सुबह के नौ बजने वाले थे और
शीला का कोई अता पता नहीं था। बच्चों को स्कूल भेजने और पति को ऑफिस भेजने के लिए
मैने खुद ही कुछ बरतन धोए और उनके लिए नाश्ता तैयार करके उनका लंच बॉक्स पैक किया
था। जब सब घर से चले गये तो मैं बेसब्री से शीला का इंतजार करने लगी। मैं सोच रही
थी, “इस शीला की बच्ची का कुछ करना पड़ेगा। आए दिन देर से आती है और मेरा सारा रूटीन
डिस्टर्ब हो जाता है। हर बार कोई न कोई बहाना बनाती है। आज छोड़ूंगी नहीं। कायदे से
उसकी क्लास लगा दूंगी। लेकिन ज्यादा कुछ बोल दिया तो इस्तीफा देने का भी खतरा है।
आजकल कामवाली के नखरे बहुत बढ़ गये हैं और शीला जैसी ईमानदार कामवाली तो बड़ी किस्मत
से मिलती है। फिर भी उसे थोड़ा रास्ते पर तो लाना ही पड़ेगा।“
मैं यह सब सोच ही रही थी कि
कॉलबेल की आवाज आई। जैसे ही मैने दरवाजा खोला तो सामने शीला अपना मुँह लटकाए खड़ी
थी। मैने छूटते ही पूछा, “कहाँ थी इतनी देर तक? तुम्हें मालूम है कि सुबह कितना काम रहता है। अब तक आधे बरतन तो मैने ही साफ
कर लिए। आज क्या बहाना है तुम्हारे पास?”
शीला ने कुछ नहीं कहा और सुबक सुबक कर रोने लगी। मैने पूछा, “अरे,
क्या हुआ? घर में सब ठीक तो हैं? तुम्हारे बच्चों की तबीयत तो सही है?”
शीला ने रोते रोते जवाब दिया, “नहीं दीदी, किसी की तबीयत को कुछ नहीं हुआ और ना ही मेरे मरद ने मेरी कुटाई की है। बस
अपनी बेटियों को स्कूल में दाखिला दिलवाने के लिए परेशान हूँ। आपसे एक मदद चाहिए।
आप मेरे साथ चलिए और पास के लिटल एंजल स्कूल में बात कर दीजिए। मैं गई थी, तो चौकीदार ने बाहर से ही भगा दिया।“
अब मेरा सारा गुस्सा स्कूल के चौकीदार पर फट पड़ा, “अरे,
ऐसे कैसे भगा दिया? स्कूल उसके बाप का है?
तुम अपने आदमी को लेकर जाओ।“
शीला ने कहा, “मेरा आदमी कहता है कि स्कूल जाने से क्या
होगा। लड़कियाँ हैं, पढ़ लिखकर क्या करना है।“
मैंने उसे बीच में टोकते हुए कहा, “पास
में एक सरकारी स्कूल भी तो है। वहाँ क्यों नहीं डाल देती अपनी बेटियों को? पैसे भी बचेंगे। आजकल तो सरकारी स्कूलों में लड़कियों की फीस भी माफ है।“
शीला ने कहा, “पिछले साल डाला तो था सरकारी स्कूल में।
वहाँ कुछ पढ़ाते ही नहीं हैं। बस सारा दिन बच्चों से झाड़ू लगवाते हैं या टट्टी साफ
करवाते हैं। उससे टाइम मिलता है तो बच्चों की पिटाई कर देते हैं।“
मैने थोड़े आश्चर्य के भाव से कहा, “अच्छा!
सरकारी स्कूल की हालत इतनी खराब है। मुझे नहीं पता था। चलो, कोई
बात नहीं। तुम फटाफट काम निबटा लो तब तक मैं नहा धोकर तैयार हो जाती हूँ।“
लगभग आधे-पौन घंटे के बाद मैं शीला के साथ पास के ही लिटल
एंजेल स्कूल में पहुँच गई। स्कूल का छोटा सा गेट था और गेट के पास एक दो आइसक्रीम
के ठेले लगे हुए थे जो कि किसी लोकल ब्रांड का इश्तहार कर रहे थे। उन ठेलों के पास
कुछ बच्चे भी मंडरा रहे थे। सभी ने मैले कुचैले ड्रेस पहन रखे थे लेकिन टाई और आई
कार्ड गले में बकायदा लटके हुए थे। कुछ बच्चों के पाँव में जूते थे तो कुच के पाँव
में हवाई चप्पलें। अंदर जाने पर बहुत शोर शराबा हो रहा था। एक क्लास रूम में
झाँकने पर पता चला कि एक टीचर किसी बच्चे पर अपना कहर बरसा रही थी। इस बीच बाकी
बच्चे जोर जोर से बातें कर रहे थे। स्कूल के किसी स्टाफ से पूछते हुए हम उसके ऑफिस
में पहुँचे। वहाँ पर एक बड़ी सी टेबल पर फाइलों और किताबों के ढ़ेर लगे हुए थे। उनके
पीछे एक अधेड़ उम्र का शख्श बैठा था। उसके सिर के बाल लगभग उड़ चुके थे, लेकिन
बालों की कमी को पूरा करने के लिए चेहरे पर चार दिन की खिचड़ी दाढ़ी बढ़ी हुई थी।
उसके मुँह से आती बदबू से पता चल रहा था कि वह कोई पान मसाला चबा रहा था। उसके आस
पास तीन चार पुरुष खड़े थे और एक महिला भी थी जिसने लंबा सा घूंघट निकाला हुआ था।
लेकिन घूंघट के अंदर से ही वह लड़ने के अंदाज में जोर जोर से बोल रही थी। उस आदमी
के पीछे एक बड़ा सा नोटिस बोर्ड लगा था। उस बोर्ड पर कई फोटो लगे हुए थे। ज्यादातर
फोटो में वही आदमी आस पास के गणमान्य लोगों के साथ पोज देते हुए दिखाई दे रहा था।
उन तसवीरों से मैने अनुमान लगाया कि या तो वह स्कूल का हेडमास्टर था या मालिक था।
मुझे देखते ही वह खड़ा हो गया और मुझसे बैठने का इशारा किया।
थोड़ी देर बाद उसने मुझसे पूछा, “मैडम,
आप हमारे स्कूल में कैसे? मेरा मतलब है,
आपके पहनावे से तो लगता है कि आपके बच्चे किसी महंगे स्कूल में पढ़ते
होंगे। मेरे स्कूल में तो पास की झोपड़पट्टी के बच्चे ही आते हैं।“
मैने उससे कहा, “बात ऐसी है कि मैं अपनी कामवाली की बेटी
के एडमिशन के लिए आई हूँ। ये शीला है और पास में ही रहती है। अगर आप इसकी बेटी को
अपने स्कूल में एडमिशन दे दें तो बड़ी मेहरबानी होगी।“
उस आदमी ने जवाब दिया, “हाँ, हाँ, क्यों नहीं। मैं आपको फीस के बारे में बता देता हूँ। एडमिशन चार्ज दस हजा रुपए
हैं और मंथली फीस नौ सौ रुपए। किताबों और ड्रेस के पाँच हजार लग जाएँगे और ट्रांसपोर्ट
के आठ सौ रुपए। ट्रांसपोर्ट मैंडेटरी है क्योंकि हम चाहते हैं कि हर बच्चा टाइम से
स्कूल पहुँचे। इसके अलावा स्कूल में जो हम पेंसिल और रबर देंगे उसके हर महीने के सौ
रुपए।“
मैंने कहा, “यह कुछ ज्यादा नहीं लग रहा? ये बेचारी इतने पैसे नहीं दे पाएगी।“
उस आदमी ने कहा, “मैडम, हमें भी तो अपने
स्टाफ को सैलरी देनी होती है। फिर मुझे भी तो परिवार चलाना होता है। अब आप कहती हैं
तो एडमिशन चार्ज छोड़ दूँगा। लेकिन अगले साल री-एडमिशन चार्ज देना होगा। हमारे जितना
सस्ता स्कूल आपको इस इलाके में कहीं नहीं मिलेगा। इसके मुहल्ले के लगभग सभी बच्चे हमारे
स्कूल में ही आते हैं।“
मैने कहा, “अगर आप किसी बच्चे से पुरानी किताबें दिलवा
देते तो अच्छा होता। इसके कुछ पैसे बच जाते।“
उसने कहा, “नहीं मैडम, ये संभव नहीं
है। हम हर साल सारी किताबें किसी नये प्रकाशन की लगाते हैं। इससे बच्चों को लेटेस्ट
नॉलेज मिलती है।“
मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उधर शीला का लटका हुआ मुँह
देखकर मुझे उसकी परेशानी का अंदाजा हो रहा था। मैंने कहा, “तुम चिंता
न करो। किताबों और ड्रेस के पैसे मैं दे दूँगी और तुम्हारी पगार में से नहीं काटूंगी।“
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