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Monday, August 1, 2016

बुझावन माँझी

बुझावन माँझी बिहार के किसी छोटे से गाँव में रहता था। वह मुसहर जाति का था। बिहार की जाति व्यवस्था में मुसहर अति दलितों में आते हैं। मुसहरों के पास अपनी जमीन नहीं होती है लिहाजा ये दूसरों के खेतों में काम करते हैं। पुराने जमाने में कई छोटे बड़े जमींदारों ने इन्हें अपने रैयत के रूप में बसाया था और थोड़ी सी जमीन दी थी ताकि ये अपनी झोपड़ियाँ बना सकें। बुझावन माँझी जिस गाँव में रहता था उस गाँव में यादव सबसे अधिक आबादी में थे। उनके अलावा उस गाँव में कुछ मुसलमान, पासवान, चमार और एक घर कायस्थ का था। कायस्थ जाति के लोग चालीस पचास के दशक से ही खेती बारी छोड़कर नौकरीपेशा बनने लगे थे और शहर की ओर पलायन करने लगे थे। लिहाजा उस गाँव के कायस्थ के घर में हमेशा ताला ही लगा होता था। उस घर का इकलौता वारिस पास के ही शहर में किसी सरकारी नौकरी में था। उस गाँव के यादवों के पास संख्याबल के अनुपात में जमीन भी अधिक थी इसलिए उस गाँव और आसपास के कई गाँवों में यादवों की दबंगई चलती थी।

बुझावन को मुसहर होने के कारण गाँव में कोई इज्जत नहीं मिलती थी। ज्यादातर लोग उसे बुझावन कहने की बजाय बुझौना कहकर बुलाया करते थे। उसी गाँव में यादवों को उनके नाम के आगे बाबू कहकर बुलाया जाता है क्योंकि बाबूशब्द सम्मान का सूचक होता है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि ऐसा अक्सर होता है कि हम संपन्न लोगों के नाम के आगे जी या नाम के पहले मिस्टर कहकर बुलाते हैं। आपने भी शायद ही कभी अपने मुहल्ले में झाड़ू लगाने वाले के नाम के आगे जी या मिस्टर लगाया होगा। अकसर किसी पान की दुकान वाले को हम उतना सम्मान नहीं देते जितना कि पास वाले किसी डिपार्टमेंटल स्टोर के मालिक को। किसी भी आदमी को उसके समाज में मिलने वाला सम्मान उसकी आर्थिक स्थिति के समानुपाती होता है। हाँ, कभी कभी शिक्षा का स्तर भी सम्मान दिलाने में मदद करती है, लेकिन फिर भी हम किसी कॉलेज के लेक्चरर को जितना सम्मान देते हैं शायद उतना किसी स्कूल के टीचर को नहीं।

चलिये फिर से अपने बुझावन यानि बुझौना की सुध लेते हैं। एक बार उसी गाँव के कन्हैया यादव को एक बोरी चीनी मंगवाने की जरूरत पड़ी। यह वह जमाना था जब चीनी केवल राशन की दुकानों में मिलती थी। थोड़ी भी ज्यादा मात्रा में चीनी खरीदने के लिए सरकार के सप्लाई डिपार्टमेंट से परमिट लेना पड़ता था। कन्हैया के घर किसी की शादी थी इसलिये उसे ज्यादा चीनी की जरूरत थी। कन्हैया को ध्यान आया कि उसी गाँव के कायस्थ पास के ही शहर में सरकारी नौकरी करते थे। उसे पक्का यकीन था कि वे चीनी की परमिट दिलाने में उसकी मदद जरूर करेंगे। कन्हैया ने इस काम के लिये बुझौना को बुलवा भेजा।

बुझौना भागा भागा आया और कन्हैया के घर के आगे खड़ा हो गया। कन्हैया अपने चार फीट ऊँचे बरामदे पर खड़ा था। उसने सफेद धोती और मटमैली बनियान पहन रखी थी। उसके बालों में इतना अधिक तेल चुपड़ा हुआ था कि कुछ बूँदें उसकी कनपटी से टपक रही थीं। उसने अपनी तलवार छाप मूँछों को भी तेल पिला रखी थी। उसका बाँया हाथ कमर पर था और दाएँ हाथ में दो अंगुलियों के बीच बीड़ी दबी हुई थी। उसने बीड़ी का एक लंबा कश खींचा और बोला, “अरे बुझौना, आज ही तुमको सहर जाना होगा। वहाँ अपने गाँव के लालाजी रहते हैं; टुनटुन बाबू, उनके डेरा पर तो गये ही होगे। (बिहार में कायस्थों को लाला भी कहा जाता है)।“

बुझौना एक फटी पुरानी लुंगी पहने था जिसपर कई जगह पैबंद लगे थे। उस लुंगी को छोड़कर उसके तनपर कोई कपड़ा नहीं था। हाथ में एक लाठी जरूर थी। वह अपने साथ हमेशा लाठी इसलिए रखता था कि पता नहीं कब किसी धनी किसान का आदेश आ जाए और खेत में घुस आई किसी बकरी या भैंस को भगाने की जरूरत पड़ जाये। बुझौना की बाँई हथेली पर खैनी थी जिसे वह दाहिने अंगूठे से मल रहा था। खैनी को खूब अच्छी तरह मलने के बाद उसने अपनी दाहिनी हथेली से कन्हैया के सामने पेश किया और बोला, “हाँ मालिक, हम कई बार गए हैं उनका सामान लेकर।“

कन्हैया ने खैनी लेते हुए कहा, “हम तुमको एगो चिट्ठी दे देते हैं। ई चिट्ठी दे देना बस ऊ सब बूझ जाएँगे। ऊ साहब तुमको एक बोरी चीनी दिलवा देंगे बस उसी को लाना है। ठीक से लाना, पानी में भीगना नहीं चाहिए। कुछो गड़बड़ किया तो खाल उधेड़ देंगे।“

बुझौना ने कहा, “ठीक है मालिक। कुछ पैसा मिल जाता जाने के लिए तो ठीक रहता।“

फिर कन्हैया ने उसे सफर के लिए पैसे दिये और शहरी बाबू के नाम एक चिट्ठी भी दी।

बुझौना अपने घर गया और एक साफ सुथरी लुंगी और एक कमीज निकाली। यह ड्रेस उसे कभी टुनटुन बाबू के घर से मिली थी। वे लोग अकसर अपने पुराने कपड़े गाँव के गरीबों में बाँट दिया करते थे। फिर बुझौना ने अपने सिर में प्रचुर मात्रा में सरसों का तेल लगाया और एक टूटी हुई कंघी से बाल सँवारने लगा। उसकी पत्नी और बच्चे उसे बड़े गौर से निहार रहे थे। उसके बड़े बेटे ने पूछा, “बाबू, ई लगता है कि सहर जा रहे हो। हमरे लिए एक ठो लट्टू ले आना। पुरनका लट्टू कब्बे टूट गवा।“

बुझौना की पत्नी ने उसे एक झिड़की दी, “सूझ नहीं रहा है कि तुम्हरे बाबू कौनो जरूरी काम से सहर जा रहा है। अब ऊँहा एतना फुरसत थोड़े मिलेगा कि तुम्हरा लट्टू खरीदे।“

बुझौना कुछ नहीं बोला। वह बस मंद मंद मुसका रहा था। उसे भी शायद शहर जाने का मौका मिलने की खुशी हो रही थी।

बुझौना जब शहर पहुँचा तो वहाँ उसे कुछ अलग ही माहौल मिला। जिन साहब से उसे मिलना था, बुझौना सीधा उनके दफ्तर में पहुँचा। उसे देखकर उन साहब ने कहा, “अरे बुझावन, यहाँ कैसे? गाँव में सब कुशल मंगल तो है? सुबह सुबह ही चले होगे। भूख भी लगी होगी।“

फिर उन साहब ने अपने चपरासी को कुछ पैसे दिये और उससे कहा, “रामखेलावन, ये आदमी मेरे गाँव से आया है। इसे मारवाड़ी बासा में ले जाओ और भरपेट खाना खिला दो।“

उसके बाद उन साहब ने कन्हैया यादव के लिए चीनी की परमिट का इंतजाम किया। उसके बाद बुझौना को चीनी की बोरी के साथ बस स्टैंड तक किसी सरकारी जीप से पहुँचवा दिया। उन्होंने बुझौना को बख्शीश के तौर पर कुछ रुपए भी दिये।

बुझौना जब बस में चढ़ा तो उसके खलासी ने कहा, “अरे रे, ई बोरिया कहाँ अंदर घुसा रहा है। बोरिया बस के अंदर रखने का परमिसन नहीं है। चल उसको छत्ते पर डाल दे।

बुझौना बोला, “मालिक इसमें बड़ा जरूरी समान है। छत पर पानी उनी से भीग भाग गया तो जुलुम हो जाएगा। जिसका चिन्नी है ऊ हमको बहुत मार मारेगा।“

खलासी ने कहा, “जिसको देखो जरूरी समान ही लेके आता है। अरे, जब बोरिया अंदर डालेंगे तो पसिंजर केन्ने बईठेगा, तुम्हरे कपार पर।“

उसके बाद चीनी की बोरी को बकायदा छत पर डाल दिया गया। बेचारे बुझावन की किस्मत कुछ ज्यादा ही खराब थी। जब वह अपने गाँव पहुँचकर बस से उतरा तो देखा तो चीनी की बोरी बस की छत पर थी ही नहीं। लगता है कोई उस बोरी को लेकर रास्ते में ही चंपत हो गया था।

बेचारा बुझावन बुझे मन से कन्हैया के पास पहुँचा और चुपचाप खड़ा हो गया। उसे देखकर कन्हैया ने कहा, “का बात है रे? अईसे मुँह काहे लटकाया है? कौनो तुम्हरी मेहरारू को लेके भाग गया का? का हुआ बोलोगे भी।“

जब बुझावन ने उसे सारी बात बताई तो कन्हैया आपे से बाहर हो गया। उसने गाँव के अन्य यादवों को वहाँ बुला लिया। भीड़ लगती देखकर मुसहर की बस्ती से भी कुछ लोग आ गये। बुझावन की बीबी और बच्चे भी वहाँ पहुँच गये। कन्हैया जोर जोर से बोल रहा था, “अरे भाई लोग, ई देखो। ई बुझौना खाली बईठ कर टाइम पास कर रहा था तो हम सोचे कि कुछ कमाई धमाई का मौका दे दें। इसको टुनटुन बाबू के पास भेजा चिन्नी लाने। चिन्नी का पईसा तो दिया ही साथ में कुछ अलग से भी पइसा दिया कि ठीक से सहर घूम ले। लेकिन ई साला तो जालसाज निकला। पूरा चिन्नी का बोरी डकार लिया और बोलता है कि बस से चोरी हो गया। हम छोड़ेंगे नहीं इसको। चिन्नी का हिसाब तो लेके रहेंगे।“

बुझौना धीरे से बोला, “मालिक, हम पूरा हिसाब दे देंगे। अगला बार गेहूँ के कटनी में हम मजूरी नहीं लेंगे। उससे चिन्नी का हिसाब बराबर हो जायेगा।“

कन्हैया ने उसे कई चुनिंदा गालियाँ दीं और बोला, “अभी जो हमरे घर में ब्याह है उसमें मिठाई कईसे बनेगा। तुम तो हमरा इज्जत ले लिया। बराती को क्या जवाब देंगे?”

कन्हैया ने फिर कहा, “ई बुझौना हमरा इज्जत ही माटी में मिला रहा है। अभी हम भी इसका इज्जत माटी में मिलाएँगे। बस हो जाएगा हिसाब बराबर। क्यों भाई, सही इंसाफ है कि नहीं?”

वहाँ पर मौजूद यादवों ने एक सुर में कहा, “हाँ बिलकुल सही है। इसका लुंगी उतार दो। तब इसको पता चलेगा इज्जत का मतलब।“

फिर कन्हैया ने आव देखा न ताव और भरी भीड़ के सामने बुझावन की लुंगी उतार दी। बेचारा बुझावन चुपचाप सिर झुकाए वहीं जमीन में बैठ गया। उसकी बीबी और बच्चे उसके पास बैठकर बड़ी देर तक विलाप करते रहे। उसके बाद उसकी बीबी ने वहाँ पड़ी लुंगी उठाई और बुझावन के कमर पर लपेट दिया। फिर वे धीरे-धीरे अपने घर की ओर चले गये।

इस घटना को हुए दो तीन दिन बीत चुके थे कि बुझौना किसी दोपहर को फिर से उन साहब के पास हाजिर हो गया। उसे देखकर साहब ने पूछा, “अरे बुझावन, क्या हुआ? तुम फिर आ गये। लगता है कन्हैया को और भी चीनी की जरूरत है।“

बुझावन ने कुछ नहीं कहा और फफक फफक कर रोने लगा। काफी ढ़ाढ़स बँधाने के बाद उसने कहा, “मालिक हमरे साथ जुलुम हो गया। ऊ का हुआ कि जब हम ईहाँ से बस से जा रहे थे तो बस का खलासी चिन्नी का बोरा बस के छत पर रख दिया। जब हम गाँव पहुँचे तो देखा कि बस के छत पर चिन्नी का बोरिया नहीं था। लगता है कोनो उसको चुरा लिया। फिर कन्हैया हमको बहुत मारा पीटा। हम बहुत चिरौरी किये लेकिन भरल गाँव के सामने ऊ हमरा लुंगी उतार दिया। हमरा परिवार के सामने हमरा इज्जत चला गया। ऊ कन्हैया बोला है जहाँ से हो चिन्नी लेकर आने को। आब आप ही हमरी नैया पार लगा सकते हैं। चिन्नी लेके नहीं गये तो कन्हैया हमरा बीबी बच्चा को भी मारेगा।“

उन साहब ने कोई जवाब नहीं दिया और मन ही मन सोच रहे थे, “पता नहीं मेरा गाँव कब बदलेगा। बेचारे गरीब लोग, कब तक इस तरह अत्याचार सहते रहेंगे।“


फिर उन साहब ने दोबारा चीनी की बोरी का इंतजाम करवाया। इस बार वे खुद बुझौना को छोड़ने बस स्टैंड गये। बस के कंडक्टर को पाँच रुपए अलग से दिये और सख्त हिदायत दी की चीनी सही सलामत गाँव पहुँच जानी चाहिए। बस का कंडक्टर आस पास के ही गाँव का था इसलिए उनको जानता था। आखिरकार कन्हैया को चीनी की बोरी मिल गई और उसे अपनी मूँछों पर ताव देने का एक और मौका मिल गया।