भारत की राजधानी दिल्ली से सटे
कुछ शहर एनसीआर के क्षेत्र में आते हैं। सरकारी मान्यताओं के अनुसार ये सभी शहर दिल्ली
की श्रेणी में ही आते हैं। ऐसा इसलिए भी किया गया है ताकि दिल्ली पर से जनसंख्या का
दवाब कम हो। जो लोग गुड़गाँव, नोएडा, फरीदाबाद या गाजियाबाद
में रहते हैं उनके आत्मसम्मान को भी इस बात से संतुष्टि मिलती है। लेकिन दिल्ली के
ठीक उलट इन शहरों में ऐसी बहुत सारी समस्याएँ हैं जिन्हें देखकर लगता है कि इनसे दिल्ली
अभी भी दूर है। ऐसी ही एक समस्या है इन शहरों के स्कूलों की।
दिल्ली में ऐसा माना जाता है कि दिल्ली सरकार के हस्तक्षेप के
कारण स्कूलों की फीस थोड़ी कम है; जिसे मिडल क्लास थोड़ी कम परेशानी से दे पाता
है। लेकिन एनसीआर के शहरों के स्कूलों की फीस कम से कम डेढ़गुणा तो है ही। यहाँ के स्कूल
बाहर से किसी फाइव स्टार होटल को भी मात देते हैं; खासकर से उनका
रिसेप्शन वाला पोर्शन। रिसेप्शन में आपको फुल मेकअप में रिसेप्शनिस्ट नजर आ जाएगी जो
इतनी अंग्रेजी तो बोल ही लेती है जिससे ऐडमिशन के लिए आए बच्चे के माँ बाप पूरी तरह
से अभिभूत हो जाएँ। रिसेप्शनिस्ट से बातचीत के बाद स्कूल का पूरा सिस्टम नए आगंतुक
को तरह तरह से लूटने में लग जाता है। सबसे पहले बारी आती है रजिस्ट्रेशन की जिसके नाम
पर कम से कम एक हजार रुपए वसूले जाते हैं। फिर बच्चे का लिखित टेस्ट होता है। ये बात
और है कि ज्यादातर नेता अपने भाषणों में उस टेस्ट के खिलाफ बोलते हैं। टेस्ट के बाद
बच्चे और उसके माता पिता का स्कूल के प्रिंसिपल के साथ इंटरव्यू होता है जिसे इंटरऐक्शन
का नाम दिया जाता है। इस इंटरऐक्शन में इस बात को टटोलने की कोशिश होती है कि बच्चे
के माता पिता स्कूल की फीस देने में समर्थ हैं या नहीं।
टेस्ट के दो तीन दिन बाद बच्चे के पास होने की खुशखबरी फोन पर
आती है। उसके बाद तरह तरह से दवाब बनाने का सिलसिला शुरु हो जाता है। बताया जाता है
कि जल्दी से सीट बुक करवा लें नहीं तो सारी सीटें भर जाएँगी। ये और बात है कि ज्यादातर
स्कूलों में सीटें कभी नहीं भरती हैं और साल भर ऐडमिशन चलता रहता है। ऐडमिशन चार्ज
और ऐनुअल चार्ज के नाम पर मोटी रकम वसूली जाती है। फिर स्कूल वाले इस बात के लिए भी
दवाब डालते हैं कि आप ट्रांसपोर्ट के लिए बुकिंग करवा लें। मैं अपने बच्चे को रोज स्वयं
स्कूल छोड़ने जाता हूँ। मुझे भी रोज इस बात के लिए समझाने की कोशिश होती है कि ट्रांसपोर्ट
बुक करवा लूँ।
सरकार की गाइडलाइन कहती है कि स्कूलों में केवल एनसीईआरटी की
किताबें चलेंगी। लेकिन ज्यादातर स्कूल वाले प्राइवेट पब्लिशर की किताबें चलवाते हैं
जिनके ऊपर एमआरपी स्कूल की मर्जी के मुताबिक छपा होता है। आपको हर सामान; यानि कि
कॉपी, पेंसिल, ड्रेस, वगैरह स्कूल से ही लेने हैं। आजकल हर स्कूल में स्मार्ट क्लास का रोग भी लग
गया है। स्मार्ट क्लास के लिए अलग से फीस ली जाती है। ये अलग बात है की टीचर इतनी स्मार्ट
नहीं हैं कि स्मार्ट क्लास जैसे टूल का सही इस्तेमाल कर सकें।
इन स्कूलों में पढ़ाई के नाम पर ऊल जलूल प्रोजेक्ट दिए जाते हैं।
सबसे अच्छी साज सज्जा वाले प्रोजेक्ट को सबसे अच्छे नंबर मिलते हैं। अंदर क्या लिखा
है इससे किसी को कोई मतलब नहीं है। जब मैंने पढ़ाई के बारे में पूछा तो जवाब मिला कि
आप अपने बच्चे को ट्यूशन लगवा दीजिए ताकि वो ठीक से पढ़ सके। मुझे लगा कि जवाब देने
वाली टीचर अंतर्मन में कह रही हो कि उन्हें पढ़ाने की कला तो आती ही नहीं है।
इन सब के बावजूद ताज्जुब यह होता है कि शायद ही कोई बच्चा होगा
जिसे 90% से कम नंबर मिलते हों। गणित के प्रॉब्लम हल करते समय आप किसी बच्चे से पहाड़ा
पूछ लीजिए तो 90% बच्चे बिना अटके 20 तक का पहाड़ा शायद ही बोल पाएँ। स्कूल वाले बच्चों
को अच्छे नंबरों से इसलिए पास कर देते हैं ताकि उनके ग्राहक संतुष्ट रहें और लगातार
बिजनेस चलता रहे।