो कोई प्रोफेशनल सर्विस ऑफिसर, और न जाने क्या क्या नाम दे डालते हैं अपनी कंपनी के सेल्स रिप्रेजेंटेटिव को। लेकिन काम तो उन्हें सेल्स का ही करना है। अरे जब सेल्समैन ही बनना था तो फिर इंजीनियरिंग करने की जरूरत ही क्या थी। बीए कर लेते और काम पर लग जाते। माँ बाप के पैसे भी बच जाते इससे।“

पति ने आगे कहा, “जिसे देखो वही आजकल इंजीनियर बन रहा है। लेकिन इंजीनियरिंग वाला काम बहुत कम ही लोग कर पा रहे हैं। मेरी बुआ की लड़की तो किसी बड़ी कम्पनी के दफ्तर में सारा दिन डाटा एंट्री करती रहती है और उसका डेजिग्नेशन है टीम लीड। डेजिग्नेशन कुछ भी हो लेकिन काम तो हेड क्लर्क का ही है; माने बड़ा बाबू।“


Sunday, July 24, 2016

My First Day on Job

My first job was in Zieta Phramaceuticals which was a sister concern of Cadila. I reached my first headquarter at about 12:00 in the noon. After checking in a hotel, I quickly got ready to go for work. Having performed reasonably well in the training program, I was bubbling with enthusiasm and was raring to go. I took out the doctor’s list and planned for a particular area; called Kuchehry Road.
First of all, I went to a chemist to make a call. As we were launching a new division, so we were told to do the detailing in front of chemists as well. The chemist was definitely not a new person on the job; unlike me. He hurriedly told me to tell the names of some key products and the name of the wholesaler and told me to just keep my mouth shut. It was quite bizarre for me as I was expecting him to lend his ears to me. Being unperturbed, I tried to open the visual aid so that I could do the detailing but I felt a big lump in my throat. My forehead was profusely sweating and I could not utter a single word in front of him. I was feeling dejected at not being able to perform what I was supposed to do.

After that, I went looking for some doctors but could not find a single signboard which could show the names as per my list. I went to another nearby area but all my efforts were in vain. I tried till 8 pm in the evening and finally gave up. I was unable to understand how to find a doctor; as per the addresses. Meanwhile, I must have met at least 10 chemists but could not do the detailing in front of any of them because nobody permitted me to do so.

Next day, my Regional Manager came for joint working. He probably possessed some kind of magic. The road where I could not find a single doctor the last day revealed so many doctors for my Regional Manager. He was equally at ease while detailing to the doctors as well as to the chemists. I was simply swept off my feet by seeing the virtuoso performance of my Regional Manager; in terms of ideal presentation in front of customers.

I meekly asked him, “Yesterday, I was unable to find a single doctor on the same road. But you could easily pick up them on this crowded street. I was tongue tied in front of all the chemists I met but you were at ease. Do I have what it takes to become a successful salesman?”

The Regional Manager calmly replied, “It is natural for any person on his first day on job. Do not worry you will also become a virtuoso performed within a week.”


After the day’s work was over, we sat for dinner in a restaurant. The regional manager did some pep talk to boost my morale. At the end of the day, I was feeling more confident of doing justice to my job. 

हाथी और बिकोसूल्स

बिकोसूल्स एक ऐसा ब्रांड है जिसे फाइजर का ब्रेड बटर प्रोडक्ट माना जाता है। इसकी जबरदस्त सेल भी है इसलिए इसे बेचना बहुत ही आसान काम है। लेकिन किसी भी ऐसे प्रोडक्ट के लिए जिसकी सेल पहले से पीक पर हो; टार्गेट भी बहुत ज्यादा होता है और उस टार्गेट को पूरा करना बहुत मुश्किल होता है। ऐसे प्रोडक्ट की टार्गेट पूरा करने के लिए और सेल्स में ग्रोथ देने के लिए किसी भी मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव को एड़ी चोटी एक करनी पड़ती है। यह किस्सा इसी परेशानी के बारे में है जो मेरे किसी बहुत ही सीनियर ने सुनाई थी।

उनका नाम याद नहीं लेकिन फिर भी उनका नाम रख देता हूँ चोपड़ा साहब। बात साठ या सत्तर के दशक की होगी। चोपड़ा साहब तब एक यंग मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव हुआ करते थे। किसी एक क्वार्टर में उन्होंने बिकोसूल्स की इतनी सेल की कि अपने बजट का 150% पूरा कर लिया। अब इतनी अच्छी सेल्स पर सबके कान तो खड़े होने ही थे। साइकिल मीटिंग में चोपड़ा साहब से पूछा गया कि इतनी अच्छी सेल्स लाने के लिए उन्होंने कौन सा तीर मारा। अब इसपर चोपड़ा साहब का जवाब खुद सुन लीजिए।

“सर, मेरे शहर में अजंता सर्कस लगा हुआ था। मैं भी एक रविवार को सर्कस देखने गया। सर्कस देखते समय मुझे लगा कि सर्कस का एक हाथी जो सबसे मजेदार करतब दिखा रहा था कुछ कमजोर हो गया था। मैंने मामले की तह तक जाने के लिए उस सर्कस के मैनेजर से मिलने की कोशिश की। जब मैनेजर से मिला तो वह मुझे उस आदमी तक ले गया जो उस हाथी की देखभाल के लिए खासतौर से लगा हुआ था। उस आदमी ने भी मेरी बात से हामी भरी कि हाथी वाकई कमजोर हो गया था। फिर उसे मैने बिकोसूल्स के बारे में बताया। मैने उसे बताया कि किस तरह से बिकोसूल्स से अच्छी ताकत की दवाई कोई नहीं है। मैने उसे बताया कि यदि हाथी दोबारा ठीक हो जाएगा तो उसके करतबों पर फिर से दर्शकों की तालियाँ बजेंगी और सर्कस का बिजनेस भी बढ़ेगा। उसे मेरी बात में दम लगा और शुरु में उसने मुझे एक गत्ते बिकोसूल्स का ऑर्डर दे दिया। एक विशाल हाथी के लिए तो एक गत्ता बिकोसूल्स कुछ भी नहीं था। फिर एक महीना बीतते-बीतते मुझे वहाँ से 200 गत्ते बिकोसूल्स का ऑर्डर मिला।“


उस मीटिंग में आए लोग चोपड़ा साहब की बातों पर तालियाँ बजाने लगे। लेकिन उनकी तालियों में कुछ खास जोश नहीं था। बाकी लोग या तो चोपड़ा साहब की सफलता से जल रहे थे या उन्हें दाल में कुछ काला नजर आ रहा था। 

बड़े बाबू

अश्विनी सिन्हा किसी सरकारी दफ्तर में हेड क्लर्क की हैसियत से काम करते हैं। सरकारी दफ्तरों में लोग हेड क्लर्क को अक्सर बड़ा बाबू कहकर बुलाया करते हैं। इस श्रेणी में काम करने वाले अधिकतर लोगों की आय साधारण होने की वजह से ऐसे मुलाजिम अक्सर साधारण सा पहनावा ही पहनते हैं। उनके पहनावों पर कुछ कुछ असर सरकारी दफ्तरों मे प्रचलित माहौल का भी होता है। ऐसे माहौल में एक नया रंगरूट आपको थोड़ा सजधजकर ऑफिस आते हुए दिखाई दे जायेगा लेकिन पाँच साल की नौकरी होते-होते वह भी वहीं के रंग में रम जाता है। लेकिन अश्विनी सिन्हा बड़े बाबूशब्द को चरितार्थ करने में कोई कसर नहीं छो‌ड़ते थे। गर्मियों में वे गहरे रंग की पतलून पर सफेद या और किसी सोबर रंग की शर्ट पहना करते थे। शर्ट बकायदा पतलून की अंदर खोंसकर पहनी जाती थी। साथ में ताजा पॉलिश किये हुए जूते। आप कभी अश्विनी सिन्हा को चप्पल या स्पोर्ट शू में ऑफिस जाते नहीं देख सकते थे। जाड़े में तो कोट और टाई लगाकर वह अच्छे खासे जेंटलमैन बन जाते थे। कई अन्य मुलाजिमों की तरह वे भी पास ही की सरकारी कॉलोनी में अपने सरकारी क्वार्टर में रहते थे।

उनके घर की साज सज्जा में भी अभिजात वर्ग की झलक आती थी; जो कि अन्य लोगों के घरों से अलग हुआ करती थी। और लोगों के घरों में आपको या तो लकड़ी की टूटी कुर्सी मिल जाती या फिर प्लास्टिक की सस्ती वाली कुर्सियाँ। लेकिन अश्विनी सिन्हा के घर में आपको लाल मखमल की कवर वाला आलीशान सोफा सेट नजर आ जाता। बाहर वाले बरामदे में बेंत की कुर्सियों के साथ फूलों और सजावटी पौधों के गमले गजब की शोभा बढ़ाते थे। अश्विनी सिन्हा ने एक सफेद रंग की सेकंड हैंड मारुति 800 भी रखी हुई थी जो उस कॉलोनी में लगने वाली मोटरसाइकिलों और स्कूटरों के बीच शोभायमान होती थी।

उस कॉलोनी के कुछ लोग उनसे इस बात के लिए चिढ़े भी रहते थे कि वे झूठी शान बघारने में माहिर थे। उसपर से अश्विनी सिन्हा का अन्य लोगों से कट कटकर रहना इस चिढ़ को और भी हवा देता था। अश्विनी सिन्हा के दो बेटे और एक पत्नी थी। उनके बेटे और पत्नी भी उनका अनुसरण करती थी। कुल मिलाकर पूरा परिवार एक ही तरह की संस्कृति का पालन करता था। सब लोग ऐसे बर्ताव करते थे जैसे कि वे किसी क्लर्क नहीं बल्कि किसी बड़े ऑफिसर के परिवार के सदस्य हों।
एक बार अश्विनी सिन्हा को अपने बेटों को लेकर दिल्ली जाना पड़ा। उनके बेटों का किसी एमबीए कॉलेज में ऐडमिशन के लिए बुलावा आया था इसी सिलसिले में वे इस यात्रा पर जा रहे थे। अब कोई ऑफिसर तो उन्हें घास डालने से रहा लिहाजा उन्होंने अपने ही श्रेणी के क्लर्कों से किसी ऐसे से मदद की गुजारिश की जिसका कोई मित्र या रिश्तेदार दिल्ली में रहता हो। आजकल बिहार में शायद ही कोई घर होगा जिसका एक न एक सदस्य दिल्ली में न रहता हो। लेकिन उस कॉलोनी के सभी लोगों ने अश्विनी सिन्हा को कोई मोबाइल नम्बर देने से साफ मना कर दिया। यह सब उसी अच्छे इम्प्रेशन का नतीजा था जो अश्विनी सिन्हा ने वर्षों से बनायी थी।

अब बेचारे अश्विनी सिन्हा क्या करते, बस अपने बेटों के साथ दिल्ली वाली ट्रेन में बैठ गये। वे पूरी ठाट से अपनी बर्थ पर लेटे थे और उनके बेटे भी उन्हीं की नकल कर रहे थे। बाकी के सवारियों ने जल्द ही उनकी फितरत को समझ लिया इसलिये कोई भी उनसे उलझने की हिम्मत नहीं कर रहा था। लेकिन ट्रेन में भी अश्विनी सिन्हा अपनी साहबी दिखाने से बाज नहीं आ रहे थे। जब कोई आदमी किसी स्टेशन पर कोई चीज खरीदने प्लेटफॉर्म पर उतर रहा होता था तो अश्विनी सिन्हा उसे कुछ न कुछ खरीद लाने का आदेश जरूर दे देते और उसके लिए पाँच सौ का नोट निकाल कर दे देते। खैर, लगभग दो घंटे की यात्रा के बाद रात हो गई और अन्य लोगों को थोड़ी राहत मिली।
अगले दिन ट्रेन को सुबह सुबह दिल्ली पहुँचना था लेकिन अपनी आदत से मजबूर वह ट्रेन भी लेट चल रही थी। सुबह के लगभग आठ बजे थे और ट्रेन में कुछ ऐसे यात्री भी चढ़ गये थे जो लोकल होने के नाते रिजर्व कंपार्टमेंट में आसानी से घुस जाते हैं। दिन हो जाने के कारण पहले से सफर कर रहे यात्रियों को उठकर बैठना पड़ता है ताकि लोकल सवारियों को बैठने की जगह मिल जाए। 

अश्विनी सिन्हा की बगल में एक देहाती सा दिखने वाला युवक बैठा था। उसकी बड़ी-बड़ी मूँछें और तीन चार दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी थी। उसकी आँखों की लाली से वह बड़ा ही खतरनाक टाइप का लग रहा था। थोड़ी देर में ट्रेन कानपुर स्टेशन पर रुकी। वह युवक प्लेटफॉर्म से कुछ खरीदने जा रहा था। अश्विनी सिन्हा ने जब पूछा तो पता चला कि वह चाय खरीदने जा रहा था। अश्विनी सिन्हा ने उसे सौ रुपये का नोट दिया और अपने लिये तीन कप कॉफी लाने को बोला। उस युवक ने मुसकराते हुए अश्विनी सिन्हा से पैसे लिये और कॉफी लाने चला गया। थोड़ी देर बाद वह कॉफी लेकर आया तो अश्विनी सिन्हा ने उसे बाकी बचे पैसे रख लेने को कहा। उस युवक ने मुसकराकर उनका धन्यवाद किया। कॉफी पीते ही अश्विनी सिन्हा और उनके बेटे बेहोश हो गये और फिर वह युवक उनका सामान, पर्स, मोबाइल फोन, आदि लेकर वहाँ से चंपत हो गया।

राकेश दिल्ली में रहता था। वह अपने दफ्तर में लंच ब्रेक की तैयारी कर रहा था कि तभी उसके पास फोन आया, “हलो, मैं सिन्हा साहब बोल रहा हूँ। आपके बड़े भाई दरभंगा में जिस दफ्तर में काम करते हैं मैं भी उसी दफ्तर में काम करता हूँ। हमारे साथ एक हादसा हो गया। ट्रेन में नशाखुरानी वाले ने बेहोश करके हमारा सब कुछ लूट लिया। अभी मैं अपने बेटों के साथ लेडी हार्डिंग हॉस्पिटल में भर्ती हूँ। आप केवल इतना मदद कर देते ताकि हम वापस अपने शहर लौट पाते।“


राकेश ने अपने बड़े भाई को फोन करके मामले की विस्तृत जानकारी ली। फिर उसने वह सारी मदद की ताकि अश्विनी सिन्हा अपने बेटों के साथ वापस दरभंगा जाने वाली ट्रेन में सही सलामत बैठ जाएँ।