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Wednesday, September 20, 2017

अब जमाना बदल चुका है

मौसम बदलने लगा था। अब सूरज जल्दी से ढ़लने लगा था और ठंड भी पड़ने लगी थी। दिन भर बंठू धूप में खेलने का मजा लेता था लेकिन रात होते ही दुबक कर गुफा के किसी कोने में अपनी दादी से चिपका रहता था। इस बीच उसकी माँ मोरी खाना बनाती रहती थी। उसका पिता मतलू तब तक मशाल की रोशनी में गुफा की दीवार पर अपनी कला के नमूने उकेरता रहता था।

ऐसी ही एक रात को मतलू गुफा की दीवार पर मैमथ और बारहसिंघे की तसवीर में गेरू के रंग भर रहा था। तभी मोरी ने अलाव पर माँस के टुकड़े को पलटते हुए कहा, “बंठू अब इतना बड़ा हो गया है कि उसे भी आग जलाने का तरीका सिखाना पड़ेगा। यही सही समय है। तुम्हें क्या लगता है?”

मतलू ने गुफा की दीवार पर अपनी हथेलियों की छाप लेते लेते जवाब दिया, “सही कह रही हो। अभी से नहीं सिखाया तो देर हो जायेगी। ऐसे भी आग जलाना तो हर किसी को पता होना चाहिए। बिना आग के हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते।“

इस बीच बंठू के दादा भी उस महत्वपूर्ण बहस में कूद पड़े, “अरे आग जलाना कौन सी बड़ी बात है। कल ही मैं इसे आग जलाना सिखा दूँगा।“

मतलू ने अपने पिता को टोकते हुए कहा, “अरे नहीं बाबा। अब जमाना बदल गया है। अब सिखाने पढ़ाने का तरीका आपके जमाने का नहीं रहा। अब तो नये नये तरीकों का इस्तेमाल होने लगा है। पिछले वसंत में मैं जब दूर के कबीले से मिलने गया था तो मुझे उन नये तरीकों के बारे में पता चला जिससे बच्चे को अच्छे तरीके से सिखाया पढ़ाया जाता है। मैने तो बकायदा उस कबीले से उसकी ट्रेनिंग भी ली थी। आप मुझपर छोड़ दीजिए। वैसे भी आप बूढ़े हो चुके हैं।“

अगले दिन तड़के ही बंठू को नहला धुलाकर बाजरे की रोटी और बकरी के दूध का नाश्ता कराया गया। उसके बाद मतलू उसे लेकर गुफा के बाहर चला गया ताकि उसे आग जलाने की ट्रेनिंग दे सके। बंठू भी बहुत उत्साहित लग रहा था। उसे पता था कि एक बार वह आग जलाना सीख ले तो फिर बड़े से बड़े जानवर को मात दे सकता था।

उन्हें गुफा के बाहर जाता देख बंठू के दादा ने पूछा, “अरे बेटा मतलू, ये कौन सी ट्रेनिंग देने जा रहे हो। साथ में ना तो चकमक पत्थर है और ना ही बरमा और टेक। फिर आग जलाना कैसे सिखाओगे?”

मतलू ने बिना पीछे मुड़े जवाब दिया, “अरे बाबा, आप बस देखते जाओ।“

गुफा के बाहर पहुँचकर मतलू जमीन पर पालथी लगाकर बैठ गया। उसके सामने बंठू भी उसी मुद्रा में बैठ गया। मतलू ने सबसे पहले सरकंडे का लगभग आधे फुट का टुकड़ा लिया और उसके एक सिरे को चाकू से नुकीला कर दिया। उसके बाद मतलू ने जमीन पर उस सरकंडे की कलम से बरमा और टेक की आकृति बनाई। फिर मतलू शुरु हो गया, “देखो बेटा, सबसे पहले हम सीखेंगे कि आग क्या है और उससे क्या क्या फायदे हैं।“

बंठू उत्साहित होकर बोला, “बाबा, आग सुर्ख लाल फूल होता है जो पेड़ों पर नहीं लगता बल्कि इसे हम इंसान पैदा करते हैं। आग से बहुत फायदे ............”

मतलू ने उसे चुप होने का इशारा करते हुए कहा, “जब मैं पढ़ाने लगूं तो बीच में मत बोला करो। ध्यान से मेरी बात सुनों। तुम मुझसे ज्यादा नहीं जानते।

बंठू ने मुंह बना लिया। मतलू आगे बढ़ा, “हाँ, तो आग एक फूल होता है जो सुर्ख लाल रंग का होता है। लेकिन यह फूल पेड़ों पर नहीं लगता। इसे हम इंसान पैदा करते हैं। कभी कभी आसमान से भी आग पैदा होती है और धरती पर गिरती है। आग में बहुत शक्ति होती है। इस शक्ति को नियंत्रित करने की कला भगवान ने केवल इंसानों को दी है। आग से हम अपनी गुफा को सुरक्षित करते हैं। आग से हम भयानक जानवरों को दूर भगा देते हैं। आग पर हम खाना भी पकाते हैं। आग से ही हम जंगल साफ करते हैं ताकि खेती के लिए जमीन बना सकें।“

बंठू को उस लंबे प्रवचन से नींद आने लगी थी। ऐसा देखकर मतलू ने जोर से उसके कान खींच लिये ताकि नींद भाग जाये।

खैर, लगभग एक पहर बीतने के बाद आग के गुण और अवगुण वाला वह पाठ आखिरकार समाप्त हो गया। बंठू ने भी चैन की सांस ली। लेकिन अभी उसका दिन और भी लंबा होने वाला था। मतलू ने उसके बाद बरमा और टेक की संरचना का वर्णन करना शुरु किया, “देखो बेटा, ये बरमा है। यह मजबूत लेकिन लचीली लकड़ी का बना होता है और कुछ कुछ धनुष जैसा दिखता है। लेकिन आकार में यह धनुष से छोटा होता है। इसमें भी धनुष की तरह ही मजबूत डोर चढ़ी होती है लेकिन थोड़ी ढ़ीली होती है। यह लकड़ी का जो चौकोर टुकड़ा देख रहे हो, उसे टेक कहते हैं। इसके बीचोबीच एक छोटा सा गड्ढ़ा बना रहता है। बरमा की डोरी को बीच में लपेट कर उसमें से लकड़ी की एक पतली लेकिन मजबूत डंडी को फँसाते हैं। डंडी के निचले सिरे को टेक के गड्ढ़े में टिकाकर बरमा को दाएँ बाएँ करते हैं जिससे डंडी अपनी धुरी पर घूमने लगे। इन सब औजारों को बनाने के लिये अच्छी लकड़ी का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण होता है। बरमा को तेजी से अगल बगल चलाते हैं ताकि डंडी तेजी से घूमे। डंडी को जोर से पकड़ना होता है ताकि यह टेक के गड्ढ़े में बनी रहे। गड्ढ़े के आस पास सूखी घास फूस रखते हैं। जब डंडी तेजी से घूमती है तो उससे घर्षण पैदा होती है। घर्षण से गर्मी पैदा होती है। यह गर्मी जब अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है तो सूखी घास फूस में आग लग जाती है। उसके बात मुँह से फूँक फूँक कर उस आग को बढ़ाया जाता है। उसके बाद उस आग से लकड़ी में आग लगाई जाती है।“

उस पाठ के समाप्त होते होते दोपहर भी बीत गई। बंठू का भूख और नींद के मारे बुरा हाल था। मतलू ने कहा, “आज के लिए इतना काफी है। आज रात में इस पाठ को रटकर याद कर लेना। कल इस पर सवाल पूछूँगा। एक भी गलत जवाब दिया तो तुम्हारी खैर नहीं।“

जब बंठू अपने पिता के साथ खाना खाने गुफा के अंदर गया तो उसके दादा ने पूछा, “और बंठू, कितनी लकड़ियों में आग लगाई। कहीं अपनी लंगोट तो नहीं जला ली तुमने।“

मतलू ने बहुत रूखे स्वर में कहा, “अरे बाबा, आज तो केवल पहला दिन था। कम से कम एक सप्ताह तो इसकी थ्योरी की क्लास लूँगा। उसके बाद डमी पर प्रैक्टिकल होगा तब कहीं जाकर असली बरमा को हाथ लगाने का मौका मिलेगा इसे। आपको पता नहीं है, सुरक्षा कितनी जरूरी होती है।“

मतलू के पिता जोर से हँसे और बोले, “पता है, जब तुम बंठू की उमर के थे तभी मैंने एक ही दिन में तुम्हे आग जलाना सिखा दिया था। उम्मीद है तुम आज भी नहीं भूले होगे।“


मतलू ने कहा, “बाबा, आपका जमाना अलग था। अब जमाना बदल चुका है।“ 

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