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Friday, November 11, 2016

नोट कैसे बदलें?

नब्बे के दशक तक भारत के लोग अभाव में जीने में माहिर थे। लेकिन आर्थिक उदारवाद के परिणाम आने के बाद से लोगों की जीवन शैली काफी बदल गई है। अब ज्यादातर लोग सुविधा भोगी हो गये हैं। 500 और 1000 के नोट बंद करने के फैसले से लोगों को फिर से एक बार अभाव में जीना पड़ेगा; कुछ दिनों के लिए ही सही।

अभी नोटों के बदलने का सिलसिला शुरु हुए दो दिन भी नहीं बीते हैं। दोनों दिन सुबह सुबह मैं 
सड़क के दूसरी तरफ के बैंक में जा चुका हूँ। लेकिन वहाँ लगी भीड़ को देखकर मेरी हिम्मत नहीं हुई है कि लाइन में लग जाऊँ। इसके कई अन्य कारण भी हैं। मुहल्ले के किराने वाले अभी भी पुराने नोट ले रहे हैं; हाँ उसके बदले में कम से कम चार सौ रुपए की खरीददारी करनी पड़ती है। आठ तारीख की रात को मैंने अपनी कार और बाइक की टंकी फुल करवा ली थी। अब एक लेखक होने के कारण मुझे कहीं आने जाने की जरूरत कम ही पड़ती है इसलिए इतना पेट्रोल मेरे लिये महीने भर से भी अधिक के लिए काफी होगा। स्कूल की फीस भी जमा हो चुकी है क्योंकि स्कूल वाले पुराने नोट लेने को तैयार हो गये। दीवाली से पहले ही मैंने लगभग दो महीने का राशन खरीद लिया था इसलिए उसकी कोई चिंता नहीं है। हाथ में थोड़े बहुत छोटे नोट हैं जिससे उम्मीद है कि काम चल जायेगा। शायद नोटों की कम जरूरत होने के कारण मुझे अभी बैंक में जाकर लाइन लगने की जरूरत नहीं है। मेरा एटीएम कार्ड अभी हाल ही में ब्लॉक हो गया था इसलिए उसे इस्तेमाल करने का सवाल ही नहीं उठता। अब नोट बदलने के चक्कर में बैंक वाले मेरा एटीएम कार्ड शायद ही समय पर भेजें। इस तरह से नोट बदलवाने के लिए लाइन में लगने में होने वाली परेशानियों के बारे में मेरे पास कोई अनुभव नहीं है। लेकिन मेरे पास नब्बे के दशक तक लंबी लाइनों में लगने का पुराना अनुभव है इसलिए उनके बारे में तो लिख ही सकता हूँ। मेरे जमाने के लोग शायद इन अनुभवों से जरूर रूबरू हुए होंगे।
सबसे पहले बात करते हैं दूध की। आज आप जब चाहें किसी भी किराना दुकान से दूध खरीद सकते हैं। उस जमाने में पैकेट वाला दूध नया नया आया था। उसके पहले हर घर में अनिकस्प्रे या एवरीडे का पैकेट जरूर होता था। दूध फट जाने की स्थिति में या बिन बुलाये मेहमान के आने की स्थिति में अनिकस्प्रे से चाय तो बन ही जाती थी। जब पैकेट वाला दूध आया तो उसे लेने के लिए मुझे सुबह पाँच बजे ही जाकर लाइन में लगना पड़ता था। सात बजे के आस पास दूध की गाड़ी आती थी और तब दूध लेने के लिए बड़ी धक्कामुक्की करनी पड़ती थी। यदि किसी तीज त्योहार में अधिक दूध की जरूरत होती थी तो उसके लिये दूधवाले को एक दिन पहले पूरा एडवांस देना होता था। उसके बावजूद भी यदि जरूरत के मुताबिक दूध मिल जाता था तो हम अपने आप को खुशकिस्मत समझते थे।

आपने शायद सुना होगा कि उस जमाने में मोटरसाइकिल या स्कूटर खरीदने के लिए कम से साल भर के लिये नंबर लगाना पड़ता था। उससे पहले खरीदने के लिए ब्लैक मार्केट का सहारा लेना पड़ता था। मैने भी एक प्रिया स्कूटर खरीदा था 1989 में। ब्लैक में मिलने की वजह से वह स्कूटर किसी दूसरे व्यक्ति के नाम से था। उस समय प्रिया स्कूटर का दाम शायद 8,000 रुपए था और उसपर मुझे 1,500 रुपए ब्लैक के देने पड़े थे; जो कीमत का लगभग 16% होता है। फिर उस स्कूटर का रजिस्ट्रेशन नंबर लेने और उसे अपने नाम से करवाने में मुझे जो परेशानी हुई थी मुझे आज तक याद है। ट्रांसपोर्ट ऑफिस के चक्कर लगाते लगाते मेरे तलवे घिस गये थे। ये बात और है कि साथ में दलाल को भी पैसे देने पड़े थे।

उस जमाने में गैस सिलिंडर की भी भारी किल्लत हो जाती थी। यह शायद 1990 की बात है। गैस सिलिंडर की भारी किल्लत चल रही थी। पता चला कि गैस एजेंसी में नम्बर लगाने के लिए सुबह सुबह ही लाइन में लगना पड़ेगा। गैस एजेंसी के बाहर लगभग छ: सात घंटे लाइन में लगने के बाद नम्बर लग पाया। वहाँ बताया गया कि ठीक दस दिन के बाद थाने में रसीद कटवाने के लिए लाइन लगेगी। ठीक दस दिन बाद हमलोग नगर थाने के पास पहुँच गये। मुहल्ले के जितने उन्नीस बीस साल के लड़के लड़की थे सब जाकर लाइन में लग गये। लड़कियों को इस उम्मीद में ले जाया गया कि महिलाओं के लिये शायद छोटी लाइन हो। लेकिन वहाँ तो महिलाओं की लाइन पुरुषों की लाइन से ज्यादा लंबी थी। शायद सब लोग बुद्धिमान हो चुके थे और मेरी तरह ही सोच रहे थे। सुबस से ही लाइन लगी थी। बीच बीच में एक दो लड़के घर जाकर सबके लिये नाश्ते का पैकेट ले आते थे। इस तरह से लाइन में मेहनत करने के बाद लगभग एक बजे दोपहर को हमारा नंबर आया और गैस की रसीद कटी। उसके बाद हम पाँच लड़कों ने अपनी अपनी साइकिल निकाली। हर साइकिल की बगल में दो दो खाली सिलिंडर लटकाये गये। लड़कियों को घर जाने की इजाजत मिल गई। उसके बाद सारे लड़के गैस गोदाम की तरफ रवाना हुए। गैस गोदाम हमारे मुहल्ले से कोई सात आठ किमी की दूरी पर था। सड़क खराब होने के कारण ज्यादातर समय साइकिल को हाथ से ही खींचकर ले जाना पड़ा। गनीमत ये थी कि गैस गोदाम में भरा सिलिंडर लेने में बहुत देर नहीं लगी। जब हम शाम में भरे सिलिंडर लेकर पहुँचे तो हमारा स्वागत वैसे ही हुआ जैसे हम क्रिकेट का कोई टूर्नामेंट जीतकर पहुँचे हों।


अब तो नब्बे के दशक को बीते हुए दो दशक पूरे होने को हैं। अब ना तो गैस की मारामारी है ना ही टेलिफोन कनेक्शन की। अब तो मिडल क्लास भी कार चढ़ने लगा है। लगता है कि लोगों की सुख शांति हमारे शासक वर्ग से देखी नहीं गई। इसलिए सबसे पहले तो सुरक्षा के नाम पर करोड़ों लोगों के एटीएम ब्लॉक हो गये। उसके बाद नोट बंद करने का एक बड़ा धमाका किया गया। मुझे पूरी उम्मीद है कि जब शासक वर्ग के लोग टीवी पर लोगों को बैंकों के बाहर धक्कामुक्की करते देखते होंगे तो आपस में कहते होंगे, “ये है प्रजा की असली हकीकत। प्रजा को प्रजा की तरह रहना चाहिए। समय समय पर इन्हें याद दिलाते रहना चाहिए कि असली बॉस कौन है।“ 

Wednesday, November 9, 2016

काले से सफेद

सेठजी बड़े चिंतित लग रहे थे। जैसे ही 500 और 1000 रुपए के नोट को बंद करने की खबर आई सेठ जी ने तुरंत दुकान का शटर गिरवा दिया था। उसके बाद उन्होंने अपने सभी स्टाफ को नोटों की गिनती के काम में लगा दिया था। साथ में सेठ जी भी अपने टेबल पर नोटों के बंडल गिन रहे थे। जब उन्होंने अपने बैंक के मैनेजर को फोन करके पूछा था तो उसने बताया था कि चिंता की कोई जरूरत नहीं क्योंकि करेंट एकाउंट में कोई भी राशि जमा की जा सकती है। लेकिन सेठ जी को इस बात की चिंता खाये जा रही थी कि नॉर्मल सेल से यदि बहुत ज्यादा रकम जमा की जाए तो समस्या खड़ी हो सकती थी। साथ में बैंक वालों को नोट की गिनती के लिए दी जाने वाली कमीशन की राशि को लेकर भी वे उधेड़बुन में लगे हुए थे। बैंक के मैनेजर ने बताया था कि जैसे ही बैंक खुलेगा तो बैंक में भारी भीड़ होगी। लोग नोट बदलवाने आयेंगे। इसलिए उसने नोट गिनती करने का कमीशन का रेट दोगुना कर दिया था।

अभी सेठ जी इस अचानक से आई समस्या से निपटने की तैयारी कर ही रहे थे कि उनके मोबाइल फोन की घंटी बजी। जब उन्होंने देखा कि वह फोन बाबू भैया का था तो सेठ जी के माथे पर पसीने की बूँदे छा गईं। बाबू भैया उसी शहर के एक खुर्राट नेता हैं। वे एक दबंग किस्म के नेता हैं जिनके खिलाफ हत्या, लूटपाट, चार सौ बीसी और बलात्कार के कितने मुकदमे चल रहे हैं। लेकिन बाबू भैया इतने स्मार्ट नेता हैं कि हमेशा सत्ताधारी पार्टी में ही रहते हैं। भविष्य सूंघने के मामले में वे रामविलास से कम नहीं हैं इसलिए हमेशा ही किसी न किसी मंत्रीपद पर आसीन रहते हैं।

सेठ जी ने जेब से मुड़ा तुड़ा और बदबूदार रूमाल निकाला और उससे अपने माथे का पसीना पोंछते हुए फोन कॉल रिसीव किया, “नमस्कार बाबू भैया। कहिए कैसे याद किया? ………जी जी मैं अच्छा हूँ। .......जी जी बस आपकी दया दृष्टि बनी रहे।“

उधर से बाबू भैया ने खून जमाने वाली आवाज में फरमान सुनाया, “आठ बजे जो न्यूज आया है उसे देखा ही होगा। मैं आज रात तुम्हारे पास पाँच करोड़ भिजवाउँगा। सारे 500 या 1000 के नोट हैं। चार दिन के अंदर मुझे उसके बदले में नये नोट चाहिए।“

सेठ जी ने हकलाते हुए कहा, “लेकिन बाबू भैया, इतनी जल्दी कैसे हो पाएगा? शुरु में तो बैंकों के बाहर लंबी लाइन लगी रहेगी। मामला लाइन पर आने में कम से कम एक हफ्ता तो लगेगा। फिर मैं उन 500 और 1000 के नोटों का क्या करूंगा?”

बाबू भैया ने कहा, “तुम क्या करोगे ये मेरी प्रॉब्लेम नहीं है। अगले दो महीने में चुनाव होने हैं। पार्टी फंड के लिए पैसा चाहिए।“

सेठ जी ने कहा, “बाबू भैया, कुछ मोहलत दे देते तो ठीक होता। इतनी जल्दी तो मैं बरबाद हो जाउंगा।“

बाबू भैया ने कहा, “यदि मेरा काम नहीं हुआ तो तुम वैसे भी बरबाद हो जाओगे। एक बार फिर से सरकार बन जाने दो फिर तुम्हारे नुकसान की भरपाई हो जाएगी। तुम्हें शहर का मेयर बनवा दूँगा। फिर कमा लेना जितना चाहो।“


सेठ जी ने थूक निगलते हुए कहा, “जैसा आप ठीक समझें बाबू भैया।“ 

Tuesday, November 8, 2016

मेरा धन तुम्हारे धन से सफेद कैसे?

जब मैं देर शाम को घर पहुँचा तो मेरी बीबी ने झटपट गरम गरम चाय बनाई। चाय की चुस्कियों के बीच वह पूरे दिन का डेली रिपोर्ट ले रही थी। उसी समय मेरा फोन बजने लगा। मैने देखा कि वह फोन मेरे भाई के बेटे का था इसलिए मैंने फोन अपने बेटे को पकड़ा दिया। मेरा बेटा फोन पर अपने चचेरे भाई से बातें करने लगा। आम फोन कॉल के उलट मेरा बेटा जोर से चिल्लाया, “अरे बाप रे, क्या कह रहे हो? ये तो जुल्म हो गया। कैसे हुआ? कब हुआ?”

उसकी आवाज की बेचैनी से मैं भी बेचैन हो गया। किसी अनिष्ट की आशंका से मेरा दिल जोर जोर 
से धड़कने लगा। मैने अपने बेटे से पूछा, “क्या हुआ? अम्मा ठीक तो हैं?”

मेरे बेटे ने कहा, “नहीं, अम्मा बिलकुल ठीक हैं। गप्पू बता रहा था कि आज रात बारह बजे के बाद 500 और 1000 रुपए के नोट गैर कानूनी हो जाएँगे। अब मेरा क्या होगा? पटना वाली मामी ने कल ही जाते समय मुझे 1000 रुपए का नोट शगुन के तौर पर दिया था।“

मुझे जैसे 440 वोल्ट का झटका लगा। मैने अपनी बीबी से कहा, “पता है, आज ही मैने पचास हजार रुपए निकाले हैं। कल मकानमालिक को तेईस हजार रुपए किराया भी देना है। अब कल तो दे नहीं पाउँगा। मकानमालिक बड़ा दुष्ट आदमी है। लेट पेमेंट होने पर 500 रुपए पेनाल्टी लेता है। मेरे पर्स में छुट्टे के नाम पर केवल पचास रुपए बचे हैं। तुम्हारे पास कितने हैं?”

मेरी बीबी ने कहा, “होंगे दो तीन सौ रुपए। अभी तो दिवाली में सारे पैसे खर्च हो गये।“

मेरी बीबी ने तब तक टीवी ऑन कर दिया। टीवी पर प्रधानमंत्री जी अपने चिरपरिचित स्टाइल में घोषणा कर रहे थे। सारे टीवी चैनल वाले इस घोषणा को मास्टर स्ट्रोक बता रहे थे। तभी मेरी बीबी ने कहा, “ऐसा करो कि पास के किराने वाले के पास चलकर कोई छोटा मोटा सामान खरीदकर एक हजार के नोट का छुट्टा करा लो। नहीं तो दो दिन तक खर्चा कैसे चलेगा।“

मैने कहा, “हाँ सही कह रही हो। चलो कार में भी पेट्रोल भरवा लेते हैं। बता रहे हैं कि पेट्रोल पंप पर अगले बहत्तर घंटे तक ये नोट लिये जाएँगे। लेकिन पेट्रोल कितना भरवा सकते हैं? आज सुबह ही हजार का भरवाया था। अब उसमे ज्यादा से ज्यादा दो हजार का और भरवा सकते हैं।“

हमलोग आनन फानन में लिफ्ट से नीचे उतरे। मैने कार निकाली और पहले किराने वाले के पास रुका। किराने वाले के पास जबरदस्त भीड़ लगी थी। बेचारा किराना वाला हाथ जोड़ कर सबसे माफी माँग रहा था। वह कह रहा था, “भाई साहब मेरे पास भी केवल पाँच सौ या हजार के ही नोट हैं। मैं कहाँ से लाऊँगा इतने सारे सौ रुपए के नोट।“

उसके बाद मैं पास के ही पेट्रोल पंप पर गया। पेट्रोल पंप पर लंबी लाइन लगी थी। भीड़ का जायजा लेने के लिये मैं गाड़ी से उतर गया। पेट्रोल पंप का स्टाफ कह रहा था, “किसी भी आदमी को छुट्टा नहीं मिलेगा। पेट्रोल सबको मिलेगा लेकिन कम से कम 500 रुपए या उसके मल्टीपल में।“

पेट्रोल पंप पर लगभग एक घंटा इंतजार करने के बाद मैने दो हजार रुपए का पेट्रोल भरवा लिया। उसके बाद जब मैं वापस आया तो कार पार्किंग से निकलते ही कई पड़ोसी मिल गये। ज्यादातर लोग इस फैसले को मास्टर स्ट्रोक ही बतला रहे थे। मैं भी चुपचाप उनकी बातों को सुन रहा था। तभी शर्मा जी ने कहा, “बता रहे हैं कि अगले 72 घंटों तक सरकारी अस्पतालों, सरकारी मिल्क बूथ और शमशान में ये नोट लिये जाएँगे। हाँ रेल और हवाई जहाज के टिकट के लिए भी ये नोट अभी लिये जाएँगे।“  

अब मुझे गुस्सा आ रहा था। मैने कहा, “भैया अब जो बीमार नहीं है वह अस्पताल क्या करने जायेगा। ज्यादातर बीमार लोग प्राइवेट अस्पतालों में जाना पसंद करते हैं। अब आप फोर्टिस हॉस्पिटल जाएँगे या सदर अस्पताल। मिल्क बूथ से आप कितना दूध खरीदे लेंगे एक बारे में? पाँच सौ लीटर? बिना जरूरत के कोई रेल यात्रा सिर्फ इसलिए नहीं करेगा कि उसे अपने 500 या हजार के नोट का सदुपयोग करना है। और रेल में खाना और पानी कैसे खरीदेंगे? टैक्सी या ऑटो वाले का पेमेंट कैसे करेंगे? भगवान न करे कि किसी को शमशान जाने की जरूरत पड़ जाये। शमशान जाकर कोई भला अपने लिये एडवांस बुकिंग करवायेगा?”

मेरी बात सुनकर ज्यादातर लोगों ने कोई जवाब नहीं दिया। वे शायद मुझे मूर्ख समझ रहे थे या फिर मुझे मौन स्वीकृति दे रहे थे। उसके बाद मैं अपने फ्लैट में आ गया। तभी मेरे फुफेरे भाई का फोन आ गया। उसने बताया, “पता है मेरी अम्माँ कितनी चालाक निकली? उन्होंने पिछले पाँच सालों में सत्रह हजार रुपए जमा करके रखे थे। उनके पास 500 और 1000 के नोट भरे पड़े हैं। आज निकाल कर दिया। मैंने और तुम्हारी भाभी ने उन्हें खूब बुरा भला कहा।“

दरअसल मेरे फूफा को गुजरे हुए कोई दस साल बीत चुके हैं। उनके मरने के बाद उनके पेंशन की आधी राशि बुआ को मिलती है। लेकिन मेरा फुफेरा भाई सारे पैसे हड़प लेता है और उन्हें 500 या 1000 रुपये कभी कभार पकड़ा देता है। मैं तो यह सोचकर चिंता में पड़ गया कि मेरी बुआ की मानसिक स्थिति इस समय कैसी होगी।

अगले दिन सुबह सुबह जब कामवाली आई तो वह बहुत चिंता में लग रही थी। वह मेरी बीबी से कह रही थी, “दीदी, अभी कल परसों ही सब लोगों ने मुझे पगार दिये थे। सारे नोट 500 या 1000 के हैं। मेरे पास बारह हजार रुपए हैं। मैने अपनी बेटी की शादी के लिये पचास हजार रुपए जमा करके रखे हैं। अब उनका मैं क्या करूँगी? मेरा तो कोई खाता भी नहीं है।“

मुझे मेरे पैसों की चिंता अधिक नहीं थी। हाँ एक चिंता हो रही थी कि पता नहीं अपने नोटों को बदलवाने के लिए बैंक में कितने घंटे लाइन में खड़ा होना पड़ेगा और कितने दिन रोज जाकर लाइन लगना पड़ेगा। अभी अभी त्योहारों की छुट्टियाँ समाप्त हुई हैं इसलिए कंपनी से छुट्टी लेना भी मुश्किल होगा। मुझे अपनी काम वाली के लिये चिंता हो रही थी। वह बेचारी यदि बैंक में लाइन लगने के लिए छुट्टी लेगी तो ज्यादातर लोग उसकी पगार काट लेंगे। मेरा धन अब उसके धन से अधिक सफेद लगने लगा था। मुझे सुपर रिन की सफेदी की चमकारयाद आने लगी।

मैं यह सोच ही रहा था कि धनबाद वाले मौसा जी का फोन आया। मौसा जी ने बहुत दुख भरा समाचार सुनाया। मौसा जी ने कहा, “तुम्हें बताया था न कि अगले महीने गुड्डो की शादी की डेट रखी थी। अभी एक सप्ताह पहले लड़के वालों को सात लाख रुपए बतौर एडवांस दिया था। आज ही उनका फोन आया था। कह रहे थे कि उन पैसों को वापस ले लूँ और बदले में 100 के नोट की व्यवस्था करूँ। जब मैने अपनी असमर्थता जताई तो कहने लगे कि मैं कहीं और रिश्ते की बात करने के लिए स्वतंत्र हूँ। बड़ी मुश्किल से तो गुड्डो की शादी तय की थी। अब तो मेरी आँखों के आगे अंधेरा सा छा गया है। समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूँ।“


सन 2116 में छठ पूजा

गप्पू के दादाजी आज बहुत जोश में लग रहे थे। उन्हें छठ पूजा के लिए बाजार जो जाना था। गप्पू और उसकी मम्मी भी बहुत खुश थीं क्योंकि छठ पूजा के अवसर पर भारत में हजारों ऑनलाइन शॉपिंग पोर्टल से हर चीज पर जबरदस्त छूट जो मिल रही थी। गप्पू की मम्मी को लेटेस्ट डिजाइन की ड्रेसेज खरीदनी थी। हालांकि अभी अभी धनतेरस के अवसर पर उन्होंने ढ़ेर सारे गहने खरीदे थे लेकिन सैंकड़ों ऑनलाइन टीवी चैनल पर चल रहे विज्ञापनों और छठ स्पेशल प्रोग्राम का उनपर इतना गहरा असर हुआ था कि वे ऑनलाइन शॉपिंग का मोह छोड़ नहीं पा रही थीं। उधर गप्पू को एनवायरनमेंट फ्रेंडली पटाखे खरीदने थे। ये नये जमाने के पटाखे थे जिनमें वह सब कुछ होता था जो पुराने जमाने के पटाखों में होता था लेकिन इन नये जमाने के पटाखों से प्रदूषण नहीं होता था। इन पटाखों का आविष्कार पुराने जमाने में ही हो चुका था। हिंदू धर्म के नये रखवालों का कहना था कि इन पटाखों की खोज आर्यभट्ट जैसे महान वैज्ञानिक ने की थी जिनका जन्म हजारों साल पहले हुआ था। लेकिन मुगलों और अंग्रेजों के प्रभाव में भारत की यह विद्या बहुत वर्षों तक छुपी हुई रही। वह तो भला हो उस राष्ट्रवादी नेता का जिसने इक्कीसवीं सदी में भारत के खोये हुए ज्ञान को जनमानस के पटल पर वापस लाकर इतिहास रच दिया। लेकिन जबतक इन पटाखों का उत्पादन भारत में शुरु हुआ तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी। भारत में प्रदूषण इतना बढ़ चुका था कि राजधानी दिल्ली समेत भारत के हर शहर और हर गाँव में धुंध के बादल हमेशा के लिए छाये रहते थे।

दरअसल ये धुंध के बादल नहीं थे बल्कि धुँए और पीएम 2.5 नामक पदार्थों की वजह से धुंध जैसे दिखते थे। चूँकि यह धुंध जैसी चीज लगभग सौ वर्षों से छाई हुई थी इसलिए भारत के अलावा दुनिया के सभी देशों में सूरज या चांद कभी नजर ही नहीं आता था। बहरहाल, छठ पूजा की खरीददारी के बाद घर में पकवानों के बनने का सिलसिला शुरु हुआ। एक बार मम्मी ने सलाह दी कि हल्दीराम से रेडीमेड पकवान मंगवा लिये जाएँ। लेकिन दादी ठहरीं पक्की परंपरावादी सो उन्होंने अपना वीटो लगा दिया और पकवान घर में ही बनने लगे। इससे मम्मी थोड़ी निराश हुईं क्योंकि हल्दीराम की तरफ से एक से एक ऑफर दिये जा रहे थे। छठ पूजा के पहले दिन शाम में डूबते सूर्य को अर्घ्य देना था। पूरी हाउसिंग सोसाइटी के लोग स्विमिंग पूल के पास इकट्ठे हुए। अब यमुना और हिंडन नदी इतनी सूख चुकी थी कि उसमें नोएडा और गाजियाबाद डेवलपमेंट अथीरिटी ने कार रेस के लिये बकायदा रेसिंग ट्रैक बनवा दी थी। सूखी नदी के दोनों किनारों पर स्टेडियम की तर्ज पर लोगों के बैठने के लिए सीटें भी बन चुकी थीं। इसलिए अब सभी लोग या तो स्विमिंग पूल में छठ करते थे या फिर प्लास्टिक के टब में या फिर सीमेंट की टंकी में। स्विमिंग पूल के चारों ओर रंगबिरंगी लाइट लगी थी। सोसाइटी में रहने वाले सारे बिहारी परिवार स्विमिंग पूल के चारों ओर पूजा के साजो सामान लेकर जमा हो चुके थे। जो लोग बिहारी नहीं थे वे दर्शकों के लिए लगी कुर्सियों पर विराजमान थे। एक स्थानीय नेताजी छठ पूजा की औपचारिक शुरुआत करने के लिए फीता भी काटने आये थे। अब उनके पास और कोई चारा नहीं था क्योंकि इस सोसाइटी में बिहारियों का वोट बहुत ज्यादा था। प्रधानमंत्री ने भी उस सोसाइटी तथा देश के कोने कोने में रहने वाले बिहारियों को ट्वीट करके छठ की शुभकामनाएँ दीं।

उसके बाद छठ पूजा का मुख्य भाग यानि डूबते सूर्य को अर्घ्य देने की बारी आई। लेकिन घने धुंध के कारण सूर्य को देख पाना संभव नहीं था। लेकिन इससे किसी के माथे पर कोई शिकन नहीं आई क्योंकि वहाँ मौजूद किसी ने भी आज तक सूर्य को देखा ही नहीं था। लोग तो बस अंधेरे उजाले के अंदाजे से यह गेस कर लेते थे कि कब सूर्योदय हुआ और कब सूर्यास्त हुआ। गप्पू की दादी ने भी वही किया। गप्पू उनको सहारा देकर स्विमिंग पूल में ले गया। दादी काफी देर तक पश्चिम दिशा की ओर मुँह करके काल्पनिक सूर्य को प्रणाम करती रहीं। इस बीच लाउडस्पीकर पर शारदा सिन्हा के छठ के गाने भी बज रहे थे। जब दादी को लगा कि अंधेरा बढ़ता जा रहा है तो उन्होंने बाँस के सूपों में रखे पकवानों और फलों से डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया। पश्चिम में डूबते सूर्य की कोई वैसी लाली नहीं दिखाई पड़ रही थी जैसी कि पुराने जमाने की पेंटिंग में दिखाई जाती थी। आकाश में यदि कुछ दिख रहा था तो स्याह रंग के धुंध के बादल जो और भी गहरे रंग के होते जा रहे थे और आने वाली रात की ओर इशारा कर रहे थे।

अगले दिन उसी तरह से सुबह सुबह उगते सूर्य को अर्घ्य देने की रस्म निभाई गई। उसके बाद सोसाइटी के लोगों में छठ का प्रसाद बाँटने के बाद गप्पू अपने परिवार के साथ अपने फ्लैट में आ गया। जब वे लोग प्रसाद खा रहे थे तो उसके दादा जी ने कहा, “जानते हो बेटा गप्पू, मेरे पिताजी के जमाने में लोग सही में उगते और डूबते सूर्य को देख पाते थे? मेरी दादी ने एक बार बताया था कि उन्होंने असली सूर्य को अर्घ्य दिया था।“
उनकी बात सुनकर गप्पू जोर से हँसा और बोला, “क्यों डींगें मार रहे हैं दादाजी। मैने अपनी साइंस की किताब में पढ़ा है कि इस यूनिवर्स में सूर्य और चांद जैसे खरबों सेलेस्टियल बॉडी हैं लेकिन उन्हें केवल उन शक्तिशाली टेलिस्कोप से ही देखा जा सकता है जो पृथ्वी के वायुमंडल से लाखों किमी दूर हैं। मैने नासा की वेबसाइट पर उनकी फोटो जरूर देखी है। लेकिन यह साइंटिफिकली प्रूव हो चुका है कि सूर्य को धरती पर से देखने वाला इंसान अब जिंदा नहीं बचा है। मेरी टीचर तो कहती हैं कि किसी ने अगर सूर्य को वाकई देख लिया तो उसकी आँखों की रोशनी सदा के लिए चली जायेगी।“

दादी भी उन दोनों की बातें सुन रही थीं। उन्होंने कहा, “अरे नहीं बेटा, मैने तो करवा चौथ के अवसर पर चाँद को भी देखा था। यह तब की बात है जब मैं छोटी बच्ची थी। मेरी माँ ने करवा चौथ का व्रत रखा था। चाँद बहुत ही सुंदर दिखता था, बिल्कुल सफेद|”

गप्पू फिर से हँसा और बोला, “क्या बात करती हो दादी। चाँद की फोटो भी मैने देखी है। वह तो बिल्कुल धूसर रंग का बेजान उपग्रह लगता है। सफेद कैसे दिखता था?”


गप्पू ने आगे कहा, “आप लोग तो मेरी साइंस की बुक और टीचर दोनों को झुठला रहे हैं। दादी, लगता है कि दो दिनों के उपवास के कारण आपकी मति मारी गई है।“ 

Thursday, November 3, 2016

एक पेंगुइन की मौत

“क्या पेंगुइन की मौत किसी इंफेक्शन की वजह से हुई?”

“क्या पेंगुइन की मौत अधिकारियों की उदासीनता के कारण हुई?”

“क्या पेंगुइन ने आत्महत्या की?”

टीवी एंकर चीख चीख कर दर्शकों को झकझोरने की कोशिश कर रही थी। साथ में किसी मशहूर कार्टून फिल्म के एनिमेशन चल रहे थे जिसमें हजारों पेंगुइन को अंटार्कटिका में धमाचौकड़ी मचाते हुए दिखाया जा रहा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अंटार्कटिका में पेंगुइन की मौत से दिल्ली के टीवी स्टूडियो में बैठे एंकर क्यों परेशान हो रहे थे। थोड़ी देर तक ध्यान से टीवी देखने के बाद दो बातें साफ हो गईं। पहली बात कि मुम्बई के किसी चिड़ियाघर में किसी पेंगुइन की मौत हो गई थी। दूसरी बात कि दिल्ली के टीवी चैनल वालों के पास इतनी जल्दी मुम्बई के चिड़ियाघर से फूटेज लाना संभव नहीं था इसलिए किसी कार्टून फिल्म से ही काम चला रहे थे। अब यह कोई मयूर विहार या अक्षरधाम मंदिर या डीएनडी से घने कोहरे को दिखाने जैसा आसान तो था नहीं कि लपक कर कोई कैमरामैन जाता और विडियो बनाकर ले आता।

थोड़ी देर बाद कांग्रेस के किसी गुमनाम नेता को टीवी पर दिखाया जाने लगा। वह नेता बृहनमुम्बई महानगरपालिका के अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहा था। उसका कहना था कि पेंगुइन को अंटार्कटिका से लाने में और फिर उनके रखरखाव की सुविधाएँ बनाने में करोड़ों का भ्रष्टाचार हुआ है। वह इस प्रकरण की सीबीआई जाँच की माँग कर रहा था। जब उत्तर प्रदेश के किसी मंत्री की भैंस गुम हो जाने पर सीबीआई जाँच की माँग उठ सकती है तो फिर पेंगुइन की मौत पर क्यों नहीं।

थोड़ी देर बात एक और ब्रेकिंग न्यूज आने लगा कि राहुल गांधी अपने दलबल के साथ अन्य पेंगुइनों से मिलने मुम्बई के चिड़ियाघर पहुँच चुके हैं। उसके बाद पता चला कि मुम्बई पुलिस ने राहुल गांधी को गिरफ्तार कर लिया। मुम्बई पुलिस के एक आला अधिकारी टीवी पर कह रहे थे कि सुरक्षा कारणों से राहुल गांधी को गिरफ्तार करना जरूरी हो गया था।

जब राहुल गांधी गिरफ्तार हो गये तो फिर भला अरविंद केजरीवाल कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्होंने मनीष सिसोदिया को आगे आगे भेजा और फिर पीछे पीछे खुद चल पड़े। जब मनीष सिसोदिया ने इस बात की पुष्टि की कि पुलिस केवल गिरफ्तार कर रही है और शारीरिक प्रताड़ना नहीं दे रही तो फिर अरविंद केजरीवाल भी जाकर गिरफ्तार हो गये।

अब तो टीवी चैनल वालों की जैसे लॉट्री निकल गई। पूरे दिन के लिए एक से बढ़कर एक ब्रेकिंग न्यूज का जुगाड़ हो गया। उधर अरविंद केजरीवाल ट्वीट कर रहे थे कि उन्हें किसी अज्ञात जगह पर ले जाया जा रहा था। इधर टीवी चैनल वाले राहुल गांधी को पुलिस की जीप में सवार होते हुए दिखा रहे थे।

पुलिस की जीप में बैठे बैठे ही राहुल गांधी ने टीवी चैनल वालों को इंटरव्यू भी दिया, “ये कैसा हिंदुस्तान बना रहे हैं हम। जिस देश में एक पेंगुइन की सुरक्षा की गारंटी नहीं है उस देश में जनता कैसे सुरक्षित रह सकती है। हम चाहते हैं की पीएम को पेंगुइन की मौत के लिए माफी मांगनी चाहिए। उसे शहीद का दर्जा देना चाहिए।“

थोड़ी देर के बाद एक और ब्रेकिंग न्यूज आई कि पेंगुइन ने आत्महत्या की थी। इसकी पुष्टि तब हुई जब पेंगुइन के बाड़े से सल्फास की एक बोतल बरामद हुई। दरअसल वह पेंगुइन हिंदुस्तान के गर्म माहौल से विक्षिप्त हो गया था। पेंगुइन के आवासीय परिसर में जो एयर कंडीशनर लगा था वह इतना तगड़ा नहीं था कि बर्फ जमा सके। बेचारे पेंगुइन को इस बात का डिप्रेशन हो रहा था कि वह कई महीनों से आइस स्केटिंग नहीं कर पाया था। इसलिए अपने हालात से तंग आकर उसने खुदकुशी करने का निर्णय लिया।

यह खबर सुनते ही सत्ताधारी दल के एक बड़े ही काबिल मंत्री ने अपना बयान जारी कर दिया, “वह पेंगुइन मर गया इसका हमें बेहद अफसोस है। लेकिन किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले पेंगुइन के दिमागी हालत की जाँच होनी चाहिए। हो सकता है कि मानसिक संतुलन बिगड़ने के कारण उसने आत्महत्या की होगी। यदि उसकी खुदकुशी की पुष्टि हो जाती है तो फिर उसे शहीद का दर्जा मिलने का सवाल ही नहीं उठता। मैं पूरी जिम्मेवारी के साथ कह सकता हूँ कि एयर कंडीशनर बनाने में हम दुनिया के अग्रणी देशों से टक्कर ले सकते हैं। मेरे कमरे में लगा एसी तो मेरी कुल्फी जमा देता है।“

उसके बाद मंत्री जी ने अपने बयान में यह छौंका भी लगा दिया, “सूत्रों से पता चला है कि वह पेंगुइन चिड़ियाघर में हुए सरपंच के चुनाव में कांग्रेस के टिकट से लड़ा था। इस तरह से वह एक कांग्रेसी कार्यकर्ता हुआ। इस तरह से उस पेंगुइन की मौत भारत को कांग्रेस मुक्त बनाने की दिशा में एक ठोस कदम है।“

मंत्री जी के इतना कहते ही सारे देशभक्त टीवी चैनल देशद्रोहियों के खिलाफ आग उगलने लगे। आनन फानन में सभी चैनलों पर पैनल बन गये और वाद विवाद प्रतियोगिता शुरु हो गई। पैनल पर शिरकत कर रहे कुछ विद्वानों ने ये तक कह दिया कि चूँकि वह पेंगुइन विदेश से आया था इसलिए उसका स्वर्ग सिधारना ही उचित था। देशभक्ति से लबरेज इस माहौल में यही उचित होगा कि हम स्थानीय पशु पक्षी से अपने चिड़ियाघर को सजाएँ और विदेशी पशु पक्षियों का सार्वजनिक बहिष्कार करें।

Saturday, October 29, 2016

Party Time With a Doctor

Pharmaceutical companies usually conduct group meetings which are technically called CME programmes. The idea behind such programmes is to buy some extra time and buy a captive audience for the company so that a detailed discussion about a particular product can be facilitated. But in practice, it all translates to wining and dining for the doctors at company's expenses. This is done in the hope of getting a more pliable pair of ears when the medical representative goes to meet a doctor on his next call. Everything boils down to expectation of increased prescriptions and increases sales from the target doctors.

My company came with an idea to a more pin pointed approach to this tactics; by conducting one to one meeting of some topnotch doctors in the territory. It was assumed that it would give a focused attention to the doctor and it would help in cracking even the hard to crack customers. The target doctors for such activity were carefully selected and mainly included opinion makers from the market.

In one of my territories, I invited a Head of Department from Medicine from the local medical college for such a meeting. My boss was also with me; because at that time I was still a greenhorn. I was not mature enough to handle such assignment independently.

I and my boss were staying in a decent hotel of the town. We had invited that doctor to the same hotel. Since it was a one to one meeting so there was no need to book a separate venue for the meeting. My boss's room served as the venue of the meeting.

I was waiting at the entrance of the hotel to welcome that doctor. While I was looking for a suitable parking space for his car, I was surprised to see him coming on a cycle-rickshaw. The doctor said that he did not want to drive while drunk so he preferred the cycle-rickshaw. I was pleased with his sense of responsibility and his understanding about the problems with drunken driving.

The doctor came at the right time as per his commitment; which was quite strange considering the habit of Indian Stretchable Time (IST). The doctor was in his early fifties. He was tall, dark but not so handsome. His ugly looks came partly because of his rough skin and partly because of plenty of fat at wrong places all over his body. Nevertheless, the doctor was wearing all white dress; including white shoes and socks. He must have been a great fan of the cine star of the sixties, aka Jitendra. The red tie provided the contrast against the white backdrop of his dress. The red tie also complimented with copious amount of betel juice dripping from the sides of his lips.

Once we were inside the room, my manager began with making pegs of whisky for all of us. When the manager was measuring exactly 30 ml for a peg, the doctor said that he preferred the extra large variety, i.e. Patiala Peg. My boss duly obliged him. That is how the endless round of booze started for the so-called one to one CME. Our discussions mainly veered around sundry political issues and on gossips about film celebrities. My boss was smart enough to add some sprinkling of product, indications, contraindications, etc. to that discussion. Once the doctor had gobbled about four pegs of whisky, he was at his savage best. He began uttering gory details of wrongdoings of many of his colleagues. He was least afraid of many skeletons tumbling down the cupboard because of the friendly image of pharmaceutical sales professionals. He also talked about his escapades when he was a student of the medical college.

When the doctor's body was fully concentrated with alcohol and could not take any more of it, we ordered for dinner. The doctor asked for a full plate of tandoori chicken. Within a few minutes, I could see a heap of bones in his plate. He also gobbled a lot of butter nan and at least four scoops of ice-cream.

After the heady cocktail of whisky and heavy food, the doctor did not appear to be in his senses. On his demand, I also arranged for betel for him. The tobacco; along with betel; created too many problems for his nerve cells. This was evident from all the nasty talks which were coming from his mouth.

I was getting worried about his safety. My boss asked me to drop that doctor to his residence but I refused. I refused because his residence was at least 10 km away from that hotel and it was quite unsafe in that town to roam on a cycle-rickshaw during late night. Sensing our plight, the doctor came to my rescue. He said that he was confident of safely reaching is home. He said that he was a well known face in the town so he would get timely help if a need arose.

After that, we came out of the room. Some waiters were watching us and were trying to hide their smile. From the room, we moved towards the staircase. Once on the staircase, it did not take too much effort for the doctor to come down to the ground floor because he simply slipped and slid down to the ground floor. It was difficult for me to control my laughter. A few waiters came to our help. They helped the doctor to stand on his feet.

Once outside the hotel, I called a rickshaw puller. We somehow managed to load the doctor on the cycle rickshaw. I gave double amount of money than whatever was demanded by the rickshaw puller. He said that he knew that doctor so I did not need to worry.

Once the rickshaw was out of our sight, I and my boss burst into a huge round of laughter. 

Friday, October 28, 2016

Diwali in a Small Balcony


My ten year old son is full of energy today. In spite of no school, he got up quite early in the morning because he can hardly wait to celebrate Diwali. I have planned to go for shopping for Diwali and Dhanteras during the first half of the day just to beat the overcrowding in the market and heavy traffic on the road. 

After buying sundry items of daily needs, we shifted our attention to the real Diwali shopping. We bought idols of Ganesha and Lakshmi and then were browsing through the racks of decorative light. All the colourful lights bore the tell tale marks of ‘Made in China’ products. Some of the decorative lights were probably made in India but they were not of good quality and were highly priced. I settled for saving some money by opting for the ‘Made in China’ variety and meekly worried my patriotic feelings. It is needless to mention that my patriotic feeling had developed quite strong over the last week; after reading so many articles on boycott of Chinese goods.

After that, it was the turn of firecrackers. Once again, the Chinese firecrackers beat the Indian ones in terms of price and quality. Moreover, most of the shopkeepers were keeping only the China made firecrackers. It is altogether a different matter that huge banners were fluttering throughout the market; boldly displaying messages to boycott the Chinese crackers.

Then we shifted our attention to ‘Diya’ or earthen lamps. I had earlier received many forwarded messages on Facebook and Whatsapp; advocating the virtues of buying earthen lamps. Some of the messages talked about supporting the poor artisans who make such lamps. Some of them even went overboard and told that using earthen lamps would help in reducing pollution. My rudimentary knowledge of science tells that when any fuel is burnt, it is going to create air pollution. I am sure a ‘Diya’ does not come with electrostatic precipitators or catalytic converters to reduce air pollution or suspended particulate matters. In spite of that we ended up buying 50 pieces of diyas which could be enough for out five feet by three feet balcony. My wife suggested me to buy a few packs of candles as well because using a diya can be quite messy. So, I had to concede to her demand and I ended up buying a few packs of candles as well. I was thinking of the decorative lights which I had purchased earlier. I was thinking of the futility of buying so many options to lighten up our small balcony. It appeared to be a sheer wastage of money. I discussed the matter with my wife because I wanted to save some money by returning the decorative lights. My son; who was overhearing our discussions showed his adamant attitude. He said that it would give a bad appearance if one of the flats in the housing society would be devoid of decorative light. He said that it would demean his image among his friends. So, I had to cede to the demand of the generation X.

Now, it was the turn of shopping for Dhanteras. My wife suggested that we should by a new ‘Pooja Thali’ because shopping for Dhanters won’t be complete without that. There were numerous decorated thalis on display on one of the racks. We bought a thali which cost us five hundred rupees. I have no problem to admit that the beautiful floral motif on the thali was worth the price which I paid for the thali. Then my wife said that elders say that one must buy a utensil on this auspicious day. I suggested me to go for a set of spoons; in order to keep the expenses down. But my wife was craving to buy a fancy dinner set. She believes that a fancy dinner set does wonders to lift your esteem in front of guests. So, we bought a ceramic dinner set which further depleted my cash reserves by Rs. 3000. After that, my wife said that a Dhanteras shopping would be incomplete unless you buy a gold coin. She said that offering a gold coin to the idols of Lakshmi does wonders to your income. I did not have the courage to refuse the dictum of the Ministry of Home Affairs, so we also bought a gold coin. It was a much smaller coin which cost us only five thousand rupees. Deep inside, I was writhing in pain on my eventual ‘diwala’ on the day of Diwali.


Our two BHK flat has a solitary balcony. This is the only part of the house which is visible to the outside world and hence needs the maximum decoration on Diwali. The rooms, the hall and the kitchen have little space for decoration. Moreover, safety concerns also prohibit us from burning any diya or firecracker in the house; except in the balcony. My wife promptly made a beautiful rangoli by using stencils and coloured powder. The ragnoli is bang in the centre of the balcony. Decorative lights were suspended in neat rows from the railing of the balcony. The concrete skirting of the balcony provided the place of pride to the diyas. Then, the next row was occupied by the candles. This left little space for the fireworks. Nonetheless, my son utilized that small space to show his pyrotechnics and my little family had a wonderful Diwali celebration.