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Wednesday, August 3, 2016

Finding a Hotel Room

This story is about the importance of mother tongue in sticky situations. This incident happened during MinipressXL launch meeting in Kolkata. At that time, I was posted at Dhanbad with another colleague Vivek. As I was working for Pfizer lab so I used to meet many other Dumex PSOs from territories other than Dhanbad. The Hazaribagh PSO was from Orissa. I; being a Bihari; could speak Hindi and English. But because of my interaction with so many Bengali colleagues, I had some rudimentary knowledge of Bangla. Vivek is a Bengali so he can speak three languages, viz. Bengali, Hindi and English. But Sukhendu Dada knew four languages, i.e. Oriya, Bengali, Hindi and English; by virtue of coming from Orissa and working in Bihar (it was not divided at that time). Sukhendu Dada and I had developed good friendship because of our common interest in photography. He had deep knowledge of photography and he had agreed to teach me the nuances of photography.

Digital cameras were still in the realms of science fiction; especially for the Indians. Sukhendu Dada was advising me to buy an SLR camera to be a serious photographer. We had planned to stay at Kolkata for a couple of days after the launch meeting in order to buy the required camera from the grey market in the dock area. As per the plan, three of us (Vivek, Sukhendu Dada and Me) took leave so that we could stay back after the launch meeting. After checking out from the five star hotel at Park Street, we were trudging with our luggage to search a room in some cheaper hotels. You will find many cheap hotels in the narrow alleys of area surrounding the Park Street. But there is a problem in Kolkata. The hotel staffs usually create too much fuss while allowing a new guest in. They would ask you many questions to assess if you are a genuine person or not. In those days, there was no provision of showing ID proofs; the way it happens now-a-days.

Nevertheless, we were walking slowly with our heavy luggage in tow. I and Vivek were quite bulky and hence were panting for our breaths in the typical humid weather of Kolkata. Sukhendu Dada is slim and trim and hence he was sprinting like a hare. Moreover, while we were carrying too many bags, he was carrying a thin suitcase and his detailing bag. Looking at our plight he sarcastically said, “What do you think? Did you come here to attend a marriage ceremony? You are carrying so many dresses as if it was a fancy dress party. Look at me, I carry only as much as I can easily carry on my own.”

After that, he instructed Vivek to wait at one corner of the sidewalk with all the bags. He instructed me to follow him in order to search for a room in some hotel. We were hopping from one dingy hotel to another in the hope of finding a room which met our need and budget.

It must have been the sixth or the seventh hotel where we were trying to get a room. Sukhendu Dada was talking to the receptionist in Bangla and I was trying to decipher the meaning of their conversation. The hotel was built in old Haveli style; with an open courtyard surrounded by rows of rooms on all the four sides. Suddenly, I heard someone shouting at the top of his voice from the third floor. The receptionist sitting at the desk replied to that shout in monosyllable.

Sukhendu Dada rushed to the third floor by sprinting through the staircase. I was following him. There was a similar reception desk at the third floor. A middle aged man was sitting behind that desk. Sukhendu Dada reached there and just began to talk in Oriya. Within a few seconds, Sukhendu Dada gave me the good news of success in finding a hotel room.

When we came out of that hotel to get hold of Vivek, I asked Sukhendu Dada, “Dada, there was just a loud shriek from the third floor. Then how did you guess that he was an Oriya fellow?”


Sukhendu Dada calmly replied, “Ajay, no matter which language we speak or read in, our mind always thinks in our mother tongue. You can easily recognize your mother tongue even if you are pulled out from a deep slumber. The way he shouted was enough for me to know that he was an Oriya fellow.” 

Tuesday, August 2, 2016

देहात का डॉक्टर

फाइजर में मेरी पहली पोस्टिंग कटिहार में हुई थी। उसके पहले मैं कैडिला के लिए राँची में काम करता था। राँची एक कॉस्मोपॉलिटन सिटी है। वहाँ के डॉक्टर बिलकुल अंग्रेजी बाबू की तरह कपड़े पहनते थे। कुछ डॉक्टर तो बकायदा सूट और टाई में नजर आते थे। ज्यादातर डॉक्टर अंग्रेजी भी अच्छी बोल लेते थे। कटिहार एक ऐसा शहर है जो समय के प्रवाह से अनछुआ लगता है। वहाँ के डॉक्टर थोड़े देसी टाइप के हैं। कटिहार के आस पास के गाँवों के ज्यादातर डॉक्टर सेमी लिटरेट होते हैं, यानि आरएमपी। मेरे लिये ऐसे डॉक्टरों से मिलना एक नया अनुभव था।

कटिहार से लगभग तीस किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव है; काढ़ागोला। मैं वहाँ पहली बार काम करने गया। लिस्ट के मुताबिक मैं एक डॉक्टर की तलाश करते करते उसके क्लिनिक पर पहुँचा। वह क्लिनिक जैसा तो लग ही नहीं रहा था बल्कि किसी पुराने मकान की तरह था जिसपर फूस की छप्पड़ पड़ी हुई थी। बाहर बरामदे पर एक महिला चटाई पर बैठी हुई चावल बीन रही थी और पास में उसके चार बच्चे खेल रहे थे। बच्चों की उम्र चार से लेकर दस साल तक की रही होगी।

मुझे लगा कि मैं गलत जगह पहुँच गया था इसलिए मैने उस महिला से पूछा, “डॉक्टर साहब यहीं मिलेंगे या उनका क्लिनिक कहीं और है?”

उस महिला ने जल्दी से आँचल अपने सिर पर डाल लिया और थोड़ा सकुचाते हुए बोली, “डागदर साहब यहीं मिलेंगे। ऊ थोड़ा बजार गये हैं, सब्जी तरकारी लाने। आप बईठ जाइए, ऊ आते ही होंगे।“

उसके बाद उस महिला के इशारे पर उसके सबसे बड़े लड़के ने मेरे लिये एक कुर्सी निकाली और मैं वहीं बैठ गया। लगभग दस मिनट के इंतजार के बाद मैंने देखा कि चारों बच्चे एक सुर में चिल्लाने लगे, “पप्पा आ गये! पप्पा आ गये!”

मैंने देखा की दूर पगडंडी से एक राजदूत मोटरसाइकिल उस ओर चली आ रही थी। उस मोटरसाइकिल पर एक आदमी बैठा था जिसने धोती कुर्ता पहन रखा था और सिर पर गमछा बाँध रखा था। जब मोटरसाइकिल पास आई तो मैने देखा कि उसकी हैंडल पर बड़े भारी झोले लटके हुए थे। पीछे वाली कैरियर पर एक विशाल कद्दू बँधा हुआ था। जब उस आदमी ने मोटरसाइकिल को खड़ा किया तो बच्चे सामान उतारने में उसकी मदद करने लगे। मैने अनुमान लगाया कि यही वो डॉक्टर होगा जिससे मिलने मैं वहाँ पहुँचा था। सामान उतरवाने के बाद उस आदमी ने मुझे नमस्कार किया और थोड़ा इंतजार करने के लिए कहा।


उसके बाद उसकी बेटी एक पीतल के बड़े से लोटे में पानी लेकर आई। वह आदमी वहीं बरामदे के किनारे बैठ गया और अपना हाथ मुँह धोने लगा। उसने बड़े ही वीभत्स तरीके से कुल्ला किया और अपना गला साफ करने के लिए खखार भी किया। उसकी उस हरकत को देखकर मुझे घिन आ रही थी। 

मैं सोच रहा था, “बड़ी अजीब जगह है। जाने कैसे कैसे लोग डॉक्टर बनने की हिम्मत कर बैठते हैं। अब नौकरी करनी है तो मुझे इनके जैसे नमूनों से भी अदब से मिलना पड़ेगा।“ 

बुझौना की रेल यात्रा

बुझौना दिल्ली से कमाकर लौट रहा था। वह बिहार के दरभंगा जिले के किसी छोटे से गाँव का निवासी है। निहायत गरीब होने के साथ साथ वह मुसहर जाति का भी है इसलिए उसके लिए गाँव में रोजगार के अवसर न के बराबर हैं। खेतों में बुआई या कटाई के समय काम तो मिल जाता है लेकिन उसमें मजदूरी इतनी नहीं मिल पाती है कि साल भर तक परिवार का भरण पोषण हो सके। उसके गाँव के कई मुसहर हर साल दिल्ली चले जाते हैं जहाँ उन्हें किसी फैक्ट्री या किसी कंस्ट्रक्शन साइट पर काम मिल ही जाता है। छ: महीने के दिल्ली प्रवास में बुझौना की इतनी कमाई हो चुकी थी कि वह आसानी से वापस अपने गाँव जाकर कुछ दिन अपने परिवार के साथ हँसी खुशी बिता सकता था।

उसने अपनी बीबी और बच्चों के लिए शनि बाजार से रंग बिरंगे कपड़े खरीदे थे। दिल्ली के विभिन्न इलाकों में ऐसे साप्ताहिक बाजार आज भी लगते हैं जिनका नाम सप्ताह के दिनों के हिसाब से होता है। ऐसे बाजारों में इतने सस्ते सामान मिल जाते हैं कि कोई भी उन्हें खरीद सकता है। कपड़ों के अलावा बुझौना ने अपने बच्चे के लिए तिपहिया साइकिल भी खरीदी और दो प्लास्टिक की कुर्सियाँ भी खरीदी। उसे यकीन था कि लाल रंग की प्लास्टिक की कुर्सियों से उसके टोले में उसकी इज्जत जरूर बढ़ जाएगी।

जिस दिन उसे यात्रा करनी थी उस दिन वह ट्रेन के छूटने से चार पाँच घंटे पहले ही नई दिल्ली स्टेशन पहुँच गया। मेट्रो रेल की सुविधा होने के कारण उसे नई दिल्ली स्टेशन पहुँचने में ज्यादा पैसे खर्च नहीं करने पड़े। फिर नई दिल्ली स्टेशन पर उसने दरभंगा तक का जेनरल क्लास का टिकट खरीद लिया।

जब ट्रेन को प्लेटफॉर्म पर लगाया गया तो जेनरल बोगी में घुसने के लिए बड़ी भारी भीड़ लगी हुई थी। पुलिस वाले डंडा मार मार कर लोगों को लाइन में लगा रहे थे। बुझौना के लिए यह कोई नया नजारा नहीं था। उसने एक कुली को पकड़ा। कुली ने उससे एक सौ रुपए लिए और उसे बकायदा एक सीट दिलवा दी। वह कुली के साथ बड़े आराम से प्लेटफॉर्म के दूसरी तरफ वाले दरवाजे से ट्रेन के अंदर चला गया। सीट मिल जाने के बाद बुझौना ने अपना सामान ऊपर वाली रैक पर रख दिया। एक यात्री के हिसाब से सामान कुछ ज्यादा ही था। दो बड़े बड़े बैग जिसमें ढ़ेर सारे कपड़े ठुँसे हुए थे। एक तिपहिया साइकिल और दो कुर्सियाँ। लेकिन उस डिब्बे में जाने वाले ज्यादातर यात्रियों के साथ उसी तरह से ढ़ेर सारा सामान था। कई लोगों ने तो पूरी की पूरी सीट पर सामान डाल दिया था और खुद नीचे फर्श पर चादर बिछाकर बैठे हुए थे। यहाँ तक कि ट्रेन के बाथरूम में भी कुछ लोग पूरे परिवार के साथ डेरा जमाए हुए थे। जब तक ट्रेन के चलने का समय हुआ उस डिब्बे में इतने लोग समा चुके थे कि अब तिल रखने की जगह नहीं थी। इसका एक फायदा जरूर हो रहा था कि जाड़े का मौसम होने के बावजूद उस डिब्बे में बैठे लोगों को गर्मी महसूस हो रही थी।

ट्रेन के छूटने के एकाध घंटे बाद रात हो गई। लगभग नौ बजे के आसपास सब लोगों ने अपना अपना खाना निकाला और उसे खाने लगे। कुछ लोगों ने तो मिनरल वाटर की बोतल भी खरीदी थी। ये और बात है कि उसके खाली होने के बाद वे उसमे नलके का पानी ही भर ले रहे थे। चूँकि ट्रेन में हिलने भर की भी जगह नहीं थी इसलिए सबने खाना खाने के बाद जहाँ बैठे थे वहीं पर हाथ मुँह धो लिया। कुछ ने तो अपनी सीट के नीचे कुल्ला तक कर दिया। चारों तरफ बजबजाती गंदगी से बुरा हाल था।

अगले दिन सुबह सुबह ट्रेन गोरखपुर पहुँची। वहाँ से उस डिब्बे में कुछ रेलवे पुलिस के जवान चढ़े। उनमें से एक जवान बुझौना के पास आया और ऊपर रखे सामान पर अपना डंडा खटखटाते हुए बड़ी रोबदार आवाज में पूछा, “किसका सामान है?”

बुझौना ने धीरे से जवाब दिया, “साहब ई हमरा समान है।“

पुलिस के जवान ने पूछा, “टिकट लिया है अपने सामान का?”

बुझौना ने कहा, “साहब अपना टिकट लिये हैं।“

पुलिस के जवान ने कहा, “पता नहीं है कि सामान की बुकिंग अलग से होती है। सारा सामान जब्त हो जायेगा। फिर जाकर थाने से छुड़वाते रहना।“

बुझौना ने उसके आगे हाथ जोड़ लिए, “साहब, बहुत मन से ई समान ले जा रहे हैं अपना परिवार के लिए। अईसा जुलुम मत कीजिए।“

पुलिस के जवान ने उससे कहा, “फिर सौ रुपए लाओ तो कुछ नहीं करेंगे।“

बुझौना ने धीरे से सौ रुपए का एक नोट उस जवान के हाथ में थमा दिया और फिर वह जवान वहाँ से चला गया। ऐसा हादसा वहाँ बैठे लगभग हर किसी के साथ हुआ। पुलिस के जवान आते थे और हर किसी से सौ दो सौ रुपए ऐंठ कर चले जाते थे।

जब ट्रेन हाजीपुर स्टेशन से चल पड़ी तो उसमें पुलिस की एक नई टीम आ गई। उन पुलिसवालों ने भी वही प्रक्रिया दोहराई। वे आते थे और हर किसी से सौ दो सौ रुपए ऐंठ कर चले जाते थे।

फिर समस्तीपुर स्टेशन पर एक टीटी उस डिब्बे में आया। उसने बुझौना से कहा, “टिकट है? दिखाओ।“

बुझौना ने उसे टिकट दिखाया तो टीटी ने कहा, “अरे ई तो डुप्लिकेट टिकट लगता है। साला, रेलवे को धोखा देता है। अभी अंदर करवा देंगे।“

बुझौना बेचारा डर गया और बोला, “लेकिन साहब, ई टिकट तो हम दिल्ली स्टेशन से खरीदे थे। डुप्लिकेट कईसे हो सकता है?”

टीटी ने गुस्सा दिखाते हुए कहा, “हमको बेवकूफ बनाता है। अभी बुलाते हैं पुलिस वाले को। डंडा पड़ेगा तो सब पता चल जाएगा।“

बुझौना ने कहा, “मालिक, कुछ ले दे के छोड़ देते तो.........”

फिर उस टीटी ने बुझौना से दो सौ रुपए ऐंठ लिए। उस टीटी की उगाही उस डिब्बे में काफी देर तक चलती रही। फिर वह किसी छोटे स्टेशन पर उतर गया।

उसके जाने के बाद बुझौना अपनी बगल में बैठे यात्री से कह रहा था, “हम सोचे थे कि दिल्ली से सस्ता में कुर्सी और तिपहिया साइकिल ले जाएँगे। दरभंगा में तो महँगा मिलता है। लेकिन ई पुलिस और टीटी पर पईसा खर्चा करने के बाद तो ई सब महँगा हो गया।“


उस यात्री ने कहा, “हाँ भईया, ठीक कहते हो। पिछला साल हम एगो टीवी खरीदे थे। रस्ता भर में ई पुलिस वाला और टीटी सब मिलकर हमसे एक हजार रुपैया लूट लिया। का करोगे, गरीब को तो सभ्भे लूटता है।“ 

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Monday, August 1, 2016

बुझावन माँझी

बुझावन माँझी बिहार के किसी छोटे से गाँव में रहता था। वह मुसहर जाति का था। बिहार की जाति व्यवस्था में मुसहर अति दलितों में आते हैं। मुसहरों के पास अपनी जमीन नहीं होती है लिहाजा ये दूसरों के खेतों में काम करते हैं। पुराने जमाने में कई छोटे बड़े जमींदारों ने इन्हें अपने रैयत के रूप में बसाया था और थोड़ी सी जमीन दी थी ताकि ये अपनी झोपड़ियाँ बना सकें। बुझावन माँझी जिस गाँव में रहता था उस गाँव में यादव सबसे अधिक आबादी में थे। उनके अलावा उस गाँव में कुछ मुसलमान, पासवान, चमार और एक घर कायस्थ का था। कायस्थ जाति के लोग चालीस पचास के दशक से ही खेती बारी छोड़कर नौकरीपेशा बनने लगे थे और शहर की ओर पलायन करने लगे थे। लिहाजा उस गाँव के कायस्थ के घर में हमेशा ताला ही लगा होता था। उस घर का इकलौता वारिस पास के ही शहर में किसी सरकारी नौकरी में था। उस गाँव के यादवों के पास संख्याबल के अनुपात में जमीन भी अधिक थी इसलिए उस गाँव और आसपास के कई गाँवों में यादवों की दबंगई चलती थी।

बुझावन को मुसहर होने के कारण गाँव में कोई इज्जत नहीं मिलती थी। ज्यादातर लोग उसे बुझावन कहने की बजाय बुझौना कहकर बुलाया करते थे। उसी गाँव में यादवों को उनके नाम के आगे बाबू कहकर बुलाया जाता है क्योंकि बाबूशब्द सम्मान का सूचक होता है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि ऐसा अक्सर होता है कि हम संपन्न लोगों के नाम के आगे जी या नाम के पहले मिस्टर कहकर बुलाते हैं। आपने भी शायद ही कभी अपने मुहल्ले में झाड़ू लगाने वाले के नाम के आगे जी या मिस्टर लगाया होगा। अकसर किसी पान की दुकान वाले को हम उतना सम्मान नहीं देते जितना कि पास वाले किसी डिपार्टमेंटल स्टोर के मालिक को। किसी भी आदमी को उसके समाज में मिलने वाला सम्मान उसकी आर्थिक स्थिति के समानुपाती होता है। हाँ, कभी कभी शिक्षा का स्तर भी सम्मान दिलाने में मदद करती है, लेकिन फिर भी हम किसी कॉलेज के लेक्चरर को जितना सम्मान देते हैं शायद उतना किसी स्कूल के टीचर को नहीं।

चलिये फिर से अपने बुझावन यानि बुझौना की सुध लेते हैं। एक बार उसी गाँव के कन्हैया यादव को एक बोरी चीनी मंगवाने की जरूरत पड़ी। यह वह जमाना था जब चीनी केवल राशन की दुकानों में मिलती थी। थोड़ी भी ज्यादा मात्रा में चीनी खरीदने के लिए सरकार के सप्लाई डिपार्टमेंट से परमिट लेना पड़ता था। कन्हैया के घर किसी की शादी थी इसलिये उसे ज्यादा चीनी की जरूरत थी। कन्हैया को ध्यान आया कि उसी गाँव के कायस्थ पास के ही शहर में सरकारी नौकरी करते थे। उसे पक्का यकीन था कि वे चीनी की परमिट दिलाने में उसकी मदद जरूर करेंगे। कन्हैया ने इस काम के लिये बुझौना को बुलवा भेजा।

बुझौना भागा भागा आया और कन्हैया के घर के आगे खड़ा हो गया। कन्हैया अपने चार फीट ऊँचे बरामदे पर खड़ा था। उसने सफेद धोती और मटमैली बनियान पहन रखी थी। उसके बालों में इतना अधिक तेल चुपड़ा हुआ था कि कुछ बूँदें उसकी कनपटी से टपक रही थीं। उसने अपनी तलवार छाप मूँछों को भी तेल पिला रखी थी। उसका बाँया हाथ कमर पर था और दाएँ हाथ में दो अंगुलियों के बीच बीड़ी दबी हुई थी। उसने बीड़ी का एक लंबा कश खींचा और बोला, “अरे बुझौना, आज ही तुमको सहर जाना होगा। वहाँ अपने गाँव के लालाजी रहते हैं; टुनटुन बाबू, उनके डेरा पर तो गये ही होगे। (बिहार में कायस्थों को लाला भी कहा जाता है)।“

बुझौना एक फटी पुरानी लुंगी पहने था जिसपर कई जगह पैबंद लगे थे। उस लुंगी को छोड़कर उसके तनपर कोई कपड़ा नहीं था। हाथ में एक लाठी जरूर थी। वह अपने साथ हमेशा लाठी इसलिए रखता था कि पता नहीं कब किसी धनी किसान का आदेश आ जाए और खेत में घुस आई किसी बकरी या भैंस को भगाने की जरूरत पड़ जाये। बुझौना की बाँई हथेली पर खैनी थी जिसे वह दाहिने अंगूठे से मल रहा था। खैनी को खूब अच्छी तरह मलने के बाद उसने अपनी दाहिनी हथेली से कन्हैया के सामने पेश किया और बोला, “हाँ मालिक, हम कई बार गए हैं उनका सामान लेकर।“

कन्हैया ने खैनी लेते हुए कहा, “हम तुमको एगो चिट्ठी दे देते हैं। ई चिट्ठी दे देना बस ऊ सब बूझ जाएँगे। ऊ साहब तुमको एक बोरी चीनी दिलवा देंगे बस उसी को लाना है। ठीक से लाना, पानी में भीगना नहीं चाहिए। कुछो गड़बड़ किया तो खाल उधेड़ देंगे।“

बुझौना ने कहा, “ठीक है मालिक। कुछ पैसा मिल जाता जाने के लिए तो ठीक रहता।“

फिर कन्हैया ने उसे सफर के लिए पैसे दिये और शहरी बाबू के नाम एक चिट्ठी भी दी।

बुझौना अपने घर गया और एक साफ सुथरी लुंगी और एक कमीज निकाली। यह ड्रेस उसे कभी टुनटुन बाबू के घर से मिली थी। वे लोग अकसर अपने पुराने कपड़े गाँव के गरीबों में बाँट दिया करते थे। फिर बुझौना ने अपने सिर में प्रचुर मात्रा में सरसों का तेल लगाया और एक टूटी हुई कंघी से बाल सँवारने लगा। उसकी पत्नी और बच्चे उसे बड़े गौर से निहार रहे थे। उसके बड़े बेटे ने पूछा, “बाबू, ई लगता है कि सहर जा रहे हो। हमरे लिए एक ठो लट्टू ले आना। पुरनका लट्टू कब्बे टूट गवा।“

बुझौना की पत्नी ने उसे एक झिड़की दी, “सूझ नहीं रहा है कि तुम्हरे बाबू कौनो जरूरी काम से सहर जा रहा है। अब ऊँहा एतना फुरसत थोड़े मिलेगा कि तुम्हरा लट्टू खरीदे।“

बुझौना कुछ नहीं बोला। वह बस मंद मंद मुसका रहा था। उसे भी शायद शहर जाने का मौका मिलने की खुशी हो रही थी।

बुझौना जब शहर पहुँचा तो वहाँ उसे कुछ अलग ही माहौल मिला। जिन साहब से उसे मिलना था, बुझौना सीधा उनके दफ्तर में पहुँचा। उसे देखकर उन साहब ने कहा, “अरे बुझावन, यहाँ कैसे? गाँव में सब कुशल मंगल तो है? सुबह सुबह ही चले होगे। भूख भी लगी होगी।“

फिर उन साहब ने अपने चपरासी को कुछ पैसे दिये और उससे कहा, “रामखेलावन, ये आदमी मेरे गाँव से आया है। इसे मारवाड़ी बासा में ले जाओ और भरपेट खाना खिला दो।“

उसके बाद उन साहब ने कन्हैया यादव के लिए चीनी की परमिट का इंतजाम किया। उसके बाद बुझौना को चीनी की बोरी के साथ बस स्टैंड तक किसी सरकारी जीप से पहुँचवा दिया। उन्होंने बुझौना को बख्शीश के तौर पर कुछ रुपए भी दिये।

बुझौना जब बस में चढ़ा तो उसके खलासी ने कहा, “अरे रे, ई बोरिया कहाँ अंदर घुसा रहा है। बोरिया बस के अंदर रखने का परमिसन नहीं है। चल उसको छत्ते पर डाल दे।

बुझौना बोला, “मालिक इसमें बड़ा जरूरी समान है। छत पर पानी उनी से भीग भाग गया तो जुलुम हो जाएगा। जिसका चिन्नी है ऊ हमको बहुत मार मारेगा।“

खलासी ने कहा, “जिसको देखो जरूरी समान ही लेके आता है। अरे, जब बोरिया अंदर डालेंगे तो पसिंजर केन्ने बईठेगा, तुम्हरे कपार पर।“

उसके बाद चीनी की बोरी को बकायदा छत पर डाल दिया गया। बेचारे बुझावन की किस्मत कुछ ज्यादा ही खराब थी। जब वह अपने गाँव पहुँचकर बस से उतरा तो देखा तो चीनी की बोरी बस की छत पर थी ही नहीं। लगता है कोई उस बोरी को लेकर रास्ते में ही चंपत हो गया था।

बेचारा बुझावन बुझे मन से कन्हैया के पास पहुँचा और चुपचाप खड़ा हो गया। उसे देखकर कन्हैया ने कहा, “का बात है रे? अईसे मुँह काहे लटकाया है? कौनो तुम्हरी मेहरारू को लेके भाग गया का? का हुआ बोलोगे भी।“

जब बुझावन ने उसे सारी बात बताई तो कन्हैया आपे से बाहर हो गया। उसने गाँव के अन्य यादवों को वहाँ बुला लिया। भीड़ लगती देखकर मुसहर की बस्ती से भी कुछ लोग आ गये। बुझावन की बीबी और बच्चे भी वहाँ पहुँच गये। कन्हैया जोर जोर से बोल रहा था, “अरे भाई लोग, ई देखो। ई बुझौना खाली बईठ कर टाइम पास कर रहा था तो हम सोचे कि कुछ कमाई धमाई का मौका दे दें। इसको टुनटुन बाबू के पास भेजा चिन्नी लाने। चिन्नी का पईसा तो दिया ही साथ में कुछ अलग से भी पइसा दिया कि ठीक से सहर घूम ले। लेकिन ई साला तो जालसाज निकला। पूरा चिन्नी का बोरी डकार लिया और बोलता है कि बस से चोरी हो गया। हम छोड़ेंगे नहीं इसको। चिन्नी का हिसाब तो लेके रहेंगे।“

बुझौना धीरे से बोला, “मालिक, हम पूरा हिसाब दे देंगे। अगला बार गेहूँ के कटनी में हम मजूरी नहीं लेंगे। उससे चिन्नी का हिसाब बराबर हो जायेगा।“

कन्हैया ने उसे कई चुनिंदा गालियाँ दीं और बोला, “अभी जो हमरे घर में ब्याह है उसमें मिठाई कईसे बनेगा। तुम तो हमरा इज्जत ले लिया। बराती को क्या जवाब देंगे?”

कन्हैया ने फिर कहा, “ई बुझौना हमरा इज्जत ही माटी में मिला रहा है। अभी हम भी इसका इज्जत माटी में मिलाएँगे। बस हो जाएगा हिसाब बराबर। क्यों भाई, सही इंसाफ है कि नहीं?”

वहाँ पर मौजूद यादवों ने एक सुर में कहा, “हाँ बिलकुल सही है। इसका लुंगी उतार दो। तब इसको पता चलेगा इज्जत का मतलब।“

फिर कन्हैया ने आव देखा न ताव और भरी भीड़ के सामने बुझावन की लुंगी उतार दी। बेचारा बुझावन चुपचाप सिर झुकाए वहीं जमीन में बैठ गया। उसकी बीबी और बच्चे उसके पास बैठकर बड़ी देर तक विलाप करते रहे। उसके बाद उसकी बीबी ने वहाँ पड़ी लुंगी उठाई और बुझावन के कमर पर लपेट दिया। फिर वे धीरे-धीरे अपने घर की ओर चले गये।

इस घटना को हुए दो तीन दिन बीत चुके थे कि बुझौना किसी दोपहर को फिर से उन साहब के पास हाजिर हो गया। उसे देखकर साहब ने पूछा, “अरे बुझावन, क्या हुआ? तुम फिर आ गये। लगता है कन्हैया को और भी चीनी की जरूरत है।“

बुझावन ने कुछ नहीं कहा और फफक फफक कर रोने लगा। काफी ढ़ाढ़स बँधाने के बाद उसने कहा, “मालिक हमरे साथ जुलुम हो गया। ऊ का हुआ कि जब हम ईहाँ से बस से जा रहे थे तो बस का खलासी चिन्नी का बोरा बस के छत पर रख दिया। जब हम गाँव पहुँचे तो देखा कि बस के छत पर चिन्नी का बोरिया नहीं था। लगता है कोनो उसको चुरा लिया। फिर कन्हैया हमको बहुत मारा पीटा। हम बहुत चिरौरी किये लेकिन भरल गाँव के सामने ऊ हमरा लुंगी उतार दिया। हमरा परिवार के सामने हमरा इज्जत चला गया। ऊ कन्हैया बोला है जहाँ से हो चिन्नी लेकर आने को। आब आप ही हमरी नैया पार लगा सकते हैं। चिन्नी लेके नहीं गये तो कन्हैया हमरा बीबी बच्चा को भी मारेगा।“

उन साहब ने कोई जवाब नहीं दिया और मन ही मन सोच रहे थे, “पता नहीं मेरा गाँव कब बदलेगा। बेचारे गरीब लोग, कब तक इस तरह अत्याचार सहते रहेंगे।“


फिर उन साहब ने दोबारा चीनी की बोरी का इंतजाम करवाया। इस बार वे खुद बुझौना को छोड़ने बस स्टैंड गये। बस के कंडक्टर को पाँच रुपए अलग से दिये और सख्त हिदायत दी की चीनी सही सलामत गाँव पहुँच जानी चाहिए। बस का कंडक्टर आस पास के ही गाँव का था इसलिए उनको जानता था। आखिरकार कन्हैया को चीनी की बोरी मिल गई और उसे अपनी मूँछों पर ताव देने का एक और मौका मिल गया। 

Saturday, July 30, 2016

जेनरल क्लास का टिकट

एक बार मैं वारणसी से फैजाबाद वापस आ रहा था। साइकल मीटिंग खत्म होने के बाद अगली सुबह को मैं ट्रेन पकड़ने के लिए वारणसी स्टेशन पहुँचा। काउंटर से एक जेनरल क्लास का टिकट खरीदा और जाकर स्लीपर क्लास में बैठ गया। वह ट्रेन शायद सरयू यमुना एक्सप्रेस थी। जेनरल क्लास में इतनी भी‌ड़भाड़ होती है कि उसमें यात्रा करना किसी भी नॉर्मल आदमी के लिए संभव नहीं होता। समय कम होने के कारण मुझे इतना मौका नहीं मिला कि मैं पहले से रिजर्वेशन करवा लूँ। वैसे भी छोटी दूरी की यात्रा के लिए हमलोग शायद ही रिजर्वेशन करवाते हैं।

जब ट्रेन वाराणसी से चल पड़ी तो थोड़ी ही देर में काला कोट पहने हुए टीटी आया जो टिकट चेक कर रहा था। चूँकि वह ट्रेन दरभंगा से आ रही थी इसलिए वह केवल उन्हीं लोगों के टिकट चेक कर रहा था जो वाराणसी से ट्रेन में चढ़े थे। मुझे दो बातों से हमेशा ताज्जुब होता है। पहला कि गर्मी के मौसम में भी ये टीटी कोट क्यों पहनते हैं। अब तो भारत को आजाद हुए एक लंबा अर्सा बीत चुका है और इसलिए कॉलोनियल हैंगओवर से मुक्ति मिलनी चाहिए। दूसरी बात ये कि ये टीटी ये कैसे जान लेते हैं कि केवल वैसे ही लोगों के टिकट चेक करने हैं जिन्हें मुर्गे की तरह हलाल किया जा सके।

टिकट चेक करते-करते वह टीटी मेरे पास पहुँचा। जब मैंने उसे अपना टिकट दिखाया तो उसके मुँह से निकला, “ये तो जेनरल क्लास का टिकट है।“

मैंने रूखे अंदाज में जवाब दिया, “पता है।“

टीटी फिर बोला, “लेकिन आप तो स्लीपर क्लास में बैठे हैं।“

मैंने कहा, “वो भी पता है।“

टीटी ने कहा, “आपको पता होना चाहिए कि जेनरल क्लास का टिकट लेकर स्लीपर क्लास में यात्रा करना गैरकानूनी है।“

मैने कहा, “मुझे ये पता है कि बर्थ खाली होने पर टीटी को जेनरल क्लास के टिकट को स्लीपर क्लास में कंवर्ट कर देना चाहिए। आप मेरे टिकट को कन्वर्ट कर दीजिए और उसकी रसीद बना दीजिए।“

टीटी ने फिर मेरे चमड़े वाले डिटेलिंग बैग को देखा और कहा, “लगता है आप एमआर हैं।“

बिहार और उत्तर प्रदेश में लोग मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव को प्यार से एमआर बुलाते हैं।

मैंने कहा, “हाँ आपने ठीक समझा है।“

फिर टीटी ने कहा, “लगता है बनारस किसी मीटिंग में आये थे और अब वापस जा रहे हैं। अरे भाई साहब, मैं भी कभी एमआर हुआ करता था। फिर बाद में रेलवे की नौकरी ज्वाइन कर ली।“

इतना कहने के बाद वह टीटी वहाँ से चला गया। लगभग एक घंटे के बाद वह दोबारा मेरे पास आया और पास में ही बैठ गया। फिर उसने मुझसे एमआर की नौकरी की तत्कालीन दशा और दुर्दशा के बारे में पूछा और अपने बीते दिनों को याद किया। उसके बाद उसने मेरे सामने एक सिगरेट का पैकेट बढ़ाया और पूछा, “आप सिगरेट का शौक फरमाते हैं?”

मैं सिगरेट नहीं पीता हूँ लेकिन किसी डॉक्टर या किसी केमिस्ट से ऑर्डर लेने के चक्कर में सिगरेट के कश लेने में कभी परहेज नहीं करता था। मैंने उसके हाथ से एक सिगरेट ली और फिर धुँआ उड़ाने लगा। काफी देर तक इधर उधर की बातचीत के बाद वह टीटी मुद्दे की बात पर आना चाहता था, “तो बताएँ, आगे क्या करना है?”

वह शायद मुझसे कुछ पैसे ऐंठने के चक्कर में था। मैं भी ठहरा पुराना चावल, जिसने घाट घाट का पानी पी रखा था। मैंने उससे कहा, “अब इसमें कहने सुनने के लिए रखा ही क्या है। आपने खुद बताया कि आप भी एमआर थे। अब न तो मुझे ये अच्छा लगेगा कि आपसे कुछ कहूँ सुनूँ और न ही आपको ये अच्छा लगेगा कि आप उसी धंधे के आदमी से कुछ कहें सुनें जिस धंधे में कभी आप भी हुआ करते थे।“


वह टीटी मेरा इशारा समझ गया। उसने एक फीकी मुसकान के साथ मुझे देखा और फिर बिना कुछ दान दक्षिणा लिए वहाँ से चला गया। 

बाघ ने गाय को क्यों मारा?

बाघ अपनी गुफा के आगे चिंतित मुद्रा में बैठा हुआ था। तभी सामने से उसका पुराना चमचा चंदू सियार आया। चंदू सियार ने बाघ से पूछा, “मालिक, क्या बात है? आप बड़ी चिंता में लग रहे हैं। सुबह से कोई शिकार नहीं मिला?”

बाघ धीरे से गुर्राया, “अरे, तुम्हारे जैसे चमचों के रहते मुझे शिकार रोज ही मिल जाता है। उसकी कोई चिंता नहीं है।“

चंदू सियार ने फिर पूछा, “तो फिर मालकिन ने कुछ कह दिया होगा। तभी सुबह सुबह मूड खराब है। चलिये तालाब के पास चलते हैं। सुना है वहाँ पर कई जवान बाघिन आई हैं।“

बाघ ने एक लंबी साँस लेते हुए कहा, “नहीं दरअसल बात ये है कि आजकल कुछ मनुष्य राष्ट्रीय पशु के ओहदे से मुझे हटाने की साजिश रच रहे हैं। उनमें से ज्यादातर लोग धार्मिक प्रवृत्ति के हैं और कहते हैं कि गाय को राष्ट्रीय पशु का ओहदा मिलना चाहिए।“

चंदू सियार ने कहा, “इससे क्या फर्क पड़ता है, गाय के राष्ट्रीय पशु बनने के बाद ऐसा तो नहीं हो जायेगा कि आप बाघ से गदहे बन जाएँगे। या फिर कोई भी गाय आएगी और आपको डराकर चली जाएगी।“

बाघ ने कहा, “तुम जूठन चाटने वाले सियार क्या समझोगे कि इज्जत की कितनी कीमत होती है। जब मैगजीन के कवर पर, डाक टिकट पर तस्वीर छपती है तो बहुत अच्छा लगता है। भला किसी ने राष्ट्रीय खेलों के लिए बाघ को छो‌ड़कर कभी किसी सियार को मैस्कॉट बनाया गया है। तुम नहीं समझोगे।“

सियार ने कहा, “इसके लिए आपने जंगल के राजा शेर से बात की? हो सकता है वो आपकी मदद करें।“

बाघ ने कहा, “अरे कहाँ का राजा? बस मुट्ठी भर बचे हैं गुजरात के जंगलों में और अपने आप को राजा समझते हैं। भला किसी ने सेव लायन करके कोई कैंपेन किया है। उसके लिए भी लोगों को सेव टाइगर का ही खयाल आता है।“

सियार ने अपनी बत्तीसी दिखाते हुए कहा, “ठीक कहा मालिक, वैसे भी आजकल कई गुजराती मनुष्य अपने आप को शेर समझने लगे हैं। असली शेरों का अब वो रौब नहीं रहा।“

बाघ ने कहा, “अब अपनी पदवी बचाने के लिए मुझे ही कुछ करना पड़ेगा। सोच रहा हूँ कि एक एक करके इन मनुष्यों का वध कर दूँ।“

सियार ने कहा, “लेकिन ऐसा संभव नहीं है मालिक। बाघों की संख्या तो पूरे हिंदुस्तान में दो हजार से कुछ कम ही होगी। और पता है आपको कि मनुष्य कितने हैं? पूरे एक सौ बीच करोड़। सब ने मिलकर यदि एक साथ बाघों को घुड़की भी दे दी तो फिर यह पूरी धरती बाघों से विहीन हो जाएगी।“

बाघ ने कहा, “अब तुम ही बताओ क्या करना चाहिए।“

सियार ने कहा, “आप आज से भोजन के लिये गायों का शिकार करना शुरु कर दीजिए। जहाँ दस बीस गायेँ मरेंगी लोग डर के मारे गाय पालना ही छो‌ड़ देंगे। जब लोग डर जायेंगे तो गायें अपने आप डर जायेंगी। वे तो ऐसे भी गऊ होती हैं, मतलब बिलकुल सीधी सादी।“


उसके बाद बाघ ने एक लंबी दहाड़ ली। वह वहाँ से उठकर पास के गाँव गया। उसके सामने सबसे पहले जो गाय आई उसने उसे वहीं मार गिराया। लोगों का शोरगुल सुनकर मरी हुई गाय को वहीं छो‌ड़कर वह बाघ दुम दबाकर जंगल की ओर भागा।