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Friday, August 19, 2016

गोलगप्पे का स्वाद

सुबह से ही तेज बारिश हो रही थी इसलिए मौसम बड़ा सुहाना हो गया था। शाम को जाकर बारिश थम चुकी थी। मेरी पत्नी ने कहा, “चलो जरा बाहर टहल कर आते हैं। मौसम बड़ा ही सुहाना है। इसी बहाने बच्चे भी घूम लेंगे।“

मैने कहा, “चलो चलते हैं। रिंकी और टिंकू भी बहुत दिनों के बाद आये हैं। बोलेंगे की चाचा ने कुछ खिलाया पिलाया नहीं।“

रिंकी और टिंकू मेरे बड़े भाई के बच्चे हैं। मैं, मेरी पत्नी, मेरा बेटा गोलू, रिंकी और टिंकू; सब एक साथ निकल पड़े। लिफ्ट से बाहर आते ही सामने का पार्क नजर आ रहा था। बारिश होने के कारण धुली हुई पत्तियाँ तरोताजा लग रही थीं। अपार्टमेंट के ज्यादातर लोग शाम का आनंद लेने के लिए पार्क में टहल रहे थे। वहाँ से लगभग दो सौ मीटर चलने के बाद अपार्टमेंट का में गेट पड़ता है। उस गेट से निकलते ही बाहर एक शॉपिंग कॉम्पलेक्स है। उसके सामने; सड़क की दूसरी ओर कई ठेले वाले नजर आ रहे थे। वहाँ पर कुछ सब्जी वाले, फल वाले, अंडे वाले, आइसक्रीम वाले और एक गोलगप्पे वाला था। बच्चों ने आइसक्रीम की फरमाइश की थी। तभी मेरी पत्नी ने कहा, “क्यों ना आज गोलगप्पे खायें। लगता है एक अरसा बीत गया गोलगप्पे खाये हुए। जब हमारी नई-नई शादी हुई थी तब तो आप मेरे लिये ढ़ेर सारे गोलगप्पे लाया करते थे।“

मैने कहा, “हाँ उस शहर में गोलगप्पों के अलावा और कुछ भी नहीं मिलता था।“

फिर हम गोलगप्पे के खोमचे के पास खड़े हो गये। बच्चों ने बड़ी मुश्किल से गोलगप्पे खाने के लिए हामी भरी। फिर हम लोग उस खोमचे के आसपास एक गोला बनाकर खड़े हो गये। गोलगप्पे वाले ने हम सबको एक एक डिस्पोजेबल प्लेट पकड़ा दी। फिर उसने बड़े ही लगन के साथ आलू, प्याज और मसाले का मिक्सचर तैयार किया। वह बड़ी ही फुर्ती से गोलगप्पे में सुराख करता, उसमें आलू मसाला डालता और फिर गोलगप्पे को बड़ी सी हाँडी में डुबोने के बाद हमारी प्लेटों में डाल देता। उसकी दक्षता देखकर कोई भी उसका कायल हो जाये। गोलगप्पों में वही खास स्वाद और चटकारापन था जो कि अकसर हुआ करता है। मैने कोई पाँच गोलगप्पे खाए होंगे। मेरी पत्नी ने दस गोलगप्पे खाये। लेकिन उन तीन बच्चों ने मिलकर दस से अधिक नहीं खाये होंगे।

मुझे इसमें कोई ताज्जुब भी नहीं हुआ क्योंकि वे आधुनिक जमाने के बच्चे हैं और वो भी टीनएजर। फिर भी मैंने रिंकी से पूछा, “बेटा, गोलगप्पे कैसे लगे?”

रिंकी ने जवाब दिया, “इंटेरेस्टिंग!

टिंकू ने कहा, “वंडरफुल, लेकिन उतना भी टेस्टी नहीं जितना कि आप और चाची उछल रहे थे।“

गोलू ने कहा, “मैने तो रिंकी और टिंकू का साथ देने के खयाल से खा भी लिया वरना ऐसी चीजों को तो मैं हाथ भी नहीं लगाता। ये भी कोई चीज है खाने की। इतना मसाला, उसपर से उसकी गंदी सी हाँडी। जब वह अपनी उंगलियाँ उस हाँडी में डुबाकर गोलगप्पे निकालता है तो मुझे तो घिन आती है। पता नहीं आप लोग ऐसी चीजें पचा कैसे लेते हैं?”

फिर रिंकी ने कहा, “चाचा, अब हमारी आइसक्रीम तो बनती ही है।“

मैने पास ही खड़े आइसक्रीम वाले से कहा, “भैया, इनको इनके पसंद की आइसक्रीम दे दो।“


जब वे आइसक्रीम खा रहे थे तो मैं सोच रहा था, “अब आजकल के बच्चों को हमारे जमाने की चीजें कैसे पसंद आएँगी। पैकेट में बंद चीजों को खाते-खाते इनको तो पता ही नहीं कि किसी के हाथ से बनी चीजों में क्या स्वाद होता है।“ 

गोलगप्पे की दुकान

शाम में मैं अपने अपार्टमेंट के बाहर टहल रहा था तभी मेरी पत्नी अचानक से लगभग चिल्ला उठी, “अरे देखो, लगता है किसी नये गोलगप्पे वाले ने वहाँ पर अपना ठेला लगाना शुरु किया है।“

मैंने देखा कि आगे तिराहे पर एक नया ठेला नजर आ रहा था। उस ठेले के इर्द गिर्द आठ दस लोग खड़े थे। गोलगप्पे वाला उन सबों को बारी बारी से गोलगप्पे खिला रहा था। मैंने कहा, “अरे वाह, ये तो अच्छी बात है। यहाँ आसपास बड़ी मुश्किल से कोई भी खाने की चीज मिल पाती है। अंदर शॉपिंग कॉम्पलेक्स में जो गोलगप्पे वाला है वह बहुत ही घटिया गोलगप्पे बनाता है। चलो इसके गोलगप्पे खाकर देखते हैं।“

उस नये गोलगप्पे वाले के गोलगप्पे खाकर मजा आ गया। गोलगप्पे बिलकुल करारे थे और उसका पानी तो लाजवाब था। सबसे बड़ी बात ये कि उसने दस्ताने भी पहन रखे थे। फिर मैंने अपने बेटे और उसकी दादी के लिए गोलगप्पे पैक करवाये और वापस अपने फ्लैट में आ गया।

लगभग एक सप्ताह बीतते बीतते उस गोलगप्पे वाले की निकल पड़ी। रोज शाम के चार बजे वह वहाँ पर पहुँच जाता था। उसके गोलगप्पे खाने के लिए मेरे अपार्टमेंट से लोगों का हुजूम निकलने लगा। आठ बजते-बजते उसके सारे गोलगप्पे बिक जाते थे। दरअसल यह अपार्टमेंट शहर के बहुत बाहर बना है और आसपास के इलाके में अभी भी ग्रामीण माहौल है। अपार्टमेंट में एक छोटा सा शॉपिंग कॉम्पलेक्स है जिसमें जरूरत की चीजें मिल जाती हैं। वहाँ पर कुछ किराना स्टोर्स, दवा की दुकानें, एक स्टेशनरी की दुकान और एक नाई की दुकान है। इसके अलावा कुछ सब्जी वाले बैठते हैं जो बहुत ही घटिया सब्जियाँ रखते हैं। एक गोलगप्पे वाला है जो घटिया गोलगप्पे बेचने के अलावा बहुत ही बदतमीज किस्म का इंसान है। कुछ समोसे या नूडल या मोमो की दुकानें बीच बीच में खुलती हैं लेकिन खराब क्वालिटी होने के कारण उनकी दुकानें महीने भर भी नहीं चल पाती हैं। कोई भी अच्छी चीज लाने के लिए यहाँ रहने वाले लोगों को पास के ही एक बाजार जाना पड़ता जो यहाँ से पाँच किलोमीटर दूर है। ऐसी स्थिति में स्वादिष्ट और साफ सफाई वाले गोलगप्पे मिलना यहाँ रहने वाले लोगों के लिए किसी वरदान से कम नहीं था।

लेकिन उस गोलगप्पे वाले को किसी की नजर लग गई। लगभग पंद्रह दिन बीते होंगे कि उसका ठेला वहाँ से गायब हो गया। इसका पता मुझे तब लगा जब मैं किसी शाम को गोलगप्पे खाने के लिए उस तिराहे की ओर गया। आसपास के फलवालों और सब्जी वालों से पूछने पर पता चला कि वह सड़क के उस पार स्थित गाँव का रहने वाला था। ये भी पता चला कि उसने अब अपने गाँव में ही ठेला लगाना शुरु किया था। अब शाम में उस गाँव में जाने की मेरी हिम्मत नहीं थी इसलिए मैने सोचा कि उसके बारे में अगले दिन पता करूँगा।

अगले दिन मैं अपनी बाइक से उस गाँव में गया। थोड़ी ही देर में मुझे उस गोलगप्पे वाले का पता चल गया। उसका ठेला एक बरगद की पेड़ के नीचे लगा था। कुछ इक्का दुक्का ग्राहक उसके पास खड़े थे। मैने उससे पूछा, “अरे भैया, क्या हुआ? यहाँ क्यों चले आये? वहाँ तो ज्यादा बिक्री हो रही थी।

गोलगप्पे वाले ने कुछ उदास सुर में कहा, “क्या बताऊँ साहब, उस अपार्टमेंट के पास कुछ लोगों की रंगदारी चलती है। शॉपिंग कॉम्पलेक्स में जो गोलगप्पे की दुकान लगाता है वह कुछ दबंगों के साथ मेरे पास आया। उन्होंने पहले तो मुझसे गाली गलौज की और वहाँ से ठेला हटाने को कहा। उनके कहने के बावजूद जब मैंने अगले दिन भी अपना ठेला लगाया तो उन्होंने मेरे साथ मारपीट भी की। कहने लगे कि उस अपार्टमेंट में उनकी मर्जी के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता।“

मैने उससे कहा, “हाँ भैया, अब उनसे झगड़ा तो नहीं कर सकते। खैर छोड़ो, आज के लिए मेरे लिये पचास रुपए के गोलगप्पे पैक कर दो।“

मैं वापस अपने घर में आ गया। गोलगप्पे खाते हुए मैने अपनी पत्नी से कहा, “अजीब जमाना आ गया है। एक गरीब आदमी को लोग नई दुकान भी नहीं खोलने देते।“


मेरी पत्नी ने कहा, “इसमें अजीब क्या है? जहाँ जिसकी चलती है वह वहीं पर अपनी ताकत दिखाता है। देखते नहीं किस तरह से दिल्ली के ऑटो वालों और टैक्सी वालों ने ओला कैब के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। अब तो मुख्यमंत्री भी ओला कैब के खिलाफ कानून बना रहे हैं। पता नहीं ये लोग कौन होते हैं ये फैसला करने वाले कि मुझे किस टैक्सी से जाना चाहिए या किस दुकान से सामान खरीदना चाहिए?” 

Wednesday, August 17, 2016

Staying in a Five Star Hotel

I have observed that most of the people who join as medical representatives come from middle class backgrounds. When I joined Pfizer, India had yet to reap the benefits of liberalization because of a time lapse of just above two years. People of my generation were not exposed to things; like cable television. Internet was still in the realms of science fiction. As I come from a small town so even looking at a photograph of a good hotel was a thing of luxury to me.

Before joining Pfizer, I had been working with Cadila so had been to a three star hotel at Patna to attend some sales meeting. But staying in a five-star hotel was still beyond my wildest imagination. After clearing the written test and several rounds of interview at Bombay, we were told to go to a doctor for a round of medical checkup. After about a couple of days we were told to check in at the Ramada Hotel. I hired an auto-rickshaw and loaded my luggage on that to go to the above-mentioned hotel. Before starting my journey, I showed the address of the hotel to the auto driver. After a half an hour drive, the auto-driver stopped near a nice looking hotel and said, “Hey Sahib, here is your hotel. Pay my bill and get down here.”

I craned my neck to see an imposing structure in front of me. I was simply mesmerized at that imposing and glistening façade of the hotel. My first thought was that the auto-driver must have done some mistake by stopping near such a grand hotel. I meekly asked the auto-driver, “Are you sure, we have reached the right hotel.”

He said, “Yeah, you can check the address from your envelope.”

I once again checked the address, which was written on the envelope. To make myself sure, I tallied each letter of the hotel’s name on the envelope with what was written on the huge neon sign atop the hotel. I got down from the auto and placed my luggage on the sidewalk. Still being unsure, I was trying to peep through the glass door which was behind a burly mustachioed gatekeeper. The sight of the tall and well built gatekeeper further frayed my nerves. While my mind was going through all the turmoil, I could get a glimpse of many detailing bags (the typical leather bags of medical representatives) kept like a huge pile near the reception desk.


The sight of the stack of detailing bags gave me enough courage and then only I could enter the gate of Ramada Hotel; where our training was to begin from the next day. 

Tuesday, August 16, 2016

The Kite Expert

Kite flying is a popular pastime in many parts of the world. In our country, kite flying is associated with different festivals in different parts of the country. For example; Gujarat is famous for kite flying during Makar Sankranti which usually takes place on 14th of January. I have seen that people of the eastern Uttar Pradesh also enjoy kite flying during the festival of Makar Sankranti. The people of Delhi have reserved the Independence Day for this spectacle.

If you are living at Delhi or happen to be in Delhi around 15th of August then you can see the whole sky dotted with colorful kites around this date. Some of the enthusiasts make elaborate preparations for this in advance. The activity reaches its peak on 15th of August; with every rooftop full of kite experts, spectators and cheerleaders. Some people also arrange grand parties at their rooftops on this occasion; with whisky and beer in full flow. This is often accompanied by sounds of loud music. The scene is further enriched by impromptu dance performances by people of all ages.

Some people are so adept at the art of kite flying that they can make a kite soar in the sky without the help of bulky spools. For them, a reel of string is enough. Some people are experts in playing the game of ‘Patangbazi’. This game involves entangling other kites and slashing their strings with the precision of a surgeon’s scalpel. The moment a kite is set free of its proverbial umbilical cord, it starts wobbling like a dead bird in the sky. Some people just run after the ‘dead kite’ to become a winner of looting that kite. Apart from the expertise, the kite experts also need specially made string called ‘manjha’ to cut their competitors’ kites. A manjha is usually made by applying a layer of fine shards of glass on the string. Now-a-days, plastic strings are also available by the name of ‘Chinese Manjha’. They are quite popular among the kite experts but have earned a bad reputation for causing many freak accidents. Some of the accidents have even turned out to be lethal by killing some innocent passerby.

Let us now come to the point, i.e. the story of some kite enthusiasts who are not experts. They can be termed as dilatants at the most. I am not even among them but I try to buy lots of kite for my son. My son has been trying to learn to fly a kite but till date he is unsuccessful in doing so. But as any other caring father, I have to concede to his demand by buying lots of kite, string, manjha and spool. This has been going on since many years. I have to buy a new stock of everything each year because the old stock becomes useless because of lack of use.

 On the D-day, I accompanied my son to the rooftop to assist him in flying the kite. Some children and some grown up guys from my apartment were already on the rooftop. Let me introduce some of them to you. Sai is about 17 years old and he is in the 12th class. Rajat is about 27 years old and is working in a call centre since two years. Sunil is about 35 years old and is working at some managerial position in a reputed travel agency. He is accompanied by his five years old son. It is needless to say that all of them have come with good quantity of kites and accessories. People on the adjacent rooftop have two experts in their team. Others in that team are onlookers, enthusiasts, assistants, cheerleaders. That crowd also includes some hangers-on who utilize such occasions to enjoy the free liquor.

After wishing a ‘Happy Independence Day’ to each other we sat down for the real work. Almost everyone was carrying a tablet or a smartphone. All of us were watching some videos on YouTube about ‘how to tie the strings to a kite’. After carefully watching the video, I tried to tie the strings to a kite. It appeared to be good and was looking similar to what was shown in the video. Rajat, Sai and Sunil were also successful in tying their kites; as show in the video on YouTube. After that, we searched for videos on ‘How to fly a kite’. But most of the results were of no use for us as they were showing huge kites which are not used in our setup. After that, I typed ‘How to fly an Indian kite’ in the search box. The search result gave use some useful videos. After watching the video, I asked my son to take the kite at a distance from me. On my instructions, he lifted the kite up in the air and released it with an upward thrust. It tried to pull on the string in all directions but the kite refused to go up in the sky. It just nosedived like an outdated model of Mig fighter planes. Seeing that, all of us had a hearty laugh. People on the adjacent roof laughed with some tinge of sarcasm. We took their sarcasm in our stride and tried to focus on our business. Rajat and Sai were helping each other in flying their kites. They also met the same fate as us. Sunil’s son was too small to be of any help and hence my son was helping him in flying the kite.

We continued like that for about an hour. Many of our kites were torn during our endless efforts. But none of our kites were brave enough to soar in the sky. Meanwhile, I spotted a street urchin who had also come to the rooftop to enjoy the celebrations. I called him and requested him to fly my kite. He was really happy to oblige. He took out a new kite and tied it with some strings. He did that pretty quickly, the way any kite expert would do. He held the kite in one hand and held another end of the string in another hand. Within a few seconds, my kite was soaring high in the sky. While he was busy in pushing the kite in the sky, I was busy making a video of the spectacle. After that, I and my son took turns to hold the string for a few seconds to enjoy the thrill of flying a kite.


That street urchin was kind enough to help Rajat, Sai and Sunil in flying their kites as well. I offered a full bottle of soft drink to that little boy as a token of thanks. Thus, our kite flying festival which had started with a whimper had ended with the much needed hype of a loud round of cheers from all of us. 

Monday, August 15, 2016

पंद्रह अगस्त की जलेबियाँ

मालूम नहीं कि इस परंपरा की शुरुआत कैसे हुई, लेकिन पंद्रह अगस्त के दिन मेरे मुहल्ले के लगभग हर घर में जलेबियाँ जरूर मंगवाई जाती थीं। जिस तरह से अन्य त्योहारों को हम किसी न किसी मिठाई से मुँह मीठा करके मनाते हैं उसी तरह से हम स्वतंत्रता दिवस को भी मनाते थे। यह दिन भी हमारे लिये किसी त्योहार जैसा ही होता है। कई लोग पंद्रह अगस्त के दिन देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत होते हैं इसलिए उन्हें यह दिन त्योहार जैसा लगता है। कई लोगों को यह दिन तभी त्योहार जैसा लगता है जब यह सोमवार को पड़ जाये जैसा कि इस साल हुआ है। इससे तीन दिनों की लगातार छुट्टी मिल जाती है। तीन दिन की छुट्टी में बहुत कुछ करने को मिल जाता है। कुछ लोगों ने तो शुक्रवार को ही काम से लौटते समय व्हिस्की या बीयर का इंतजाम कर लिया होगा ताकि ड्राई डे के दिन भी मजे ले सकें। फिर शनिवार से लेकर सोमवार तक तरह तरह के भोजन का दौर चला होगा। जैसे शनिवार को मैं शाम में चिकन लेकर आ गया ताकि तवा चिकन के साथ पराठे के मजे ले सकूँ। रविवार को मैं मछली लेकर आ गया और फिर ठेठ बंगाली स्टाइल में सरसों वाली मछली बनाई गई। अब दो दिन नॉन-वेज खाने के कारण यह तय किया गया कि सोमवार को वेज बनेगा। उस दिन कुछ दोस्तों और रिश्तेदारों के आने की भी संभावना थी। तो सोमवार को चाइनीज बनाया गया। मैं और मेरी पत्नी ने मिलकर नूडल, फ्राइड राइस और वेज मंचूरियन बनाया। साथ में चिंग के सूप मिक्स से लजीज सूप भी बना लिया। लेकिन उसके पहले सबकी फरमाइश हुई जलेबी खाने की। ऐसा सुनकर मुझे मेरा बचपन याद आ गया। अब देखिये कि जलेबी लाने में मुझे कितनी मेहनत करनी पड़ी।

मैं इस शहर में नया हूँ इसलिए मुझे यहाँ के बाजार के बारे में बहुत कुछ पता नहीं है। यहाँ के बाजारों की तंग गलियों में कार पार्किंग की जगह नहीं होती और कार चलाना बहुत ही मुश्किल साबित होता है। इसलिए मैंने अपनी पुरानी बाइक निकाली और उसे धो पोंछकर तैयार किया। काफी मान मनौवल के बाद मेरी पुरानी मोटरसाइकिल स्टार्ट हो गई और चलने के लिए तैयार भी हो गई। मेरे एक रिश्तेदार पिछली सीट पर बैठ गये। फिर अपने थोड़े बहुत अनुभव के आधार पर हमलोग शास्त्री नगर नाम के इलाके में पहुँचे। यह इलाका मेरे मकान से कोई चार किलोमीटर दूर है। उस इलाके के बाजार में काफी देर घूमने पर भी कोई भी ऐसा हलवाई नहीं मिला जो जलेबियाँ बना रहा हो। सबके पास पहले से बनी हुई छेने और खोए की मिठाइयाँ रखी हुई थीं। मुझे तो ताजी जलेबियों की जरूरत थी इसलिए हमने कहीं और कोशिश करने की सोची।

उसके बाद हम एक दूसरे इलाके में गये जिसका नाम है नेहरू नगर। यह इस शहर के पॉश इलाकों में से एक है इसलिए यहाँ की मिठाई की दुकानें ज्यादा भव्य नजर आ रहीं थीं। ज्यादातर दुकानों में वही बर्फी और लड्डू नजर आ रहे थे। कुछ के यहाँ बाहर रखे चूल्हे पर चाउमिन बन रहा था जिसे एक खास उम्र के लोग बड़े चाव से खा रहे थे। एक छोटी सी दुकान में ब्रेड पकौड़ा मिल रहा था जो दिल्ली और उसके आस पास के इलाकों में लगभग हर जगह मिल जाता है। इसके अलावा केक, पेस्ट्री, डोनट, बर्गर और पिज्जा की दुकानें भी थीं लेकिन जलेबी की दुकान एक भी नहीं मिली। हाँ एक जगह कुछ अजीब नजारा देखने को जरूर मिला।

मैक डॉनल्ड की दुकान के पास ही एक ठेले पर भी बर्गर बिक रहा था। ठेले की छत पर लगे बोर्ड पर लिखा था गुप्ता जी का मशहूर हॉट डॉग बर्गर। उस ठेले के पास एक मेरी ही उम्र के सज्जन खड़े थे जिन्हें कई बच्चों ने घेर रखा था। बच्चों की उम्र दस से लेकर पंद्रह साल तक रही होगी। सभी बच्चे एक सुर में चिल्ला रहे थे, “ताऊ जी, हम इस ठेले वाले का बर्गर नहीं खाएँगे। हमें तो मैक डॉनल्ड का बर्गर खाना है।“

उन बच्चों के ताऊ जी ने कहा, “नहीं बेटा, आज स्वतंत्रता दिवस है। आज हम आजादी की सत्तरवीं सालगिरह मना रहे हैं। आज के दिन यदि हमने किसी विदेशी कंपनी का बर्गर खाया तो गाँधी जी की आत्मा को ठेस पहुँचेगी। इसलिए आज के दिन हम गुप्ता जी का बर्गर ही खाएँगे।“

यह सुनकर वे बच्चे चुप हो गये। उन्हें लगा होगा कि उनके ताऊ जी ने कोई बहुत बड़ी बात कह दी थी। या उन्हें अपने कंजूस ताऊ जी पर पूरा भरोसा होगा कि उतने बच्चों को लेकर वे मैक डॉनल्ड जाने की हिम्मत नहीं रखते होंगे। ठीक कारण तो मुझे नहीं मालूम लेकिन उन बच्चों ने गुप्ता जी के बर्गर खाने में ही अपनी भलाई समझी।

वहीं पर किसी ने बताया कि हमें घंटाघर के पास जाना चाहिए। घंटाघर इस शहर का पुराना इलाका है जहाँ बहुत पुरानी दुकानें भी हैं। मैंने अपनी बाइक घंटाघर की ओर मोड़ दी। घंटाघर मेरे मकान से लगभग दस किलोमीटर दूर है। घंटाघर पहुँच कर किसी भी छोटे शहर के पुराने मुहल्ले और बाजार की महक आ रही थी। पतली सी गली में मोटरसाइकिल और रिक्शों से ही जाम लगा हुआ था। गली की दोनों तरफ लगभग हर किस्म की दुकानें दिख रहीं थीं; जैसे कि पतंग वाला, कपड़े वाला, फल वाला, गहने वाला, बर्तन वाला, सब्जी वाला, खिलौने वाला, किराने वाला, आदि। लगभग दो सौ मीटर जाने के बाद मुझे अपनी बाँई ओर एक बोर्ड दिखा जिसपर लिखा था, ‘लालाराम हलवाई। उसके नीचे वाली लाइन में लिखा था जलेबी वाले। फिर क्या था, मेरी बाइक अपने आप रुक गई।

वह एक छोटी सी दुकान थी। आगे एक छ: फुट लंबी मेज लगी थी जिसके नीचे कई खाने बने थे। ऊपर के खाने में मिठाईयाँ रखी थीं। बीच वाले खाने में मठरी और नीचे वाले खाने में सेव और सुहाल। आगे से मोटा सा ग्लास लगा था ताकि मक्खियाँ और धूल न जाने पाएँ। उस काउंटर के पीछे एक पतले दुबले सेठ जी बैठे थे। वे एक गद्दे पर बैठे थे जिसपर सफेद कवर चढ़ा था। सेठ जी ने सफेद पजामा कुर्ता और टोपी पहनी हुई थी। माथे पर चावल और रोली का तिलक लगा हुआ था। सेठ जी के पीछे एक ताखे पर गणेश जी और लक्ष्मी जी की मूर्ति रखी थी जिसके ऊपर एक लाल रंग का जीरो वाट का बल्ब जल रहा था। सेठ जी के आगे एक स्टोव जल रहा था जिसपर जलेबी तलने वाली कड़ाही चढ़ी थी। उस कड़ाही को देखकर मैं और भी आश्वस्त हो गया और सेठ जी से पूछा, “भाई साहब जलेबियाँ मिल जाएँगी?”

सेठ जी ने कहा, “हाँ हाँ, लेकिन आपको थोड़ी देर बैठना पड़ेगा।“

मैं वहीं पास रखी बेंच पर बैठ गया और उनसे एक किलो जलेबियाँ बनाने को बोला। जब वे बड़े प्यार से जलेबियाँ तल रहे थे तो मैंने कहा, “क्या बताऊँ भाई साहब। जलेबियों की तलाश में बड़ी दूर से आ रहा हूँ। बीच में कई बाजारों में पता किया लेकिन जलेबियाँ कहीं नहीं मिलीं।“

सेठ जी ने मुसकराते हुए कहा, “अजी साहब, आजकल जलेबियाँ बिकती ही नहीं। जिसे देखो वही नए जमाने की डिश खा रहा है। आजकल के बच्चों को तो बर्गर और पिज्जा चाहिए। वो रोज रोज तो नहीं खा सकते इसलिए पैकेट वाले चिप्स से ही काम चला लेते हैं।“

मैंने कहा, “ज्यादातर दुकान वाले न तो अब अच्छी जलेबियाँ बनाते हैं और न ही समोसे। उनसे तेल की अजीब सी महक आती है। अब तो बहुत कम ही दुकानों से आप भरोसा कर के ऐसी चीजें खरीद सकते हैं।“

सेठ जी ने हामी भरते हुए कहा, “ठीक कह रहे हैं। लेकिन मेरी जलेबियाँ आप आँखें मूंद कर ले जाइए। मेरा दावा है कि आप दोबारा भी मेरे पास ही आएँगे।“

मैंने कहा, “वह तो आपकी दुकान देखकर ही पता चलता है। फिर आप जितने प्यार से इन्हें तल रहे हैं उससे भी पता चलता है।“

सेठ जी ने कहा, “वो दिन दूर नहीं जब जलेबियाँ मिलनी बंद हो जाएँगी।“


मैंने कहा, “हाँ, अब आज को ही लीजिए। जलेबियाँ खरीदने के लिए मुझे अपने घर से दस किलोमीटर आना पड़ा।“ 


जलेबियाँ मिल जाने के बाद मैने अपनी मोटरसाइकिल स्टार्ट की और अपने रिश्तेदार से पीछे बैठने को कहा। जैसे ही हम उस गली से मेन रोड पर आये तो सुबह से पहली बार ऐसा माहौल देखने को मिला जिससे लगे कि पंद्रह अगस्त को मनाया जा रहा है। अभी तक पूरे रास्ते में मुझे पंद्रह अगस्त के नाम पर कुछ मोटरसाइकिल और स्कूटर पर छोटे-छोटे झंडे दिखाई दिए थे। कुछ बड़ी कारों से फुल वाल्युम में फिल्मी गाने बजते जरूर सुनाई दिये थे। लेकिन इसके अलावा कहीं भी वह जोश या माहौल नहीं दिखा जिससे लगे कि कोई उत्सव हो रहा हो। मेरे आगे-आगे दो ट्रक चल रहे थे। उन ट्रकों के पीछे कुछ नवयुवक और किशोर लड़के लदे हुए थे। दोनों ट्रकों पर एक बड़े से डंडे के ऊपर एक बड़ा सा झंडा लहरा रहा था जिसे वे इधर उधर हिला रहे थे। ट्रकों पर बहुत बड़े-बड़े स्पीकर भी लदे हुए थे जिनसे कानफोड़ू संगीत बज रहा था। ज्यादातर गाने हाल के दशकों की फिल्मों से थे। इन गानों में देशभक्ति का थोड़ा बहुत पुट था। सबसे बड़ी बात ये थी कि इन गानों के बीट और स्टाइल आधुनिक युवकों के टेस्ट से मेल खा रहे थे। उन गानों पर सभी लड़के इस तरह से डांस कर रहे थे जैसे माइकल जैक्सन को भी पीछे छोड़ दें। बीच बीच में देश के सम्मान में नारेबाजी भी हो रही थी। उन ट्रकों के पीछे-पीछे लंबा जाम लगा हुआ था। अगले चौराहे तक की दूरी तय करने में मुझे लगभग आधा घंटा लग गया। उन ट्रकों को चौराहे पर से दाहिने मुड़ते देखकर मैने राहत की सांस ली क्योंकि मुझे बाईं ओर जाना था। 

जब जलेबियाँ लेकर मैं अपने घर पहुँचा तो मेरी पत्नी ने एक बड़ी सी थाली में जलेबियाँ परोस दी। उन जलेबियों को केवल वही लोग हाथ लगा रहे थे जिनकी उम्र पैंतीस से अधिक थी। पचास से अधिक उम्र के कुछ लोगों ने डायबिटीज होने के बावजूद जलेबियाँ उठा ली। लेकिन तीस से नीचे के किसी ने भी जलेबियों को छुआ तक नहीं। उनका कहना था कि टेस्टी चाइनीज फूड खाने से पहले वे अपने मुँह का स्वाद बिगाड़ना नहीं चाहते थे। 

Sunday, August 14, 2016

मरा हुआ कौवा

पड़ोस के वर्मा जी सबसे आगे-आगे चल रहे थे। उनके पीछे-पीछे उनके दो बेटे और पड़ोस के अन्य लड़के भी चल रहे थे। दस लोगों के उस समूह में वर्मा जी को छोड़कर बाकी सभी किशोरावस्था में थे। वर्मा जी आगे-आगे किसी सिपाही की मुद्रा में कदम ताल करते हुए चल रहे थे। उनके पीछे चल रहे लड़के उनकी हूबहू नकल उतार रहे थे। इससे वर्मा जी के बेटों को कुछ अच्छा नहीं लग रहा था।
वर्मा जी कह रहे थे, “सुबह-सुबह सैर करने से बहुत सारे फायदे होते हैं। ताजी हवा अंदर जाने से सेहत अच्छी रहती है।“

एक लड़के ने जवाब दिया, “हाँ चचा, सही कहा आपने। हम किस्मत वाले हैं कि हमारे शहर में मॉर्निंग वाक के लिए राज का इतना बड़ा कैंपस है।“

दूसरे लड़के ने कहा, “हाँ इस कैंपस में बड़े-बड़े मैदान हैं और जमकर हरियाली भी है।“

वर्मा जी ने कहा, “अरे नहीं, इससे ज्यादा हरियाली तो हमारे गाँव में हुआ करती थी। शहरों में वो बात नहीं है। अब इतनी ज्यादा गाड़ियाँ चलने लगीं हैं कि हर तरफ धुँए का असर होता है।“

वे इसी तरह से बातें करते-करते आगे बढ़ रहे थे कि वर्मा जी के कदम अचानक रुक गये। बाकी लड़के उनके पीछे ठीक उसी तरह रुक गये और एक सुर में पूछा, “क्या हुआ चचा? रुक क्यों गये?”

वर्मा जी ने किसी छोटे बच्चे की तरह किलकारी मारी और बोला, “अरे देखो, एक मरा हुआ कौवा।“

बाकी लड़कों ने कहा, “हे राम! मरा हुआ कौवा। उससे दूर ही रहिए चचा। चलिये चलते हैं यहाँ से।“

वर्मा जी ने कहा, “अरे नहीं। इस मरे हुए कौवे से तो हम बहुत मजा कर सकते हैं।“

बाकी लड़कों ने कहा, “क्या बात है चचा? लगता है आप हमें कोई नई शरारत सिखाएँगे।“

किसी लड़के ने कहा, “पिछली बार आपके कहने पर मैंने उस बुढ़ऊ की धोती खींच दी थी तो घर में बहुत मार पड़ी थी।“

किसी अन्य लड़के ने कहा, “पिछली बार आपके कहने पर मैंने उस गदहे को पकड़ने की कोशिश की थी तो उसकी दुलत्ती खानी पड़ी थी।“

वर्मा जी ने कहा, “अबे तुम सब रह जाओगे डरपोक के डरपोक। तुम्हारी उमर में तो हम वो सब शरारते करते थे कि गाँव के कई बुजुर्ग तो गाँव छोड़कर पूरे दिन खेतों में छुप जाते थे।“

वर्मा जी ने आगे कहा, “:अभी दिखाता हूँ कि यह मरा हुआ कौवा हमारे कितने काम आ सकता है।

फिर वर्मा जी के इशारे पर एक लड़के ने किसी पेड़ से एक टहनी तोड़ ली। वर्मा जी ने अपने गमछे से अपने सिर को ढ़क लिया। फिर उस टहनी की एक छोर पर उस मरे हुए कौवे को टाँग लिया और आगे की ओर चल पड़े।

उसके बाद तो वहाँ के कौवों में कोहराम मच गया। सभी कौवों ने एक सुर में काँव-काँव करना शुरु कर दिया। लगता था पूरे शहर के कौवे वहीं आ गये थे। वे सभी कौवे बारी-बारी से वर्मा जी के सिर पर झपट्टा मारने की कोशिश कर रहे थे। वर्मा जी बड़ी सफाई से उनसे बच निकलते थे। वर्मा जी आगे-आगे मरे हुए कौवे को टाँगे हुए चल रहे थे। उनके पीछे उनकी वानर सेना हो हल्ला मचाते हुए चल रही थी। और उनका पीछा करते हुए कौवे काँव-काँव कर रहे थे।

जब वे अपने मुहल्ले के पास पहुँचे तो उन्हें देखने के लिए कई लोग अपने घरों से बाहर निकल पड़े। कुछ लोग अपनी छतों पर आ गये तो कुछ अपनी बालकनी में से झाँकने लगे।

पाँडे जी ने हँसते हुए कहा, “अरे वर्मा जी, आपका बचपना तो कभी नहीं जायेगा।“

गुप्ता जी ने गुस्से में कहा, “अरे वर्मा जी, आपने तो मुहल्ले के लड़कों को बिगाड़ कर रख दिया है।“

मिश्राइन ने आँखें मटकाते हुए कहा, “अरे पप्पू के पापा, देखते हो वर्मा जी कैसे अपनी जवानी मेंटेन किए हुए हैं। एक तुम हो जो अभी से बुढ़ऊ की तरह करने लगे हो।“

मिश्रा जी ने झल्लाकर कहा, “अब तुम जैसी बुढ़िया के लिए तो मेरे जैसा बुड्ढ़ा ही सही रहेगा।“

लग रहा था कि वर्मा जी किसी विजय जुलूस की अगुवाई कर रहे थे। वे आगे-आगे और उनकी वानर सेना उनके पीछे। साथ में उनके सिर पर मंडराता कौवों का झुंड। उनके पीछे-पीछे चल रहे लड़कों को पता था कि वर्मा जी के साथ होने के कारण घर में डाँट पड़ने की संभावना न के बराबर थी। इसलिए वे भी पूरे जोशो खरोश के साथ चिल्ला रहे थे।

उसके बाद वर्मा जी का जुलूस उनके आंगन में प्रवेश कर गया। वर्माइन ने एक हाथ से अपना नाक बंद करते हुए दरवाजा खोला और बोलने लगी, “पता नहीं आप कब सुधरेंगे। आपकी वजह से मुझे पूरे मुहल्ले से ताने सुनने पड़ते हैं।“

वर्मा जी ने अपनी पत्नी को अनसुना कर दिया और जीने से होते हुए छत पर पहुँच गये। थोड़ी देर में कौवों की संख्या और भी बढ़ गई। लगता था पूरे शहर के कौवे वर्मा जी की छत पर उतरने को व्याकुल हो रहे थे। वे जितनी बार वर्मा जी के सिर पर झपट्टा मारने की कोशिश कर रहे थे, हर बार वर्मा जी बड़ी चतुराई के साथ बच निकलते थे।

फिर वर्मा जी ने कहा, “अबे सुनो।“

लड़कों ने एक सुर में कहा, “बताइए चचा।“

वर्मा जी ने कहा, “इस कौवे को दारोगा जी की छत पर फेंक दूँ?”

लड़कों ने कहा, “हाँ चचा, वो दारोगा चचा कुछ ज्यादा ही रौब दिखाते हैं।“

फिर क्या था, वर्मा जी ने कौवे को पकड़ा, उसे तेजी से हवा में घुमाया और बगल वाले दारोगा जी की छत परे फेंक दिया। अब उनके ऊपर मंडरा रहे कौवों ने उनका पीछा छोड़ दिया और वे सब जाकर दारोगा जी के छत पर बैठ कर काँव काँव करने लगे।

जब दारोगा जी को पता चला तो वे अपने आंगन में से ही जोर-जोर से चिल्लाने लगे, “इस तरह की कारस्तानी वर्मा जी ही कर सकते हैं। मैं छोड़ूँगा नहीं। पुलिस बुलवाऊँगा। मुकदमा दायर करूँगा।“


वर्मा जी तब तक अपने कमरे में जा चुके थे। वर्माइन ने उनके चेलों को गरमागरम चाय पिलाई। चाय की चुस्कियों के साथ सब मिलकर ठहाका लगा रहे थे और बोल रहे थे, “कसम से चचा, मजा आ गया।“ 

Friday, August 12, 2016

I Am on Actuals

Most of the pharmaceutical companies pay some daily allowance to their medical representatives and first line managers. The allowance is given so that the sales guy can manage to pay hotel bill and travel bill (for local commuting). Some of the companies also give some sort of food allowance so that the sales guy can buy food while he is working in the field. As most of the sales guys come from middle class background, so they always try to save some money from the allowance. But some companies reimburse the actual bill once a person gets promoted to become the first line manager. This is done in order to enable the first line manager to stay in a decent hotel and eat better food. Moreover, his laundry bill is also reimbursed so that he need not bother about the meager allowance and can focus on his actual job. This story is about the ‘proper use’ of the facility of reimbursement of the actual bill by a guy who was recently promoted to the post of the first line manager.

Unlike most of his colleagues, that guy was somewhat rustic in his behavior and dress sense. Just after becoming a firs line manager, he went for a joint working in the territory of one of the medical representatives in his team. The medical representative reported to him early in the morning at seven am sharp because they had to go to some interior for work. The moment the medical representative took a seat on the sofa in the hotel room, the manager asked, “Hey would you like to have breakfast?”

The medical representative answered in affirmative. Hearing that, the manager made a call to the receptionist and ordered for breakfast, “We want a full plate of chicken chilly, two plates of omlettes, a full plate of fish fry and two plates of butter toast for breakfast.”

The medical representative was stunned. He said, “Sir, I thought of having something light for breakfast. I think it is going to be too much for two of us.”

The manager replied, “Don’t worry mate. Your old colleague has got a promotion now. I am on the actual; so I no longer need to worry about the bills.”

The medical representative took a plate each of butter toast and omlette and a few pieces from the chicken chilly and fish fry. Rest of the food was gobbled by the manager.

When they came back from the interior, it was the time for lunch. The manager once again called the reception desk and said, “Hi, can you write down my order for lunch? Please send two plates of mutton curry, one plate of chicken tikka, one plate of fish fry, ten pieces of naan and two plates of fried rice. You can send two plates each of gulab jamun and ice cream for dessert.”

The medical representative was a frugal eater and hence said, “Sir, I would take just two naans and a few pieces of chicken tikka for lunch. You can order accordingly. There is no need for ordering so many items.”

The manager said, “Don’t worry mate. Your old colleague has got a promotion now. I am on the actual, so I no longer need to worry about the bills.”

After finishing the lunch, the medical representative went to meet the wholesalers. The manager remained in the hotel to complete his daily quota of the afternoon siesta. The medical representative came back in the evening as they had planned to meet some more doctors in the evening. Looking at him, the manager asked, “Hey, would you like to have something for the evening snacks?”

The representative said, “No, thanks! I am full.”

The manager said, “You are a young guy. You should eat a lot because you need to work really hard. I am not going to hear anything from you. I am going to order for some snacks.”

The manager once again called the reception desk and ordered, “Please send a full plate of chicken chilly, four egg rolls and two coffees for us.”

The medical representative once again said, “Sir, I can have coffee if you insist. But I am not going to eat chickens. I love non-vegetarian food but I usually take a non-vegetarian meal once or twice in a week.”

The manager said, “Don’t worry mate. Your old colleague has got a promotion now. I am on the actual, so I no longer need to worry about the bills.”

After finishing their work, they came back to the hotel at half past nine. While the medical representative was busy preparing his daily report, the manager asked, “Hey, what about dinner? Let me order for the dinner. Would you like to have a couple of beer as well?”

The medical representative said, “Sir, beer would be fine. But please don’t order too many items for dinner.”

The manager once again called the reception counter and said, “Please send four naans, a full plate of plain rice, a full plate of mutton curry, one plate chicken chilly and a plate of fish fry. Yeah, we will have some finger chips for snacks.”

The medical representative had had enough of it. He said, “Sir, I already told you that I don’t want to eat so much. You can order whatever you wish for you. But please spare me from the torture of shoving so much into my stomach.”

The manager once again said, “I am on the actual, ……………..”

The representative interrupted him and said, “So what if you are on the actual? Why are you making your tummy a graveyard for all the dead chickens and fish? It is understandable that the bill is going to be reimbursed by the company. Does it necessitate that you go on eating everything in the name of getting the reimbursement?”

But the manager did not pay heed to his colleague’s advice. Instead, he gorged on everything which he had ordered. He emanated a loud burp after the meal and said good night to the representative.


When the medical representative went to the hotel on the next morning, he found the room door ajar. While he sat on the sofa; waiting for his boss, he could hear the rumbling sound from the bathroom. Within a few moments, the manager came out of the bathroom. He appeared highly exhausted. He said, “I am suffering from diarrhea since night. Can you bring some ORS for me? I have planned to observe a fast for today. But you can order whatever you wish for breakfast. In fact, I am on the actual.”