बुझौना दिल्ली से कमाकर लौट
रहा था। वह बिहार के दरभंगा जिले के किसी छोटे से गाँव का निवासी है। निहायत गरीब
होने के साथ साथ वह मुसहर जाति का भी है इसलिए उसके लिए गाँव में रोजगार के अवसर न
के बराबर हैं। खेतों में बुआई या कटाई के समय काम तो मिल जाता है लेकिन उसमें
मजदूरी इतनी नहीं मिल पाती है कि साल भर तक परिवार का भरण पोषण हो सके। उसके गाँव
के कई मुसहर हर साल दिल्ली चले जाते हैं जहाँ उन्हें किसी फैक्ट्री या किसी
कंस्ट्रक्शन साइट पर काम मिल ही जाता है। छ: महीने के दिल्ली प्रवास में बुझौना की
इतनी कमाई हो चुकी थी कि वह आसानी से वापस अपने गाँव जाकर कुछ दिन अपने परिवार के
साथ हँसी खुशी बिता सकता था।
उसने अपनी बीबी और बच्चों
के लिए शनि बाजार से रंग बिरंगे कपड़े खरीदे थे। दिल्ली के विभिन्न इलाकों में ऐसे
साप्ताहिक बाजार आज भी लगते हैं जिनका नाम सप्ताह के दिनों के हिसाब से होता है।
ऐसे बाजारों में इतने सस्ते सामान मिल जाते हैं कि कोई भी उन्हें खरीद सकता है।
कपड़ों के अलावा बुझौना ने अपने बच्चे के लिए तिपहिया साइकिल भी खरीदी और दो
प्लास्टिक की कुर्सियाँ भी खरीदी। उसे यकीन था कि लाल रंग की प्लास्टिक की
कुर्सियों से उसके टोले में उसकी इज्जत जरूर बढ़ जाएगी।
जिस दिन उसे यात्रा करनी थी
उस दिन वह ट्रेन के छूटने से चार पाँच घंटे पहले ही नई दिल्ली स्टेशन पहुँच गया।
मेट्रो रेल की सुविधा होने के कारण उसे नई दिल्ली स्टेशन पहुँचने में ज्यादा पैसे
खर्च नहीं करने पड़े। फिर नई दिल्ली स्टेशन पर उसने दरभंगा तक का जेनरल क्लास का
टिकट खरीद लिया।
जब ट्रेन को प्लेटफॉर्म पर
लगाया गया तो जेनरल बोगी में घुसने के लिए बड़ी भारी भीड़ लगी हुई थी। पुलिस वाले
डंडा मार मार कर लोगों को लाइन में लगा रहे थे। बुझौना के लिए यह कोई नया नजारा
नहीं था। उसने एक कुली को पकड़ा। कुली ने उससे एक सौ रुपए लिए और उसे बकायदा एक सीट
दिलवा दी। वह कुली के साथ बड़े आराम से प्लेटफॉर्म के दूसरी तरफ वाले दरवाजे से
ट्रेन के अंदर चला गया। सीट मिल जाने के बाद बुझौना ने अपना सामान ऊपर वाली रैक पर
रख दिया। एक यात्री के हिसाब से सामान कुछ ज्यादा ही था। दो बड़े बड़े बैग जिसमें
ढ़ेर सारे कपड़े ठुँसे हुए थे। एक तिपहिया साइकिल और दो कुर्सियाँ। लेकिन उस डिब्बे
में जाने वाले ज्यादातर यात्रियों के साथ उसी तरह से ढ़ेर सारा सामान था। कई लोगों
ने तो पूरी की पूरी सीट पर सामान डाल दिया था और खुद नीचे फर्श पर चादर बिछाकर
बैठे हुए थे। यहाँ तक कि ट्रेन के बाथरूम में भी कुछ लोग पूरे परिवार के साथ डेरा
जमाए हुए थे। जब तक ट्रेन के चलने का समय हुआ उस डिब्बे में इतने लोग समा चुके थे
कि अब तिल रखने की जगह नहीं थी। इसका एक फायदा जरूर हो रहा था कि जाड़े का मौसम
होने के बावजूद उस डिब्बे में बैठे लोगों को गर्मी महसूस हो रही थी।
ट्रेन के छूटने के एकाध
घंटे बाद रात हो गई। लगभग नौ बजे के आसपास सब लोगों ने अपना अपना खाना निकाला और
उसे खाने लगे। कुछ लोगों ने तो मिनरल वाटर की बोतल भी खरीदी थी। ये और बात है कि
उसके खाली होने के बाद वे उसमे नलके का पानी ही भर ले रहे थे। चूँकि ट्रेन में
हिलने भर की भी जगह नहीं थी इसलिए सबने खाना खाने के बाद जहाँ बैठे थे वहीं पर हाथ
मुँह धो लिया। कुछ ने तो अपनी सीट के नीचे कुल्ला तक कर दिया। चारों तरफ बजबजाती
गंदगी से बुरा हाल था।
अगले दिन सुबह सुबह ट्रेन
गोरखपुर पहुँची। वहाँ से उस डिब्बे में कुछ रेलवे पुलिस के जवान चढ़े। उनमें से एक
जवान बुझौना के पास आया और ऊपर रखे सामान पर अपना डंडा खटखटाते हुए बड़ी रोबदार
आवाज में पूछा, “किसका सामान है?”
बुझौना ने धीरे से जवाब
दिया, “साहब ई हमरा समान है।“
पुलिस के जवान ने पूछा, “टिकट लिया है अपने सामान का?”
बुझौना ने कहा, “साहब अपना टिकट लिये हैं।“
पुलिस के जवान ने कहा, “पता नहीं है कि सामान की
बुकिंग अलग से होती है। सारा सामान जब्त हो जायेगा। फिर जाकर थाने से छुड़वाते
रहना।“
बुझौना ने उसके आगे हाथ जोड़
लिए, “साहब, बहुत मन से ई समान ले
जा रहे हैं अपना परिवार के लिए। अईसा जुलुम मत कीजिए।“
पुलिस के जवान ने उससे कहा, “फिर सौ रुपए लाओ तो कुछ
नहीं करेंगे।“
बुझौना ने धीरे से सौ रुपए का एक नोट उस जवान के हाथ में
थमा दिया और फिर वह जवान वहाँ से चला गया। ऐसा हादसा वहाँ बैठे लगभग हर किसी के
साथ हुआ। पुलिस के जवान आते थे और हर किसी से सौ दो सौ रुपए ऐंठ कर चले जाते थे।
जब ट्रेन हाजीपुर स्टेशन से चल पड़ी तो उसमें पुलिस की एक नई
टीम आ गई। उन पुलिसवालों ने भी वही प्रक्रिया दोहराई। वे आते थे और हर किसी से सौ
दो सौ रुपए ऐंठ कर चले जाते थे।
फिर समस्तीपुर स्टेशन पर एक टीटी उस डिब्बे में आया। उसने
बुझौना से कहा, “टिकट है? दिखाओ।“
बुझौना ने उसे टिकट दिखाया तो टीटी ने कहा, “अरे
ई तो डुप्लिकेट टिकट लगता है। साला, रेलवे को धोखा देता है।
अभी अंदर करवा देंगे।“
बुझौना बेचारा डर गया और बोला, “लेकिन
साहब, ई टिकट तो हम दिल्ली स्टेशन से खरीदे थे। डुप्लिकेट
कईसे हो सकता है?”
टीटी ने गुस्सा दिखाते हुए कहा, “हमको
बेवकूफ बनाता है। अभी बुलाते हैं पुलिस वाले को। डंडा पड़ेगा तो सब पता चल जाएगा।“
बुझौना ने कहा, “मालिक, कुछ ले दे के
छोड़ देते तो.........”
फिर उस टीटी ने बुझौना से दो सौ रुपए ऐंठ लिए। उस टीटी की
उगाही उस डिब्बे में काफी देर तक चलती रही। फिर वह किसी छोटे स्टेशन पर उतर गया।
उसके जाने के बाद बुझौना अपनी बगल में बैठे यात्री से कह
रहा था, “हम सोचे थे कि दिल्ली से सस्ता में कुर्सी और तिपहिया साइकिल ले जाएँगे।
दरभंगा में तो महँगा मिलता है। लेकिन ई पुलिस और टीटी पर पईसा खर्चा करने के बाद
तो ई सब महँगा हो गया।“
उस यात्री ने कहा, “हाँ भईया, ठीक कहते
हो। पिछला साल हम एगो टीवी खरीदे थे। रस्ता भर में ई पुलिस वाला और टीटी सब मिलकर
हमसे एक हजार रुपैया लूट लिया। का करोगे, गरीब को तो सभ्भे
लूटता है।“
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