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Wednesday, December 26, 2018

ऑर्गेनिक खेती


किसी गाँव में बुझावन नाम का एक किसान रहता था। उसके पास थोड़ी सी जमीन थी जिससे अच्छी बारिश होने पर इतनी उपज तो हो जाती थी जिससे उसके छोटे से परिवार का गुजारा हो सके। कभी कभार फसल का कुछ हिस्सा बेचने का भी मौका उसे मिल जाता था, लेकिन ऐसा चार पाँच साल में कभी कभार ही हो पाता था। इस साल आषाढ़ का महीना बीतने वाला था लेकिन मानसून की आहट लाने वाले बादलों का कोई अता पता नहीं था। खेतों में मिट्टी की ऊपरी परत इतनी सूख चुकी थी कि उनमें बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गई थीं और लगता था कि आप धरती नहीं बल्कि मंगल ग्रह की सतह पर चल रहे हों। उसपर से धूल भरी आँधी चलने से तो माहौल बिलकुल ही मंगलमय हो जाता था। फर्क सिर्फ इतना था कि यह मंगलमयमाहौल किसी मंगलकारी बात को नहीं बल्कि मंगल ग्रह की भयावह निर्जनता को दिखाता था।

बुझावन के माथे पर जो बल पड़ रहे थे उन्हें वह अपनी हथेलियों से दबाकर और भी उजागर कर रहा था। ऐसा वह किसी को दिखाने के लिए नहीं बल्कि अपनी चिंता कम करने के लिये कर रहा था। इस बार बारिश बहुत कम हुई थी और सूखा पड़ जाने के कारण उपज न के बराबर हुई थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अब इस अधेड़ उम्र में कौन सा नया रोजगार शुरु करे। अब खेतीबाड़ी के सिवा उसे कुछ आता भी तो नहीं था। आजकल के लड़कों की तरह वह दिल्ली या पंजाब भी नहीं जा सकता था ताकि बेहतर कमा खा सके। गाँव में रहकर वह अपनी जोरू का और उसकी जोरू उसका बेहतर खयाल रख सकते थे। साथ में उसे अपनी पाँच बकरियों का भी खयाल रखना होता था। उसके दो बेटे अपनी बीबियों के साथ पाँच साल पहले दिल्ली गये थे कमाने। वहाँ उनका मन इतना रम गया था कि गाँव की सुध लेने की उन्हें फुर्सत ही नहीं मिलती थी। हाँ कभी कभार फोन से अपने माँ-बाप का हाल चाल जरूर ले लिया करते थे। जब कभी बुझावन कुछ रुपए पैसे भेजने की बात करत तो पता चलता था कि मोबाइल के नेटवर्क में कुछ गड़बड़ी आ जा ती और फिर उनकि बात पूरी नहीं हो पाती थी। पिछले साल बारिश अच्छी हुई थी तो फसल उम्मीद से अच्छी हो जाने के कारण बाजार में भाव गिर गये थे जिससे उसे भारी नुकसान हुआ था। इस साल तो लगता था कि उसके खेतों की उपज से उसके परिवार का गुजारा होना भी मुश्किल था। उसके ऊपर महाजन के तकादे का बोझ उसकी हालत को और भी बदतर करने के लिए काफी था। बुझावन अभी गहरी सोच में अपने खेतों को एक हताशा भरी नजर से और भी गौर से निहारना ही चाहता था कि उसके कानों में रामखेलावन की आवाज गूँजी।

“अरे भाई, ऐसे सोच सोच कर अपनी जान देने से क्या मिलेगा? सुना है कि आज पंचायत में ब्लॉक ऑफिस से कौनो साहेब आने वाले हैं। बता रहे थे कि खेतीबारी के नये तरीके बतायेंगे। हो सकता है वही कौनो नया रस्ता दिखा दें।“

शाम में तय समय के हिसाब से गाँव के सभी वयस्क पुरुष पंचायत भवन के नीचे खड़े इंतजार कर रहे थे। सूरज ढ़लने ही वाला था और ज्यादातर लोगों ने यह मान लिया था कि ब्लॉक ऑफिस के साहब अब नहीं आयेगे। अधिकतर लोगों द्वारा इस बात की पुष्टिकरण हो रही थी कि सरकारी अफसर ऐसे ही होते हैं जो कभी भी समय पर नहीं आते हैं। कुछ लोग हताश होकर अब दूसरे मुद्दों पर चर्चा करने लगे थे। कुछ लोगों ने तो अपने घरों की तरफ वापस जाना भी शुरु कर दिया था। बचे हुए कुछ लोगों ने ताश के पत्ते फेंटना भी शुरु कर दिया था। तभी सड़क पर दूर से एक लालबती वाली गाड़ी आती दिखाई दी। थोड़ी ही देर में उस गाड़ी से एक साहब उतरे। साहब की उम्र को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता था कि अभी हाल ही में कोई कम्पिटीशन पास करके नौकरी में आये थे। उनकी उमर पच्चीस छब्बीस से अधिक नहीं रही होगी। गाँव के मुखिया ने गेंदे की माला पहनाकर उनका स्वागत किया और उनके सामने समोसे की प्लेट पेश कर दी। लेकिन उस सरकारी अफसर ने उन सब बातों को अनदेखा करते हुए आनन फानन में अपना लैपटॉप निकाला और उसके स्क्रीन पर प्रेजेंटेशन दिखाने लगे। किसी को भी कुछ समझ में नहीं आ रहा था, लेकिन हरे भरे खेतों की सुंदर सुंदर तसवीरें देखने में सबको मजा आ रहा था। साथ में बैकग्राउंड म्यूजिक भी बज रहा था। काफी देर तक गौर करने के बाद बुझावन और रामखेलावन की समझ में मुद्दे की बात आ गई। वे सरकारी अफसर ऑर्गेनिक खेती की बात कर रहे थे। उनके हिसाब से ऑर्गेनिक खेतीकिसी वरदान की तरह साबित होने वाली थी, जिससे भरपूर उपज मिलती और पर्यावरण भी सुरक्षित रहता। रात के लगभग आठ बजते बजते वहाँ का मजमा खतम हो चुका था और लोग अपने अपने घरों को जा चुके थे।

रात का खाना खा चुकने के बाद बुझावन और रामखेलावन दलान पर लगी अपनी अपनी खटिया पर बैठ कर बीड़ी के सुट्टे लगा रहे थे। बुझावन ने पूछा, “ई बात समझ में नाहीं आवा कि ई ऑर्गेनिक खेती से आने वाली पीढ़ी को फायदा कैसे होगा। ईहाँ तो अपनी ही पीढ़ी की जान के लाले पड़े हुए हैं।“

रामखेलावन ने तारों भरी आकाश की ओर देखते हुए कहा, “अब ई सब तो हमरी समझ में नहीं आ रहा है। अरे हाँ, मेरा बेटा रामबहादुर अभी इंटर कर रहा है ऊ भी साइंस से। हो सकता है उहे कुछ बता पाये।“

रामखेलावन के हाँक लगाने पर उसका बेटा रामबहादुर दौड़कर वहाँ पहुँच गया। जब उससे ऑर्गेनिक खेती का मतलब पूछा गया तो उसने बताया, “अरे बाबा, ये तो बड़ा ही आसान है। जैसे ऑर्गेनिक केमिस्ट्री वैसे ही ऑर्गेनिक खेती। हमारे सिलेबस में ऑर्गेनिक केमिस्ट्री की पूरी की पूरी किताब है। बहुत मजा आता है पढ़ने में। आज जो कुछ भी आधुनिक सामान हम देख रहे हैं, सब ऑर्गेनिक केमिस्ट्री की देन है। और हाँ ऑर्गैनिक खेती जरूर अच्छी चीज होगी। अभी हाल ही में मैंने पुराने जमाने के हिंदी फिल्म स्टार धर्मेंद्र को टी वी पर देखा था ऑर्गेनिक खेती की बड़ाई करते हुए। और वो इंग्लैंड के राजकुमार हैं। पता नहीं इतने बूढ़े हो गये हैं फिर भी राजकुमार ही कैसे हैं। सुना है वे भी ऑर्गेनिक खेती करते हैं। जब इतने बड़े-बड़े लोग कर रहे हैं तो अच्छा ही होगा।“

रामखेलावन ने अपने बेटे को दो चार चुनिंदा गालियाँ देकर वहाँ से भगा दिया। फिर उसने बुझावन से कहा, “तुम ही ठीक किये कि अपने बेटों को पढ़ाया लिखाया नहीं। कम से कम दिल्ली में अपना परिवार तो पाल रहे हैं। ई निकम्मा भी मजूरी करने दिल्ली पंजाब ही जायेगा। कहता है कि इंग्लैंड के राजकुमार खेती कर रहे हैं तो अच्छा ही होगा। अब इंग्लैंड के राजकुमार के भला इतने बुरे दिन आ गये। सुना है अंग्रेजों ने हमपर दो सौ सालों तक राज किया था।“

बुझावन के विचार थोड़े अलग थे। उसने कहा, “हो सकता है तुम्हरे बेटे की किताब में ऑर्गेनिक खेती के बारे में कुछ न लिखा हो। लेकिन उसके पास बड़ा वाला फोन तो है, जिसपर ऊ दुनिया भर के वीडियो देखता रहता है। ऊ का कहते हैं, अरे ......बड़ा अच्छा नाम है, ………. अरे हाँ याद आया ........इंदरनेत्र। उसको बोलो कि इंदरनेत्र पर देखकर पता कर दे कि ऑर्गेनिक खेती कैसे करते हैं। फिर हम लोग सीख कर शुरु करेंगे।“

रामखेलावन को भी लगा कि अगर ब्लॉक के साहब बता गये हैं तो कुछ तो अच्छा ही होगा। थोड़ी इधर उधर की बातें करने के बाद दोनों को नींद आ गई। अगले दिन रामबहादुर ने इंटरनेट पर ऑर्गेनिक खेती के बारे में सर्च करना शुरु किया। उसके लिये यह बड़ा ही बोर करने वाला काम था। लेकिन अपने अगल बगल बुझावन और रामखेलावन को लाठी लिये बैठे देखकर उसके पास कोई चारा भी नहीं था। बीच बीच में वह कागज पर कुछ कुछ लिखता भी जा रहा था। काफी मशक्कत के बाद जब रामबहादुर का सर्च पूरा हुआ तो उसने दोनों लट्ठधारियों को ऑर्गेनिक खेती के बारे में समझाना शुरु किया। बुझावन और रामखेलावन पूरे ध्यान से उसे सुन रहे थे। रामबहादुर का लेक्चर लगभग एक घंटे चला होगा। वह मन ही मन अपनी पीठ ठोंक रहा था और किसी इनाम की लालसा भी पाल रहा था।

रामबहादुर के चुप होने के बाद बुझावन और रामखेलावन ने एक सुर में कहा, “धत्त, अरे इस तरह से तो हमरे दादा परदादा के जमाने में होता था। गोबर को सड़ाकर खाद बनाओ, और उसके अलावा कोई खाद न डालो। कोई कीटनाशक नहीं, कुछ भी नहीं। लेकिन उससे तो दस बीघे में जितनी उपज होती थी आज एक बीघे में उतनी हो जाती है। हमरे बाबा कहते थे कि हरित क्रांति आने के बाद से तो खेती का तरीका ही बदल गया। पहले तो बड़ा किसान भी इतना नहीं उपजा पाता था कि अपना परिवार पाल सके। अब तो हम जैसे किसान भी जिस साल अच्छी फसल हो जाये तो थोड़ा बाजार में भी बेच ही लेते हैं। अब ई ऑर्गेनिक खेतीनया फैशन है। बड़े लोगों के चोंचले हैं। अब उस धर्मेंद्र को क्या है। अकूत पैसा है। बुड्ढ़ा हो गया है। कुछ खास करने को है नहीं तो टाइम पास करने के लिए चला है ऑर्गेनिक खेती करने। वहीं स्टाइल देकर मेरे देश की धरती सोना उगलेगाने लगता होगा।“

एकाध दिन बीतने के बाद पंचायत में पता चला कि ब्लॉक ऑफिस में सरकार की तरफ से ऑर्गेनिक खेती के लिये मुफ्त ट्रेनिंग दी जायेगी। उसमें रजिस्ट्रेशन के लिये मुखिया के पास आधार कार्ड की फोटो कॉपी के साथ एक फोटो जमा करनी थी। उस गाँव के कुछ अन्य लोगों की तरह बुझावन और रामखेलावन ने भी उस ट्रेनिंग के लिये अपना रजिस्ट्रेशन करवा लिया। तय तारीख को दोनों तड़के ही अपने घर से ब्लॉक ऑफिस के लिये चल पड़े। घर से ही पोटली में ढ़ेर सारे पराठे और सूखी सब्जी भी बाँध लिये ताकि बाहर खरीद कर खाना न पड़े। उस गाँव से ब्लॉक कोई दस किलोमीटर होगा इसलिए साइकिल से पहुँचने में आधा घंटे से थोड़ा ही ज्यादा समय लगा होगा।

ब्लॉक आफिस के बाहर पूरी गहमा गहमी थी। बकायदा शामियाना लगा दिया गया था और दरियाँ बिछा दी गई थीं। सबसे आगे सफेद कपड़ों से ढ़की हुई कुर्सियाँ और मेजें लगी हुई थीं। बीच वाली मेज पर एक बड़ा सा गुलदस्ता भी रखा था जिसमें रंग-बिरंगे फूल रखे गये थे। माहौल देखकर लग रहा था कि कम से कम बीडीओ साहब उस कार्यक्रम का उद्घाटन करने जरूर आयेंगे। लेकिन थोड़ी देर में जिंदाबाद जिंदाबाद के नारे लगने शुरु हुए। लोगों ने आवाज की तरफ गरदन मोड़कर देखा तो पाया कि वहाँ का विधायक अपने गुर्गों के साथ विजयी मुस्कान के साथ बलेरो गाड़ी से उतर रहा था। डील डौल और शकल सूरत से वह बड़ा ही भयानक लगता था, लेकिन असलियत में वह उससे भी अधिक भयानक था। उस इलाके के लोग उसके नाम से थर थर काँपते थे। किसी की हिम्मत नहीं थी कि उसके खिलाफ चुनाव में खड़ा हो जाये। बहरहाल, विधायक जी ने अपने कर कमलों से फीता काटकर और फिर दो शब्दबोलने के नाम पर एक घंटे का भाषण देकर उस ट्रेनिंग की शुरुआत की। उसके बाद ट्रेनिंग का काम उसी अफसर ने किया जो पिछले दिनों बुझावन के गाँव गया था। यहाँ पर बड़ी सी स्क्रीन पर प्रेजेंटेशन देखने के चक्कर में गाँववालों का उत्साह भी देखते बनता था। लेकिन वह उत्साह अधिक नहीं टिक पाया। ट्रेनिंग एक सप्ताह तक चलने वाली थी, लेकिन तीसरे दिन कोई चार पाँच लोग ही वहाँ पहुँचे। इसलिए उस दिन ये बता दिया गया आगे ट्रेनिंग जारी नहीं रह पायेगी। लोगों को कुछ रंगबिरंगे बुकलेट दिये गये ताकि वे खुद से सीखने की कोशिश करें।

शाम होने से पहले ही बुझावन और रामखेलावन वापस अपने गाँव पहुँच चुके थे। अहाते में साइकिल लगाने के बाद वे अपनी-अपनी खटिया पर बैठ गये और बुझावन ने अपनी बीबी को चाय बनाने के लिये आवाज लगाने के बाद एक बीड़ी सुलगा ली। एक कश लेने के बाद उसने वह बीड़ी रामखेलावन की ओर बढ़ा दी ताकि वह अपनी बीड़ी भी सुलगा ले। उसके बाद एक गहरी कश लेने के बाद बुझावन ने कहा, “अरे भइया, कुछ नहीं बदलेगा। नलकूप लगेगा लेकिन उसमें पानी नहीं आयेगा। बिजली के खंभे लगेंगे लेकिन उनपर तार नहीं लगेंगे। अगर तार लग गये तो उसमें बिजली नहीं आयेगी। सरकार समर्थन मूल्य की घोषणा करेगी लेकिन उसपर बेचने के लिये हमारे जैसे लोगों का नम्बर कभी नहीं आयेगा। नई सरकार आते ही कर्जा माफी करेगी लेकिन उससे हमारा क्या होगा। हम जैसों को तो कोई भी बैंक कर्जा नहीं देता है। सब माया है। ऊँच नीच तो जीवन का नियम है। इस साल फसल नहीं होगी तो क्या होगा। अगले साल की उम्मीद तो रख ही सकते हैं।“

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