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Thursday, June 23, 2016

राजा शौचालय में ककड़ी खाता है।

पंचतंत्र की कहानियाँ आप में से कई लोगों ने पढ़ी और सुनी होगी। उसमें से एक कहानी है एक राजा, एक व्यापारी और उस राजा के एक नौकर के बारे में। व्यापारी बड़ा ही प्रतिभाशाली होता है। उसकी वाकपटुता से प्रभावित होकर राजा उसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ देता है। व्यापारी अपनी प्रतिभा से राजा को और अन्य लोगों बहुत ही संतुष्ट रखता है। एक बार उस व्यापारी की बेटी की शादी में सभी गणमान्य लोगों को निमंत्रित किया जाता है। राजा का एक विश्वासपात्र नौकर भी उस पार्टी में जाता है। नौकर मौका देखकर उन कुर्सियों में से एक पर बैठ जाता है जो खास लोगों के लिए रिजर्व रखी गईं थीं। यह बात वहाँ बैठे इज्जतदार लोगों को पसंद नहीं आती है। उन्हें नाक भौं सिकोड़ता देखकर व्यापारी उस नौकर को बुरा भला कहता है और वहाँ से भगा देता है। उस नौकर को अपनी बेइज्जती बर्दाश्त नहीं होती है। वह इसका बदला लेने की मन ही मन ठान लेता है।

एक दिन तड़के सुबह उसे इसका मौका मिल जाता है; जब वह राजा के बेडरूम में झाड़ू लगा रहा होता है। राजा अधजगा सा लेटा हुआ होता है। वह नौकर झाड़ू लगाते-लगाते बड़बड़ाने लगता है, “हे राम! ये आजकर महल में क्या हो रहा है? उस व्यापारी की ये मजाल की रानी का आलिंगन करे।“
यह सुनकर राजा हड़बड़ाकर उठ जाता है और नौकर की गिरेबान पकड़ कर पूछता है, “ये क्या बक रहे हो? तुम अपने होश में तो हो?”

नौकर जवाब देता है, “म्म मुझे माफ कर दीजिए महाराज। पिछली रात मैं जुआ खेल रहा था। और सारी रात मैं शराब भी पीता रहा। न जाने नशे में मेरे मुँह से क्या निकल गया।“

नौकर के जाने के बाद राजा के मन में तरह तरह की शँकाएँ घुमड़ने लगती हैं। राजा सोचने को विवश हो जाता है, “हो सकता है यह सही कह रहा हो। उस व्यापारी के अलावा यही एक ऐसा व्यक्ति है जो इस महल में बेरोक टोक घूम सकता है। हो सकता है इसने व्यापारी को रानी के साथ रोमांस करते देख लिया होगा। इस व्यापारी का कुछ करना पड़ेगा।“

उसके बाद राजा के सैनिकों और द्वारपालों को आदेश दे दिया जाता है कि उस व्यापारी को महल के आस पास भी न फ़टकने दें। इस बात से अनभिज्ञ व्यापारी जब एक दिन राजमहल के द्वार पर आता है तो सैनिक उसे अंदर नहीं जाने देते हैं। व्यापारी अचंभे में पड़ जाता है। पास में ही उसे वह नौकर झाड़ू लगाता हुआ दिख जाता है। नौकर सिपाहियों से कहता है, “अरे! तुम्हारी इतनी हिम्मत की इन जैसे महान आदमी को महल में जाने से रोको। जानते नहीं ये कौन हैं। ये तो एक ही इशारे में तुम्हारी इज्जत की बखिया उधेड़ सकते हैं।“

नौकर की बात सुनकर व्यापारी को सारी बात समझ में आ जाती है। फिर वह नौकर को बाइज्जत अपने घर बुलाता है। उसे पूरा सम्मान देता है। साथ में उसे ढ़ेर सारी स्वर्ण मुद्राएँ और उपहार देता है। अपनी खोई हुई इज्जत वापस पाकर नौकर खुश हो जाता है। वह व्यापारी से कहता है, “मैं जाता हूँ और कुछ न कुछ उपाय करता हूँ। आपको अपना खोया हुआ सम्मान फिर से मिल जाएगा।“
कुछ दिन बीतने के बाद उस नौकर को फिर से मौका मिल जाता है। सुबह-सुबह वह राजा के बेडरुम में झाड़ू लगाता रहता है। राजा आधी नींद में करवटें बदल रहा है। तभी नौकर बड़बड़ाने लगता है, “हमारे राजा भी पक्के कार्टून हैं। पता नहीं, उन्हें शौचालय में बैठे-बैठे ककड़ी खाने का शौक कब से चढ़ गया है।“

राजा फिर हड़बड़ाकर उठता है और उससे इस अनर्गल प्रलाप का कारण पूछता है। नौकर जवाब देता है, “म्म मुझे माफ कर दें महाराज। मैं पूरी रात शराब पीता रहा। नशे के कारण मैं न जाने क्या अनाप शनाप बक गया।“

राजा को लगता है कि कि किसी छोटे आदमी के अनर्गल प्रलाप पर ध्यान नहीं देना चाहिए। वह व्यापारी को बुलवा भेजता है। उस व्यापारी को अपनी खोई हुई मान और प्रतिष्ठा वापस मिल जाती है।

आप सोच रहे होंगे कि पंचतंत्र की इस कई बार सुनी हुई कहानी को यहाँ फिर से क्यों लिखा गया है। दरअसल आजकल हमारे एक काबिल राजनेता उसी नौकर की तरह बर्ताव कर रहे हैं। कई सालों से वे जिस किसी के खिलाफ अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं। किसी के भी खिलाफ कोई भी आरोप मढ़ देते हैं और फिर मुकदमा भी दायर कर देते हैं। उनमें से कई लोगों की हालत तो उस व्यापारी की तरह हो जाती है। वह बेचारा अपनी वर्षों की कमाई इज्जत को क्षण भर में मिट्टी में मिलते देखकर हताश हो जाता है। रघुराम राजन इस सबका एक ताजातरीन उदाहरण हैं। अब यह नौकर अपने फाड़े का रफू करने की कोशिश कर रहा है। आजकल यह लगभग हर किसी पर कोई न कोई आरोप लगा रहा है। एक पुराना लतीफा है जिसमें यह कहा गया है कि रफू तो मामूली से छोटे छेदों के लिए होता है। कपड़ा यदि तार-तार हो जाए तो उसका रफू तो बड़े से बड़ा रफूगर भी नहीं कर सकता।


आजकल 24X7 टीवी चैनलों का जमाना है। गिद्ध जैसी दृष्टि वाले इन टीवी रिपोर्टरों को ऐसे लोग बहुत पसंद आते हैं जो अपने अनर्गल प्रलापों के कारण सुर्खियाँ बनाते हैं। फिर बहुतेरे पैनल बहसों के माध्यम से पब्लिक के बीच किसी के भी कपड़े को तार-तार कर दिया जाता है। उस आक्रमण की चपेट में आने वाले व्यक्ति के लिए अपनी आबरू बचाने के लिए किसी दीवार का ओट भी नहीं मिलता है। जब तक एक मुद्दा ठंडा भी नहीं होता, इस तरह के व्यक्ति नए-नए मुद्दे बाजार में छोड देते हैं; और हमारी चटपटी खबरों की पिपासा को शाँत करते हैं। अब देखने वाली बात ये है कि राजा किस तरह से ऐसे नौकरों के मुँह सदा के लिए बंद कर देता है। लेकिन अब शायद ही कोई ऐसा व्यापारी हो जो किसी नौकर को इसलिए इतनी मान प्रतिष्ठा दे ताकि उसकी अपनी इज्जत बची रहे। न ही आजकल ऐसे राजा होते हैं जो अपने किसी दरबारी की खोई हुई इज्जत लौटाने के लिए बातों को दबाने में माहिर हों। आजकल के राजसी लोग तो चाहते ही हैं कि सिवाय उनके बाजार में अन्य हर किसी की इज्जत उछाली जाए ताकि वे चिर काल तक सत्ता का सुख भोग सकें। 

Tuesday, June 21, 2016

मुद्रा आयोग

जबसे नई सरकार आई है तबसे लगता है कि देश में वाकई कोई सरकार है। पिछली सरकार के दौर में तो पता ही नहीं चलता था कि देश में सरकार नाम की कोई चीज भी है। सरकार में कोई प्रधानमंत्री भी है इसकी आहट तो काफी निकट जाने पर भी नहीं आती थी। नई सरकार के बड़े से बड़े और छोटे से छोटे मंत्री हमेशा कुछ न कुछ ऐसा कार्यकलाप करते हैं जिससे आम आदमी को पता चलता रहता है कि हाँ देश में सरकार है। इस सरकार ने इस खुशनुमा अहसास को और बेहतर बनाने के लिए एक और अहम पहल किया है। आगे बढ़ने से पहले यह बताना जरूरी है कि 2004 का चुनाव हारने के बाद सुषमा स्वराज ने कहा था कि Shining India का मतलब खुशनुमा अहसास होता है। इस बार की भाजपा सरकार उस खुशनुमा अहसास को और अधिक बड़ा करने के लिए हर उस विभाग, संस्था, सड़क या शहर का नाम बदल रही है जिससे हमारे कई तरह के अहसास जुड़े हुए हैं। चूँकि सारे नए नाम हमारी पुरातन सभ्यता से लिए जा रहे हैं इसलिए अब दुखी करने वाले अहसासों के लिए कोई जगह नहीं रहेगी और केवल खुशनुमा अहसास ही रह जाएँगे।

सबसे पहले तो इस सरकार ने राजधानी दिल्ली का ही नाम बदलने की पेशकश की। लेकिन बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाई (बीच में किसी ने मफलराबाद का नाम भी उछाला था) और इसलिए औरंगजेब रोड का नाम बदलकर ही संतोष करना पड़ा। उसके बाद निर्मल भारत अभियान का नाम बदलकर स्वच्छ भारत कर दिया। निर्मल शब्द से मलकी बू आती थी इसलिए नाम बदलना ही पड़ा। ये अलग बात है कि अभी भी मेरी बिल्डिंग के आस पास सुबह से ही उँकड़ू बैठे लोग नजर आने लगते हैं। ऊपर बीसवें फ्लोर तक इतनी बदबू फैल जाती है कि नीचे जाकर मॉर्निंग वाक करने के सिवा और कोई चारा नहीं रह जाता है। फिर गुड़गाँव का नाम बदलकर गुरुग्राम रखा गया ताकि भाषा की शुद्धता से लोगों में आत्मसम्मान बढ़े। भला इतना विकसित मिलेनियम सिटी अपभ्रंश भाषा वाले नाम को कब तक ढ़ोता। ये और बात है कि गुड़गाँव नाम न तो किसी अंग्रेज ने रखा था और ना ही कांग्रेस की किसी सरकार ने। प्रधानमंत्री जी ने विकलांगों को भी खुशनुमा अहसास देने की कोशिश की है। उन्होंने विकलांगों का नाम बदलकर दिव्यांग कर दिया। अब इस नए नाम से उनमें आत्मसम्मान की जबरदस्त वृद्धि होगी। अब ये बात अलग है कि हमारे फुटपाथ पर हट्टे कट्टे आदमी भी ठीक से नहीं चल पाते हैं बेचारे दिव्यांग तो ऐसा करने की सोच भी नहीं सकते हैं। प्रधानमंत्री जी ने योजना आयोग का नाम नीति आयोग रख दिया; क्योंकि योजना आयोग से नेहरू के जमाने के समाजवाद की बू आती थी। इसके बाद से कोई योजना नहीं बनेगी क्योंकि लंबी-लंबी योजनाएँ बनाना आलसी व्यक्तियों का काम है; किसी 24X7 काम करने वाले का नहीं। भारत जितनी तेजी से विकसित हो रहा है उसमें पंचवर्षीय योजनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है।


अब इसी सिलसिले में एक और पहल होने वाली है। इसकी अभी तक कोई खबर नहीं आई है बल्कि ये मेरा अनुमान है। ऐसा हो सकता है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का नाम बदलकर मुद्रा आयोग रख दिया जाए। इस महत्वपूर्ण संस्थान के नए नाम के लिए कई अन्य विकल्प भी हो सकते हैं; जैसे कि धेला आयोग, कौड़ी आयोग, चवन्नी आयोग या फिर रुपया आयोग। लेकिन मुद्रा आयोग से संस्कृत भाषा की भी झलक मिलती है इसलिए यह नाम ज्यादा सटीक रहेगा। अभी हाल ही में विदेश से एक व्यक्ति को रिजर्व बैंक की कमान सँभालने के लिए आयातित किया गया था। कांग्रेस की सरकार तो ऐसे हास्यास्पद फैसले के लिए बदनाम है ही। सरकार के एक बड़े ही काबिल सदस्य को पक्का यकीन था कि वह व्यक्ति केवल नाम से ही हिंदुस्तानी था। उसकी रग-रग में विदेश का रंग चढ़ा हुआ था। अब ऐसे व्यक्ति को भारत की ऐसी महत्वपूर्ण संस्था की कमान सँभालने से भारत की एकता और अखंडता को भारी खतरा था। उस व्यक्ति के ही कारण कई महत्वपूर्ण हिंदु यहाँ से पलायन कर गए थे; जैसे कि विजय माल्या। इसलिए उस व्यक्ति को उसकी सही औकात बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। अब दोबारा यह गलती न हो इसलिए रिजर्व बैंक का ना सिर्फ नाम बदला जाएगा बल्कि उसके मूल ढ़ाँचे में भी कई बदलाव होंगे। मुद्रा आयोग की कमान सँभालने के लिए इस सरकार में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। खुद सुब्रमण्यम स्वामी एक जाने माने अर्थशास्त्री हैं। लेकिन उनकी प्रतिभा को अन्य रचनात्मक कार्यों में इस्तेमाल करने के लिए उन्हें यह जिम्मेदारी नहीं दी जाएगी। चेतन चौहान, गजेंद्र चौहान और पहलाज निहलानी तो पहले से ही महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ सँभाल रहे हैं। हो सकता है नई जिम्मेदारी अनुपम खेर को मिले, या फिर स्वामी आदित्यनाथ, या साध्वी प्राची को, ………यह एक लंबी लिस्ट हो सकती है। जैसा कि राहुल गाँधी ने कहा है और जैसा कि प्रधानमंत्री जी के FDI वाले फैसले से पता चलता है; हो सकता है स्वयं प्रधानमंत्री ही इस आयोग का स्वतंत्र प्रभार अपने पास रख लें। फिर देखिएगा कि कैसे भारत दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाएगा। स्वयं प्रधानमंत्री ने कहा है, “भारत दुनिया का वैसा सबसे खुला देश है जहाँ के द्वार विदेशी पूँजी के लिए हमेशा खुले रहेंगे।“ 

Saturday, June 18, 2016

Suave Rajan or Champu Swamy?

He is in his mid forties but does not appear to be older than a guy in his mid thirties. He is not so tall, not so dark but oh so handsome. Most of his male neighbors secretly dislike him for obvious reasons. They fear for the endangered chastity of their better halves. The females secretly ogle at him; peeping from behind the curtains but publicly they also show disapproval. Especially those ladies, who have teenage daughters, do not like to go anywhere closer to him. Very few people know about his occupation but their guess is as good as anyone’s. He must be working at some high management level in some giant MNC. He always appears to be dressed to kill; with pinstripes in place. You can never catch him in his boxer shorts. Ladies also gossip about his imaginary affairs which he may or may not be having at his workplace. Some ladies have even decided to go with a complaint to the RWA to begin the proceedings of his permanent removal from the building’s society.

Sometimes, I am forced to think whether India is becoming a country which despises its smart and suave people. We are more prone to love the champu types; the proverbial bespectacled toad-face looks. During my college days, I read an article in some magazine which said that aunties prefer a champu-type tutor for their daughters over a guy who may be too good looking for her comfort. The recent hue and cry over unpatriotic behavior of Raghuram Rajan is a crude reminder of this Indian mindset. Subramaniam Swamy is past his days of fearing any competition from good looking men. Yet he left no stone unturned to affect the removal of Mr. Rajan from RBI; and from India; forever. Even those leaders who publicly claimed otherwise wanted to see the back of Mr. Rajan as soon as possible. On the one hand, you have a Greek God like Raghuram Rajan; and on the other, you have the champu-type Subramian Swamy with copious use of Ghritkumari-oiled hair. Take your pick; whether you like the former variety or the latter variety.

This is not a new trend in India. Over the years, we have learnt to despise Jawaharlal Nehru, Indira Gandhi and Rajiv Gandhi. It is a coincidence that all of them were really good looking and had very refined dress sense. It is also a coincidence that all of them held the top post of the country. While the senior-most among the trio died a natural death; we succeeded in eliminating the remaining two. Rahul Gandhi is so frightened for his own survival that he has already starting sporting unkempt beard and crumpled kurta to look like the real leader of a country which is full of poor people.
Our preferences change when it comes to view a foreign dignitary; especially if the person comes from the US of America. If the US President wows us with his debonair look and swagger; all of us lap it up happily. But when a Rajiv Gandhi appears dressed in jeans and tight-fitting T-shirt, all the media begins firing its guns on him. We love the crumpled dhoti look of the great humble farmer, aka Deve Gowda. We love all those who appear in all white; shoes included; as if all of them have come straight out of a mortuary. The huge margin of victory during elections is a crude reminder of our love for the old-fashioned geriatric or geriatric-looking politicians. Tell me, how many of you dress in kurta pyjama almost on a daily basis. Yet these netas appear to be far from reality and still are successful in taking all of us for a ride.


I would love to see a day when politicians learn to dress the way we normal people do. Even in rural India, you will find majority of people using jeans/trouser as regular dress. A newbie on the block; Kejriwal; offered some hope initially by wearing trousers and shirts but his oversize shirts (which were not duly tucked in) resembled that of a typical clerk in numerous government offices in India. It never appears that he was from the hallowed species of the IAS/IPS/IRS cadre. 

Tuesday, June 14, 2016

Karishma Kapoor’s Divorce

The newspaper headline is screaming, “Karishma Kapoor finally gets divorce”. The article also claims that she gets the custody of her children as bonus. Most of the people would go gaga at this development. Twitterati would celebrate this as a great achievement for the liberation of woman. A disturbing trend has been developing in recent years. Many gossip columns and TV channels began celebrating at the slightest whiff of divorce rumours about any celebrity couple. It was not long ago that there were celebrations on rumours of a break up between Malaika Arora and Arbaaz Khan; as if the vulture-eyed media derives some sort of sadistic pleasure at imminent or sudden break ups. If you will search in your memory bank; you can get an endless list of such news items. For example; break up of Amir Khan and Rina Khan, possible break up of Shahrukh Khan and Gauri Khan, break up of Farhan Akhtar and his wife, ……………you can go on and on.

Many gossip columns, reality shows and TV programmes (which come as fill ins in the absence of real news); always try to project such happenings as something worthy of celebration. Marriage is considered to be the oldest institution which survives so many tumultuous years because of mutual trust and respect for each other’s space. Sometimes, both the partners also learn to concede defeat in order to put their personal egos aside so that a larger cause of raising the family and strengthening the society can be pursued. In fact, the country which idolizes a Prime Minister who has to accept the existence of his estranged wife should only be expected to react on these lines.


I do not know how does the celebrity wife; or husband; feel after separation. Probably, they are too busy in their professional life that they may easily cope with the situation. Or probably, absence of financial insecurity may be helping them to tide over the mental agony. Have you ever thought about the poor mortals who may have suffered such setbacks in life? If you will carefully browse through the numerous matrimonial ads, you will discover that this trend is fast catching up even in the middle classes. There can be numerous ads seeking bride or groom for divorced and issueless men and women. There can be many cases in which the woman is duly returned to her parents’ house after the formal nuptials are over. Reasons can be of many hues; like lack of adipose tissues at adequate places, or lack of desirable goods in the dowry list, or even lack of potency on the man’s part. In almost all of the cases, it is the woman who has to face the ire from every member of her family and the society. The ‘Simran’; in this case; is no longer expected to live a life on her own terms. As it is a man’s world, the estranged man may easily get a second chance to reboot his life. But in most of the cases, the woman has to fight a long and weary battle for survival. 

Monday, June 13, 2016

नीलगाय का आतंक

संजय सड़क के नीचे गिरा पड़ा था। वह दर्द से कराह रहा था। पास में ही उसकी मोटरसाइकिल गिरी हुई थी। संजय की उम्र 25 से 28 के बीच रही होगी। उसके कपड़ों को देखकर लग रहा था कि वह किसी शहर का रहने वाला था। उसने काली फुलपैंट और सफेद शर्ट पहन रखी थी। शर्ट करीने से पैंट के अंदर की हुई थी। ऊपर से चमड़े का बेल्ट; जिसपर चमचमाती बकल लगी थी: अपनी जगह दुरुस्त थी। हेल्मेट अभी भी सिर के ऊपर ही था। शायद हेल्मेट के कारण ही उसे कोई गंभीर चोट नहीं आई थी और वह अपने पूरे होशो हवास में था। उसकी मोटरसाइकिल से थोड़ी दूर पर एक चमड़े का बड़ा सा बैग गिरा हुआ था। पास से दौड़कर आए गाँववालों में से एक ने जब उसके बैग को देखा तो सहसा चिल्ला पड़ा, “अरे ये तो कोई एमआर लगता है। इस तरह की मोटी चमड़ी वाले बैग तो एमआर लोग ही लेकर चलते हैं। देखो तो बेचारे को कितनी चोट लगी है।“

आपकी जानकारी के लिए यह बताना जरूरी होगा कि मेडिकल सेल्स रिप्रेजेंटेटिव को हिंदी बेल्ट के लोग प्यार से एमआर कहकर बुलाते हैं। ऐसा शायद उच्चारण की सहूलियत के लिए किया जाता है या भाषा की अपभ्रंशता के कारण।

एक दूसरे गाँव वाले ने पूछा, “और भैया! लगता है नई बाइक पर बिल्कुल आँधी तूफान की तरह चल रहे थे। तभी तो इस तरह रपटा गए।“

संजय ने कराहते हुए जवाब दिया, “अरे नहीं भैया, मैं ज्यादा स्पीड से नहीं चल रहा था। यही कोई पचास की स्पीड होगी।“

इसपर उस ग्रामीण ने पूछा, “तो फिर कैसे गिर गए? किसी भूत ने पटक दिया?”
संजय ने कहा, “अरे नहीं, मैं तो आराम से ही जा रहा था। तभी अचानक से एक नीलगाय बीच सड़क पर आ गई। मैं जब तक ब्रेक लगाता, उससे टकरा गया और गिर पड़ा।“

ऐसा सुनकर एक अन्य व्यक्ति ने कहा, “अरे मत पूछो। इन नीलगायों ने तो जीना हराम कर रखा है। पिछले साल तो मेरे चाचा को एक नीलगाय ने इतनी जबरदस्त लथाड़ मारी थी कि बेचारे फौरन स्वर्ग सिधार गए।“

एक अधेड़ से दिखने वाले आदमी ने कहा, “भैया, हम तो इनसे तंग आ चुके हैं। हर साल नीलगायों से हमारी फसलों को भारी नुकसान पहुँचता है। इसपर तो सरकार कोई मुआवजा भी नहीं देती। अभी हाल ही में अखबार में पढ़ा था कि किसी मंत्री ने नीलगायों को मारने की अनुमति देने की बात की थी। लेकिन एक अन्य मंत्री ने उसपर अपना वीटो लगा दिया। बोलने लगीं कि जानवरों को मारने से पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है। अरे जब गरीब किसान ही नहीं बचेगा तो फिर पर्यावरण बचाकर क्या मिलेगा?

तभी वहाँ पर उस गाँव के प्रधान भी आ गए। वे पास से ही गुजर रहे थे कि छोटी मोटी भीड़ को इकट्ठा देखकर अपनी जिज्ञासा शाँत करने आ पहुँचे। प्रधान का गेटअप बिलकुल माहिर नेता की तरह लग रहा था। सफेद कुर्ता पायजामा; जिसपर लगता था कि हर दो घंटे पर स्टार्च चढ़ाया जाता हो। पाँव में सफेद जूते और कँधे पर नीली चेक वाला सफेद गमझा। उनकी तलवार छाप रोबीली मूँछों को देखकर उस इलाके में उनके दबदबे का थोड़ा बहुत अंदाजा तो हो ही जाता था। प्रधान जी ने अपनी कड़कती आवाज में आदेश जैसा दिया, “सब अपना ही रोना रोओगे या इस लड़के को लेकर अस्पताल भी जाओगे।“

प्रधान जी की बात सुनते ही, दो लड़कों ने लपककर एक खटिया ले आई। फिर संजय को उस खटिया पर लादा गया और लोग अस्पताल की ओर चल दिए। एक युवक संजय की मोटरसाइकिल को खींचते हुए साथ में चल रहा था। एक अन्य व्यक्ति संजय का बैग टाँगे चल रहा था।
जैसे ही वे अस्पताल पहुँचे तो वहाँ के डॉक्टर ने संजय को देखते ही कहा, “अरे संजय जी आप! लगता है आप भी नीलगाय की चपेट में आ गए। भगवान का शुक्रिया अदा करो कि कोई गंभीर चोट नहीं आई। पिछले साल तो एक नीलगाय की वजह से मेरी टाँग टूट गई थी। पता नहीं इनका क्या इलाज है।“

डॉक्टर संजय की मरहम पट्टी करने लगा। इस बीच अन्य लोग आपस में खुसर पुसर कर रहे थे। फसल की कटाई के बाद वैसे भी उनके पास कोई खास काम तो था नहीं। वहीं पास में एक महिला भी बैठी थी। उसके मैले कुचैले कपड़ों को देखकर लग रहा था कि वह ऐसे परिवार से आती थी जिनके पास अपनी जमीन नहीं होती है। ऐसे लोग बड़े किसानों के खेतों में काम करके अपना गुजारा करते हैं। इनमें से कुछ लोग थोड़े बहुत मवेशी भी पाल लेते हैं ताकि कुछ आमदनी हो जाए। उस महिला ने मामले को समझने के बाद कहा, “अरे साहब, ये जंगली जानवर तो हम गरीबों को कुछ ज्यादा ही परेशान करते हैं। अभी इसी फागुन की बात है। एक तेंदुए ने मेरी बकरी चुरा ली। उस बकरी के जाने के बाद तो मेरी कमर ही टूट गई। दूध बेचकर जो भी थोड़ी बहुत कमाई होती थी, चली गई। अब तो किसी भी तरह दो जून की रोटी जुड़ जाए काफी है।“

उसकी बात सुनकर प्रधान ने कहा, “तुम ब्लॉक ऑफिस क्यों नहीं जाती? तुम्हें तो मुआवजे की माँग करनी चाहिए। आजकल दलितों की बात तो हर अफसर और मंत्री सुनता है।“
उस महिला ने जवाब दिया, “गई थी। लेकिन वहाँ के बाबू ने कहा कि तेंदुओं को सरकार की तरफ से संरक्षण मिला हुआ है। इसलिए कोई मुआवजा नहीं मिलेगा।“


एक अधेड़ से दिखने वाले व्यक्ति ने कहा, “हाँ भैया, जमाना बदल गया है। इंसानों को कोई संरक्षण नहीं लेकिन जानवरों को पूरा संरक्षण। अरे पिछले साल जब मैंने एक पागल कुत्ते को जान से मार दिया था पता नहीं कैसे किसी ने उसका वीडियो बनाकर इंटरनेट पर डाल दिया। फिर क्या था, दिल्ली से कुछ ऐसे लोग आ धमके जो अपने आप को आवारा कुत्तों के हितैषी बताते थे। लगभग एक महीने तक उन्होंने और टीवी चैनल वालों ने तो मेरा जीना हराम कर दिया था। अपनी जान बचाने के लिए मैं तो केदारनाथ भाग गया था।“ 

Thursday, June 9, 2016

आइआइटी में एडमिशन

सुबह सुबह दरवाजे की घंटी बजी। जब दरवाजा खोला तो सामने सिन्हा जी खड़े थे। उनके चेहरे पर इतनी खिली हुई मुसकान थी कि तंबाकू से काले पड़े हुए उनके दाँत बस कभी भी बाहर गिरने को बेताब लग रहे थे। मैंने उन्हें नमस्ते कहकर बैठने के लिए कहा तो उन्होंने कहा, “नहीं! नहीं! बड़ी जल्दी में हूँ। बस आपको निमंत्रण देने आया था। आज शाम में मेरे यहाँ सत्यनारायण भगवान की पूजा है और फिर उसके बाद प्रीतिभोज भी है। और जगह भी जाना है, निमंत्रण देने।“
“अरे वाह! लगता है कोई खास खुशखबरी है। तभी आप इतने बड़े अनुष्ठान का आयोजन करवा रहे हैं।“ मैंने पूछा।
सिन्हा जी ने खीसें निपोरते हुए कहा, “हाँ! हाँ! वो बात ऐसी है कि मेरे दोनों लड़कों का सेलेक्शन आइआइटी के लिए हो गया है। बहुत दिनों से मन्नत माँग रखी थी। इसलिए पूजा करवा रहा हूँ। पूरे परिवार के साथ आइएगा।“
सिन्हा जी तो अपना निमंत्रण देकर निकल लिए। लेकिन उनके जाने के बाद मैं सोच में पड़ गया कि आइआइटी के एंट्रेंस एग्जाम का रिजल्ट तो जून के महीने में आता है और अभी फरवरी के महीने में ही उनके लड़कों ने उस कंपिटीशन को कैसे निकाल लिया। बहरहाल, जब मैंने अपनी पत्नी से इस बात की चर्चा की तो वह उल्टा मुझपर ही भड़क पड़ी।
मेरी पत्नी ने कहा, “आपको तो बिना वजह किसी पर शक करने की आदत है। अपनी रिचा पर तो ध्यान ही नहीं देते। कहते हैं कि इंजीनियर नहीं बनेगी तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। अरे आज के जमाने में कोई इंजीनियर नहीं बनेगा तो फिर उसका जीवन तो व्यर्थ ही हो जाएगा। मुझे तो आजकल मुहल्ले के पार्क में भी जाने में हीन भावना सी लगती है। सबके बच्चे इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहे हैं। केवल मेरी ही बेटी इस सुख से मरहूम है।“
शाम होते ही मैं अपनी पत्नी और बेटी के साथ सिन्हा जी के घर पहुँच गया। बाहर का माहौल देखकर लग रहा था कि सिन्हा जी ने भव्य आयोजन किया था। बड़ा सा शामियाना लगा हुआ था। करीने से कुर्सियाँ लगी थीं जिनपर सफेद कपड़े मढ़े हुए थे। बीच में पूजा का हवन कुंड सजा हुआ था; जहाँ पर सिन्हा जी; अपनी पत्नी के साथ गठबंधन किए हुए पूजा के आसन पर विराजमान थे। पंडित जी पूरी तन्मयता के साथ मंत्र पढ़ा रहे थे। उसी बीच में सिन्हा जी सभी आने जाने वालों की तरफ नजरें उठाकर उनका अभिवादन भी स्वीकार कर रहे थे। सिन्हा जी के दोनों लड़कों ने नई शेरवानी पहन रखी थी; जैसे कि किसी की शादी में आए हों। शामियाने के पीछे से एक से एक व्यंजनों के पकने की खुशबू भी आ रही थी। मैंने सही जगह देखकर एक कुर्सी हथिया ली। मेरी पत्नी और बेटी महिलाओं के ग्रुप में चली गईं। मेरी बगल में वर्मा जी बैठे थे। पास में मेहता साहब, गुप्ता जी, मिश्रा जी, ठाकुर जी, आदि लोग बैठे थे। सब आपस में खुसर पुसर कर रहे थे। मैं भी उनकी बातों में शामिल हो गया।
मिश्रा जी ने बगल में पान की पीक फेंकते हुए कहा, “मेरी समझ में ये नहीं आ रहा है कि फरवरी के महीने में आइआइटी के एंट्रेंस एग्जाम के रिजल्ट कब से आने लगे। अरे मेरा बेटा तो पहले से ही पटना के एनआइआइटी में पढ़ रहा है। उसे भी यही टेस्ट निकालना पड़ा था।“
गुप्ता जी बीच में बोल पड़े, “अरे भाई साहब, सिन्हा जी का कोई भरोसा नहीं है। इनकी पहुँच बहुत ऊपर तक है। इनके जैसा शातिर आदमी कुछ भी कर सकता है। देखते नहीं, कैसे पिछले दस सालों से ऑफिस में एक ही टेबल को पकड़े हुए हैं; जहाँ से गाढ़ी कमाई होती है।“
ठाकुर जी अपनी बाइक की चाबी से अपने कान खुजा रहे थे। उन्होंने कहा, “अरे नहीं, मेरा बेटा तो आइआइटी खड़गपुर में ही पढ़ता है। उसके एंट्रेंस एग्जाम में कोई बेइमानी नहीं होती है। फिर चाहे सिन्हा जी हों या फिर उनके आका। मुझे तो लगता है कि इन्होंने इंस्टिच्यूट के नाम में एकाध आइगायब कर दिए होंगे। अब भला अन्य लोगों को कैसे बताएँ कि उनका बेटा आइआइटी में जाने से रह गया। यहाँ क्या है, लोग आएँगे, खाना खाएँगे और फिर सब अपनी जिंदगी में मशगूल हो जाएँगे। फिर किसे फुरसत है ये जानने की कि सिन्हा जी का बेटा कहाँ से इंजीनियरिंग कर रहा है।“
तभी पंडित जी की आवाज गूँजी, “अब सत्यनारायण भगवान की पूजा समाप्त हुई। बोलिए श्री सत्यनारायण भगवान की जय!”
सब लोग एक सुर में बोल उठे, “जय!”
उसके बाद आरती हुई। सभी लोगों ने खड़े होकर आरती को उचित सम्मान दिया। फिर प्रसाद वितरण के बाद लोग बुफे के लिए लगी हुई मेजों की तरफ टूट पड़े। जब खाने की प्लेटों को भरने का युद्ध कुछ शाँत हुआ तो अधिकाँश लोग फिर उसी गंभीर चर्चा में जुट गए कि आखिर सिन्हा जी ने बेमौसम पूजा और भोज का आयोजन क्यों किया। सब लोग बाल की खाल निकाल रहे थे। तभी वहाँ से ऑफिस का चपरासी जीतन जाता दिखा। कहते हैं कि किसी ऑफिस के चपरासी के पास जितनी गुप्त जानकारी होती है उतनी तो शायद कैबिनेट सेक्रेटरी के पास भी नहीं होती। हमारे आस पास खाना खा रहे लगभग सभी लोगों ने एक साथ जीतन को आवाज लगाई। जीतन फौरन वहाँ आ गया। फिर जीतन ने जो खुलासा किया उसे आप खुद ही सुन लीजिए।
जीतन ने बड़ा रहस्योद्घाटन किया, “नहीं साहब! आइआइटी में नहीं हुआ है। उसका टेस्ट तो जून में होता है। इनके लड़कों ने कोटा के किसी कोचिंग इंस्टिच्यूट में नाम लिखवाने के लिए कोई टेस्ट दिया था, उसी में पास हो गए हैं। कल ही तो ट्रेन से ये कोटा जा रहे हैं। साथ में मैं भी जा रहा हूँ। मेरा बच्चा भी वहाँ पढ़ता है। क्या है साहब, कि कोटा में जाना तो आइआइटी में जाने के बराबर है। सब लोग कहाँ भेज पाते हैं अपने बच्चे को। बड़ा खर्चा लगता है। मैंने तो अपनी पूरी जमीन बेच दी अपने बच्चे को कोटा भेजने में। खैर, मेरा क्या है। मेरे बच्चे को तो रिजर्वेशन मिलेगा; इसलिए आइआइटी की पढ़ाई में कोई फीस नहीं देनी पड़ेगी। इसलिए कोटा में ही सारे पैसे लगा दिए। मेरे बेटे को तो आइआइटी में जाने से अब कोई नहीं रोक सकता। लेकिन सिन्हा जी के बेटों को तो रिजर्वेशन मिलने से रहा। अब देखते हैं, आगे क्या होता है।“

भोज समाप्त होने के बाद सिन्हा जी से विदा लेकर हम अपने घर की ओर लौट चले। रास्ते भर मेरी पत्नी मुझे धिक्कारती रही। उसे लगता है कि मेरी वजह से पूरे मुहल्ले में उसकी नाक कट गई है। मैं अपनी बिटिया को वही बनाना चाहता हूँ जो वो चाहती है। मैं उसपर कोई भी दवाब नहीं डालना चाहता हूँ। 

Monday, June 6, 2016

क्या आप अखबार पढ़ते हैं?

आपके यहाँ अखबार तो आता ही होगा। हममें से अधिकतर लोगों के घरों में अखबार आता है। मैं जिस बिल्डिंग में रहता हूँ, वहाँ भी अधिकांश लोगों के घरों में अखबार आता है। कुछ मुहल्लों में अखबार वाले नीचे से ही अखबार को चौथी मंजिल तक पहुँचा देते हैं। उनका निशाना कमाल का होता है। इस काम में माहिर लड़के शायद ही कभी चूकते हैं। हाँ कभी कभी नए रंगरूटों को मैंने देखा है कि कई बार कोशिश करने के बाद ही वे अखबार को सही जगह तक पहुँचा पाते हैं। जब तक अखबार आपकी पकड़ में आता है तब तक वह कीचड़ से लथपथ हो चुका होता है। ऐसे में अखबार को पढ़ने का क्या, छूने तक का मन नहीं करता है। मेरी बिल्डिंग में इसकी कोई परेशानी नहीं है, क्योंकि इसमें बीस-बीस मंजिले टावर हैं। अखबार वाला अपना भारी बैग लेकर लिफ्ट से सबसे ऊपरी मंजिल तक पहुँच जाता है और फिर हर फ्लैट के दरवाजे के आगे निश्चित अखबार डालकर चला जाता है। मेरे जैसे कुछ लोग जैसे उसके इंतजार में ही रहते हैं और फौरन दरवाजा खोलकर अखबार उठाकर उसका उपभोग शुरु कर देते हैं; जैसे उसके बिना पेट ही नहीं भरता। मैं जिस मंजिल पर हूँ उसपर आठ फ्लैट हैं। मैंने गौर किया है कि एक फ्लैट में एक रिटायर्ड सज्जन रहते हैं जो मेरी तरह ही अखबार वाले का इंतजार करते रहते हैं। बाकी के लोगों को लगता है कि टीवी या मोबाइल पर हेडलाइन पता चल गई फिर अखबार पढ़ने की क्या ज्ल्दबाजी है। बाकी सभी दरवाजों के बाहर के अखबार देर तक यूँ ही पड़े रहते हैं।
कहते हैं कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। इसलिए मैं अपनी जिज्ञासा शांत करने की कोशिश करने लगा कि आखिर अन्य लोग अखबार को उतनी तवज्जो क्यों नहीं देते। अखबार वाला उनसे भी पूरा ही बिल वसूलता होगा। उन्हें कोई डिस्काउंट तो नहीं ही मिलता होगा। आजकल की टू बी एच के वाले फ्लैटों की जिंदगी में यह बात तो संभव नहीं कि आप सीधे-सीधे किसी से पूछ लें कि वह अखबार क्यों नहीं पढ़ता है। ऐसे परिवेश में तो अपने पड़ोसी का नाम और काम जानने में ही साल भर लग जाता है। या तो हर आदमी अपने जीवन में व्यस्त होता है या व्यस्त होने का ढ़ोंग करता है। इसलिए मैंने अपने पड़ोसियों की दिनचर्या पर जासूसी नजर रखना शुरु किया। बहुत दिनों तक अवलोकन करने पर मैंने अनुमान लगाया कि मेरे सामने के दो फ्लैटों और मेरी बगल की एक फ्लैट में रहने वाले लोग किसी बीपीओ में काम करते होंगे। वे दोपहर के बाद अपनी फॉर्मल ड्रेस पहनकर काम पर निकलते दिखते हैं और सुबह लगभग नौ बजे के आसपास वापस आते हुए दिखते हैं। अब मुझे पता चल गया था कि वे बिचारे रात भर की ड्यूटी से थके होने के कारण इस हालत में नहीं रहते होंगे कि कोई भी क्रिएटिव काम कर सकें।
अखबार का स्वाद लेने के साथ चाय की चुस्की लेते हुए मैंने अपनी पत्नी से पूछा, “ये बेचारे तो रात भर कॉल सेंटर में अमेरिका में बैठे लोगों के सवालों के जवाब दे देकर थक जाते होंगे, इसलिए इन्हें अखबार पढ़ने की कोई जल्दी नहीं होती। लेकिन मेरी समझ में ये बात नहीं आती कि इनकी पत्नियाँ तो पूरे रात सोती रहती हैं, फिर वे सुबह सुबह अखबार क्यों नहीं पढ़ती हैं। देखने से तो लगता है कि काफी पढ़ी लिखी हैं। नीचे पार्क में मैंने उन्हें बातें करते भी सुना है; हर बात में अंग्रेजी के एक दो शब्द का इस्तेमाल तो कर ही लेती हैं। लगता है शायद इनके पति इन्हें अखबार पढ़ने की अनुमति नहीं देते होंगे।“

मेरी पत्नी ने जवाब में कुछ नहीं कहा। वह मन ही मन अखबार को पढ़ रही थी और चाय की चुस्की ले रही थी। हाँ उसकी भृकुटियों की बदलती हुई भाव भंगिमा से मुझे अहसास हो गया कि मैंने कोई गलत सवाल पूछ लिया था। मामले की गंभीरता और किसी अनिष्ट की आशंका से मैं चुपके से उठा और अपनी गाड़ी साफ करने के बहाने नीचे पार्किंग में चला गया।