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Friday, August 5, 2016

एक साँड के आखिरी दिन

“पापा, देखो पीछे वाले खेत में कितना भारी साँड घूम रहा है।“ मेरी पाँच साल की बेटी ने कहा।

मैं इस सोसाइटी के एक टावर में बीसवीं मंजिल पर रहता हूँ। यह एक नई सोसाइटी है जिसमें इस तरह के दस टावर हैं। यह दिल्ली की सीमा से लगभग बीस किमी की दूरी पर एक हाइवे से थोड़ा हटकर है। आसपास में अभी ढ़ेर सारी खाली जमीन है जिसपर अभी भी खेती हो रही है। मैंने जब अपनी बालकनी से देखा तो मुझे नीचे खेत में एक साँड दिखाई दिया। उस खेत में अभी अभी ताजा जुताई हुई थी। साँड के चलने से खुरों के निशान काफी गहरे बने हुए थे। साँड लंगड़ा कर चल रहा था इसलिए उसके खुरों के निशान आड़े तिरछे बने हुए थे।

वह साँड बहुत बूढ़ा लग रहा था। उसके इर्द गिर्द कुछ सफेद बगुले भी मंडरा रहे थे। वे बगुले साँड की पीठ पर बने घावों में से कीड़े खाने की फिराक में लग रहे थे।

तभी दरवाजे की घंटी बजी। मेरी बीबी ने दरवाजा खोला तो पता चला कि काम वाली आई थी। वो आते ही मेरी पत्नी से बताने लगी, “दीदी, पता है क्या हुआ?”

मेरी पत्नी ने पूछा, “नहीं, क्या हुआ?”

कामवाली बाई ने कहा, “इसी बिल्डिंग में एक बूढ़ा चौकीदार बहुत पहले काम करता था। वह आजकल बहुत बीमार है। उसके बाल बच्चों ने उसे बहुत पहले घर से निकाल दिया था। लेकिन इस बिल्डिंग के लोगों ने उसे यहाँ पनाह दे दी है।“

मेरी पत्नी ने पूछा, “ये तो अच्छी बात है। कहाँ रखा है उसे?”

कामवाली बाई ने कहा, “नीचे बेसमेंट में। लिफ्ट से उतरते ही बाईं तरफ एक कमरा है, उसी में।“

थोड़ी देर बाद जब मैं नीचे पार्किंग में कार पोंछने गया तो देखा कि बेसमेंट के एक कमरे में एक खाट पर किसी बूढ़े आदमी को रखा गया था। लोगों ने उसके लिए एक मच्छरदानी लगा दी थी। एक मच्छर अगरबत्ती भी पास में जल रही थी। एक छोटा सा टेबल फैन उसके सिर के पास रख दिया गया था।

फिर शाम में मैं जब पार्क में टहल रहा था तो चौथी मंजिल पर रहने वाले माथुर साहब ने बताया, “इसे कोई गंभीर बीमारी हो गई है। जब हमलोगों को पता चला कि उस बेचारे को पास के सरकारी अस्पताल में मरने के लिए पटक दिया है तो फिर हमलोग उसे यहाँ ले आये। यहाँ जितने भी चौकीदार काम करते हैं सबने उसकी सेवा करने का जिम्मा लिया है।“

उसी समय गुप्ता जी भी वहाँ आ गये। वे बोले, “हमलोगों ने इसके इलाज के लिये चंदा इकट्ठा करना भी शुरु कर दिया है ताकि उसके लिए दवाईयाँ आ सकें।“

फिर एक चौकीदार वहाँ रुका और बताने लगा, “ये बाबा मेरे ही गाँव के हैं। पहले सेना में काम करते थे। रिटायर होने के बाद सिक्योरिटी एजेंसी ज्वाइन कर ली थी ताकि मन लगा रहे। इनके बेटे इनसे पेंशन छीन लेते थे और फिर इन्हें घर के बाहर पटक दिया करते थे। जब इन्होंने पेंशन देने से मना कर दिया तो उन्होंने इनको घर से निकाल दिया था। तबसे ये यहीं रहा करते थे।“

शाम में जब मैं फिर से बालकनी में गया तो मेरी बेटी उसी साँड को देख रही थी। लगता है उसने पूरे दिन उस साँड पर खूब रिसर्च किया था। उसने साँड और बगुलों की कई ड्राइंग बनाने की कोशिश भी की थी। मैंने देखा कि साँड बड़ी मुश्किल से थोड़ी दूर चलता था और फिर निढ़ाल होकर बैठ जाता था। उसके घावों की हालत भी कुछ ठीक नहीं लग रही थी। अब तो उसके पीछे-पीछे कुछ आवारा कुत्ते भी लगे हुए थे जिन्हें वह बेचारा डरा भी नहीं पा रहा था।

इसी तरह से कई दिन बीत गये। रोज आते-जाते मैं बेसमेंट में पड़े उस बूढ़े को देख लिया करता था। लिफ्ट में आते-जाते उसकी तबीयत के बारे में ताजा अपडेट मिल जाती थी। लेकिन ज्यादातर समय वह बूढ़ा उस उमस भरे बेसमेंट में नितांत अकेला पड़ा मिलता था। न वहाँ पर ताजी हवा आती थी न ही धूप की किरण। हाँ चौकीदारों और सफाई वालों ने वहाँ की साफ सफाई का पूरा ध्यान रखा था। इसी टावर में रहने वाले एक डॉक्टर दिन में दो बार उसकी नियमित जाँच भी कर ले रहे थे।

उधर खेत में अपने आखिरी दिन गिन रहे साँड की भी कमोबेश वैसी ही हालत थी। उसका साथ देने के लिए कुछ बगुले और कुत्ते थे। लेकिन उसे ताजी हवा और धूप मिल जा रही थी।

हमारी खेतिहर अर्थव्यवस्था में साँडों की बहुत ही सीमित भूमिका होती है। न तो वे गाय की तरह दूध दे सकते हैं और न ही बैलों की तरह हल जोतने के काम आ सकते हैं। जिस तरह से भारत के अधिकतर समाज में लड़कियों के जन्म पर मातम मनाया जाता है उसी तरह से किसी किसान के तबेले में साँड के जन्म पर भी मातम ही मनाया जाता होगा। किसान किसी साँड को तभी याद करते हैं जब उसे अपने गाय के लिए साँड की सेवा लेनी होती है। अन्यथा साँड को तो कोई चारे तक के लिए नहीं पूछता है। घर की बासी रोटी लोग कुत्तों या गायों को तो दे देते हैं लेकिन बेचारे साँडों के ऐसे नसीब कहाँ।

वह बूढ़ा दरबान भी किसी साँड की तरह हो गया था। उसके बेटे पेंशन लेते समय तो उसकी इज्जत करते थे लेकिन उसके बाद उसे दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल देते थे। लेकिन उसने अपनी युवावस्था में अपने परिवार का भरन-पोषण तो किया ही होगा। सेना में भी अपने ओहदे के मुताबिक देश के लिए कुछ तो योगदान किया होगा। शायद उसके सेना में किये गये काम या उसके पिछले जन्म के कर्मों का कुछ असर था कि इस बिल्डिंग के लोग उसके आखिरी क्षणों में उसकी देखभाल करने को तैयार हो गये थे।

लगभग दस दिन बीते होंगे कि कामवाली बाई ने बताया कि वह बूढ़ा दरबान मर गया। बिल्डिंग के ही किसी भलेमानुष ने उसकी अंत्येष्टि करने की जिम्मेवारी ले ली। फिर कई दिनों तक रोज कुछ न कुछ कर्मकांड भी होते रहे। इसके लिए खासकर से हरिद्वार से पंडों को बुलाया गया था।


संयोग ऐसा था कि वह साँड भी एक दो दिन बार मर गया। लोगों ने चंदा इकट्ठा कर के उसकी लाश को ठिकाने लगाने का प्रबंध किया ताकी उसके संड़ने की बदबू न फैलने पाये। 

नए नेताजी

नेताजी से पूरा देश त्रस्त रहता है। ज्यादातर नेता काम के नाम पर केवल बातें बनाते रहते हैं। यदि आप पार्लियामेंट की डिबेट आधे घंटे भी देख लें तो आपको सरदर्द हो जायेगा। कुछ लोग तो इतना लंबा भाषण देते हैं कि अंदर बैठे अन्य नेता एकाध नींद भी मार लेते हैं। कुछ नेता इस तरह भाषण देते हैं जैसे स्कूल लेवल स्पीच कॉंपिटिशन में भाग ले रहे हों। ऐसे ही एक नेता से मेरा पाला पड़ा जिन्होंने अभी अभी राजनीति में कदम रखा था।

ये बात जौनपुर की है। उस समय हेपाशील्ड नया लॉन्च हुआ था। हमलोग जौनपुर शहर में वैक्सिनेशन कैंप करवाने की सोच रहे थे। वैक्सिनेशन को सफल बनाने के लिए मुझे लगा कि लोकल नेता की मदद लेनी चाहिए। वहाँ के व्यापार संघ के पूर्व अध्यक्ष ने हाल ही में नगर पार्षद का चुनाव जीता था। वे अक्सर फाइजर के होलसेलर के पास आया जाया करते थे। इसलिए मेरी भी उनसे जान पहचान हो चुकी थी। मैने उनसे वैक्सिनेशन कैंप के बारे में बात की और उनसे मदद की गुजारिश की। वे इसके लिए तुरंत तैयार हो गये लेकिन उनकी दो शर्तें थीं। पहली शर्त थी कि वैक्सिनेशन कैंप का फीता उन्हीं से कटवाया जायेगा। और दूसरी शर्त थी कि अखबार में उनकी बड़ी-बड़ी फोटो आनी चाहिए और हेडलाइन में भी उनका नाम आना चाहिए। मै बिना देरी किये उनकी दोनों शर्तों पर राजी हो गया। उसके बाद वैक्सिनेशन के ठीक से प्रचार करने के लिए उन्होंने मुझे इस बात के लिए बुलाया कि उनके साथ जाकर मैं वहाँ के मुख्य व्यापारियों से मिलूँ। मैं इस बात के लिए भी तैयार हो गया क्योंकि मैं चाहता था कि अधिक से अधिक परिवार के लोग वैक्सिनेशन करवाने आएँ।
एक दिन मैं उनके साथ उनकी कार में किसी व्यापारी से मिलने जा रहे थे। कार उनका ड्राइवर चला रहा था। मैं उनके साथ पिछली सीट पर बैठा था। छोटा शहर होने के कारण गाड़ी धीरे-धीरे ही बढ़ पा रही थी। इस बीच मैने गौर किया कि वो नेताजी दाएँ-बाएँ सिर हिलाकर हाथ जोड़कर आते जाते लोगों को नमस्कार कर रहे थे। मुझे लगा कि वे उस शहर के पुराने निवासी थे इसलिए उनके कई परिचित रास्ते में दिख रहे होंगे इसलिए वे सबको नमस्कार कर रहे होंगे। फिर थोड़ी देर बाद मैने यह गौर किया कि उनके नमस्कार का जवाब तो कोई भी नहीं दे रहा था।

चूँकि उनके साथ मैं कई बार कॉकटेल के लिए भी बैठा था इसलिए उनसे दोस्ती जैसा संबंध ही था। मैने उनसे पूछा, “भाई साहब, एक बात मेरी समझ में नहीं आई। न तो कोई आपको नमस्ते कर रहा है और न ही कोई आपकी नमस्ते का जवाब दे रहा है। फिर आप इस तरह लगातार किसे नमस्कार कर रहे हैं?”

अब उन नेताजी का जवाब उन्हीं के मुँह से सुन लीजिए, “दरअसल अगले चुनाव में मैं विधायक के उम्मीदवार के रूप में खड़ा होना चाहता हूँ। इसके लिए मैं दो पार्टियों के वरिष्ठ नेताओं से भी बात कर रहा हूँ। मैं उसी चुनाव के लिए अभी से रियाज कर रहा हूँ। विधायक का चुनाव बहुत मुश्किल होता है न।“


उनका जवाब सुनकर मेरी हँसी रोके नहीं रुक रही थी। लेकिन मैं जहाँ और जिसके साथ बैठा था और जिस प्रयोजन से जा रहा था उसका ध्यान रखते हुए अपनी हँसी बर्दाश्त किए बैठा रहा। उसकी कसर बाद में मैने तब निकाली जब मैं अपने दोस्तों के साथ फुरसत में बैठ पाया। 

Thursday, August 4, 2016

The Maidservant

Vishakha is the maidservant working in our house. She is in her early forties. She is of short height and plump. She is dark skinned but her face shows that she is a typical Bengali beauty; full of earthy charm and a certain degree of sensuality. She has migrated to Delhi from the north-eastern part of West Bengal; like many of the folks from her village. Most of the ladies from her group work as maidservant in my colony. The men usually sit idle at their homes waiting for the evening to sip the cheap country liquor. Vishakha has been working in my household for the last three years. She is an expert at her job and finishes her task very quickly. In spite of her hurry, the kitchen and utensils become neat and clean; which speaks about her expertise. Barring some stray occasions, she comes for work on a regular basis; which is quite uncommon for the maidservants. I have heard many ladies complaining about erratic schedules of their maidservants.

Most of the houses in this colony are four floors high. So, Vishakha and other maidservants must be climbing at least a thousand steps per day while going for work in different flats. Her typical day begins at 5 AM in the morning. I have often seen her returning from her work after ten in the night. This speaks about her tight schedule. In spite of all the drudgery, you will never find Vishakha without a smile. Come the Durga Puja celebrations and you can easily spot Vishakha in colorful handloom sari worn in typical Bengali style.

One day when Vishakha came she was not in her usually chirpy mood. It was somewhat strange because I have never seen her with a sad face. I thought she must be feeling sick so did not pay much attention to her. She went inside the kitchen and started talking to my wife. After a long discussion between them, she came to me and asked, “Bhaiya, can you do me a favor?”

On getting my assent, she said, “I have been working at a house in which a young couple lives. Since his wife also goes for work, I cook food for them. Yesterday morning, he found that his wallet was missing. He started blaming me and started calling me all sorts of names. His wife then dialed 100 and called the police. The police also misbehaved with me and threatened me with dire consequences…..”

I was giving her a patient hearing. She further continued, “I told the police that I have been living in this colony for the last eight years. I also told that I have worked at many households and nobody could raise a finger at me till date. Then do you know what happened?”

I said, “No, tell me what happened.”

She said, “The police said that if just five people would speak in favor of me, they would let me go. I have talked to many others. Can you come with me to speak in my favor? If you trust me then please come with me, otherwise there is no point.”

Whenever something is stolen or is missing, we easily blame the weakest person around. Maidservants, gatekeepers, rag-pickers, etc. become our easy targets. Vishakha was like a sitting duck. She is working in a lowly paying job, and she is a woman. This makes her the member of the most vulnerable group in the society. Having been acquainted to her for a long period I can vouch for her honesty. But I think, while she was talking there was some forceful assertion in her eyes. Her direct gaze was speaking about her honesty and forthrightness. It must have forced even the thick-skinned policemen to give a second thought to her case.


I and my wife accompanied her to the flat of that young couple at stipulated time. I was overawed when I saw at least twenty people were already there. All of them had gone there to speak in support of Vishakha. It was enough for the police to give her a clean chit. The lady constable also gave a stern warning to that couple to take proper care of their belongings. 

Wednesday, August 3, 2016

Finding a Hotel Room

This story is about the importance of mother tongue in sticky situations. This incident happened during MinipressXL launch meeting in Kolkata. At that time, I was posted at Dhanbad with another colleague Vivek. As I was working for Pfizer lab so I used to meet many other Dumex PSOs from territories other than Dhanbad. The Hazaribagh PSO was from Orissa. I; being a Bihari; could speak Hindi and English. But because of my interaction with so many Bengali colleagues, I had some rudimentary knowledge of Bangla. Vivek is a Bengali so he can speak three languages, viz. Bengali, Hindi and English. But Sukhendu Dada knew four languages, i.e. Oriya, Bengali, Hindi and English; by virtue of coming from Orissa and working in Bihar (it was not divided at that time). Sukhendu Dada and I had developed good friendship because of our common interest in photography. He had deep knowledge of photography and he had agreed to teach me the nuances of photography.

Digital cameras were still in the realms of science fiction; especially for the Indians. Sukhendu Dada was advising me to buy an SLR camera to be a serious photographer. We had planned to stay at Kolkata for a couple of days after the launch meeting in order to buy the required camera from the grey market in the dock area. As per the plan, three of us (Vivek, Sukhendu Dada and Me) took leave so that we could stay back after the launch meeting. After checking out from the five star hotel at Park Street, we were trudging with our luggage to search a room in some cheaper hotels. You will find many cheap hotels in the narrow alleys of area surrounding the Park Street. But there is a problem in Kolkata. The hotel staffs usually create too much fuss while allowing a new guest in. They would ask you many questions to assess if you are a genuine person or not. In those days, there was no provision of showing ID proofs; the way it happens now-a-days.

Nevertheless, we were walking slowly with our heavy luggage in tow. I and Vivek were quite bulky and hence were panting for our breaths in the typical humid weather of Kolkata. Sukhendu Dada is slim and trim and hence he was sprinting like a hare. Moreover, while we were carrying too many bags, he was carrying a thin suitcase and his detailing bag. Looking at our plight he sarcastically said, “What do you think? Did you come here to attend a marriage ceremony? You are carrying so many dresses as if it was a fancy dress party. Look at me, I carry only as much as I can easily carry on my own.”

After that, he instructed Vivek to wait at one corner of the sidewalk with all the bags. He instructed me to follow him in order to search for a room in some hotel. We were hopping from one dingy hotel to another in the hope of finding a room which met our need and budget.

It must have been the sixth or the seventh hotel where we were trying to get a room. Sukhendu Dada was talking to the receptionist in Bangla and I was trying to decipher the meaning of their conversation. The hotel was built in old Haveli style; with an open courtyard surrounded by rows of rooms on all the four sides. Suddenly, I heard someone shouting at the top of his voice from the third floor. The receptionist sitting at the desk replied to that shout in monosyllable.

Sukhendu Dada rushed to the third floor by sprinting through the staircase. I was following him. There was a similar reception desk at the third floor. A middle aged man was sitting behind that desk. Sukhendu Dada reached there and just began to talk in Oriya. Within a few seconds, Sukhendu Dada gave me the good news of success in finding a hotel room.

When we came out of that hotel to get hold of Vivek, I asked Sukhendu Dada, “Dada, there was just a loud shriek from the third floor. Then how did you guess that he was an Oriya fellow?”


Sukhendu Dada calmly replied, “Ajay, no matter which language we speak or read in, our mind always thinks in our mother tongue. You can easily recognize your mother tongue even if you are pulled out from a deep slumber. The way he shouted was enough for me to know that he was an Oriya fellow.” 

Tuesday, August 2, 2016

देहात का डॉक्टर

फाइजर में मेरी पहली पोस्टिंग कटिहार में हुई थी। उसके पहले मैं कैडिला के लिए राँची में काम करता था। राँची एक कॉस्मोपॉलिटन सिटी है। वहाँ के डॉक्टर बिलकुल अंग्रेजी बाबू की तरह कपड़े पहनते थे। कुछ डॉक्टर तो बकायदा सूट और टाई में नजर आते थे। ज्यादातर डॉक्टर अंग्रेजी भी अच्छी बोल लेते थे। कटिहार एक ऐसा शहर है जो समय के प्रवाह से अनछुआ लगता है। वहाँ के डॉक्टर थोड़े देसी टाइप के हैं। कटिहार के आस पास के गाँवों के ज्यादातर डॉक्टर सेमी लिटरेट होते हैं, यानि आरएमपी। मेरे लिये ऐसे डॉक्टरों से मिलना एक नया अनुभव था।

कटिहार से लगभग तीस किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव है; काढ़ागोला। मैं वहाँ पहली बार काम करने गया। लिस्ट के मुताबिक मैं एक डॉक्टर की तलाश करते करते उसके क्लिनिक पर पहुँचा। वह क्लिनिक जैसा तो लग ही नहीं रहा था बल्कि किसी पुराने मकान की तरह था जिसपर फूस की छप्पड़ पड़ी हुई थी। बाहर बरामदे पर एक महिला चटाई पर बैठी हुई चावल बीन रही थी और पास में उसके चार बच्चे खेल रहे थे। बच्चों की उम्र चार से लेकर दस साल तक की रही होगी।

मुझे लगा कि मैं गलत जगह पहुँच गया था इसलिए मैने उस महिला से पूछा, “डॉक्टर साहब यहीं मिलेंगे या उनका क्लिनिक कहीं और है?”

उस महिला ने जल्दी से आँचल अपने सिर पर डाल लिया और थोड़ा सकुचाते हुए बोली, “डागदर साहब यहीं मिलेंगे। ऊ थोड़ा बजार गये हैं, सब्जी तरकारी लाने। आप बईठ जाइए, ऊ आते ही होंगे।“

उसके बाद उस महिला के इशारे पर उसके सबसे बड़े लड़के ने मेरे लिये एक कुर्सी निकाली और मैं वहीं बैठ गया। लगभग दस मिनट के इंतजार के बाद मैंने देखा कि चारों बच्चे एक सुर में चिल्लाने लगे, “पप्पा आ गये! पप्पा आ गये!”

मैंने देखा की दूर पगडंडी से एक राजदूत मोटरसाइकिल उस ओर चली आ रही थी। उस मोटरसाइकिल पर एक आदमी बैठा था जिसने धोती कुर्ता पहन रखा था और सिर पर गमछा बाँध रखा था। जब मोटरसाइकिल पास आई तो मैने देखा कि उसकी हैंडल पर बड़े भारी झोले लटके हुए थे। पीछे वाली कैरियर पर एक विशाल कद्दू बँधा हुआ था। जब उस आदमी ने मोटरसाइकिल को खड़ा किया तो बच्चे सामान उतारने में उसकी मदद करने लगे। मैने अनुमान लगाया कि यही वो डॉक्टर होगा जिससे मिलने मैं वहाँ पहुँचा था। सामान उतरवाने के बाद उस आदमी ने मुझे नमस्कार किया और थोड़ा इंतजार करने के लिए कहा।


उसके बाद उसकी बेटी एक पीतल के बड़े से लोटे में पानी लेकर आई। वह आदमी वहीं बरामदे के किनारे बैठ गया और अपना हाथ मुँह धोने लगा। उसने बड़े ही वीभत्स तरीके से कुल्ला किया और अपना गला साफ करने के लिए खखार भी किया। उसकी उस हरकत को देखकर मुझे घिन आ रही थी। 

मैं सोच रहा था, “बड़ी अजीब जगह है। जाने कैसे कैसे लोग डॉक्टर बनने की हिम्मत कर बैठते हैं। अब नौकरी करनी है तो मुझे इनके जैसे नमूनों से भी अदब से मिलना पड़ेगा।“ 

बुझौना की रेल यात्रा

बुझौना दिल्ली से कमाकर लौट रहा था। वह बिहार के दरभंगा जिले के किसी छोटे से गाँव का निवासी है। निहायत गरीब होने के साथ साथ वह मुसहर जाति का भी है इसलिए उसके लिए गाँव में रोजगार के अवसर न के बराबर हैं। खेतों में बुआई या कटाई के समय काम तो मिल जाता है लेकिन उसमें मजदूरी इतनी नहीं मिल पाती है कि साल भर तक परिवार का भरण पोषण हो सके। उसके गाँव के कई मुसहर हर साल दिल्ली चले जाते हैं जहाँ उन्हें किसी फैक्ट्री या किसी कंस्ट्रक्शन साइट पर काम मिल ही जाता है। छ: महीने के दिल्ली प्रवास में बुझौना की इतनी कमाई हो चुकी थी कि वह आसानी से वापस अपने गाँव जाकर कुछ दिन अपने परिवार के साथ हँसी खुशी बिता सकता था।

उसने अपनी बीबी और बच्चों के लिए शनि बाजार से रंग बिरंगे कपड़े खरीदे थे। दिल्ली के विभिन्न इलाकों में ऐसे साप्ताहिक बाजार आज भी लगते हैं जिनका नाम सप्ताह के दिनों के हिसाब से होता है। ऐसे बाजारों में इतने सस्ते सामान मिल जाते हैं कि कोई भी उन्हें खरीद सकता है। कपड़ों के अलावा बुझौना ने अपने बच्चे के लिए तिपहिया साइकिल भी खरीदी और दो प्लास्टिक की कुर्सियाँ भी खरीदी। उसे यकीन था कि लाल रंग की प्लास्टिक की कुर्सियों से उसके टोले में उसकी इज्जत जरूर बढ़ जाएगी।

जिस दिन उसे यात्रा करनी थी उस दिन वह ट्रेन के छूटने से चार पाँच घंटे पहले ही नई दिल्ली स्टेशन पहुँच गया। मेट्रो रेल की सुविधा होने के कारण उसे नई दिल्ली स्टेशन पहुँचने में ज्यादा पैसे खर्च नहीं करने पड़े। फिर नई दिल्ली स्टेशन पर उसने दरभंगा तक का जेनरल क्लास का टिकट खरीद लिया।

जब ट्रेन को प्लेटफॉर्म पर लगाया गया तो जेनरल बोगी में घुसने के लिए बड़ी भारी भीड़ लगी हुई थी। पुलिस वाले डंडा मार मार कर लोगों को लाइन में लगा रहे थे। बुझौना के लिए यह कोई नया नजारा नहीं था। उसने एक कुली को पकड़ा। कुली ने उससे एक सौ रुपए लिए और उसे बकायदा एक सीट दिलवा दी। वह कुली के साथ बड़े आराम से प्लेटफॉर्म के दूसरी तरफ वाले दरवाजे से ट्रेन के अंदर चला गया। सीट मिल जाने के बाद बुझौना ने अपना सामान ऊपर वाली रैक पर रख दिया। एक यात्री के हिसाब से सामान कुछ ज्यादा ही था। दो बड़े बड़े बैग जिसमें ढ़ेर सारे कपड़े ठुँसे हुए थे। एक तिपहिया साइकिल और दो कुर्सियाँ। लेकिन उस डिब्बे में जाने वाले ज्यादातर यात्रियों के साथ उसी तरह से ढ़ेर सारा सामान था। कई लोगों ने तो पूरी की पूरी सीट पर सामान डाल दिया था और खुद नीचे फर्श पर चादर बिछाकर बैठे हुए थे। यहाँ तक कि ट्रेन के बाथरूम में भी कुछ लोग पूरे परिवार के साथ डेरा जमाए हुए थे। जब तक ट्रेन के चलने का समय हुआ उस डिब्बे में इतने लोग समा चुके थे कि अब तिल रखने की जगह नहीं थी। इसका एक फायदा जरूर हो रहा था कि जाड़े का मौसम होने के बावजूद उस डिब्बे में बैठे लोगों को गर्मी महसूस हो रही थी।

ट्रेन के छूटने के एकाध घंटे बाद रात हो गई। लगभग नौ बजे के आसपास सब लोगों ने अपना अपना खाना निकाला और उसे खाने लगे। कुछ लोगों ने तो मिनरल वाटर की बोतल भी खरीदी थी। ये और बात है कि उसके खाली होने के बाद वे उसमे नलके का पानी ही भर ले रहे थे। चूँकि ट्रेन में हिलने भर की भी जगह नहीं थी इसलिए सबने खाना खाने के बाद जहाँ बैठे थे वहीं पर हाथ मुँह धो लिया। कुछ ने तो अपनी सीट के नीचे कुल्ला तक कर दिया। चारों तरफ बजबजाती गंदगी से बुरा हाल था।

अगले दिन सुबह सुबह ट्रेन गोरखपुर पहुँची। वहाँ से उस डिब्बे में कुछ रेलवे पुलिस के जवान चढ़े। उनमें से एक जवान बुझौना के पास आया और ऊपर रखे सामान पर अपना डंडा खटखटाते हुए बड़ी रोबदार आवाज में पूछा, “किसका सामान है?”

बुझौना ने धीरे से जवाब दिया, “साहब ई हमरा समान है।“

पुलिस के जवान ने पूछा, “टिकट लिया है अपने सामान का?”

बुझौना ने कहा, “साहब अपना टिकट लिये हैं।“

पुलिस के जवान ने कहा, “पता नहीं है कि सामान की बुकिंग अलग से होती है। सारा सामान जब्त हो जायेगा। फिर जाकर थाने से छुड़वाते रहना।“

बुझौना ने उसके आगे हाथ जोड़ लिए, “साहब, बहुत मन से ई समान ले जा रहे हैं अपना परिवार के लिए। अईसा जुलुम मत कीजिए।“

पुलिस के जवान ने उससे कहा, “फिर सौ रुपए लाओ तो कुछ नहीं करेंगे।“

बुझौना ने धीरे से सौ रुपए का एक नोट उस जवान के हाथ में थमा दिया और फिर वह जवान वहाँ से चला गया। ऐसा हादसा वहाँ बैठे लगभग हर किसी के साथ हुआ। पुलिस के जवान आते थे और हर किसी से सौ दो सौ रुपए ऐंठ कर चले जाते थे।

जब ट्रेन हाजीपुर स्टेशन से चल पड़ी तो उसमें पुलिस की एक नई टीम आ गई। उन पुलिसवालों ने भी वही प्रक्रिया दोहराई। वे आते थे और हर किसी से सौ दो सौ रुपए ऐंठ कर चले जाते थे।

फिर समस्तीपुर स्टेशन पर एक टीटी उस डिब्बे में आया। उसने बुझौना से कहा, “टिकट है? दिखाओ।“

बुझौना ने उसे टिकट दिखाया तो टीटी ने कहा, “अरे ई तो डुप्लिकेट टिकट लगता है। साला, रेलवे को धोखा देता है। अभी अंदर करवा देंगे।“

बुझौना बेचारा डर गया और बोला, “लेकिन साहब, ई टिकट तो हम दिल्ली स्टेशन से खरीदे थे। डुप्लिकेट कईसे हो सकता है?”

टीटी ने गुस्सा दिखाते हुए कहा, “हमको बेवकूफ बनाता है। अभी बुलाते हैं पुलिस वाले को। डंडा पड़ेगा तो सब पता चल जाएगा।“

बुझौना ने कहा, “मालिक, कुछ ले दे के छोड़ देते तो.........”

फिर उस टीटी ने बुझौना से दो सौ रुपए ऐंठ लिए। उस टीटी की उगाही उस डिब्बे में काफी देर तक चलती रही। फिर वह किसी छोटे स्टेशन पर उतर गया।

उसके जाने के बाद बुझौना अपनी बगल में बैठे यात्री से कह रहा था, “हम सोचे थे कि दिल्ली से सस्ता में कुर्सी और तिपहिया साइकिल ले जाएँगे। दरभंगा में तो महँगा मिलता है। लेकिन ई पुलिस और टीटी पर पईसा खर्चा करने के बाद तो ई सब महँगा हो गया।“


उस यात्री ने कहा, “हाँ भईया, ठीक कहते हो। पिछला साल हम एगो टीवी खरीदे थे। रस्ता भर में ई पुलिस वाला और टीटी सब मिलकर हमसे एक हजार रुपैया लूट लिया। का करोगे, गरीब को तो सभ्भे लूटता है।“ 

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