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Thursday, June 9, 2016

आइआइटी में एडमिशन

सुबह सुबह दरवाजे की घंटी बजी। जब दरवाजा खोला तो सामने सिन्हा जी खड़े थे। उनके चेहरे पर इतनी खिली हुई मुसकान थी कि तंबाकू से काले पड़े हुए उनके दाँत बस कभी भी बाहर गिरने को बेताब लग रहे थे। मैंने उन्हें नमस्ते कहकर बैठने के लिए कहा तो उन्होंने कहा, “नहीं! नहीं! बड़ी जल्दी में हूँ। बस आपको निमंत्रण देने आया था। आज शाम में मेरे यहाँ सत्यनारायण भगवान की पूजा है और फिर उसके बाद प्रीतिभोज भी है। और जगह भी जाना है, निमंत्रण देने।“
“अरे वाह! लगता है कोई खास खुशखबरी है। तभी आप इतने बड़े अनुष्ठान का आयोजन करवा रहे हैं।“ मैंने पूछा।
सिन्हा जी ने खीसें निपोरते हुए कहा, “हाँ! हाँ! वो बात ऐसी है कि मेरे दोनों लड़कों का सेलेक्शन आइआइटी के लिए हो गया है। बहुत दिनों से मन्नत माँग रखी थी। इसलिए पूजा करवा रहा हूँ। पूरे परिवार के साथ आइएगा।“
सिन्हा जी तो अपना निमंत्रण देकर निकल लिए। लेकिन उनके जाने के बाद मैं सोच में पड़ गया कि आइआइटी के एंट्रेंस एग्जाम का रिजल्ट तो जून के महीने में आता है और अभी फरवरी के महीने में ही उनके लड़कों ने उस कंपिटीशन को कैसे निकाल लिया। बहरहाल, जब मैंने अपनी पत्नी से इस बात की चर्चा की तो वह उल्टा मुझपर ही भड़क पड़ी।
मेरी पत्नी ने कहा, “आपको तो बिना वजह किसी पर शक करने की आदत है। अपनी रिचा पर तो ध्यान ही नहीं देते। कहते हैं कि इंजीनियर नहीं बनेगी तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। अरे आज के जमाने में कोई इंजीनियर नहीं बनेगा तो फिर उसका जीवन तो व्यर्थ ही हो जाएगा। मुझे तो आजकल मुहल्ले के पार्क में भी जाने में हीन भावना सी लगती है। सबके बच्चे इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहे हैं। केवल मेरी ही बेटी इस सुख से मरहूम है।“
शाम होते ही मैं अपनी पत्नी और बेटी के साथ सिन्हा जी के घर पहुँच गया। बाहर का माहौल देखकर लग रहा था कि सिन्हा जी ने भव्य आयोजन किया था। बड़ा सा शामियाना लगा हुआ था। करीने से कुर्सियाँ लगी थीं जिनपर सफेद कपड़े मढ़े हुए थे। बीच में पूजा का हवन कुंड सजा हुआ था; जहाँ पर सिन्हा जी; अपनी पत्नी के साथ गठबंधन किए हुए पूजा के आसन पर विराजमान थे। पंडित जी पूरी तन्मयता के साथ मंत्र पढ़ा रहे थे। उसी बीच में सिन्हा जी सभी आने जाने वालों की तरफ नजरें उठाकर उनका अभिवादन भी स्वीकार कर रहे थे। सिन्हा जी के दोनों लड़कों ने नई शेरवानी पहन रखी थी; जैसे कि किसी की शादी में आए हों। शामियाने के पीछे से एक से एक व्यंजनों के पकने की खुशबू भी आ रही थी। मैंने सही जगह देखकर एक कुर्सी हथिया ली। मेरी पत्नी और बेटी महिलाओं के ग्रुप में चली गईं। मेरी बगल में वर्मा जी बैठे थे। पास में मेहता साहब, गुप्ता जी, मिश्रा जी, ठाकुर जी, आदि लोग बैठे थे। सब आपस में खुसर पुसर कर रहे थे। मैं भी उनकी बातों में शामिल हो गया।
मिश्रा जी ने बगल में पान की पीक फेंकते हुए कहा, “मेरी समझ में ये नहीं आ रहा है कि फरवरी के महीने में आइआइटी के एंट्रेंस एग्जाम के रिजल्ट कब से आने लगे। अरे मेरा बेटा तो पहले से ही पटना के एनआइआइटी में पढ़ रहा है। उसे भी यही टेस्ट निकालना पड़ा था।“
गुप्ता जी बीच में बोल पड़े, “अरे भाई साहब, सिन्हा जी का कोई भरोसा नहीं है। इनकी पहुँच बहुत ऊपर तक है। इनके जैसा शातिर आदमी कुछ भी कर सकता है। देखते नहीं, कैसे पिछले दस सालों से ऑफिस में एक ही टेबल को पकड़े हुए हैं; जहाँ से गाढ़ी कमाई होती है।“
ठाकुर जी अपनी बाइक की चाबी से अपने कान खुजा रहे थे। उन्होंने कहा, “अरे नहीं, मेरा बेटा तो आइआइटी खड़गपुर में ही पढ़ता है। उसके एंट्रेंस एग्जाम में कोई बेइमानी नहीं होती है। फिर चाहे सिन्हा जी हों या फिर उनके आका। मुझे तो लगता है कि इन्होंने इंस्टिच्यूट के नाम में एकाध आइगायब कर दिए होंगे। अब भला अन्य लोगों को कैसे बताएँ कि उनका बेटा आइआइटी में जाने से रह गया। यहाँ क्या है, लोग आएँगे, खाना खाएँगे और फिर सब अपनी जिंदगी में मशगूल हो जाएँगे। फिर किसे फुरसत है ये जानने की कि सिन्हा जी का बेटा कहाँ से इंजीनियरिंग कर रहा है।“
तभी पंडित जी की आवाज गूँजी, “अब सत्यनारायण भगवान की पूजा समाप्त हुई। बोलिए श्री सत्यनारायण भगवान की जय!”
सब लोग एक सुर में बोल उठे, “जय!”
उसके बाद आरती हुई। सभी लोगों ने खड़े होकर आरती को उचित सम्मान दिया। फिर प्रसाद वितरण के बाद लोग बुफे के लिए लगी हुई मेजों की तरफ टूट पड़े। जब खाने की प्लेटों को भरने का युद्ध कुछ शाँत हुआ तो अधिकाँश लोग फिर उसी गंभीर चर्चा में जुट गए कि आखिर सिन्हा जी ने बेमौसम पूजा और भोज का आयोजन क्यों किया। सब लोग बाल की खाल निकाल रहे थे। तभी वहाँ से ऑफिस का चपरासी जीतन जाता दिखा। कहते हैं कि किसी ऑफिस के चपरासी के पास जितनी गुप्त जानकारी होती है उतनी तो शायद कैबिनेट सेक्रेटरी के पास भी नहीं होती। हमारे आस पास खाना खा रहे लगभग सभी लोगों ने एक साथ जीतन को आवाज लगाई। जीतन फौरन वहाँ आ गया। फिर जीतन ने जो खुलासा किया उसे आप खुद ही सुन लीजिए।
जीतन ने बड़ा रहस्योद्घाटन किया, “नहीं साहब! आइआइटी में नहीं हुआ है। उसका टेस्ट तो जून में होता है। इनके लड़कों ने कोटा के किसी कोचिंग इंस्टिच्यूट में नाम लिखवाने के लिए कोई टेस्ट दिया था, उसी में पास हो गए हैं। कल ही तो ट्रेन से ये कोटा जा रहे हैं। साथ में मैं भी जा रहा हूँ। मेरा बच्चा भी वहाँ पढ़ता है। क्या है साहब, कि कोटा में जाना तो आइआइटी में जाने के बराबर है। सब लोग कहाँ भेज पाते हैं अपने बच्चे को। बड़ा खर्चा लगता है। मैंने तो अपनी पूरी जमीन बेच दी अपने बच्चे को कोटा भेजने में। खैर, मेरा क्या है। मेरे बच्चे को तो रिजर्वेशन मिलेगा; इसलिए आइआइटी की पढ़ाई में कोई फीस नहीं देनी पड़ेगी। इसलिए कोटा में ही सारे पैसे लगा दिए। मेरे बेटे को तो आइआइटी में जाने से अब कोई नहीं रोक सकता। लेकिन सिन्हा जी के बेटों को तो रिजर्वेशन मिलने से रहा। अब देखते हैं, आगे क्या होता है।“

भोज समाप्त होने के बाद सिन्हा जी से विदा लेकर हम अपने घर की ओर लौट चले। रास्ते भर मेरी पत्नी मुझे धिक्कारती रही। उसे लगता है कि मेरी वजह से पूरे मुहल्ले में उसकी नाक कट गई है। मैं अपनी बिटिया को वही बनाना चाहता हूँ जो वो चाहती है। मैं उसपर कोई भी दवाब नहीं डालना चाहता हूँ। 

Monday, June 6, 2016

क्या आप अखबार पढ़ते हैं?

आपके यहाँ अखबार तो आता ही होगा। हममें से अधिकतर लोगों के घरों में अखबार आता है। मैं जिस बिल्डिंग में रहता हूँ, वहाँ भी अधिकांश लोगों के घरों में अखबार आता है। कुछ मुहल्लों में अखबार वाले नीचे से ही अखबार को चौथी मंजिल तक पहुँचा देते हैं। उनका निशाना कमाल का होता है। इस काम में माहिर लड़के शायद ही कभी चूकते हैं। हाँ कभी कभी नए रंगरूटों को मैंने देखा है कि कई बार कोशिश करने के बाद ही वे अखबार को सही जगह तक पहुँचा पाते हैं। जब तक अखबार आपकी पकड़ में आता है तब तक वह कीचड़ से लथपथ हो चुका होता है। ऐसे में अखबार को पढ़ने का क्या, छूने तक का मन नहीं करता है। मेरी बिल्डिंग में इसकी कोई परेशानी नहीं है, क्योंकि इसमें बीस-बीस मंजिले टावर हैं। अखबार वाला अपना भारी बैग लेकर लिफ्ट से सबसे ऊपरी मंजिल तक पहुँच जाता है और फिर हर फ्लैट के दरवाजे के आगे निश्चित अखबार डालकर चला जाता है। मेरे जैसे कुछ लोग जैसे उसके इंतजार में ही रहते हैं और फौरन दरवाजा खोलकर अखबार उठाकर उसका उपभोग शुरु कर देते हैं; जैसे उसके बिना पेट ही नहीं भरता। मैं जिस मंजिल पर हूँ उसपर आठ फ्लैट हैं। मैंने गौर किया है कि एक फ्लैट में एक रिटायर्ड सज्जन रहते हैं जो मेरी तरह ही अखबार वाले का इंतजार करते रहते हैं। बाकी के लोगों को लगता है कि टीवी या मोबाइल पर हेडलाइन पता चल गई फिर अखबार पढ़ने की क्या ज्ल्दबाजी है। बाकी सभी दरवाजों के बाहर के अखबार देर तक यूँ ही पड़े रहते हैं।
कहते हैं कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। इसलिए मैं अपनी जिज्ञासा शांत करने की कोशिश करने लगा कि आखिर अन्य लोग अखबार को उतनी तवज्जो क्यों नहीं देते। अखबार वाला उनसे भी पूरा ही बिल वसूलता होगा। उन्हें कोई डिस्काउंट तो नहीं ही मिलता होगा। आजकल की टू बी एच के वाले फ्लैटों की जिंदगी में यह बात तो संभव नहीं कि आप सीधे-सीधे किसी से पूछ लें कि वह अखबार क्यों नहीं पढ़ता है। ऐसे परिवेश में तो अपने पड़ोसी का नाम और काम जानने में ही साल भर लग जाता है। या तो हर आदमी अपने जीवन में व्यस्त होता है या व्यस्त होने का ढ़ोंग करता है। इसलिए मैंने अपने पड़ोसियों की दिनचर्या पर जासूसी नजर रखना शुरु किया। बहुत दिनों तक अवलोकन करने पर मैंने अनुमान लगाया कि मेरे सामने के दो फ्लैटों और मेरी बगल की एक फ्लैट में रहने वाले लोग किसी बीपीओ में काम करते होंगे। वे दोपहर के बाद अपनी फॉर्मल ड्रेस पहनकर काम पर निकलते दिखते हैं और सुबह लगभग नौ बजे के आसपास वापस आते हुए दिखते हैं। अब मुझे पता चल गया था कि वे बिचारे रात भर की ड्यूटी से थके होने के कारण इस हालत में नहीं रहते होंगे कि कोई भी क्रिएटिव काम कर सकें।
अखबार का स्वाद लेने के साथ चाय की चुस्की लेते हुए मैंने अपनी पत्नी से पूछा, “ये बेचारे तो रात भर कॉल सेंटर में अमेरिका में बैठे लोगों के सवालों के जवाब दे देकर थक जाते होंगे, इसलिए इन्हें अखबार पढ़ने की कोई जल्दी नहीं होती। लेकिन मेरी समझ में ये बात नहीं आती कि इनकी पत्नियाँ तो पूरे रात सोती रहती हैं, फिर वे सुबह सुबह अखबार क्यों नहीं पढ़ती हैं। देखने से तो लगता है कि काफी पढ़ी लिखी हैं। नीचे पार्क में मैंने उन्हें बातें करते भी सुना है; हर बात में अंग्रेजी के एक दो शब्द का इस्तेमाल तो कर ही लेती हैं। लगता है शायद इनके पति इन्हें अखबार पढ़ने की अनुमति नहीं देते होंगे।“

मेरी पत्नी ने जवाब में कुछ नहीं कहा। वह मन ही मन अखबार को पढ़ रही थी और चाय की चुस्की ले रही थी। हाँ उसकी भृकुटियों की बदलती हुई भाव भंगिमा से मुझे अहसास हो गया कि मैंने कोई गलत सवाल पूछ लिया था। मामले की गंभीरता और किसी अनिष्ट की आशंका से मैं चुपके से उठा और अपनी गाड़ी साफ करने के बहाने नीचे पार्किंग में चला गया। 

Sunday, June 5, 2016

दिल्ली को कार-मुक्त कैसे बनाया जाए?

आज सुबह जब मैं अखबार पढ़ रहा था तो मेरी नजर एक हेडलाइन पर पड़ी। उसमें लिखा था कि 2025 तक नॉर्वे को पेट्रोल कारों से मुक्त कर दिया जाएगा। उसके बदले में वहाँ केवल जैविक ईंधन से चलने वाली कारें चलेंगी। ऐसा माना जाता है कि पूरे विश्व में यदि कोई पर्यवारण की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध देश है तो वह है नॉर्वे। अब आप सोच रहे होंगे कि भला नॉर्वे की इस खबर से हम हिंदुस्तानियों का क्या लेना देना। आप को याद दिलाना बेहतर होगा कि किसी भी विदेशी बात को; खासकर से पश्चिमी देशों की बात को हम खुशी-खुशी अपनाने को तैयार रहते हैं। यह हमारे रोज रोज के जीवन में भरपूर देखने को मिलता है। उदाहरण के लिए इटली का पिज्जा या फिर किसी इटैलियन नाम वाली कंपनी का मॉड्यूलर किचेन; हमें बहुत पसंद आता है। इसमें कुछ अपवाद भी हैं; जैसे कि कोई इटैलियन मूल का व्यक्ति यदि प्रधानमंत्री बनने की कोशिश करे या कोई ऐसा व्यक्ति जिसका ननिहाल इटली में हो तो फिर हम सब एक सुर में उसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं। खैर छोड़िये इन बातों को क्योंकि आज का मुख्य मुद्दा है कि कैसे किसी शहर को कार-मुक्त किया जाए।
अभी हाल के वर्षों में आपने देखा होगा कि हमारे कुछ राजनेता राजधानी दिल्ली को कार-मुक्त बनाने के लिए कितनी जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। और कुछ नहीं हो पाता है तो कुछ खास इलाकों में महीने में एक दिन कार-मुक्त दिवस जरूर मनाया जाता है। भले ही उसमें शरीक होने के लिए आने वाले नेता कारों में ही आते हैं। इसकी देखा देखी दिल्ली के आसपास के शहरों में भी कार-मुक्त दिवस मनाने का फैशन शुरु हो गया है। इसकी जानकारी के लिए आपको उस शहर के किसी हिंदी अखबार का अवलोकन करना पड़ेगा। किसी शहर को कार-मुक्त बनाने की पहल करना बड़ा ही आसान है। कम से कम पूरे देश को कांग्रेस-मुक्त बनाने से तो आसान है ही। इसमें शरीक होने वाले लोगों को अखबार में नाम और तस्वीर छपवाने का मौका भी मिल जाता है। ये अलग बात है कि इन सब कोशिशों के बावजूद कार की बिक्री रुकने का नाम ही नहीं ले रही है। इस साल तो अच्छे मानसून होने की उम्मीद भी है जिसके कारण कारों की बिक्री और भी बढ़ेगी।
अब इसी बात को लेकर दिल्ली के माननीय मुख्यमंत्री भी परेशान हैं; क्योंकि वायु प्रदूषण से सबसे अधिक तकलीफ उन्हें होती है। उनकी कभी न खतम होने वाली खाँसी की असली वजह वायु प्रदूषण ही है। नॉर्वे वाली खबर पढ़कर तो केजरीवाल जी अपनी कुर्सी से यूरेका! यूरेका!; कहते हुए उछल पड़े होंगे। उन्हें यह बात कतई गवारा नहीं कि दिल्ली के होते हुए कोई और शहर सुर्खियों में आ जाए; खासकर भारत से हजारों किलोमीटर दूर स्थित कोई देश। इसके पीछे भी एक वजह है। सभी नामी गिरामी टीवी चैनलों के दफ्तर नोएडा में हैं। उनमें काम करने वाले रिपोर्टरों के लिए दिल्ली पहुँचना बड़ा ही आसान है। चाहे तपती गर्मी हो या कड़कड़ाती ठंड; देश के अन्य भागों में भटककर रिपोर्टिंग करने से तो अच्छा है कि पलक झपकते दिल्ली जाओ और फ़टाक से कोई रिपोर्ट ले आओ; फिर उस दिन की नौकरी को जायज ठहराओ। केजरीवाल जी को भली भाँति पता है कि इसका लाभ कैसे उठाया जाए। वे खाँसी भी करें तो न्यूज बनता है; लेकिन बहुत कम ही लोग होंगे जिन्हें मिजोरम के मुख्यमंत्री का नाम पता होगा।

बहरहाल, कल्पना कीजिए कि दिल्ली को कार-मुक्त बनाने के लिए भविष्य में किस तरह के कदम उठाए जाएँगे। वैसे भी अप्रैल महीने में फ्लॉप हुए ऑड ईवेन स्कीम से तिलमिलाए केजरीवाल जी बहुत दिनों से किसी धाँसू आइडिया की तलाश में लगे हुए हैं। वे आनन फानन में प्रेस कॉन्फ्रेंस करेंगे; जिसमें उनके अगल-बगल मनीष सिसोदिया और आशुतोष होंगे। वो ऐलान करेंगे कि 2020 तक दिल्ली को कार मुक्त कर देंगे। इसके लिए वे पूरी दिल्ली के फ्लाइओवर को ध्वस्त कर देंगे। ऐसे भी एक दो दिन पहले छपी रिपोर्ट के मुताबिक उनका ऐसा कोई भी इरादा नहीं है कि दिल्ली में नए फ्लाइओवर या नई सड़कें बनेंगी। उन्हें लगता है कि अच्छी सड़क होने से कारों की संख्या में इजाफा होता है क्योंकि लोग बिना मतलब ही कार से घूमने लगते हैं। इस रिपोर्ट में तो मोटरसाइकिलों के बारे में भी बुरी बातें ही कही गई हैं। उन्हें यह बात बुरी लगती है कि दो-दो लोग एक बाइक पर सवार होकर अपना खर्चा बचाते हैं। वे ऐलान करेंगे कि दिल्ली में जैविक ईंधन वाली कारें भी नहीं चलेंगी क्योंकि ईंधन भला कोई भी हो, जलने के बाद तो कार्बन डाइऑक्साइड ही छोड़ता है। बदले में वे हर व्यक्ति को मुफ्त में साइकिल बाँटेंगे। यदि किसी व्यक्ति को चार किमी से कम की यात्रा करनी हो तो उसे पैदल ही जाना होगा। हाँ, चार से छ: किमी की यात्रा के लिए वह अपनी साइकिल का इस्तेमाल कर सकेगा। छ: किमी से अधिक की यात्रा के लिए उसे बस या मेट्रो रेल से सफर करना होगा। उन्होंने आइआइटी में जो ज्ञान प्राप्त किया है, उसका इस्तेमाल करते हुए वे बसों में भी पैडल लगवा देंगे। हर सीट के नीचे एक पैडल होगा। इस तरह से जब सभी मुसाफिर एक साथ सैंकड़ों पैडल को चलाएँगे तो बस अपने आप चल पड़ेगी। इससे वायु प्रदूषण भी नहीं होगा। दिल्ली में प्रवेश करने वाले ट्रकों पर इतना ज्यादा हरित टैक्स लगाया जाएगा कि ट्रक वाले दिल्ली की सीमा पर ही सामान उतारकर वापस चले जाएँगे। उसके बाद वह सामान ठेलागाड़ियों पर अपने गंतव्य तक पहुँचेगा। इससे एक तीर से दो शिकार हो जाएँगे। वायु प्रदूषण भी कम होगा और रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। ठेलागाड़ी चलाने का प्रशिक्षण देने के लिए वे प्रधानमंत्री से अपील करेंगे कि इसे भी स्किल इंडिया में शामिल कर लिया जाए। 

Monday, May 30, 2016

डाक से गंगाजल

“अरे पंडित जी, ऐसे मुँह लटकाए क्यों बैठे हैं? कोई बुरी खबर सुन ली?” लोटन हलवाई ने पूछा।
गगन पंडे ने चाय सुड़कते हुए बोला, “आज का अखबार नहीं पढ़ा है? अब डाक विभाग लोगों तक गंगाजल की सप्लाई करेगा। हमारा तो धंधा ही चौपट हो जाएगा।:
लोटन हलवाई ने कहा, “हाँ! हाँ! मैंने पढ़ा है। चलो अच्छा ही तो है। अब तक तुम गंगाजल के नाम पर बोतल में किसी भी पानी को भरकर लोगों को ठग रहे थे। उन्हें इससे छुटकारा तो मिलेगा।“
गगन पंडे ने कहा, “इसमें ठगी कहाँ से है। पानी तो कहीं का भी हो, होता एक ही है। मैंने विज्ञान की किताब में पढ़ा था कि पानी का निर्माण हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के मिलने से होता है। फिर मैंने जल चक्र के बारे में भी पढ़ा था जिसमें लिखा है कि पानी अलग-अलग रूपों में बदलता रहता है। फिर वही पानी पूरी दुनिया में इधर-उधर जाता रहता है।“
उसने आगे कहा, “फिर जब लोगों की भारी भीड़ आती है तो उन्हें कहाँ होश रहता है कि जल भगवान के ऊपर पड़ा भी या नहीं। वे तो बस किसी भी तरह से जल के लोटे या बोतल को भगवान तक फेंक कर अपनी तीर्थयात्रा पूरी करने की कवायद करते हैं।“
लोटन हलवाई ने बीच में ही टोका, “खैर छोड़ो इन बातों को, तुम्हारा सबसे ज्यादा मुनाफा तो गंगाजल के नाम पर पानी बेचने में ही होता है। एक रुपये की प्लास्टिक की बोतल में मुफ्त का पानी भरकर तुम उसे दस रुपये में बेचते हो। इतना मुनाफा तो दक्षिणा में भी नहीं आता होगा। दक्षिणा का कुछ भाग तो हफ्ते के रुप में ऊपर तक भी तो पहुँचाना होता है।“
गगन पंडे ने कहा, “हाँ भैया, दक्षिणा देते समय लोग आजकल बहुत मोलभाव करने लगे हैं। दस लाख रुपए में तो मेरे गुरुजी ने इस पूरे मंदिर का ठेका खरीदा था। उसकी भरपाई हो जाए वही बहुत है। लेकिन अब तो लगता है कि कोई दूसरा काम धंधा ढ़ूँढ़ना पड़ेगा।“
लोटन हलवाई ने कहा, “तुम डाक विभाग से इतने परेशान क्यों लग रहे हो? सुना है कि कई ई-कॉमर्स वाली कंपनियाँ पहले से ही गंगाजल बेच रही हैं। मेरे बेटे ने मुझे किसी ऐसी ही कंपनी का वेबसाइट दिखाया था। वे तो एक बोतल पर एक फ्री भी देते हैं। पाँच बोतल एक साथ लेने पर और अधिक छूट मिलती है। कुछ तो पाँच-पाँच लीटर वाली बोतलें भी बेच रहे हैं।“
गगन पंडे ने कहा, “ये या तो विदेशी कंपनियाँ हैं, या वैसी भारतीय कंपनियाँ जिन्हें इंगलिश स्कूलों में पढ़ चुके लोगों ने शुरु किया है। उन्हें पता ही नहीं है कि कोई भी पाँच लीटर गंगाजल का क्या करेगा। अरे हमारे अधिकतर यजमान तो एक पचास मिली लीटर की छोटी सी बोतल से महान से महान अनुष्ठान करवा लेते हैं। अब कोई आखिरी साँसे गिन रहा आदमी पाँच लीटर गंगाजल कैसे पिएगा? अरे, एक दो चम्मच मुँह में जाते ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है। मैंने भी ऐसी कंपनियों के वेबसाइट देखे हैं। उनके रेट बड़े ही महँगे हैं। ऐसे कामों के लिए कोई ग्यारह रुपए तो आसानी से दे देता है लेकिन भला दो सौ निन्यानवे रुपए कोई क्यों देगा। हो सकता है कि बड़े शहरों में इसका असर पड़े। लेकिन ये कंपनियाँ हमारे जैसे छोटे शहरों में कैश ऑन डिलिवरी की सुविधा नहीं देती हैं, इसलिए मुझे उनकी चिंता नहीं है।“
लोटन हलवाई ने पूछा, “फिर डाकिये से क्यों डर रहे हो?”
गगन पंडे ने कहा, “डाक विभाग को तुम नहीं जानते। उसे तो घाटे में बिजनेस करने की आदत पड़ चुकी है। वे तो हो सकता है कि पचास मिली की बोतल मुफ्त में देने लगें। राष्ट्रवाद के नाम पर सरकार इसके लिए अलग से बजट भी बना देगी और कोई उफ्फ तक नहीं करेगा।“
फिर इसका कोई उपाय सोचा है?” लोटन हलवाई ने पूछा।
“हाँ, मैंने अपने गुरुजी से बात की है। विपक्षी पार्टियों के कई नेताओं से उनकी अच्छी जान पहचान है। ऐसे भी विपक्ष को आजकल ठोस मुद्दों की सख्त जरूरत है। हम लोग इसके खिलाफ देशव्यापी आंदोलन करेंगे। पूरे देश में पंडों की अखिल भारतीया हड़ताल होगी, जिस दिन कोई भी पंडा किसी को भी सेवा नहीं देगा। एक हमारा ही तो काम है जिसके बिना बड़े से बड़े सेठ, वैज्ञानिक, राजनेता, डॉक्टर, आईएएस, आईपीएस, आदि किसी भी अहम काम की शुरुआत नहीं करते हैं। हम इसमें पंडितों पर बेरोजगारी के खतरे का मुद्दा उठाएँगे। हम इससे गंगा मैया के अनुचित दोहन का खतरा भी बताएँगे। सारा गंगाजल यदि गोमुख और हरिद्वार में ही निकाल लिया जाएगा तो फिर बनारस में अंत्येष्टि के लिए गए मृतकों को मोक्ष कैसे प्राप्त होगा?”

तभी वहाँ पर जोर का कोलाहल शुरु हो गया। तीर्थयात्रियों की एक नई फौज भगवान पर जल चढ़ाने के लिए तेजी से आ रही थी। गगन पंडा आनन फानन में उठा और नए ग्राहकों की खोज में निकल पड़ा। 

Friday, May 27, 2016

बैलगाड़ी का चालान

बहुत पुरानी बात है। उस जमाने में आज की तरह मोटरगाड़ियाँ नहीं बल्कि बैलगाड़ियाँ चला करती थीं। आम आदमी के लिए छोटी या लंबी यात्रा के लिए बैलगाड़ी ही एकमात्र साधन हुआ करती थी। जो थोड़े बहुत संपन्न किसान थे उनके पास अपने बैल और अपनी बैलगाड़ियाँ हुआ करती थीं। जो रईस व्यापारी या राजपरिवार से संबंधित लोग थे उनके पास घोड़ागाड़ी हुआ करती थी। बैलों को पालना सस्ता पड़ता था क्योंकि बैल कोई भी चारा खाने में नखरे नहीं दिखाते। लेकिन घोड़े तो अरब से निर्यात किए जाते थे और चारा खाने के मामले में बहुत नखरे दिखाते थे। कुछ ऐसे भी लोग थे जो अपने बैल रखने की औकात नहीं रखते थे। लेकिन यात्रा तो ऐसे लोगों को भी करनी पड़ती थी। इन लोगों की यात्रा को सुखमय बनाने के लिए कई व्यापारियों ने किराये पर बैलगाड़ी चलाना शुरु किया था। सही कीमत मिलने पर किराये की घोड़ागाड़ी भी उपलब्ध हो जाती थी।
पिछले दसेक वर्षों में लगातार अच्छे मानसून के कारण कृषि उत्पाद में काफी बढ़ोतरी हुई थी। उसका असर अन्य व्यवसायों पर भी दिखने लगा था। हर चीज की माँग बाजार में बढ़ गई थी। लोग पहले से अधिक खुशहाल लगने लगे थे। लगता था कि भारत में स्वर्ण युग का प्रवेश होने ही वाला है। अब ऐसे लोगों ने भी बैलगाड़ी खरीदना शुरु कर दिया था जो कुछ साल पहले तक बैलगाड़ी का सपना भी देखने से कतराते थे। जो लोग नई बैलगाड़ी नहीं खरीद पा रहे थे वे कम से कम किराया देकर ही सही इसका आनंद उठाते थे। जीवन का सफर हर आम आदमी के लिए आसान लगने लगा था। अब कोई भी भारत के सुदूर प्रदेशों की यात्रा करने की सोच सकता था। लोग जगह-जगह तीर्थ या पर्यटन के लिए जाने लगे थे। काशी, मथुरा, उज्जैन, पाटलीपुत्र और हस्तिनापुर जैसे बड़े शहरों में तो बैलगाड़ियों की जैसे बाढ़ आ गई थी। लोग अपनी निजी बैलगाड़ियों को रंग बिरंगे ओहार और पताकाओं से सजाते भी थे। कई बैलों के सींग तो सोने से मढ़े हुए होते थे। कुछ बैलों की पीठ पर मखमली कपड़ा भी पहनाया गया होता था।
सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि एक छोटे से राज्य में एक नए राजा ने गद्दी संभाल ली। लोग बताते हैं कि वह किसी राजसी खानदान से नहीं आया था। लेकिन अपनी अनोखी सूझबूझ के कारण उसने अपने से अधिक शक्तिशाली राजा को युद्ध में पटखनी देकर उस राज्य की गद्दी संभाल ली थी। वह राजसी कपड़े नहीं पहना था। उसके पहनावे से तो लगता था कि वह किसी सेठ के यहाँ मुंशी का काम करता होगा। गद्दी संभालते ही उसने प्रजा के लिए खजाना खोल दिया था। जिस भी गरीब को जब जरूरत पड़ती, उस राजा के राजसी खजाने से सहायता राशि ले जाता था। जिसे देखो वही नए राजा का गुणगान करने लगता था। लेकिन गद्दी संभालने के छ: महीने बीतते ही उस राजा ने अपना असली रंग दिखाना शुरु कर दिया। उसे गरीब लोग अधिक पसंद थे क्योंकि वे केवल सहायता राशि लेने में रुचि दिखाते थे और राजा या उसके आदमियों से कोई सवाल नहीं पूछते थे। लेकिन राजा की नजर में जो लोग खुशहाल थे वे बड़े ही खतरनाक थे। खासकर से उसे खुशहाल लोगों से इसलिए भी चिढ़ थी कि बढ़ती हुई बैलगाड़ियों के कारण अब राजा के काफिले को कहीं भी आने जाने में बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ता था। इनमें से तो कुछ लोग राजा के सिपाहियों से भी नहीं डरते थे। उनमें आजकल प्रजातांत्रिक भावना का रोग लग गया था।
राजा ने ऐसे लोगों से निपटने के लिए एक जाँच आयोग गठित कर दिया। समय सीमा के भीतर ही उस आयोग ने अपना रिपोर्ट पेश किया। उस रिपोर्ट में बड़ी ही चौंकाने वाली बातें निकलकर सामने आईं। उस रिपोर्ट के मुताबिक बैलगाड़ियों की बढ़ती संख्या से पर्यावरण को खतरा हो रहा था। अधिक बैल होने का मतलब था चारे और पेड़ पौधों की अधिक खपत। इससे वन संपदा को नुकसान पहुँच रहा था। हरियाली कम होने से वायु प्रदूषण बढ़ने लगा था। किसी वैज्ञानिक ने यह भी खुलासा किया था कि बैल जब गोबर करते हैं तो उससे न सिर्फ सड़क पर गंदगी फैलती है बल्कि वातावरण में मीथेन नाम की एक खतरनाक गैस भी भर जाती है। वह गैस सूरज से आने वाली सारी ऊष्मा को अपने में समाहित कर लेती है जिससे पूरे भूमंडल का तापमान बढ़ जाता है। उस वैज्ञानिक ने इस परिघटना को भूमंडलीय ऊष्मीकरण का नाम दिया था। कुल मिलाकर सीधे-सीधे शब्दों में कहा जाए तो बैलगाड़ियों के बढ़ने से न केवल उस राज्य की बल्कि पूरे देश की हवा खराब हो रही थी।
उस आयोग की रिपोर्ट पर उस नए राजा ने तुरंत कार्रवाई की। उसने फरमान जारी किया कि खराब होती हुई हवा को ठीक करने के लिए यह जरूरी है कि सड़क पर बैलगाड़ियों की संख्या कम कर दी जाए। अब महीने की तारीख के हिसाब से लोगों को अपनी बैलगाड़ी लेकर सड़क पर जाने की अनुमति होगी। विषम संख्या वाली तारीखों को केवल वे ही बैलगाड़ियाँ चलेंगी जिनमें एक ही बैल जुता हुआ हो। सम संख्या वाली तारीखों को केवल वे ही बैलगाड़ियाँ चलेंगी जिनमे दो बैल जुते हुए हों। इससे सड़कों पर बैलगाड़ियों की संख्या आधी हो जाएगी। घोड़ागाड़ी और गदहागाड़ी को इस नियम से बाहर रखा गया। इससे एक तीर से दो शिकार हो गए। घोड़ागाड़ी तो चुनिंदा रईसों और राजसी लोगों के पास ही होते हैं। गदहागाड़ी उन्हीं के पास होते हैं जो अत्यंत गरीब होते हैं। समाज के दो ऐसे अहम वर्गों को कोई नुकसान नहीं होने वाला था जिससे उस राजा को फायदा होता था। उस आदेश के बाद राजा ने एक और आदेश जारी किया जिसके मुताबिक उस तारीख के बाद से दो या दो से अधिक बैलों वाली गाड़ियों के उत्पादन पर रोक लगा दी गई। कहा गया कि न नई गाड़ियाँ बनेंगीं न वो बाजार में आएँगी।
इससे बैलगाड़ी बनाने वाली कंपनियों को तो जैसे पक्षाघात मार गया। एक लंबे अरसे की मंदी के बाद बड़ी मुश्किल से अर्थवयवस्था में सुधार हुआ था और वे जोर शोर से धंधा बढ़ा रहे थे कि इस सनकी राजा ने उनकी रफ्तार पर ब्रेक लगा दिया।
बैलगाड़ी निर्माता संघ ने आनन फानन में देश की व्यावसायिक राजधानी में अपनी बैठक बुलाई। वे इस बात पर मंत्रणा कर रहे थे कि इस अचानक से आई समस्या का समाधान कैसे ढ़ूँढ़ा जाए। बैलगाड़ियों की बढ़ती माँग से पूरी अर्थव्यवस्था में आमूल चूल सुधार आता है ऐसा किसी बड़े व्यवसाय शास्त्री का कहना है। इस उद्योग से हर क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़ते हैं; जैसे कि ओहार बनाने वाले, कोड़े बनाने वाले, सीटों की गद्दियाँ बनाने वाले, चारा बनाने वाले, आदि। सबसे बड़ी बात कि इससे पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिलता है। काफी लंबी मंत्रणा के बाद बैलगाड़ी निर्माता संघ का एक प्रतिनिधि उस राजा के पास अपनी बात रखने गया। राजा ने उसका गर्मजोशी से स्वागत किया। काफी लंबी बातचीत हुई लेकिन कोई रास्ता न निकला। वह निराश लौट आया। बाद में किसी गुप्तचर के मारफत संदेश आया कि शायद कुछ नजराना और हकराना देने से राजा अपनी नीतियों में कुछ बदलाव कर दे।
लेकिन बैलगाड़ी निर्माता संघ के अन्य पदाधिकारी उस राजा पर सीधे-सीधे विश्वास नहीं कर पा रहे थे। एक ने ये भी कहा कि यदि अन्य राजाओं को यह बात पता चल गई तो फिर अन्य राज्यों में नजराने और हकराने की परिपाटी शुरु हो जाएगी। उसके बाद धंधे में मुनाफे कि गुंजाइश ही नहीं बचेगी। उन सदस्यों में एक बहुत ही बुजुर्ग और अनुभवी व्यवसायी भी थे जिनका कारोबार न केवल पूरे भारतवर्ष में फैला हुआ था बल्कि अरब से आगे यूरोप और अमरीका के देशों में भी फल फूल रहा था। उन्हें इससे भी खुर्राट राजाओं से निबटने का तरीका मालूम था। उन्होंने सलाह दी कि एक छोटे से राज्य के सनकी राजा से डील करने से बेहतर होगा कि हिंदुस्तान के बादशाह से सीधी बात की जाए। लेकिन उसमें एक खतरा था। इस बादशाह ने अभी अभी गद्दी संभाली थी। यह बादशाह इस बात के लिए मशहूर था कि अपने विरोधियों को आनन फानन में ही पूरे विश्व के मानचित्र से गायब कर देता है। लेकिन हमारे अनुभवी व्यवसायी का मानना था कि सीधे या परोक्ष रूप से पूरे हिंदुस्तान के बादशाह से ही अपनी समस्या के सही निपटारे की उम्मीद की जा सकती है। काफी सोच विचार करने के बाद उन्होंने अपना एक अनुभवी प्रतिनिधि दिल्ली के दरबार के उस नवरत्न तक भेजा जो यातायात से संबंधित मामलों पर नीतियाँ तय करता था। कहा जाता है कि नवरत्न बनने से पहले वह एक बहुत ही सफल व्यवसायी रह चुका था इसलिए व्यवसायियों की बात वह बड़े गौर से सुनता है।

उसके बाद तय समय पर उस नवरत्न और बैलगाड़ी निर्माता संध के बीच एक लंबी मंत्रणा हुई। उस गोष्ठी से निकलने के बाद दोनों ने मुसकराते हुए चेहरे से राजसी चित्रकारों के सामने पोज दिया ताकि अच्छी से पेंटिंग बन सके। उसके बाद पूरे भारतवर्ष में बैलगाड़ी का कारखाना लगाने के लिए टैक्स में अतिरिक्त छूट की घोषणा की गई। हर शहर और हर गाँव में शिलालेख लगवाए गए जिनपर बैलगाड़ी से पर्यावरण को होने वाले फायदे का वर्णन था। उसके बाद से पूरे देश में बैलगाड़ी के एक से एक नए मॉडल बिकने लगे और हर तरफ समग्र विकास नजर आने लगा। बेचारा छोटे राज्य का राजा और कर भी क्या सकता था। उसे अपनी सीमित सामर्थ्य का पता था इसलिए उसने बादशाह के नवरत्न के फरमान की अवहेलना नहीं की। अब वह सिर्फ इस बात के सपने देख रहा है कि किस तरह से दिल्ली की गद्दी के नजदीक पहुँचा जाए। 

Wednesday, May 25, 2016

चिड़िया की जान जाए बच्चे का खिलौना

“अरे भैया, कहाँ भागे जा रहे हो?” धर्मेंद्र ने साजिद से पूछा।
“जिधर सब ओर जा रहे हैं, उधर ही भाग रहा हूँ।“ साजिद ने बताया।
“क्यों, क्या बात है?”
“पता नहीं, वह तो आगे जाने पर ही मालूम होगा।“
इतना कहकर दोनों उस भीड़ के पीछे भाग लिए, जो किसी खास दिशा में भाग रही थी। उस भीड़ में हर उम्र और लगभग हर वर्ग के लोग थे। छोटे बच्चे जो चल सकते थे तेजी से दौड़ रहे थे और जो अभी चल नहीं पाते थे वे अपनी माँ या पिता की गोद में थे। उनके माता पिता भी तो उसी ओर भाग रहे थे। साजिद ने देखा कि उस भीड़ में कुछ गुब्बारे बेचने वाले, खोमचे वाले और आइसक्रीम बेचने वाले भी थे। कुछ युवक तो अपनी-अपनी मोटरसाइकिलों पर ही भाग रहे थे। आखिर इसी बहाने उन्हें अपनी नई मोटरसाइकिल दौड़ाने का मौका जो मिला था।
थोड़ी दूर आगे जाने के बाद सब लोग सड़क को छोड़कर एक खेत से होकर भागने लगे। गनीमत थी कि उस खेत में कुछ दिन पहले ही फसल की कटाई हुई थी। धर्मेंद्र को कुछ लोगों की बातचीत सुनकर यह अनुमान हुआ कि कोई बड़ा धमाका हुआ था जिसे सुनकर सब लोग उस आवाज की दिशा में भागे चले जा रहे थे। हर आदमी उस धमाके के असली कारण का पता करके अपनी जिज्ञासा शांत करने को व्याकुल था। लगभग एक किलोमीटर भागने के बाद वे सभी घटनास्थल पर पहुँच गए।
वहाँ पहुँचकर पता चला कि कोई छोटा हवाईजहाज हवाईपट्टी पर उतरने की बजाय उससे कुछ दूर पहले ही खेत में उतर गया था। उसके पहिए टूटे हुए थे और वह हवाईजहाज पेट के बल गिरा था। लोग आपस में खुसर पुसर कर रहे थे। कोई अनुमान लगा रहा था कि जरूर कोई टाटा बिरला सरीखा बड़ा व्यवसायी उस हवाईजहाज से जा रहा होगा और गिर गया होगा। किसी का सोचना था कि कोई बड़ा नेता उस हवाईजहाज से जा रहा होगा और गिर गया होगा। इस तरह के छोटे जहाजों में या तो नेता सफर करते हैं या कोई बड़ा पूँजीपति।
भीड़ अच्छी खासी इकट्ठी हो गई थी। लगभग एक हजार के आसपास लोग जमा हो गए होंगे। गुब्बारे वालों ने तो जैसे अपने साथियों को फोन करके बुला लिया था और सभी धड़ाधड़ बिक्री कर रहे थे। आइसक्रीम, भुट्टे, हवा मिठाई, झाल मुढ़ी और न जाने क्या-क्या तेजी से बिक रहे थे वहाँ पर। जवान लड़के उस गिरे हुए जहाज के पास जाकर अपनी सेल्फी ले रहे थे ताकि उन्हें फेसबुक पर डालकर अपने यारों दोस्तों में वाहवाही लूट सकें। बुड्ढ़े लोग उन्हें सेल्फी लेते देखकर मन ही मन कुढ़ रहे थे और उन्हें कोस भी रहे थे। कुछ जवान लड़कियाँ उन लड़कों से जल भुन रही थीं, क्योंकि उनके गाँव के पंचायत ने लड़कियों को मोबाइल फोन रखने पर पाबंदी लगाई हुई थी। इस बीच किसी को भी इतनी फुरसत नहीं थी कि धीरूभाई अंबानी का शुक्रिया अदा करें जिनके कारण आज हर किसी के हाथ में मोबाइल फोन है या फिर मोदी जी को याद कर लें जिनके कारण लोगों में सेल्फी का क्रेज बढ़ गया है।
उससे भी अजीब बात ये थी कि किसी को ये जानने समझने की फुरसत नहीं थी कि उस हवाईजहाज में बैठे हुए मुसाफिरों का हाल जान लें। लोगों को तो बस एक मौका मिला था इतनी बड़ी दुर्घटना; वो भी हवाईजहाज की दुर्घटना को पास से देखने का। वे बस उसी का मजा उठाना चाहते थे।
तभी वहाँ पर एक स्थानीय नेताजी भी आ गए जिन्होंने आज तक हर प्रकार के चुनाव हारने का रिकार्ड बनाया हुआ था। वे आनन फानन में इंटों की एक ढ़ेर पर चढ़ गए और अपना भाषण शुरु कर दिया।
भाइयों और बहनों, ये क्या हो रहा है हम गरीबों के साथ? क्या हम इतने निरीह हो गए हैं कि कोई भी अमीर जब चाहे हमारे गाँव में अपना हवाईजहाज क्रैश लैंड करा दे? अंग्रेजों के जमाने से लेकर आजतक इन पूंजीपतियों ने हमारा शोषण ही किया है। अब तो इन्होंने सारी हदें पार कर दी। अगर ऐसा ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब ये हमारे खलिहानों और दालानों तक घुस जाएँ। ............”
अभी नेताजी अपने पूरे रंग में आ भी नहीं पाए थे कि पुलिस, फायर ब्रिगेड और एंबुलेंस के सायरन की आवाजें तेजी से पास आने लगीं। जैसे ही पुलिस वाले वहाँ पहुँचे, उन्होंने लोगों को हवाईजहाज से दूर हटाना शुरु कर दिया। कुछ लोग मान ही नहीं रहे थे तो पुलिस को हल्की लाठी चार्ज भी करनी पड़ी।
अब लोगों से वह हवाईजहाज इतना दूर हो चुका था कि कुछ भी साफ दिखाई नहीं दे रहा था। कुछ देर बाद लगा कि हवाईजहाज का दरवाजा खुला और उसमे से कुछ लोगों को उतारकर एंबुलेंस में डाला गया। फिर एंबुलेंस सायरन बजाती हुई वहाँ से ओझल हो गई।

काफी मशक्कत करने के बाद धर्मेंद्र कुछ अहम जानकारी जुटा पाया। दरअसल वह हवाईजहाज एक एअर एंबुलेंस था जो पटना से किसी मरीज को लेकर आ रहा था। विमान का इंजन फेल हो जाने की वजह से पायलट ने उसे खेत में क्रैश लैंड कराया था। कुदरत का करिश्मा ही था कि कोई भी गंभीर रूप से घायल नहीं हुआ था। जिस मरीज को लाया जा रहा था वह भी जिंदा बच गया था और उसे किसी बड़े अस्पताल में ले जाया गया था। धर्मेंद्र को अपने गाँव वालों के जोश और जिज्ञासा से एक पुरानी कहावत याद आ गई, “चिड़िया की जान जाए बच्चे का खिलौना।“ 

Wednesday, May 18, 2016

नक्शे का लाइसेंस

भारत सरकार एक बिल लाने वाली है जिसके मुताबिक हर किसी को भारत के किसी भी भाग का नक्शा इस्तेमाल करने के लिए लाइसेंस लेना होगा। अब इससे दक्षिण एशिया की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा इस पर विचार विमर्श करने का जिम्मा मैं अपने से अधिक ज्ञानी लोगों पर छोड़ता हूँ। मुझे तो ये चिंता सता रही है कि इससे आम आदमियों के जीवन पर क्या असर पड़ेगा। इस विषय पर गहन चिंतन करके मैंने कुछ पहलुओं पर प्रकाश डालने की कोशिश की है।
कल्पना कीजिए कि सुबह सुबह किसी स्कूल में भूगोल की क्लास शुरु हो रही है और मास्टर साहब बच्चों से पिछले दिन दिए गए होमवर्क के बारे में पूछ रहे हैं।
मास्टर साहब, “कल मैंने एक होमवर्क दिया था जिसमें भारत के मानचित्र पर अधिक वर्षा और कम वर्षा वाले क्षेत्रों को दिखाना था। उस होमवर्क को जिसने भी पूरा किया हो वह अपने हाथ ऊपर कर ले।“
जवाब में कोई भी हाथ ऊपर नहीं उठा। जब मास्टर साहब ने कारण पूछा तो सबसे मेधावी छात्र गोपाल का जवाब आया।
गोपाल, “सर, मेरे पापा ने उस होमवर्क को बनाने से मना किया था क्योंकि मेरे पास उस नक्शे का लाइसेंस नहीं है। मेरे पापा नक्शा विभाग के दफ्तर के कई चक्कर लगा चुके हैं लेकिन यह पता ही नहीं चल पा रहा है कि लाइसेंस कितने में मिलेगा और किस काउंटर से मिलेगा।“
मास्टर साहब, “कोई बात नहीं है। मैंने प्रिंसिपल मैडम से बात की है ताकि स्कूल के लिए एक लाइसेंस ले लिया जाए। लेकिन वो बता रहीं हैं कि इसमें बहुत खर्चा आयेगा। उस खर्चे की भरपाई के लिए सभी छात्रों से डेवलपमेंट चार्ज के नाम पर एक मोटी राशि ली जाएगी। अभी तक के कानून के हिसाब से हम नक्शे के लाइसेंस के लिए छात्रों से कोई चार्ज नहीं कर सकते हैं। अरे हाँ, लगता है राहुल कुछ बोलना चाहता है। बोलो राहुल।“
राहुल, “मेरे पापा के कुछ दोस्त नक्शे वाले दफ्तर के बाहर दलाली का काम करते हैं। उनका कहना है कि लाइसेंस लिए बगैर भी काम चल सकता है। हाँ इसके बदले में स्कूल की तरफ से उस दफ्तर के लिए हर महीने कुछ नजराना चला जाता तो...............।“
मास्टर साहब, “ठीक है, ठीक है। चलो मैं शाम में तुम्हारे पापा से मिल लूँगा। लेकिन ये बात बाहर किसी को नहीं बताना।“
मास्टर साहब फिर कहते हैं, “लेकिन तुम्हारे घर का पता मुझे ठीक से मालूम नहीं है। आजकल मेरे फोन का नैविगेशन सिस्टम भी काम नहीं कर रहा है। उसमें मैसेज आ रहा है कि लाइसेंस की फीस के लिए हजार रुपए जमा करने पड़ेंगे। अब तक तो उनकी सेवा फ्री में मिल रही थी। अब फिर पुराने तरीके से कोई पता ढ़ूँढ़ना पड़ेगा। लेकिन अब किसी अंजान आदमी से पता पूछने में भी डर लगता है। जमाना खराब हो गया है। कहीं किसी चोर उचक्के के चक्कर में न पड़ जाऊँ।“
तभी स्कूल के डाइरेक्टर क्लास में आते हैं। वे मास्टर साहब से पूछते हैं, “सर, ये बताइए कि आपको यहाँ से एयरपोर्ट का रास्ता मालूम तो है? आजकल रेडियो टैक्सी के ड्राइवर भी जाने से इनकार कर रहे हैं। कहते हैं कि शहर में इतना अधिक नया कंस्ट्रक्शन हो गया है कि बिना नैविगेशन सिस्टम के रास्ता ढ़ूँढ़ना बहुत मुश्किल हो गया है। अब तो गूगल मैप ने भी भारत में अपनी सेवा देना बंद कर दिया है। सुना है कि भारत सरकार ने उसपर करोड़ों रुपयों का जुर्माना लगाया है।“
मास्टर साहब, “सर आप भूभाग क्यों नहीं इस्तेमाल करके देखते हैं। हाल ही में मशहूर बाबा झामदेव की कंपनी ने गूगल मैप जैसी ही सेवा शुरु की है। सुना है कि ग्राफिक्स कुछ धुँधले होते हैं लेकिन किसी रास्ते का मोटा-मोटा आइडिया लग जाता है। वैसे बहुत स्पेस लेता है और बहुत महँगे स्मार्टफोन में ही चल पाता है। आपके पास तो एक लैपटॉप भी है। लैपटॉप की हार्ड डिस्क में ज्यादा जगह होती है।“
डाइरेक्टर साहब, “डाउनलोड किया था। लेकिन उसका इस्तेमाल करना अपने आप में एक जद्दोजहद है। हर नई जगह का डाइरेक्शन बताने से पहले आधार नंबर और पैन नंबर डालना पड़ता है। उनका कहना है कि इससे काले धन पर रोक लगने में मदद मिलती है।“
मास्टर साहब, “सर एक बात पूछना चाहता हूँ। भूगोल की क्लास मानचित्र के बिना अधूरी हो जाती है। यदि आप एक स्कूल के लिए एक लाइसेंसे ले लेते तो............।“

डाइरेक्टर साहब, “अरे सर, आजकल के बच्चे कहाँ भूगोल में रुचि लेते हैं। उन्हें साइंस और गणित पर ही फोकस करने दीजिए। अंत में इन सबको इंजीनियर ही तो बनना है। उसके बात ये अपना रास्ता खुद ढ़ूँढ़ लेंगे।“