सिन्हा जी के घर में आज अपार खुशी का माहौल है क्योंकि उनके इकलौते बेटे कुशाग्र सिन्हा का प्लेसमेंट हो गया है यानि नौकरी लग गई है।
जब कुशाग्र का जन्म
हुआ था तो बहुत विचार विमर्श और पंडित की सलाह के बाद उसका नामकरण हुआ क्योंकि
कुशाग्र का मतलब होता है तीक्ष्ण बुद्धि वाला व्यक्ति। कुशा एक तरह की घास होती है
जिसका सिरा और किनारा इतना तेज होता है कि अगर किसी ने ध्यान नहीं दिया तो उसके
हाथ आसानी से जख्मी हो जाते हैं। अब आज के जमाने में भला पुराने जमाने वाले नाम
जैसे संजय, अजय, राकेश, मुकेश, दिलीप जैसे नाम
कौन रखता है। कुशाग्र के धनबाद वाले फुफ्फा वैसे भी कहते हैं कि ये सब नाम तो बस
की नंबर प्लेट जैसे हो गए हैं जो हर जगह दिखाई देते हैं।
बहरहाल, कुशाग्र पर उसके
नाम का असर बस इतना ही पड़ा था कि तीन साल किसी महंगे कोचिंग में पढ़ने और बारहवीं
के बाद एक साल ड्रॉप करने के बावजूद बड़ी मुश्किल से उसका दाखिला झारखंड के
महातेजस्वी महाप्रतापी इंजीनियरिंग कॉलेज नाम के एक संस्थान में हुआ और जिस कॉलेज
का नाम इतना कम मशहूर था कि उसे गूगल भी नहीं ढ़ूँढ़ पाता था। रिश्तेदारों के पूछने
पर यह बताया जाता था कि कुशाग्र के घर से यानि भुरकुंडा से वह कॉलेज नजदीक था और सिन्हा
दंपति ने अपने इकलौते बेटे को घर से ज्यादा दूर भेजना उचित नहीं समझा था। बेटा
इंजीनियरिंग की डिग्री ले ले यही उनके मुहल्ले में उनकी नाक ऊँची करने के लिए काफी
था।
जिस कंपनी में प्लेसमेंट हुआ था उसके बारे में सिन्हा
जी का कहना था कि कोई मल्टीनेशनल कंपनी है और कुशाग्र को लाखों का ऑफर मिला है।
कितने लाख का यह नहीं बताते थे। प्लेसमेंट के उपलक्ष में घर में बकायदा पूजा पाठ
और भोज का आयोजन हुआ जिसमें कोई पाँच सौ लोग शामिल हुए और तरह तरह के व्यंजनों का
लुत्फ उठाया और कुशाग्र के हाथ में शगुन का लिफाफा थमा कर चले गए। सिन्हा जी जब
जोड़ घटाव कर रहे थे तो इस बात पर तसल्ली कर रहे थे कि शगुन के लिफाफों से पूजा और
भोज का खर्चा वसूल हो चुका था।
नौकरी शुरु करने के
लिए कुशाग्र को दिल्ली जाना था क्योंकि उसकी पोस्टिंग कम्पनी के हेड ऑफिस में हुई
थी जो नोएडा में है। बेटा पहली बार दिल्ली जैसे महानगर जा रहा था इसलिए तय हुआ कि
वह अपने मामा के घर ही रहेगा जो गाजियाबाद में रहते हैं। मामा ने भी बताया था कि
नई नौकरी में जितनी तनख्वाह मिलती है उसमें अकेले डेरा लेकर दिल्ली, गुड़गाँव
या नोएडा में गुजर बसर करना लगभग असंभव हो जाता है।
बेटे को उसके मामा
के घर भेजने में सिन्हा जी की पत्नी यानि सिन्हाइन जी को बहुत गर्व महसूस हो रहा
था क्योंकि आखिरकार वह मौका आ गया था जब अपनी ससुराल वालों पर रोब जमाने और उन्हें
ताने मारने का भरपूर अवसर मिल चुका था।
अब कुशाग्र ठहरा नए
जमाने का युवक जिसे अपनी आजादी और निजता का बहुत खयाल रहता था। इसलिए वह फैल गया
और कहने लगा कि वह नोएडा में अकेले रहेगा। सोशल मीडिया पर उसके कई दोस्त थे जो
अक्सर पीजी (पेइंग गेस्ट) की तसवीरें डाला करते थे और जिन तसवीरों से पता चलता था कि
पिज्जी या पीजी का जीवन बड़ा ही आकर्षक और रोमांचकारी होता है। कुछ पिज्जी में तो
लड़के और लड़कियाँ साथ रहते थे। कुछ तसवीरों से यह भी पता चलता था कि पिज्जी के
आसपास के बाजार में रंगबिरंगी रोशनी से सराबोर दुकानें होती थीं जिनमें खाने पीने
की हर वह चीज मिलती थी जिसके बारे में इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में जन्मा और 2020
के दशक में जवानी की दहलीज पर पहुँचने वाला कोई भी व्यक्ति कल्पना कर सकता था।
कुशाग्र को भी वैसे ही व्यंजन पसंद थे जैसे पिज्जा, बर्गर, मोमो, चाउमिन, आदि। यह सुनकर सिन्हाइन
उसकी बात काटते हुए कहती थीं कि कुशाग्र के दोस्तों का कोई भरोसा नहीं क्योंकि
सुंदर तस्वीरें तो कोई इंटरनेट से उठा कर भी डाल सकता है। सिन्हा जी, सिन्हाइन और कुशाग्र के बीच होने
वाली बहसों को तब पूर्णविराम लग गया जब कुशाग्र के कानों में मोबाइल फोन से उसके
मामा की भारी भरकम आवाज पहुँची। ठीक वैसी ही आवाज कभी उसने पुरानी फिल्म मुगले-आजम
देखते हुए सुनी थी जब उस फिल्म को उसके दादा देख रहे थे। उनकी आवाज सुनते ही उसकी
समझ में आ गया कि किस तरह उसके नाना के गुजरने के बाद उसके मामा ने अपने छोटे भाई
बहनों का किसी कड़क गार्जियन की तरह पालन पोषण किया, उन्हें
पढ़ाया लिखाया और फिर उनकी शादियाँ कर दी।
बेचारे कुशाग्र के पास अब कोई चारा नहीं था। उसे
पता था कि आगे के दो तीन साल हिटलर जैसे किसी व्यक्ति की छत्रछाया में गुजरने वाले
हैं। कुशाग्र की माँ ने बताया था कि मामा सुबह तड़के उठ जाते हैं और घर के बाकी
लोगों से भी वही उम्मीद रखते हैं। आखिरी बार कुशाग्र सुबह सुबह तब उठा था जब स्कूल
में बारहवीं की क्लास का आखिरी दिन था। उसके बाद उसने कोचिंग क्लास ऐसी जगह पकड़ी
थी जहाँ दोपहर के बाद ही जाना पड़ता था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान होस्टल में
तो उसकी आदतें और भी बिगड़ चुकी थीं। उसके सारे सहपाठी पूरी रात लैपटॉप पर वेब
सीरीज देखते थे और फिर अगले दिन कोई भी तब तक नहीं उठता था जब तक सूरज सिर पर नहीं
होता था या फिर होस्टल का वार्डेन डंडे लेकर नहीं दौड़ाता था। लेकिन अपनी माँ के
दबाव में उसके पास झुकने के सिवा कोई चारा नहीं था।
दिल्ली में सिन्हा जी के कई रिश्तेदार रहते थे
लेकिन बात करने पर हर किसी ने कोई न कोई बहाने बनाकर कुशाग्र को अपने घर पर रखने
से मना कर दिया। किसी का फ्लैट बहुत छोटा था तो किसी के बच्चे की पढ़ाई में खलल
पड़ने की आशंका थी तो किसी को एक अतिरिक्त आदमी के रहने से बढ़ने वाले खर्चे का डर
सता रहा था। कुशाग्र के मामा का घर बहुत बड़ा तो नहीं था लेकिन उनका दिल वाकई बड़ा
था। इसके पहले भी न जाने कितने रिश्तेदारों के बच्चे पढ़ाई या नई नौकरी ज्वाइन करने
के चक्कर में उनके यहाँ महीनों रह चुके थे।
कुशाग्र का सामान पैक हुआ और वह अपने माँ बाप के
साथ टेम्पो से बरकाकाना के लिए रवाना हुआ जहाँ के रेलवे स्टेशन से उसे दिल्ली जाने
वाली ट्रेन गरीब रथ में सवार होना था। भुरकुंडा एक छोटा सा कस्बा है जहाँ कोयले की
खानें हैं और बरकाकाना वहाँ से महज दो या तीन किलोमीटर की दूरी पर है। छोटानागपुर
की सुंदर पहाड़ियों से घिरा यह रेलवे स्टेशन दूर से देखने पर बिलकुल निर्जन स्थान
पर लगता है लेकिन यहाँ से कई रेलगाड़ियाँ आती जाती हैं। गरीब रथ देर शाम में
बरकाकाना स्टेशन से रवाना हुई और अगले दिन ग्यारह बजे के आसपास नई दिल्ली पहुँच
गई। कुशाग्र के मामा अपनी लाल रंग की चमचमाती हुई कार से उसे लेने नई दिल्ली रेलवे
स्टेशन पहुँच चुके थे।
कुशाग्र शनिवार को पहुँचा था ताकि रविवार को आराम
के लिए पूरा दिन मिल जाए। लेकिन मामा के रहते हुए यह संभव नहीं था। मामा ने उसे
कार में बिठाया और रास्ते और शहर से परिचित कराने के लिए उसे उसके ऑफिस तक ले गए।
रास्ते भर उसे यह बताते रहे कि कहाँ से ऑटोरिक्शा लेनी है और कहाँ से मेट्रो ट्रेन
पकड़नी है। मामा के घर से उसके ऑफिस की दूरी कोई चालीस किलोमीटर होगी। ठीक उतनी ही
दूरी पर भुरकुंडा से उसका इंजीनियरिंग कॉलेज पड़ता था, जहाँ से वह महीने में एकाध बार ही अपने घर आने की हिम्मत जुटा पाता था। अब
इस खयाल से उसका कलेजा बैठ रहा था कि रोज रोज उसे इतनी दूरी तय करनी पड़ेगी वह भी
दो बार। मामा ने बताया था कि कुछ दिन दिल्ली में रह लेने के बाद यह दूरी उसे
मामूली दूरी लगेगी।
नौकरी ज्वाइन करने के बाद दो हफ्ते कैसे बीत गए पता
ही नहीं चला। हाँ बीच बीच में शनिवार और इतवार के दिन उसे तब तकलीफ होती जब मामा
के कहने पर उसे तड़के बिस्तर छोड़ना पड़ता था और फिर उनके साथ किसी पार्क में दौड़
लगाने जाना पड़ता था। एक पखवाड़ा बीतने के बाद तो मामा उसे रोज सुबह की सैर पर ले
जाने लगे। रात में ठीक दस बजे घर का टीवी और इंटरनेट का राउटर स्विच ऑफ कर दिया
जाता था और घर के हर व्यक्ति का मोबाइल फोन मामा के कब्जे में चला जाता था ताकि
कोई भी बिलावजह देर रात तक जाग न सके। बेचारा कुशाग्र अब केवल अपने सपने में वेब
सीरीज देख पाता था। उसे अब रोज रोज सुबह नहाना भी पड़ता था जिसकी आदत उसने कब की
छोड़ दी थी।
कोई एक महीना बीतने के बाद कुशाग्र ने दबी जुबान से
अपनी मामी से शाम में कहीं घूमने जाने की अनुमति माँगी जो मामी ने आसानी से दे दी।
चलते चलते मामी ने कई नसीहतें दीं, जैसे किस मॉल में
जाना है और किसमें नहीं, हमेशा शेअर ऑटो में बैठना है,
कभी भी पूरी टैक्सी नहीं बुक करनी है, देर रात
तक बाहर नहीं रहना है और हर हाल में रात के नौ बजे से पहले घर वापस आ जाना है। लग रहा
था मामी सही मायने में मामा की धर्मपत्नी थीं।
आज कुशाग्र अगले चार पाँच घंटों के लिए पूरी तरह
आजाद था। उसके कुछ दोस्त भी आने वाले थे और सभी अट्टा मार्केट के पास किसी मॉल में
मिलने वाले थे। घर से निकलते ही कुशाग्र ने किसी एप्प से एक टैक्सी बुक की और उसकी
पिछली सीट पर किसी शहंशाह की तरह बैठ गया। एक्सप्रेसवे पर फर्राटे से गुजरती कारों
की टेल लाइट की कतारों से दिवाली जैसा समा बन रहा था। मामा के घर से नोएडा शहर की
सीमा पर तो लगा कि पलक झपकते पहुँच गए। उसके बाद कुशाग्र की टैक्सी किसी तरह बस
रेंग रही थी। लेकिन कुशाग्र को कोई जल्दबाजी नहीं थी। वह तो बस कारों और बाइकों के
एक से बढ़कर एक मॉडल देखने में व्यस्त था। कोई एक सवा घंटे के बाद वह अट्टा मार्केट
पहुँचा जहाँ उसके दोस्त उसका इंतजार कर रहे थे। सभी लोग एक मॉल में गए जिसमें इतने
लोग नजर आ रहे थे जितने पूरे भुरकुंडा और बरकाकाना में भी नहीं रहते होंगे। सबसे
पहले कुशाग्र और उसके दोस्त सबसे ऊपरी मंजिल पर स्थित फूड कोर्ट में गए और एक से
एक लजीज व्यंजनों का स्वाद चखा।
एक दुकान पर एक मोटा आदमी बड़े नाटकीय अंदाज में
आइसक्रीम बेच रहा था। आपने शायद इंटरनेट पर वीडियो देखा होगा जिसमें सेल्समैन अपने
ग्राहक को आइसक्रीम देते समय ऐसे नाटक करता है जैसे उसे आइसक्रीम से बिछड़ने में
बहुत दर्द हो रहा हो। वह कई बार अपने हाथ आगे पीछे करके अपने ग्राहक को छकाता है।
यह देखकर बाकी लोग तालियाँ बजाते हैं। ग्राहक जब बिलकुल थक जाता है और पूरी तरह उम्मीद
खो देता है तब कहीं जाकर आइसक्रीम उसके हाथ लगती है। कुशाग्र ने वहाँ से आइसक्रीम
खरीदी और आइसक्रीम लेते समय जो भी नाटक हुआ उसका वीडियो उसके एक दोस्त ने बनाया।
सोशल मीडिया पर वीडियो अपलोड होते ही पूरे झारखंड और बिहार से लाइक और कमेंट का जो
सिलसिला शुरु हुआ वह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। कुशाग्र अपनी फैन फॉलोइंग
देखकर फूले नहीं समा रहा था।
उसके बाद उन लोगों ने पूरे मॉल में जी भर कर विंडो
शॉपिंग की और फिर गेमिंग जोन में जाकर कई तरह के गेम्स पर अपने हाथ आजमाए। एक गेम
में कुशाग्र की किस्मत ने साथ दिया और प्राइज में उसे एक बड़ा सा टेडी बियर मिल गया
जिसका आकार कुशाग्र से एकाध इंच ही छोटा रहा होगा। उसने फटाक से उस टेडी बियर के
साथ सेल्फी ली और अपनी माँ को वह फोटो भेज दी।
नोएडा की नाइट लाइफ का मजा लेने में समय कब निकल
गया पता ही नहीं चला। जब मॉल में इक्का दुक्का लोग ही नजर आने लगे तो कुशाग्र और
उसके दोस्तों ने एक दूसरे से विदा लिया और अपने अपने घरों की ओर चल पड़े। टैक्सी
में बैठने के बाद जब कुशाग्र ने अपना मोबाइल देखा तो उसके हाथ पाँव फूल गए। मामा
के नम्बर से कई मिस्ड कॉल थे जो शोर शराबे में उसे सुनाई नहीं दिए। टैक्सी पूरी
रफ्तार से अपनी मंजिल की ओर बढ़ रही थी। अब गाड़ियों की टेल लाइटें उस खतरे के
सिग्नल की तरह लग रहीं थीं जिस खतरे की तरफ कुशाग्र बढ़ रहा था।
मामा के घर पहुँचने में रात के साढ़े ग्यारह बज चुके
थे। दरवाजा खुलते ही मामा का प्रवचन चालू हुआ। प्रवचन की भूमिका में पता चला कि
किस तरह मामा ने अपने भाई बहनों का जीवन संवारने के चक्कर में अपना जीवन बरबाद
किया और फिर किस तरह पुश्तैनी संपत्ती बेच बेचकर बहनों की शादियाँ कराईं। मामा ने
यह भी बताया कि यदि ऐसा वे नहीं करते तो टू बी एच के (दो बेडरूम हॉल और किचेन)
फ्लैट की जगह आज उनके पास आलीशान बंगला होता। मामा ने फिर अर्ली टू बेड अर्ली टू
राइज के फायदे गिनाए। उसके बाद मामा ने ऐसे कई किस्से सुनाए जिनमें देर रात चलने
के कारण दिल्ली एन सी आर (नेशनल कैपिटल टेरिटरी) में कितने लोगों को लूट लिया गया, उनके एटीम कार्ड से पैसे निकलवा कर उन्हें किसी सुनसान जगह पर फेंक दिया
गया, कइयों का अपहरण करके मोटी रकम वसूली गई, और कई लड़कियों के साथ तो जघन्य अपराध तक हुए।
यह सब सुनने के बाद कुशाग्र को उसके कमरे में सोने
के लिए भेज दिया गया। अपनी आपबीती सुनाने के लिए वह अपनी माँ से भी बात नहीं कर
सकता था क्योंकि फोन तो मामा के कब्जे में था।
उस हादसे को कोई पंद्रह दिन बीते थे कि कुशाग्र ने
अपनी माँ से बात की और बताया कि वह वापस भुरकुंडा आ रहा है। जब माँ घबड़ाईं तो उसने
दिलासा दिया कि वह नौकरी नहीं छोड़ रहा बल्कि अपने मैनेजर से बात करके वर्क फ्रॉम
होम की अनुमति ले रहा है ताकि अपने बुजुर्ग माँ बाप की सेवा कर सके। सिन्हाइन पचास
का आँकड़ा छूने ही वाली थीं लेकिन सिन्हा जी ने कहा कि कुशाग्र कुछ ज्यादा ही बोल
रहा है और वह अभी भी पैंतीस से एक साल भी अधिक की नहीं लगती हैं। सिन्हाइन के पास
खुश होने के अब दो कारण थे इसलिए उन्होंने अपने पति के लिए मलाई चिकन और पुलाव
पकाया और पास वाले हलवाई से लेंगचा (एक स्थानीय मिठाई जो गुलाबजामुन की तरह लगती
है) भी मंगवा लिया।
एक सप्ताह बाद कुशाग्र की आजादी का दिन आ गया। आज
वह अपने हिटलर मामा की जेल से हमेशा के लिए आजाद होने जा रहा था। अब तक उसे तीन
महीनों की तनख्वाह भी मिल चुकी थी। मामा के यहाँ रहने के कारण उसका अधिकाँश हिस्सा
जमा ही हुआ था इसलिए कुशाग्र ने दिल्ली से राँची के लिए फ्लाइट का टिकट बुक किया
था। चलते समय जब उसने मामा के पैर छुए तो मामा ने उसकी जेब में पाँच सौ का एक नोट
रख दिया और कहा कि यह मामा के आशीर्वाद की निशानी है। यह सुनकर पता नहीं क्यों
कुशाग्र की आँखें डबडबा गईं।
भुरकुंडा पहुँचने पर उसका भव्य स्वागत हुआ। कुशाग्र
की माँ ने उसकी पसंद का भोजन बनाया था। कुशाग्र के कमरे में एसी भी लगवा दिया गया
था ताकि काम करने में कोई परेशानी न हो। ड्राइंग रूम में नया सोफा सेट आ चुका था।
पूछने पर पता चला कि अब शादी की बात करने वाले लड़की वालों की जब लाइन लगने लगेगी
तो उनपर अच्छी छवि बनाने के लिए यह सब जरूरी है।
अब कुशाग्र आराम से नौ बजे सोकर उठता था और बिना
नहाए धोए दस बजे तक काम करने बैठ जाता था। दोपहर में जब लंच ब्रेक होता तो वह नहा
लिया करता था। मामा के यहाँ रहते रहते आदत इतनी सुधर चुकी थी कि अब वह रोज नहाने
लगा था। शाम में काम खत्म होने के बाद जब वह मोहल्ले में घूमने निकलता तो हर कोई
उसे सलाम ठोंकता। मोमो की दुकान वाले ने उसे उधार देना भी शुरु कर दिया था।
कहते हैं कि खुशी के पल बहुत छोटे होते हैं।
कुशाग्र के मैनेजर ने उस कम्पनी की नौकरी छोड़ दी और मोटी तनख्वाह पर किसी और
कम्पनी में चला गया। उसकी जगह कोई नया मैनेजर आया तो उसने फौरन कुशाग्र को नोएडा
वापस आने को कहा। जब पूछा गया तो कुशाग्र ने बताया कि पुराने मैनेजर से बस जुबानी
बातचीत हुई थी और लिखत पढ़त में कुछ भी नहीं हुआ था यानि ना कुशाग्र की तरफ से कोई
ईमेल था और ना ही पुराने मैनेजर की तरफ से। कुशाग्र ने जब नए मैनेजर से जिरह करने
की कोशिश की तो उसने बताया कि या तो वह फौरन दिल्ली के लिए फ्लाइट बुक करे या फिर
अपने लिए कोई और नौकरी ढ़ूँढ़ ले। कुशाग्र और उसके माँ बाप को पहला विकल्प ही बेहतर
लगा।
जब सिन्हाइन ने इस बाबत कुशाग्र के मामा को फोन
किया तो मामा ने बस इतना कहा कि आजकल के लड़के हैं इसलिए ऐसी गलतियाँ करते रहते हैं
और धीरे धीरे सुधर जाएँगे। इस बार मामा ने यह वादा भी किया कि अगली बार पूरी जाँच
पड़ताल किए बिना कुशाग्र को वापस जाने नहीं देंगे।
घर पर रईसी करने के चक्कर में कुशाग्र पास अब इतने
पैसे नहीं बचे थे कि वह फ्लाइट के साथ टैक्सी का खर्चा भी उठा सकता था। मैनेजर के
दबाव में फ्लाइट का टिकट लेना तो उसकी मजबूरी थी। मामा से पूछने पर उसे जरूरी
निर्देश मिल गये कि किस तरह पालम हवाई अड्डे से एअरपोर्ट एक्सप्रेस वाली मेट्रो
पकड़नी है,
फिर नई दिल्ली से राजीव चौक और फिर राजीव चौक से ब्लू लाइन वाली
मेट्रो। सस्ते के चक्कर में कुशाग्र ने राँची से सुबह छ: बजे की फ्लाइट का टिकट
लिया। भुरकुंडा में अब तक इतना प्रभाव तो बन ही चुका था कि सिन्हा जी के किसी
परिचित ने अपनी कार से उसे राँची एअरपोर्ट तक मुफ्त में पहुँचा दिया। दिल्ली
एअरपोर्ट से कुशाग्र ने एअरपोर्ट एक्सप्रेस वाली मेट्रो पकड़ी जिससे पलक झपकते ही वह
नई दिल्ली स्टेशन पहुँच गया। एअरपोर्ट एक्सप्रेस में बैठते ही ऐसा लगा जैसे जापान या
यूरोप पहुँच चुका हो। आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि वह अपने देश भारत में है।
जब वह राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पहुँचा तो सुबह के दस
ही बजे थे। इतवार का दिन भी था इसलिए कहीं पहुँचने की जल्दी नहीं थी। सामान के नाम
पर उसके पास एक सूटकेस था और एक बैकपैक। अपने दोस्तों से उसने कनॉट प्लेस का बहुत नाम
सुन रखा था इसलिए सोचा कि कनॉट प्लेस के नजारे का आनंद लिया जाए। राजीव चौक से बाहर
आते ही लगा कि वह पाताल से जमीन पर उदित हुआ है। नवंबर का महीना होने के कारण मौसम
बड़ा सुहाना था, न ज्यादा गर्मी न सर्दी। पीठ पर बैकपैक लादे और
पहिए वाले सूटकेस को खींचते हुए वह कनॉट प्लेस के बाजार में दिशाहीन चलता चला जा रहा
था। इतवार का दिन होने के बावजूद वहाँ इतनी भीड़ थी जितनी भुरकुंडा में दुर्गा पूजा
के मेले में भी नहीं होती है। कहीं उसने सस्ते रेट में दो चार टी शर्ट खरीदी,
फिर धूप का चश्मा खरीदा, फिर दिल्ली का नक्शा भी
खरीदा। एक बार उसके मन में यह खयाल आया कि भला गूगल मैप के जमाने में नक्शा कौन खरीदता
है, फिर सोचा कि दीवार पर पोस्टर लगाने के काम आएगा। बीच में
एक बार मामा का फोन बजा तो उसने मैसेज कर दिया कि मेट्रो लाइन में कुछ तकनीकी खराबी
के कारण देर हो रही है।
काफी घूमने फिरने के बाद एक बेंच पर वह सुस्ताने के
लिए बैठ गया और आइसक्रीम खाने लगा। उसकी बगल में एक और आदमी आकर बैठा और वह आदमी भी
आइसक्रीम खाने लगा। कमाल का संयोग था कि दोनों एक ही फ्लेवर वाली आइसक्रीम खा रहे थे।
दोनों ने एक ही तरह के काले चश्मे पहन रखे थे और वह आदमी अदाएँ देने में कुशाग्र की
पूरी पूरी नकल कर रहा था। यह देखकर कुशाग्र को कुछ अजीब भी लग रहा था और मजा भी आ रहा
था। तभी उस आदमी के हाथ से आइसक्रीम छिटककर गिरी और जाकर कुशाग्र के टी-शर्ट पर लगी।
ज्यदा तो नहीं लेकिन कुशाग्र की टी-शर्ट की जेब आइसक्रीम से गीली हो चुकी थी। उस आदमी
सॉरी बोला और कुशाग्र से कहा कि सामने लगे नल से पानी लेकर टी-शर्ट साफ कर ले। उस आदमी
के सॉरी बोलने का लहजा इतना नफासत भरा था कि कुशाग्र को जरा भी गुस्सा नहीं आया और
वह मुसकरा कर अपनी टी-शर्ट साफ करने चला गया। जब वह ट—शर्ट साफ करके पीछे मुड़ा तो वह
बेंच खाली थी। बेंच पर से वह आदमी गायब हो चुका था और उसके साथ कुशाग्र का सूटकेस भी
गायब हो चुका था। कुशाग्र वहीं सिर पकड़ कर बैठ गया। अपने आप को संभालने में उसे कोई
आधे घंटे लग गए।
उसके बाद कुशाग्र जमीन के नीचे पाताल में उतर गया और
राजीव चौक से ब्लू लाइन वाली मेट्रो में सवार हो गया। अब वह गुमसुम बाहर सूने आसमान
को निहार रहा था।
जब अंत में वह अपने मामा के घर पहुँचा और अपनी आपबीती
सुनाई तो मामा का लंबा प्रवचन शुरु हुआ। प्रवचन समाप्त होने के बाद मामा ने कुशाग्र
की माँ को फोन लगाया और उन्हें प्रवचन के बाकी अध्याय सुनाए। उसके बाद मामा ने कुशाग्र
को अपने पास रखने के लिए कई शर्तें रखीं जिन्हें कुशाग्र की माँ ने शत प्रतिशत मान
लिया। फिर कुशाग्र की आगे की जिंदगी अपनी मंथर गति से चलने लगी।
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