अश्विनी सिन्हा किसी सरकारी
दफ्तर में हेड क्लर्क की हैसियत से काम करते हैं। सरकारी दफ्तरों में लोग हेड क्लर्क
को अक्सर बड़ा बाबू कहकर बुलाया करते हैं। इस श्रेणी में काम करने वाले अधिकतर लोगों
की आय साधारण होने की वजह से ऐसे मुलाजिम अक्सर साधारण सा पहनावा ही पहनते हैं। उनके
पहनावों पर कुछ कुछ असर सरकारी दफ्तरों मे प्रचलित माहौल का भी होता है। ऐसे माहौल
में एक नया रंगरूट आपको थोड़ा सजधजकर ऑफिस आते हुए दिखाई दे जायेगा लेकिन पाँच साल की
नौकरी होते-होते वह भी वहीं के रंग में रम जाता है। लेकिन अश्विनी सिन्हा ‘बड़े बाबू’ शब्द को चरितार्थ करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। गर्मियों
में वे गहरे रंग की पतलून पर सफेद या और किसी सोबर रंग की शर्ट पहना करते थे। शर्ट
बकायदा पतलून की अंदर खोंसकर पहनी जाती थी। साथ में ताजा पॉलिश किये हुए जूते। आप कभी
अश्विनी सिन्हा को चप्पल या स्पोर्ट शू में ऑफिस जाते नहीं देख सकते थे। जाड़े में तो
कोट और टाई लगाकर वह अच्छे खासे जेंटलमैन बन जाते थे। कई अन्य मुलाजिमों की तरह वे
भी पास ही की सरकारी कॉलोनी में अपने सरकारी क्वार्टर में रहते थे।
उनके घर की साज सज्जा में भी अभिजात वर्ग की झलक आती थी; जो कि
अन्य लोगों के घरों से अलग हुआ करती थी। और लोगों के घरों में आपको या तो लकड़ी की टूटी
कुर्सी मिल जाती या फिर प्लास्टिक की सस्ती वाली कुर्सियाँ। लेकिन अश्विनी सिन्हा के
घर में आपको लाल मखमल की कवर वाला आलीशान सोफा सेट नजर आ जाता। बाहर वाले बरामदे में
बेंत की कुर्सियों के साथ फूलों और सजावटी पौधों के गमले गजब की शोभा बढ़ाते थे। अश्विनी
सिन्हा ने एक सफेद रंग की सेकंड हैंड मारुति 800 भी रखी हुई थी जो उस कॉलोनी में लगने
वाली मोटरसाइकिलों और स्कूटरों के बीच शोभायमान होती थी।
उस कॉलोनी के कुछ लोग उनसे इस बात के लिए चिढ़े भी रहते थे कि
वे झूठी शान बघारने में माहिर थे। उसपर से अश्विनी सिन्हा का अन्य लोगों से कट कटकर
रहना इस चिढ़ को और भी हवा देता था। अश्विनी सिन्हा के दो बेटे और एक पत्नी थी। उनके
बेटे और पत्नी भी उनका अनुसरण करती थी। कुल मिलाकर पूरा परिवार एक ही तरह की संस्कृति
का पालन करता था। सब लोग ऐसे बर्ताव करते थे जैसे कि वे किसी क्लर्क नहीं बल्कि किसी
बड़े ऑफिसर के परिवार के सदस्य हों।
एक बार अश्विनी सिन्हा को अपने बेटों को लेकर दिल्ली जाना पड़ा।
उनके बेटों का किसी एमबीए कॉलेज में ऐडमिशन के लिए बुलावा आया था इसी सिलसिले में वे
इस यात्रा पर जा रहे थे। अब कोई ऑफिसर तो उन्हें घास डालने से रहा लिहाजा उन्होंने
अपने ही श्रेणी के क्लर्कों से किसी ऐसे से मदद की गुजारिश की जिसका कोई मित्र या रिश्तेदार
दिल्ली में रहता हो। आजकल बिहार में शायद ही कोई घर होगा जिसका एक न एक सदस्य दिल्ली
में न रहता हो। लेकिन उस कॉलोनी के सभी लोगों ने अश्विनी सिन्हा को कोई मोबाइल नम्बर
देने से साफ मना कर दिया। यह सब उसी अच्छे इम्प्रेशन का नतीजा था जो अश्विनी सिन्हा
ने वर्षों से बनायी थी।
अब बेचारे अश्विनी सिन्हा क्या करते, बस अपने
बेटों के साथ दिल्ली वाली ट्रेन में बैठ गये। वे पूरी ठाट से अपनी बर्थ पर लेटे थे
और उनके बेटे भी उन्हीं की नकल कर रहे थे। बाकी के सवारियों ने जल्द ही उनकी फितरत
को समझ लिया इसलिये कोई भी उनसे उलझने की हिम्मत नहीं कर रहा था। लेकिन ट्रेन में भी
अश्विनी सिन्हा अपनी साहबी दिखाने से बाज नहीं आ रहे थे। जब कोई आदमी किसी स्टेशन पर
कोई चीज खरीदने प्लेटफॉर्म पर उतर रहा होता था तो अश्विनी सिन्हा उसे कुछ न कुछ खरीद
लाने का आदेश जरूर दे देते और उसके लिए पाँच सौ का नोट निकाल कर दे देते। खैर,
लगभग दो घंटे की यात्रा के बाद रात हो गई और अन्य लोगों को थोड़ी राहत
मिली।
अगले दिन ट्रेन को सुबह सुबह दिल्ली पहुँचना था लेकिन अपनी आदत
से मजबूर वह ट्रेन भी लेट चल रही थी। सुबह के लगभग आठ बजे थे और ट्रेन में कुछ ऐसे
यात्री भी चढ़ गये थे जो लोकल होने के नाते रिजर्व कंपार्टमेंट में आसानी से घुस जाते
हैं। दिन हो जाने के कारण पहले से सफर कर रहे यात्रियों को उठकर बैठना पड़ता है ताकि
लोकल सवारियों को बैठने की जगह मिल जाए।
अश्विनी सिन्हा की बगल में एक देहाती सा दिखने
वाला युवक बैठा था। उसकी बड़ी-बड़ी मूँछें और तीन चार दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी थी। उसकी आँखों
की लाली से वह बड़ा ही खतरनाक टाइप का लग रहा था। थोड़ी देर में ट्रेन कानपुर स्टेशन
पर रुकी। वह युवक प्लेटफॉर्म से कुछ खरीदने जा रहा था। अश्विनी सिन्हा ने जब पूछा तो
पता चला कि वह चाय खरीदने जा रहा था। अश्विनी सिन्हा ने उसे सौ रुपये का नोट दिया और
अपने लिये तीन कप कॉफी लाने को बोला। उस युवक ने मुसकराते हुए अश्विनी सिन्हा से पैसे
लिये और कॉफी लाने चला गया। थोड़ी देर बाद वह कॉफी लेकर आया तो अश्विनी सिन्हा ने उसे
बाकी बचे पैसे रख लेने को कहा। उस युवक ने मुसकराकर उनका धन्यवाद किया। कॉफी पीते ही
अश्विनी सिन्हा और उनके बेटे बेहोश हो गये और फिर वह युवक उनका सामान, पर्स,
मोबाइल फोन, आदि लेकर वहाँ से चंपत हो गया।
राकेश दिल्ली में रहता था। वह अपने दफ्तर में लंच ब्रेक की तैयारी
कर रहा था कि तभी उसके पास फोन आया, “हलो, मैं सिन्हा साहब
बोल रहा हूँ। आपके बड़े भाई दरभंगा में जिस दफ्तर में काम करते हैं मैं भी उसी दफ्तर
में काम करता हूँ। हमारे साथ एक हादसा हो गया। ट्रेन में नशाखुरानी वाले ने बेहोश करके
हमारा सब कुछ लूट लिया। अभी मैं अपने बेटों के साथ लेडी हार्डिंग हॉस्पिटल में भर्ती
हूँ। आप केवल इतना मदद कर देते ताकि हम वापस अपने शहर लौट पाते।“
राकेश ने अपने बड़े भाई को फोन करके मामले की विस्तृत जानकारी
ली। फिर उसने वह सारी मदद की ताकि अश्विनी सिन्हा अपने बेटों के साथ वापस दरभंगा जाने
वाली ट्रेन में सही सलामत बैठ जाएँ।
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