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Thursday, October 13, 2016

Inconvenience is Deeply Regretted

भैया ये कटलेट तो ठंडे हैं। तुम गर्म कटलेट क्यों नहीं रखते?“ मैने पैंट्री के स्टाफ से पूछा।

पैंट्री के स्टाफ ने निर्विकार भाव से कहा, “साहब, ये कटलेट कल के हैं। पहले कल वाले बिक जाएँ तभी तो आज ताजे बनेंगे।

क्या आपको भी ट्रेन यात्रा के दौरान ऐसा अनुभव हुआ है? पढ़िये ऐसे ही मजेदार और रोचक अनुभव मेरे नये उपन्यास YOUR TRAIN IS RUNNING LATEमें। यह उपन्यास अमेजन डॉट कॉम पर उपलब्ध है। यह किंडल पर और पेपरबैक दोनों टाइप में उपलब्ध है। 

Your Train is Running Late

This story is about various problems which one can encounter while travelling by trains; especially during a long distance journey. More often than not, the train never runs on time. A slight disturbance in weather causes inordinate delay in train timings. The lack of concept of ‘customer service’ among the railway staffs, vendors, railway police, etc. further compound the problem and take the joy out of traveling. There are two key protagonists in this novel. One of them is a middle class person while another is a migrant laborer. Both of them face almost similar problems but each of them has his own way to visualize and tackle a particular problem. But the migrant laborer faces more problems because of his socio-economic status. But the same socio-economic status enables him to derive more pleasure from mundane things. Both the protagonists are travelling by the same train but are travelling in different classes. Both of them get almost similar pain due to inordinately long duration of the journey. However, both of them keep on their nerves to withstand the agonies of the journey and finally end up as satisfied passengers when they reach their final destination. One of the protagonists is a middle class person working at middle level position in some private company at Delhi. Another protagonist is a migrant laborer from Bihar who lives with three other friends in a slum in Delhi. The first protagonist is traveling to Bihar for the festival of Holi; along with his family. The second protagonist is also traveling by the same train and for the same purpose but he is going to meet his family. The first protagonist is going by the air-conditioned class while another guy is going by the sleeper class. Both of them face difficulties while getting confirmed tickets for the journey. However, availability of a travel agent makes it somewhat easier for the second character. The train is running behind its schedule and hence both of them are forced to wait for their train for about ten hours on the waiting lounge of the railway station. During their journey, they face numerous other problems; in the form of shoddy quality of food, greedy railway staffs and further delay during the journey. They make many friends during the journey and share their thoughts, happiness and sorrow with their fellow passengers. They get to interact with some of the unique characters during their journey. After going through all the trials and tribulations, they successfully reach their respective destinations. The train takes more than thirty hours to complete its journey against the stipulated schedule of about twenty hours. If waiting period is included then their tale of horror lasts for more than forty hours. This story tells about the numerous difficulties faced by common people in their day-to-day life. We should not forget that we are living in a country where a simple task like crossing the road can be life threatening. 

Sunday, October 9, 2016

नीचे का करप्शन

सुबह सुबह मुझे लगा कि मेरे शरीर का निकोटिन लेवेल कम हो गया है। इसलिये मैं उसकी भरपाई करने के खयाल से घर से निकला ताकि सोसाइटी के गेट के बाहर की दुकान तक जा सकूँ। मेरी बीबी पूजा की तैयारी में तल्लीन लग रही थी। उसकी तैयारी के विशाल स्केल को देखकर मुझे ध्यान आया कि आज दुर्गा पूजा की नवमी वाली पूजा होगी जिसमें हवन करना होता है। मैने अपनी बीबी से पूछा, “मैं नीचे जा रहा हूँ, कुछ मंगवाना तो नहीं है?

मेरी बीबी ने वहीं बैठे बैठे जवाब दिया, “हाँ, दूध और लड्डू ले आना। हाँ, उस दूधवाले से कहना कि कल जो दही दिया था वह बहुत ही घटिया था।“

मैने अपनी बीबी के इंस्ट्रक्शन का एक मेंटल नोट बना लिया और दरवाजे से निकल कर लिफ्ट तक आया। लिफ्ट से जब मैं ग्राउंड फ्लोर पर पहुँचा तो वहाँ सामने बैठे दरबान ने अपनी पोपली मुसकान के साथ मुझे नमस्ते किया। मैने भी उसकी नमस्ते का जवाब मुसकरा कर दिया और तेजी से आगे बढ़ गया। लगभग डेढ़ सौ कदम चलने के बाद मैं सोसाइटी के गेट से बाहर निकला और सामने की सड़क पार करने के बाद सामने एक मिनी शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में पहुँचा। इस शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में बेसमेंट में कुछ किराना की दुकानें और एक मिठाई की दुकान है जो दूध दही भी बेचा करती है। दूधवाला बाहर सड़क के किनारे ही अपनी कुर्सी पर विराजमान था। मुझे देखते ही वह मुसकराया और मेरे आगे-आगे दुकान के अंदर चला गया।

मैने उससे कहा, “भैया एक लीटर दूध और आधा किलो लड्डू देना।“

दुकानदार ने एक प्लास्टिक की थैली में दूध भरना शुरु किया और पूछा, “भाई साहब, दूध पसंद आ रहा है?”

मैने कहा, “ठीक ही है। पैकेट वाले दूध से थोड़ा बेहतर। पैकेट वाले दूध में एक अजीब सी बदबू आती है। लेकिन तुम्हारा दूध भी शुद्ध नहीं लगता है।“

दुकानदार ने मेरी ओर देखा और कहा, “भैया, थोड़ा पानी तो हम भी मिलाते हैं, लेकिन साफ पानी मिलाते हैं इसकी गारंटी है।“

मेरे चेहरे पर एक फीकी मुस्कान आई और मैने कहा, “भैया, तुम जितने पैसे मांगते हो उतने मैं देता हूँ। फिर शुद्ध दूध क्यों नहीं बेचते?

दुकानदार ने थोड़ा हँसते हुए कहा, “नहीं भाई साहब, दरअसल ऐसा है कि यदि आप जैसे शहरी लोग भैंस का शुद्ध दूध पी लें तो पेट खराब हो जाये।“

उसके बाद मुझे लगा कि उस आदमी से बहस लड़ाने में कोई फायदा नही है। मुझे उससे लड्डू भी लेने थे। उसके मिठाई की सबसे नजदीकी दुकान वहाँ से कम से कम तीन किमी की दूरी पर है इसलिये मेरे पास कोई और विकल्प नहीं था। मैंने उससे कहा, “भैया, आधा किलो लड्डू दे दो।“

दूध के पैकेट को रबर बैंड से सील करने के बाद वह लड्डू तौलने की तैयारी करने लगा। उसने गत्ते से बना एक लाल रंग का डिब्बा निकाला जिसके ऊपर रंगोली जैसा सुंदर डिजाइन बना था। उसने डिब्बे में लड्डू डाले और उन्हें तौलने लगा। उसकी इलेक्ट्रानिक स्केल पर 518 ग्राम वजन दिख रहा था। वह डब्बा पैक करते हुए बोला, “देखो भाई साहब, मैने आपको 18 ग्राम अधिक लड्डू दिये हैं।“

मैने कहा, “लेकिन तुमने तो लड्डू के साथ साथ डिब्बे का भी वजन लिया है। इसका मतलब है तुम डिब्बे को भी दो सौ रुपये किलो की दर से बेच रहे हो। ये तो गलत बात है।“   

दुकानदार ने कहा, “आप कहीं भी चले जाएँ, हर मिठाई वाला मिठाई के डिब्बे के साथ ही मिठाई तौलता है। यही परिपाटी है। इसमे गलत क्या है?”

मैने कहा, “भैया, तुमने जो रेट मांगा वो मैने दिया। तुमसे मोलभाव नहीं किया। फिर भी तुम मुझे लूटने की कोशिश क्यों कर रहे हो?”

मैने आगे कहा, “और सुनो, कल तुमसे जो दही लिया था वो भी घटिया था। सही सामान दोगे तो तुम्हारे ग्राहक बने रहेंगे।“

दुकानदार ने कहा, “क्या कहा, दही खराब था? तो आज मट्ठा ले जाओ पीने के लिये।“

मुझे अब झल्लाहट होने लगी थी। मैने कहा, “कमाल करते हो यार, दही खराब था इसलिये अब मट्ठा पी लूँ। तुम कहो तो दूह दही खाना ही बंद कर दूँ।“

तभी दुकानदार का बड़ा भाई भी दुकान पर पहुँच चुका था। मामले को समझने के बाद उसके तो अलग ही तेवर थे। वह मुझसे बोला, “देखो भाई साहब, जो सामान मिलता है शराफत से ले लिया करो। हम पिछले सात पुश्तों से दूध दही का धंधा कर रहे हैं। आज तक किसी की मजाल नहीं हुई कि हमारे सामान को खराब बोल दे। एक दो तुम्हारे जैसे ग्राहक नहीं आएँगे तो हमारी सेहत को कोई असर नहीं पड़ने वाला।“


मुझे पता था कि वह पास के ही गाँव के एक दबंग का रिश्तेदार है। इसलिए मैने चुपचाप उसकी बात सुन ली और पैसे चुकता करने के बाद अपने घर चला आया। मेरी बीबी को मेरी शकल देखकर कुछ शक हुआ तो मैने कहा, “तुमसे तो मैं ही ठीक हूँ। पिछले पंद्रह सालों से नींबू वाली चाय पी रहा हूँ क्योंकि कहीं भी सही दूध नहीं मिलता है। दही खाना है तो किसी मल्टीनेशनल ब्रांड का खाओ। उससे कम से कम इन उजड्डों से बहस तो नहीं लड़ानी पड़ेगी।“  

नवाज की रामलीला

नवाज आज बहुत खुश है। वह अपनी चमचमाती गाड़ी में आराम से पिछली सीट पर बैठा हुआ है और एसी वेंट से आती हुई ठंढ़ी हवा का मजा ले रहा है। वह लगभग चौदह साल के बाद अपने गाँव लौट रहा है। वह लगभग चौदह साल का था जब उसे गाँव से भागना पड़ा था। बात सिर्फ इतनी थी कि वह गाँव की रामलीला में मारीच का रोल करने के लिये स्टेज के पीछे तैयारी कर रहा था तभी कुछ लोगों ने उस पर हमला बोल दिया। वे लोग इस बात को कतई पसंद नहीं करते थे कि एक मुसलमान का बेटा रामलीला में काम करे। लोगों ने उसकी जमकर पिटाई की थी। अपने अब्बा की सलाह पर नवाज अपनी जान बचाने के खयाल से गाँव छो‌ड़कर भाग गया था।

नवाज को लोग थोड़ा सनकी भी समझते थे। वह पतला दुबला और काला कलूटा था और उसपर से उसकी लम्बाई भी कम थी। उसके अब्बा की पंक्चर की दुकान से इतनी कमाई नहीं हो पाती थी कि नवाज को ठीक ढ़ंग से खाना पीना मिल सके। कुछ हद तक कुपोषण की वजह से और कुछ अपने पुरखों से आये जीन की वजह से नवाज एक मरियल टाइप का लड़का ही लगता था। फिर भी उसे बचपन से ही फिल्म स्टार बनने का शौक था। बचपन से ही वह टेलिविजन देख देखकर मशहूर फिल्म स्टारों की नकल उतारा करता था। अपने इस अनूठे हुनर के कारण नवाज अपने हमउम्र लड़कों और लड़कियों में काफी लोकप्रिय था। जाड़े की शामों को अक्सर जब गाँव के लोग एक बड़े से घूरे के पास आग तापने के लिये इकट्ठे होते थे तो नवाज तरह तरह के स्वांग रचकर लोगों का मनोरंजन किया करता था। लेकिन लोग उसे किसी जोकर से अधिक तवज्जो नहीं देते थे।

नवाज गाँव से भागने के बाद सीधा मुम्बई पहुँचा। वहाँ पहुँचकर सबसे पहले उसने किसी पंक्चर की दुकान पर नौकरी शुरु कर दी। यह उसका खानदानी पेशा था इसलिये उसने अपने काम और लगन से अपने मालिक का दिल जीत लिया। पंक्चर बनाने के सिलसिले में उसे अक्सर मशहूर फिल्मी हस्तियों के घर आने जाने का मौका मिलता था। नवाज ने उन मौकों का फायदा उठाने की भरपूर कोशिश की। लेकिन उसकी कद काठी और अजीब से शकल के कारण कोई उसे घास ही नहीं डालता था। लेकिन जब तक नवाज बीसेक साल का हुआ तब तक उसकी जान पहचान मुम्बई की फिल्म इंडस्ट्री के कई नामी गिरामी लोगों से हो चुकी थी। अपने कनेक्शन के कारण नवाज को बर्थडे पार्टी और किट्टी पार्टी में मेहमानों का मनोरंजन करने के लिये बुलाया जाने लगा। इसी तरह एक दिन किसी फिल्म डायरेक्टर ने उसपर तरस खाकर उसे एक फिल्म में छोटा सा रोल दे दिया। नवाज के सीन में उसे हीरो के पिता की जेब काटते हुए दिखाया गया और उसके बाद हीरो से बुरी तरह पिटते हुए दिखाया गया। नवाज ने उस छोटे से रोल में अपनी पूरी शिद्दत के साथ काम किया।

संयोग से उस सीन को देखकर एक ऐसा डायरेक्टर प्रभावित हो गया जिसे आर्ट फिल्में बनाने का शौक था। उसने अपनी एक फिल्म के लिये नवाज को लीड रोल में ले लिया। उस फिल्म को न सिर्फ आलोचकों और बुद्धिजीवियों ने सराहा बल्कि बॉक्स ऑफिस ने भी हाथों हाथ ले लिया। उसके बाद तो नवाज की निकल पड़ी। एक से एक सुपर स्टार नवाज को अपनी फिल्म में बतौर विलेन रखना चाहते थे। उनका कहना था कि नवाज की बर्फ जैसी आँखें और कुटिल हँसी सामने वाले का खून जमाने के लिये काफी है। इस तरह से नवाज फिल्मों में नेगेटिव रोल के सेंसेशन के रूप में सामने उभर कर आया।

उधर नवाज अपने खयालों में डूबा हुआ था तभी उसके ड्राइवर ने कहा, “सर, लगता है आपका गाँव आ गया।“

नवाज जैसे नींद से जागा। उसने देखा कि उसकी गाड़ी रुकी हुई थी और गाड़ी के सामने एक छोटी सी भीड़ जमा थी। भीड़ में सबसे आगे अधनंगे बच्चे थे जो उस महंगी कार को छू छू कर देख रहे थे। उनके पीछे बूढ़े और जवान स्त्री पुरुष खड़े थे। वे भी बड़े अचंभे से गाड़ी को ही निहार रहे थे। तभी एक बुजुर्ग की नजर कार की पिछली सीट पर बैठे नवाज पर पड़ी। वह बुजुर्ग चिल्लाया, “अरे भैया, ई तो अपना नवजवा है। नवाज! अपना असरानी। अपना जगदीप।“

नवाज गाड़ी से उतरा तो लगभग हर व्यक्ति ने उसे पहचान लिया। दूर से नवाज के अब्बा और अम्मी भी दौड़ते हुए आते दिखाई दिये। उन्होंने नवाज को गले से लगा लिया और उसका माथा चूमकर उसे दुआएँ दीं।

रात में नवाज की अम्मी ने उसकी पसंदीदा बिरयानी बनाई। पहली बार बिरयानी में सही ढ़ंग से जरूरी मसाले पड़े थे इसलिय बिरयानी लजीज भी लग रही थी। खाना खाते-खाते नवाज के अब्बू ने पूछा, “सुना है बहुत बड़े आदमी बन गये हो। कुछ लौंडों ने मुझे तुम्हारी फिल्मों के पोस्टर की कतरनें दिखाई थी।“

नवाज ने एक बोटी चूसते हुए जवाब दिया, “हाँ अब्बू, ये सब आपकी और अम्मी की दुआओं का असर है।“

नवाज की अम्मी ने बीच में ही टोका, “क्या खाक असर है। हर फिल्म में तो तुम उतने ही गंदे दिखते हो जैसे यहाँ से गये थे। उस सलमान को देखो, पचास की उमर में भी कितना हसीन लगता है। वहाँ तो एक से एक मेकअप करने वाले होंगे। उनसे कहो कि तुम्हें भी एक हसीन नौजवान बना दें।“

नवाज जोर से हँसा और बोला, “फिर आप मुझे कैसे पहचानोगी अम्मी।“

नवाज के अब्बू ने पूछा, “कितने दिन रुकने का प्लान है? हमें भी अपने साथ ले चलोगे या हमारा 
बुढ़ापा अकेले ही गुजरेगा।“

नवाज ने कहा, “आपको ही लेने तो आया हूँ। लेकिन सोच रहा हूँ एक सप्ताह यहाँ रुक जाऊँ।“

नवाज के अब्बू ने कहा, “क्यों भई, अब यहाँ तुम्हारा दिल कैसे लगेगा। वो भी पूरा एक हफ्ता।“

नवाज ने कहा, “एक दिली ख्वाहिश है अब्बू। इस बार गाँव की रामलीला में मारीच का रोल करना चाहता हूँ। अब तुम्हारे बदसूरत बेटे को तो वे राम या लक्ष्मण का रोल देने से रहे।“

अब्बू ने कहा, “दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा। अरे उसी रामलीला के कारण तुम्हें यहाँ से भागना पड़ा था। भूल गये इतनी जल्दी।“

नवाज ने कहा, “नहीं अब्बू, भूला नहीं हूँ। लेकिन न मैं गाँव से भागता न इतना बड़ा आदमी बनता। कितने एहसान हैं इस रामलीला के मुझपर। आज वक्त आया है तो उस कर्ज को चुकता कर दूँ।“

नवाज के अब्बू ने कहा, “मुझे तो डर लगता है। जमाना खराब हो चुका है। पूरे देश की हवा बदल चुकी है। अब तो यहाँ दो गज जमीन भी नसीब हो जाये उसपर भी अंदेशा लगा रहता है।“

नवाज ने कहा, “नहीं अब्बू, ऐसा कुछ भी नहीं है। मैं कल ही जाकर रामलीला कमिटी में जाकर अपनी अर्जी डालूँगा। मुझे यकीन है कि वे मुझे मना नहीं करेंगे।“

अगले दिन नवाज रामलीला कमिटी के दफ्तर पहुँचा। यह दफ्तर नवाज के घर से कोई सौ फर्लांग की दूरी पर होगा। एक बूढ़े बरगद के नीचे एक मेज और दो तीन कुर्सियाँ और उनके आगे दो चारपाई; बस यही था रामलीला कमिटी का दफ्तर। दफ्तर के बाहर कुछ आवारा बच्चे उसी गाँव के आवारा कुत्तों के साथ खेल रहे थे। मेज के पीछे लगी कुर्सी पर रामलीला कमिटी के अध्यक्ष बटुक मिश्रा जी विराजमान थे।

नवाज को अपनी ओर आता देखकर बटुक मिश्रा ने कहा, “आदाब अर्ज है नवाज साहब। हमारे अहो भाग्य कि हमसे मिलने बॉलीवुड से एक हस्ती आई है।“

नवाज ने जवाब दिया, “नमस्कार मिश्रा जी। आपके लिये तो मैं अभी भी नवजवा ही हूँ। इतनी इज्जत अफजाई करके शर्मिंदा न कीजिए।“

थोड़ा हाल चाल पूछने और इधर उधर की बातें करने के बाद नवाज ने मुद्दे की बात कही, “मिश्रा जी, मैं बड़े अरमान लेके मुम्बई से आया हूँ। आपसे गुजारिश है कि इस साल की रामलीला में मुझे मारीच का रोल करने दिया जाये।“

मिश्रा जी थोड़ा चौंक कर बोले, “भैया नवाज, तुम तो जानते ही हो कि गाँव का माहौल कितना बदल चुका है। तुम्हें ये भी याद होगा कि तुम्हें गाँव छोड़कर क्यों भागना पड़ा था। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है कि राम का रोल कौन करे और मारीच का कौन। मुझे तो सिर्फ अच्छे कलाकार चाहिए होते हैं।“

नवाज ने कहा, “बस यदि आपको आपत्ति नहीं है तो फिर आपकी बात को कौन टालेगा। आप बस एक बार हामी भर दीजिए।“

बटुक मिश्रा ने कहा, “मेरी तरफ से तो हाँ समझो। तुम चाहो तो आज से ही रिहर्सल शुरु कर सकते हो। लेकिन आजकल कुछ जवान लौंडे गाँव में नेतागिरी करने लगे हैं। हम बुजुर्गों की बात तो वे सुनते ही नहीं। यदि उन्होंने कुछ गड़बड़ की तो फिर मैं कुछ नहीं कर पाउँगा।“

नवाज ने कहा, “जो होगा देखा जायेगा।“

उसके बाद नवाज गाँव के शिव मंदिर के पीछे बने अहाते में चला गया जहाँ रामलीला की रिहर्सल चल रही थी। नवाज को देखकर वहाँ पर मौजूद बाकी कलाकारों में खुशी की लहर दौड़ पड़ी। कोई नवाज का ऑटोग्राफ ले रहा था तो कोई उसके साथ सेल्फी खिंचवा रहा था। इन सबसे फारिग होने के बाद, नवाज को मारीच के डायलॉग की स्क्रिप्ट पकड़ा दी गई और नवाज उसका रिहर्सल करने लगा। नवाज बहुत खुश लग रहा था।

शाम मे जब नवाज अपने घर पहुँचा तो देखा कि उसके घर के बाहर भीड़ लगी है। उस भीड़ में ज्यादातर लोगों के हाथों में डंडे थे और उन डंडों के ऊपर भगवा झंडे लहरा रहे थे। वे लोग बस नारे लगा रहे थे, “नवाज मुर्दाबाद, नवाज मुर्दाबाद।“

नवाज ने भीड़ को शांत करने की कोशिश की और कहा, “भैया मैं तुम्हारा अपना नवाज हूँ। मैं कोई पाकिस्तान का प्राइम मिनिस्टर नहीं हूँ कि तुम मुर्दाबाद के नारे लगा रहे हो।“

भीड़ में से एक पहलवान टाइप नौजवान आगे आया और बोला, “भाई नवाज, हम तुम्हारी फिल्मों के बहुत बड़े फैन हैं। अभी पिछले ही सप्ताह मैंने शहर में तुम्हारी फिल्म देखने के लिये ब्लैक में टिकट खरीदी थी। और मेरे स्मार्ट फोन में तुम्हारे डायलॉग के सीन अभी भी डाउनलोड करके रखे हैं। लेकिन एक सच्चा हिंदू होने के नाते मैं तुम्हें रामलीला में रोल करने नहीं दूँगा। मेरा वश चले तो मैं मुम्बई में भी धार्मिक फिल्मों और सीरियलों में मुसलमानों को रोल दिये जाने का विरोध करूँगा।“

नवाज की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। वह अभी समझने की कोशिश ही कर रहा था कि उसे पुलिस के सायरन की आवाज सुनाई पड़ी। पलक झपकते ही पुलिस की कई गाड़ियाँ वहाँ आकर रुक गईं। एक गाड़ी में से एक पुलिस ऑफिसर उतरा और नवाज के पास जाकर बोला, “सर, मेरे पास ऊपर से ऑर्डर हैं। आपकी जान पर हम कोई आँच नहीं आने देंगे। साथ में हमें गाँव में सांप्रदायिक सौहार्द्र को भी बनाये रखना है। हमारी पुलिस आपको अभी बाबतपुर एअरपोर्ट तक छो‌ड़ देगी। आप बिलावजह इस लोकल पचड़े में ना पड़ें तो ही ठीक है।“


नवाज ने मौके की नजाकत को देखते हुए पुलिस वाले की बात मानने में ही भलाई समझी। इस बार वह गाँव से भगोड़े की तरह नहीं जा रहा था। इस बार उसके साथ उसके अब्बू अम्मी भी जा रहे थे। लेकिन जब नवाज पहली बार गाँव से भाग रहा था तो उसे लगा था कि वह आजाद हो रहा था। उस समय वह बहुत खुश था। लेकिन इस बार नवाज बड़े भारी मन से अपने गाँव से वापस जा रहा था। उसे लग रहा था कि वह अपने सीने पर एक पत्थर रखकर जा रहा था। 

Thursday, October 6, 2016

दशरथ माँझी की रामलीला

माँझी फिल्म को बहुत सराहा गया था और उसके पीछे की एक वजह थी नवाजुद्दीन सिद्दीकी की गजब की ऐक्टिंग। यदि आपने इस फिल्म को देखा होगा तो उसका एक सीन याद कीजिये। इस सीन में दशरथ माँझी बड़ा हो जाता है और धनबाद की कोल माइंस से कमाकर अपने गाँव लौट रहा होता है। गाँव में पहुँचते ही उसे पता चलता है कि सरकार ने ऐलान कर दिया है कि अब उँची जाति और नीची जाति के लोगों में कोई भेदभाव नहीं है। उस गाँव के दलित लोग इस बात का जश्न मनाने लगते हैं। दशरथ माँझी भी अपनी भावनाओं में बह जाता है और जाकर मुखिया के बेटे के गले लग जाता है। अब कानून बनाने से समाज की कुरीतियाँ तो खत्म नहीं हो जातीं। इसलिए बदले में दशरथ माँझी की जमकर पिटाई की जाती है। उसका दोष इतना है कि एक दलित होते हुए भी उसने एक सवर्ण के गले लगने की कोशिश की थी। बेचारा दशरथ माँझी अपमान का घूँट पी जाता है और अपने घर पहुँचकर अपने लोगों के साथ नाचने लगता है।

नवाजुद्दीन सिद्दीकी को दशरथ माँझी की जगह रखकर यदि यह सीन लिखा जाये तो कम दिलचस्प नहीं होगा। नवाजुद्दीन सिद्दीकी बुढ़ाना के रहने वाले हैं। बुढ़ाना में यूँ तो हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों के लोग रहते हैं लेकिन इन दोनों समुदायों के बीच की खाई पिछले कुछ वर्षों में और भी चौड़ी हो गई है। नवाजुद्दीन सिद्दीकी की मुसीबतें एक नहीं रही होंगी बल्कि कई होंगी। कल्पना कीजिये कि नवाजुद्दीन सिद्दीकी को बचपन से ही कितने ताने झेलने पड़े होंगे।

आँखों में सपने और दिल में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अपना नाम रोशन करने के जज्बे से जब नवाजुद्दीन सिद्दीकी मुम्बई पहुँचे होंगे तो लोगों ने उनपर फब्तियाँ कसी होंगी। काला कलूटा, पतला दुबला और बदसूरत सा लड़का भला कैसे बॉलीवुड स्टार बनने के बारे में सोच सकता है। जब शुरु में छोटे मोटे रोल मिले होंगे तो हताशा भी हुई होगी।

फिर भी अपनी प्रतिभा और लगन के दम पर नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने हिंदी फिल्म जगत में अपनी पहचान बना ही ली। कुछ लोग शायद ये भी आरोप लगाएँ कि चूँकि बॉलीवुड पर मुसलमान कलाकारों का वर्चस्व है इसलिये नवाजुद्दीन सिद्दीकी को इतने मौके मिले। लेकिन वे शायद ये भूल जाते हैं कि फिल्मों में सफल होना पूरी तरह जनता पर निर्भर होता है। यदि ऐसा नहीं होता तो आज कुमार गौरव और अभिषेक बच्चन सुपर स्टार होते। यदि ऐसा नहीं होता तो शाहरुख खान और रणवीर सिंह जैसे लोगों का नाम कोई भी नहीं जानता।

बहरहाल; नाम और पैसा कमाने के बाद नवाजुद्दीन सिद्दीकी अपने गाँव लौट रहे हैं। वे माँझी की तरह बस की छत पर बैठकर नहीं आ रहे हैं बल्कि अपने पैसों से खरीदी हुई महँगी कार में आ रहे हैं। गाँव से कुछ दूर पहले जब वे एक ढ़ाबे पर रुकते हैं तो वहाँ बैठे कई लोग उन्हें पहचानने की कोशिश करते हैं लेकिन पहचान नहीं पाते हैं। अब ऊपर वाले ने शकल ही इतनी खराब बनाई है कि कोई इतनी आसानी से उन्हें स्टार नहीं मान पाता। आखिर में एक पंद्रह सोलह साल का लड़का एक फिल्मी मैगजीन में छपी फोटो से मिलान करने के बाद इस बात की पुष्टि कर देता है साक्षात नवाजुद्दीन सिद्दीकी ही उनके सामने बैठे हैं। फिर ढ़ाबे वाला मुफ्त में कोल्ड ड्रिंक बाँटता है और उसके बाद नवाजुद्दीन के साथ सेल्फी लेने का दौर चलता है।

गाँव में पहुँचते ही नवाजुद्दीन के स्वागत में तोरण द्वार सजे हुए हैं। एक बड़ी भीड़ फूल मालाओं से उनका स्वागत करती है। उस भीड़ में ज्यादातर नेता टाइप के लोग हैं। इसलिए आम जनता की भीड़ छतों से ही नवाजुद्दीन की झलक लेने की कोशिश कर रही है।

शाम में नवाजुद्दीन अपने घर के बाहर के दलान में बैठे हैं। उनके चारों ओर चाटुकारों की पूरी फौज है। नवाजुद्दीन सिद्दीकी थोड़ा गंभीर होकर कहते हैं, “भैया, ऊपर वाले की दया से मुझे अपना मुकाम मिल गया। अब सोचता हूँ कि अपने गाँव के लिये कुछ करूँ।“

वहाँ बैठे लोगों में से एक सख्श कौतूहल भरे स्वर में पूछता है, “वाह क्या बात कही है। क्या गाँव में सिनेमा हॉल खोलना चाहते हो?”

नवाजुद्दीन थोड़ा मुसकरा कर कहते हैं, “अब पाइरेटेड मूवी के जमाने में कौन जाता है सिनेमा हॉल। बचपन से ही एक अरमान था कि गाँव की रामलीला में कोई रोल मिल जाता। अब मेरी सूरत देख ही रहे हो। इस सूरत पर राम का क्या रावण का रोल भी न मिले। इसलिये जो भी कोई छोटा मोटा रोल मिल जायेगा वही करके तसल्ली हो जायेगी।“

गाँव के सरपंच भी वहीं बैठे हैं। वे कहते हैं, “भैया बात तो तुमने लाख टके की कही है। लेकिन इसमें एक अड़चन है। तुम तो ठहरे एक मुसलमान और रामलीला तो हिंदुओं की होती है। भला तुमको कोई रामलीला में रोल कैसे देगा।“

नवाजुद्दीन ने कहा, “क्या बात करते हो चाचा। दिल्ली में तो कितने ही मुस्लिम कलाकार रामलीला में काम करते हैं। मैंने सुना है कि दिल्ली की एक रामलीला में रावण का रोल कोई मुसलमान करता है।“

सरपंच ने कहा, “भैया, ये दिल्ली नहीं है। मैने अपने बाल धूप में सफेद नहीं किये हैं। अब तो सुना है कि दिल्ली की भी हवा बदली बदली सी लगती है।“

नवाजुद्दीन ने कहा, “अरे चाचा, आपकी तो पूरे गाँव में बहुत इज्जत है। आप चाहें तो रामलीला कमेटी वालों से मेरे लिये बात चला सकते हैं।“

सरपंच ने कहा, “ठीक है, मैं कोशिश करूँगा। लेकिन याद रखना, अपनी जान माल की सुरक्षा की जिम्मेदारी तुम्हें खुद लेनी होगी।“

उस छोटी सी मीटिंग के बाद अगले दिन सरपंच रामलीला कमेटी से मिलने गये। सरपंच की बात सुनकर तो रामलीला कमेटी में जैसे भूकंप आ गया। रामलीला कमेटी के एक सदस्य ने कहा, “आप हमरे बड़े बुजुर्ग हैं इसलिए आप अभी तक जीवित हैं। आप तो पूरे गाँव का धर्म भ्रष्ट करने पर तुले हुए हैं। आप ये मत भूलें कि रामकथा जिस जमाने की है उस जमाने में मुसलमान जैसा अपवित्र शब्द तो हमारे शब्दकोश में भी नहीं था।“

सरपंच थोड़ा सकते में थे फिर भी कुछ हिम्मत जुटाकर बोले, “अरे भैया, दूरदर्शन पर जो रामायण सीरियल आता था उसमें तो कितने ही मुसलमान कलाकारों ने काम किया था। इसमें कौन सी आफत आ जायेगी।“

रामलीला कमेटी का एक सदस्य बोला, “वो जमाना और था। अब वक्त बदल चुका है। अब हमारी आँखें खुल चुकी हैं। औरंगजेब की औलादों को हम एक एक करके उनके असली मुल्क तक खदेड़ न दें तब तक चैन से नहीं बैठेंगे।“

सरपंच ने देखा कि भैंस के आगे बीन बजाने से कोई फायदा नहीं। इसलिये वे वहाँ से उठकर चल दिये। उनमें इतनी भी हिम्मत नहीं बची थी कि यह खबर नवाजुद्दीन को सुनाएँ।


अगले दिन जब नवाजुद्दीन सुबह सुबह उठकर अपने दलान में आये तो देखा कि बाहर बहुत बड़ी भीड़ लगी थी। सब लोग नारेबाजी कर रहे थे। लोग मांग कर रहे थे कि नवाजुद्दीन तुरंत अपना बोरिया बिस्तर समेट कर मुम्बई के लिये कूच कर जाएँ। गनीमत ये थी कि उनकी सुरक्षा के लिये जिला प्रशासन की ओर से एक पुलिस बल वहाँ आ पहुँचा था। नवाजुद्दीन ने फौरन अपनी गाड़ी निकाली और उसे स्टार्ट कर वहाँ से निकल लिये। उनके आगे पीछे पुलिस की एस्कॉर्ट चल रही थी। मुम्बई पहुँचकर उन्हें एक पुरानी कहावत याद आ गई, “जान बची तो लाखों पाये, लौट के बुद्धु मुम्बई आये।“ 

Monday, September 26, 2016

दुर्वासा और पड़ोसी मुल्क

यदि आप पौराणिक कथाओं में थोड़ी सी भी रुचि रखते हैं तो आपने दुर्वासा का नाम सुना ही होगा। दुर्वासा अत्री और अनुसूया के पुत्र थे और अपने शॉर्ट सर्किट के लिए जाने जाते थे। उनके दिमाग का फ्यूज जरा जरा सी बात पर उड़ जाया करता था और फिर किसी न किसी को उनके गुस्से का दंड मिलता ही था। दुर्वासा के गुस्से के शिकार कई प्रसिद्ध देवी देवता, नर नारी और असुर हो चुके थे। कहा जाता है कि दुर्वासा के शाप के कारण ही बेचारी शकुंतला को दुष्यंत भूल गये थे और शकुंतला की कहानी में ट्विस्ट आया था। कहते हैं कि दुर्वासा के शाप के कारण ही भगवान कृष्ण की मृत्यु एक बहेलिये द्वारा तीर लगने से हुई थी। यह कहानी उसी मशहूर दुर्वासा के मशहूर गुस्से के बारे में है।

यह बात कई हजार वर्ष पुरानी है। आर्यावर्त के पड़ोस में एक छोटा सा देश हुआ करता था। उस देश पर असुरों का राज था। आर्यावर्त के तत्कालीन राजा ने असुरों पर दया करके पड़ोसी देश के साथ एक जल संधि की थी। जल संधि की जरूरत इसलिए पड़ी थी कि अखंड भारतवर्ष की सभी प्रमुख नदियाँ हिमालय की गोद से निकलती हैं। इनमें से पाँच नदियाँ पड़ोसी देश से होते हुए अरब सागर में गिरती हैं। इन पाँच नदियों के नाम हैं; झेलम, रावी, सतलज, व्यास और सिंधु। बाकी की चार नदियाँ पड़ोसी देश में जाकर सिंधु नदी में मिल जाती हैं। उसके आगे सिंधु नदी सारा जल लेकर सागर की ओर बढ़ती है। लेकिन आर्यावर्त में उद्गम होने के कारण नदियों के अधिकांश जल का इस्तेमाल आर्यावर्त में ही होता था जिससे पड़ोसी देश में रहने वाले असुर प्यास से बिलबिला जाते थे। आर्यावर्त के तत्कालीन राजा को उनकी हालत देखकर बहुत तरस आया था इसलिए उसने जल संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए हामी भरी थी। उसके बाद सिंधु नदी के विशाल जल तंत्र का 80% जल पड़ोसी देश को दिया जाने लगा। इससे पड़ोसी देश में रहने वाली असुरों की प्रजा के दिन फिर गये। वे छककर जल का सेवन करने लगे। उनके खेतों की सिंचाई होने लगी जिससे खेतों में पैदावार बढ़ी। नदियों के ऊपर बाँध बनाये गये और पनबिजली निकालने के कारखाने लगाये गये। इससे पड़ोसी देश में खुशहाली छा गई।

अब असुर तो असुर ही ठहरे। वे अपनी आदत से कहाँ बाज आने वाले थे। जब उन्हें भरपूर भोजन पानी मिलने लगा तो उनके दिमाग में कीड़ा बिलबिलाने लगा। उसके परिणामस्वरूप असुरों ने आर्यावर्त में रहने वाले सुरों को परेशान करना शुरु कर दिया। वे हमारे यहाँ के ऋषि मुनियों के यज्ञ में विघ्न डालने लगे। फिर वे हमारे यहाँ की भोली भाली प्रजा को भी परेशान करने लगे। प्रजा की सुरक्षा के लिए आर्यावर्त के राजा ने सीमा पर सेना की चौकसी बढ़ा दी। लेकिन असुरों को इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ा। कई बार उन्होंने हमारी सेना की चौकी पर भी हमला बोल दिया जिसमें हमारे कई सैनिक शहीद हो गये। आर्यावर्त के राजा ने अन्य देशों के राजाओं से इस बाबत बातचीत की लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं निकला। समस्या बढ़ती ही जा रही थी। आखिरकार समस्या इतनी बढ़ गई कि एक बार असुरों ने हिमालय की घाटियों में चल रहे दुर्वासा विश्वविद्यालय पर धावा बोल दिया। उस समय दुर्वासा मुनि कोई महत्वपूर्ण यज्ञ कर रहे थे। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा था कि उस यज्ञ के संपूर्ण होने के पश्चात दुर्वासा मुनि के के हाथ ब्रह्मास्त्र बनाने का फॉर्मूला लग जायेगा। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। उस यज्ञ में विघ्न पड़ने के कारण दुर्वासा मुनि का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। उनके गुस्से की खबर सुनकर आर्यावर्त के राजा आये और पड़ोसी देश के असुरों पर आक्रमण करने की पेशकश की। दुर्वासा ठहरे एक मुनि इसलिए उन्होंने युद्ध के लिये मना कर दिया। उनका मानना था कि युद्ध करने से दोनों ओर के सैनिकों और निर्दोष प्रजा की जान जाने का पाप लगता। दुर्वासा मुनि ने आर्यावर्त के राजा से कहा कि वे कोई ऐसा इलाज करेंगे जिसका असर दीर्घकालीन हो। उनका मानना था कि उस इलाज के बाद पड़ोसी मुल्क फिर कभी भी उठकर खड़ा नहीं हो पायेगा। उनका ये भी मानना था कि उनकी जुगाड़ से साँप भी मर जायेगा और लाठी भी नहीं टूटेगी।

फिर अगले दिन तड़के ही उठकर दुर्वासा मुनि हिमालय की गोद में स्थित उन नदियों के उद्गम स्थल पर गये। वहाँ बैठकर उन्होंने अपने ईष्टदेव को याद किया, सूर्य को नमस्कार किया और उद्गम के किनारे बैठकर नदी का सारा जल पी गये।

उसके बाद तो पड़ोसी मुल्क में त्राहि मच गई। दुर्वासा मुनि रातोंरात आर्यावर्त के हीरो बन गये। सभी टेलिविजन चैनलों पर 24X7 दुर्वासा का ही चेहरा नजर आने लगा। फेसबुक पर दुर्वासा के बारे में जितने भी पोस्ट थे उनपर करोड़ों लाइक मिलने लगे। ट्विटर पर दुर्वासा के हैश्टैग ही सबसे ज्यादा ट्रेंड करने लगे। समस्त आर्यावर्त अपनी सौ करोड़ से अधिक जनसंख्या की ताकत का अहसास पूरे विश्व को दिला रहा था। कई विशेषज्ञ तो दुर्वासा के लिये देश के सर्वोच्च सम्मान आर्यावर्त रत्न की भी मांग करने लगे। आर्यावर्त में जो कोई भी दुर्वासा की आलोचना करता हुआ पकड़ा जाता था उसे सौ कोड़े लगाये जाते और फिर उसे राष्ट्रद्रोह के आरोप में कारागार में डाल दिया जाता।

उधर पड़ोसी मुल्क में जल के लिये कोहराम मचा हुआ था। म्युनिसिपालिटी के नलों पर पानी लेने के लिये दंगे हो रहे थे। पड़ोसी देश की सेना जो सीमा पर रहकर आर्यावर्त को परेशान कर रही थी; अब अपने ही वतन में दंगों को नियंत्रित करने में लगी थी। पड़ोसी देश के धनी असुर अपने देश से पलायन कर रहे थे और खाड़ी देशों को प्रस्थान कर रहे थे। लेकिन जो निर्धन असुर थे वे बेचारे प्यास से मर रहे थे।

इधर दुर्वासा की हालत भी कुछ ठीक नहीं लग रही थी। करोड़ों लीटर पानी तो उन्होंने पी लिया था लेकिन उनका वृद्ध शरीर उस विशाल जलभंडार को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। हर पाँच मिनट के बाद उन्हें दो नंबर के लिए जाना पड़ता था। अखिल आर्यावर्त चिकित्सालय के नामी गिरामी वैद्यों ने बताया कि उनकी प्रोस्टेट ग्रंथि बढ़ गई थी जिसके कारण उनका अपने ब्लाडर पर से कंट्रोल सदा के लिए खत्म हो गया था। उसके बाद टीवी स्टूडियो में उनके लिये आसन की जगह कमोड लगा दिया गया ताकि इंटरव्यू में बाधा न पड़े और जनता जनार्दन का नॉन स्टॉप मनोरंजन होता रहे।

इस बीच कई वैद्यों ने ये सलाह दी कि कैथेटर लगाकर उनका मूत्र विसर्जन करवाया जाये लेकिन उससे समस्त आर्यावर्त में बाढ़ आने और उससे मचने वाली प्रलय का खतरा था। फिर दुर्वासा इस बात के लिए नहीं मान रहे थे क्योंकि वे प्राण जाये पर वचन न जाये वाली दलील में यकीन रखते थे।

पड़ोसी देश के निर्धन असुरों ने आर्यावर्त में घुसने की कोशिश भी की लेकिन हमारे जाँबाज सैनिकों ने उन्हें सीमा पर ही रोक लिया। इस घटना से पड़ोसी देश के पशु पक्षी भी परेशान थे। लगभग सभी पक्षी तो उड़कर आर्यावर्त की सीमा में प्रवेश कर गये। उनको आर्यावर्त में आता देख यहाँ के सैनिक निम्नलिखित गाना गुनगुनाते रहे, “पंछी नदिया पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके।“

पंछी तो वैसे भी सुदूर देशों से हमारे यहाँ आते ही रहते है। साइबेरियन क्रेन तो लगभग पाँच हजार किलोमीटर का सफर तय करके सीधा साइबेरिया से आते हैं। इसलिए हम गर्व से कह सकते हैं कि पंछियों के अतिथि सतकार की हमारी पुरानी परंपरा रही है। पंछियों के आने के बाद अब पशुओं की बारी थी।

आर्यावर्त की पश्चिमी सीमा से लगी एक अहम चौकी पर तैनात हमारे जांबाज सैनिकों में से एक अपनी दूरबीन से पड़ोसी मुल्क पर नजर रख रहा था। तभी उसे दूर क्षितिज पर बवंडर जैसा दिखाई दिया। उसने फौरन अपने साथियों को चौकन्ना कर दिया। सैनिकों के कमांडर को लग रहा था कि शायद पड़ोसी मुल्क ने परमाणु बम दाग दिया है। उसने तुरंत अपने आला अफसरों को संदेश भेजा। सेना के आला अफसरों ने तुरंत आर्यावर्त के राजा को संदेश भेजा। उनका संदेश सुनते ही राजा ने अपने परमाणु बमों को बंकर से ऊपर जमीन पर रखवा लिया।

लेकिन थोड़ी ही देर में सीमा पर तैनात सैनिकों को अहसास हो गया कि आने वाला खतरा परमाणु बमों से भी ज्यादा खतरनाक था। सामने से करोड़ों की संख्या में जानवर आर्यावर्त की ओर दौड़ते हुए चले आ रहे थे। जानवरों के उस विशाल झुंड में हर किस्म के जानवर थे; जैसे कि गाय, बकरी, भैंस, ऊँट, गदहे, कुत्ते, शेर, बाघ, हिरण, नीलगाय, चीता, हाथी, आदि। उतने जानवरों को अपनी ओर आते देख जांबाज सैनिक के होश उड़ गये। उसके कमांडर ने गोलियाँ चलाने का आदेश दिया। इधर से हजारों की संख्या में गोलियाँ चलने लगीं। कई जानवर हताहर हुए जा रहे थे। लेकिन वे इंसान तो थे नहीं कि कुछ जानवरों के मरने से मैदान छोड़कर भाग खड़े होते। वे तो बस पूरब की ओर बढ़ते ही जा रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे अफ्रिका के विशाल मैदानों में जानवरों की भगदड़ हो रही हो। वे अपने रास्ते में आने वाली हर चीज को रौंद रहे थे। जब जानवरों का झुंड बिलकुल पास आ गया तो बेचारे सैनिकों को अपनी जान बचाने के लिए बंकर में छुपना पड़ गया। जानवर अब आर्यावर्त की सीमा में प्रवेश कर रहे थे। सीमा पर के लगे गाँव नेस्तनाबूद हो रहे थे।


यह खबर बिजली की तेजी से दुर्वासा मुनि के पास पहुँची। आर्यावर्त के राजा और समस्त प्रजा अब दुर्वासा के पास त्राहिमाम कर रही थी। दुर्वासा ने देखा कि उनका दांव उल्टा पड़ रहा था। उनके इशारे पर फौरन उनके लिये एक तीव्रगामी विमान लाया गया। विमान दुर्वासा को लेकर सीधा हिमालय की गोद की तरफ उड़ा। वहाँ पर जाकर दुर्वासा ने उन नदियों के उद्गम पर जाकर; जो बिलकुल सूख चुका था: तबीयत से उल्टी की। लगभग एक घंटा तक उल्टी करने के बाद नदियों का प्रवाह सामान्य हो गया और पड़ोसी मुल्क की सूखी धरती शांत हो गई। अब जानवरों को भी राहत मिली और वे अपने वतन की ओर धीरे-धीरे लौटने लगे। सबसे बड़ी राहत दुर्वासा को मिली क्योंकि अब उन्हें ना तो प्रोस्टेट का ऑपरेशन करवाने की जरूरत थी और न ही बार बार दो नंबर जाने की। 

Saturday, September 24, 2016

राजा की बहादुरी

राजा वही बनता है जो बहादुर और दिलेर होता है। इतिहास गवाह है कि कई राजा अपनी बहादुरी के कारण ही अपना साम्राज्य बढ़ा पाये और राजा से महाराज हो गये। कुछ राजा तो इतने बहादुर थे कि उन्होंने बड़ा सा एम्पायर खड़ा कर दिया और सम्राट बन गये। इन्हें सुलतान या शहंशाह भी कहा जाता था।

उन्हीं बहादुर राजाओं के नक्शेकदम पर चलने के चक्कर में चम्पकवन का राजा शेर सिंह भी बहुत बहादुर था। उसकी दिली ख्वाहिश थी कि अपने राज्य का इलाका बढ़ाये। लेकिन इसके लिये उसे सबसे पहले अपने पड़ोस में स्थित नंदनवन पर कब्जा करने की जरूरत थी। लेकिन नंदनवन का राजा बब्बर शेर भी कम नहीं था। वह शेर सिंह से यदि बीस नहीं था तो उन्नीस भी नहीं था। वह भी बहुत महात्वाकांछी था और अपना इलाका बढ़ाना चाहता था।

बढ़ते हुए समय की मांग के कारण दोनों राजाओं की मुलाकात अक्सर अंतर्वनीय मंचों पर हो जाया करती थी जिसमें विश्व के लगभग हर मुख्य वनों के राजा शरीक होते थे। वैसे मंचों पर दोनों मिलते तो थे लेकिन बड़े अकड़ के साथ। एक बार ऐसी ही किसी मीटिंग में दोनों राजाओं; यानि शेर सिंह और बब्बर शेर में कुछ बातों को लेकर बहस हो गई। दोनों एक दूसरे पर यह आरोप लगा रहे थे कि दूसरे वन के जानवर चोरी छुपे उनके वन में आते हैं। वे एक दूसरे पर यह आरोप भी लगा रहे थे कि इससे स्थानीय जानवरों में बुरी आदतें फैलने लगी हैं जो अच्छी बात नहीं है। उसके बाद मामला तुम्हें देख लूँगा, तुम्हें देख लूँगापर छूटा।

मीटिंग से जब शेर सिंह वापस लौटे तो उनके सिपहसलाहकारों ने इस बात को बड़ी गंभीरता से लिया। मोटू गैंडे ने कहा, “महाराज, उसकी ये मजाल जो आपको आँखे दिखा दे। आप बस आदेश दें तो मैं अकेला ही उसकी किले जैसी मांद को ढ़ाह कर आ जाऊँगा।“

ऐसा सुनकर भोलू भालू ने कहा, “महाराज, सीधा आक्रमण करना ठीक नहीं होगा। आप आदेश करें तो मैं मधुमक्खियों की पूरी फौज भेज दूँ। इस तरह से हमारी फौज का कम से कम नुकसान होगा।“
तभी चतुर लोमड़ी बोल उठी, “अरे जंग में तब तक मजा नहीं आता जब खून न बहे। आपके एक ही इशारे पर लोमड़ियों का पूरा दल अपनी जान दे देगा।“

मंटू हाथी अपनी गंभीर वाणी में बोला, “मेरी सलाह मानें तो पहले इस मुद्दे को बातचीत से हल करने की कोशिश करनी चाहिए। इसीसे दोनों जंगलों के जानवरों में शांति और प्रेम रहेगा।“

लेकिन लगता है कि शेर सिंह अपनी बेइज्जती से कुछ ज्यादा ही तिलमिलाये हुए थे। साथ में उन्हें ये भी लगता था कि कहीं प्रजा ने उन्हें डरपोक समझ लिया तो फिर ऐसी तैसी हो जायेगी। सो शेर सिंह ने फैसला किया कि बब्बर शेर को आमने सामने की लड़ाई की चुनौती दी जाये।

उसके बाद हरियल तोते को दूत बनाकर बब्बर शेर के पास भेजा गया। बब्बर शेर तो जैसे उसका ही इंतजार कर रहा था। उसे देखते ही वह आग बबूला हो गया और बोला, “जाओ और अपने राजा से कह दो कि यहाँ किसी ने चूड़ियाँ नहीं पहन रखी हैं। अबकी बार तो मैं चम्पकवन को नक्शे से हि मिटा दूँगा।“

उसके बाद पहले से तय तारीख यानि जिस दिन पूरा चांद निकलता है उस दिन दोनों राजा लड़ाई के लिए चल पड़े। चम्पकवन और नंदनवन के बीच एक नदी पड़ती थी। उस नदी पर एक पुराना पुल था जिसे इंसानों ने बनवाया था। लेकिन अब उस पुल को कोई भी इंसान इस्तेमाल नहीं करता था। चम्पकवन की ओर से शेर सिंह अपने दलबल के साथ पुल के पास पहुँचा। आगे-आगे शेर सिंह चल रहा था और उसके पीछे उसके चुनिंदा सिपहसलाहकार चल रहे थे। उन सबके पीछे चम्पकवन के जानवर चल रहे थे। नदी के किनारे पहुँचते ही सबने एक सुर में नारा लगाया, “चम्पकवन जिंदाबाद!”
उधर से बब्बर शेर भी आ पहुँचा। बब्बर शेर के पीछे उसके सिपहसलाहकार चल रहे थे। उनके पीछे नंदनवन के सारे जानवर भी थे। नदी के किनारे पहुँचते ही सबने एक सुर में नारा लगाया, “नंदनवन जिंदाबाद!”

अब इधर से शेर सिंह जोर से दहाड़ा, “आज तो खून की नदियाँ बह जाएँगी।“

उधर से बब्बर शेर जोर से दहाड़ा, “आज तो लाशें बिछ जाएँगी।“

इधर से शेर सिंह जोर से दहाड़ा, “आज कयामत आ जाएगी।“

उधर से बब्बर शेर जोर से दहाड़ा, “आज तो प्रलय हो जाएगा।“

उसके बाद इधर से शेर सिंह नपे कदमों से पुल से होकर चलने लगा। उधर से बब्बर शेर भी नपे कदमों से उसकी तरफ आने लगा। बीच-बीच में दोनों तरफ के जानवर जोर-जोर से नारे लगा रहे थे। थोड़ी देर के बाद शेर सिंह और बब्बर शेर पुल के ठीक बीच में आमने सामने थे। दोनों एक दूसरे को आँखें तरेर कर देख रहे थे। शेर सिंह ने एक भयानक दहाड़ लगाई। जवाब में बब्बर शेर ने उससे भी भयानक दहाड़ लगाई। फिर दोनों ने अपने आगे के पंजे उठाये और एक दूसरे से गुत्थमगुत्था हो गये। लेकिन दोनों एक दूसरे को टस से मस नहीं कर पा रहे थे। दोनों तरफ के जानवर सांस रोके उस दृश्य को देख रहे थे।

शेर सिंह ने कहा, “तुम्हारे अयालों से ठेठ मरदाना महक आ रही है।“

बब्बर शेर ने कहा, “तुम्हारे अयालों से भी ठेठ मरदाना महक आ रही है।“

शेर सिंह ने कहा, “लगता है नंदनवन में खाने को मोटे ताजे हिरण मिलते हैं तुम्हें।“

बब्बर शेर ने कहा, “लगता है चम्पकवन में खाने को मोटे ताजे भैंसे मिलते हैं तुम्हें।“

शेर सिंह ने नथुने फुफकारते हुए कहा, “आज की रात तुम्हारी आखिरी रात होगी। उम्मीद है कि अपनी शेरनी को अलविदा कह आये होगे।“

बब्बर शेर ने नथुने फुफकारते हुए कहा, “आज की रात तुम्हारी आखिरी रात होगी। उम्मीद है कि अपनी शेरनी से आखिरी बार गले मिलकर आये होगे।“

शेर सिंह ने कहा, “गजब का दम है तुम्हारी बाजुओं में।“

बब्बर शेर ने कहा, “गजब की ताकत है तुम्हारे पंजों में।“

शेर सिंह ने कहा, “मुझे बहुत बुरा लगेगा यदि तुम्हारे जैसे सच्चे शेर की हत्या कर दूँ।“

बब्बर शेर ने कहा, “मुझे भी बहुत बुरा लगेगा यदि मेरे हाथों एक बहादुर शेर का खून हो जाए।“

शेर सिंह ने कहा, “नंदनवन का इलाका तुम्हारा है।

बब्बर शेर ने कहा, “चम्पकवन का इलाका तुम्हारा है।“

शेर सिंह ने कहा, “फिर लड़ाई किस बात की है।“

बब्बर शेर ने कहा, “फिर लड़ाई किस बात की है।“

उसके बाद दोनों ने एक दूसरे को बड़े अदब से झुककर सलाम किया और वापस अपने अपने जंगलों की ओर लौट गये। दोनों तरफ के जानवरों ने जोर-जोर से नारे लगाने शुरु कर दिये। सबने राहत की सांस ली। उसके बाद दोनों जंगलों के कबूतर आसमान में ऊँचाई पर उड़ने लगे ताकि दूर दूर तक शांति का संदेश फैल सके।

(साभार: यह कहानी भगवतीचरण वर्मा की कहानी दो बांकेसे प्रेरित है।)