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Saturday, November 26, 2016

घर वापसी

बुझावन की दुकान आज लगभग बीस पच्चीस दिनों बाद खुली थी। वह अपनी दुकान के बाहर धूप में बैठा था। लेकिन उसने जिस तरह से अपने झुके हुए सिर को अपनी हथेलियों से संभाला हुआ था उससे जाहिर होता था कि वह जाड़े की धूप का आनंद नहीं उठा रहा था बल्कि गहरी चिंता में था। दुकान के अंदर उसकी बीबी संड़ी-गली सब्जियों को छाँट रही थी। उस सड़ांध से उठे भभके से बचने के लिए उसने अपने आँचल को नाक के ऊपर कसकर बाँधा हुआ था। उसका दस बारह साल का बेटा इस काम में उसका हाथ बँटा रहा था। पास में ही उसकी पाँच छ: साल की बेटी एक संतरे को गेंद बनाकर खेल रही थी।

बुझावन का एक पुराना ग्राहक होने के नाते मैने उससे पूछा, “क्या हुआ? कहाँ थे इतने दिन? बहुत दिनों से दुकान नहीं खुली थी। किसी की तबीयत तो नहीं खराब हो गई थी?”

बुझावन ने मुझे देखते ही अपने जुड़े हाथों को अपने सिर के ऊपर कर लिया जैसे नमस्कार करना चाहता हो, और बोला, “अरे नहीं साहब, कौनो तबीयत उबियत खराब नहीं हुई। ग्राहक ही नहीं आ रहे थे इसलिए दुकान बंद करना पड़ा।“

मैने पूछा, “क्या बात करते हो भैया? माना कि बिक्री थोड़ी कम हुई होगी लेकिन हमलोग थोड़ा बहुत सामान तो खरीद ही रहे हैं।“

बुझावन ने कहा, “क्या बताएँ साहब, थोड़े बहुत ग्राहक से तो दुकान का भाड़ा भी नहीं निकलेगा। फिर पूरे दिन दुकान खोलकर रहने से बिजली का बिल भागेगा सो अलग। लोगों के पास नोट हैं ही नहीं जो खरीदेंगे कुछ। शुरु के तीन चार दिन तो बैंकों की लाइन में लग गये और उस चक्कर में दुकान बंद करना पड़ा। जब सारे पैसे खाते में जमा कर दिया तो अब बैंक वाले निकालने ही नहीं देते। रोड के सामने वाले बैंक में तो पिछली उन्नीस तारीख के बाद से कैश आया ही नहीं है। अब ताजी सब्जियाँ खरीदूं तो कैसे?”

मैने कहा, “अरे इसमे इतना परेशान होने की क्या जरूरत है? तुम्हें पता नहीं है कि इस सरकार ने कितना अच्छा काम किया है। अब सबकुछ ऑन लाइन होगा, मतलब इंटरनेट से। तुम रुपये की लेन देन अपने मोबाइल फोन से कर सकते हो। तुम्हारे खाते में पैसे जमा हो गये हैं तो चेक से पेमेंट कर दो।“

बुझावन ने कहा, “साहब यहाँ इतना पढ़ा लिखा मकान मालिक तो किराया चेक से लेता ही नहीं है और आप मंडी में आये किसानों की बात कर रहे हो। आजकल तो आढ़तिये भी चेक लेने से मना कर रहे हैं। कहते हैं, कौन जायेगा लाइन में लगने। अभी तो चेक जमा कराने में भी चार-चार घंटे लाइन में लगना पड़ता है।“

मैने कहा, “तुम्हारे पास स्मार्टफोन तो है ही। मैने देखा है तुम उसपर सारा दिन फोटो देखते रहते हो। उससे पेमेंट कर दो। बड़ा आसान है।“

बुझावन ने कहा, “साहब, व्हाट्स ऐप करने में कोई गलती टाइप हो जाये तो क्या फर्क पड़ता है। खाते में ऐसा हुआ तो पता चला मेरी पूरी जमा पूँजी चली गई। और कोई मेरा पासवर्ड चुरा लिया तो फिर जुलुम हो जायेगा। हम छोटे आदमी हैं, उतनी बड़ी चपत थोड़े न झेल पाएँगे। ऊपर से एक और नई मुसीबत सर पर आ गई है।“

मैने पूछा, “अब क्या हुआ?”

बुझावन ने कहा, “मकान मालिक के पास गया था। जब उसे बताया कि एक दो महीने किराया नहीं दे पाउँगा तो उसने दुकान खाली करने की नोटिस दे दी। अब जमी जमाई दुकान थी, उजड़ जायेगी। नई जगह पर जमने में तो सौ फेरे हैं।“

मैने कहा, “कुछ दिन के लिए बाहर फुटपाथ पर लगा लो। इस बीच कोई दूसरी दुकान आस पास ही खोज लेना।“

बुझावन ने कहा, “फुटपाथ पर दुकान चलाना तो और मुश्किल है। पुलिस को हफ्ता देने के साथ साथ मुहल्ले के रंगदार को भी देना पड़ता है। फिर रात में चोरी चकारी का भी डर रहता है। इस शॉपिंग कम्प्लेक्स में इज्जत से दुकान चलती थी। आस पास पता किया है, कोई दुकान खाली नहीं है। एक खाली भी है तो पगड़ी इतना अधिक मांग रहा है कि पूछो मत।“

मैने कहा, “क्या बात कर रहे हो। तुम्हारी तो पाँच छ: साल पुरानी दुकान है। जब से यह अपार्टमेंट बना है तब से। इतने पैसे तो जमा किये ही होंगे। पगड़ी तो दे ही सकते हो।“

बुझावन ने कहा, “अरे कहाँ साहिब, आठ हजार तो ई दुकान का किराया है और दो हजार बिजली बिल लगता है। एक हजार कांस्टेबल को और पाँच सौ यहाँ के रंगदार को। साल में चार पाँच हजार से अधिक तो पूजा और भंडारा का चंदा देने में चला जाता है। कभी कभार अगर फ़ूड इंस्पेक्टर टहलते हुए आ गया तो उसे भी एक दो हजार देने पड़ते हैं। मेरे घर का किराया दो हजार है और मेरे बेटे के स्कूल में पंद्रह सौ रुपये फीस है। उसके बाद बचता कहाँ है। हाँ एक डेढ़ लाख रुपये जोड़ के रखे थे। सोचा था छोटा सा प्लॉट ले लूँगा। लेकिन आजकल तो पचास गज का भी लेने में सात आठ लाख लग जाते हैं।“

मैने कहा, “अब सब कुछ ठीक हो जायेगा। जैसे ही कैशलेस इकॉनोमी बन जायेगी फिर कोई तंग नहीं करेगा।“

बुझावन ने कहा, “अब हमको इतना भी मूरख ना समझो साहब। जब सब कुछ खाते से होगा तो फिर सेल्स टैक्स और इनकम टैक्स वालों को भी चढ़ावा देना पड़ेगा। अब तक ये पुलिस वाले और रंगदार ही क्या कम थे? पाँच साल से दुकान चला रहा हूँ, इतनी समझ है। टैक्स भी भरो और सीए को भी फीस दो।“

मैने कहा, “तो अब क्या प्लान है? आगे क्या करना है?”


बुझावन ने कहा, “अब आगे का तो ऊपर वाला जाने। सारी सब्जियाँ संड़ गई हैं। जबरदस्त नुकसान हुआ है। अब ई हालत में नहीं हैं कि उठकर खड़े हो पाएँ। ऊपर से मकान मालिक का अल्टिमेटम। अब दुकान दौड़ी समेटकर गाँव वापस चले जाएँगे। पहले की तरह खेत में काम करेंगे; साल के तीन चार महीने ही सही। कुछ ऊँच नीच होगा तो फिर अपना समाज तो है ही वहाँ। सोचा था कि शहर जाकर कम से कम अपने बच्चों का भविष्य तो सुधार पाउँगा, लेकिन अब तो आगे अंधेरा ही दिखता है।“ 

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