यह कहानी उस जमाने की है जब मोबाइल फोन या इंटरनेट का पदार्पण हिंदुस्तान में नहीं हुआ था। तब ट्रेन का रिजर्व टिकट कटवाने के लिए रेलवे स्टेशन पर जाना पड़ता था। लेकिन इसके बावजूद कभी ऐसा नहीं होता था कि चार महीने पहले कटवाने पर भी वेटिंग टिकट ही मिले। लंबी दूरी की रेलगाड़ियों में बहुत से बहुत पंद्रह दिन पहले टिकट कटाने से रिजर्वेशन मिल जाता था। मोबाइल फोन ना होने एक बावजूद लोगों में आपसी तालमेल इतना अच्छा होता था कि जिस टीम के अलग-अलग सदस्य अलग-अलग शहरों में रहते थे वे भी एक दूसरे तक संदेश पहुँचा देते थे और तय समय के मुताबिक जिस जगह पर मिलना होता था उस जगह पर समय से पहले पहुँच जाते थे। तब तक लैंडलाइन टेलिफोनों की संख्या ठीक ठाक हो चुकी थी और लोग पीसीओ या फिर किसी पड़ोसी के फोन का इस्तेमाल करके जरूरी बातचीत कर लेते थे। ट्रेंनें तब भी उतनी ही देरी से चलती थीं, जितनी देरी से आज चला करती हैं लेकिन उस जमाने में वातानुकुलित दर्जे में या तो रईस लोग सफर करते थे या फिर वो जिनके टिकट के पैसे उनकी जेब से खर्च नहीं होते थे। आज की तरह नहीं कि जिसे देखो एसी में ही सफर कर रहा है। मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव या एमआर ऐसे लोगों में से थे जो रईस न होते हुए भी वातानुकूलित दर्जे में यात्रा का आनंद उठा पाते थे। हालाँकि दवा बनाने वाली ज्यादातर अच्छी कम्पनियाँ अपने सेल्स स्टाफ को वातानुकूलित दर्जे में सफर की सुविधा प्रदान करती थीं लेकिन उस सुविधा का उपभोग करने वालों की संख्या काफी कम होती थी। इसके कई कारण थे लेकिन उन कारणों की चर्चा करना इस कहानी के विषय वस्तु से परे है।
वह टीम कई मायनों में
अनूठी टीम थी और उस टीम के सदस्यों के बीच जो कमाल का तालमेल था वह उनके आपसी झगड़ों
में भी नजर आता था। वह टीम नौ लोगों से बनी थी जिनमें एक एरिया मैनेजर था और बाकी
लोग मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव यानि एमआर थे। मैनेजर साहब की पोस्टिंग फैजाबाद में थी, जो
लखनऊ से सवा सौ किलोमीटर दूर है। बाकी के सात लोगों में से एक बंदा फैजाबाद में, दो गोंडा में, एक बहराइच में, एक, सुलतानपुर
में, दो रायबरेली में और एक जौनपुर में था। साहब का नाम था निर्मल और
बाकी लोगों के नाम थे अनिल (फैजाबाद),
सुमित और पुतुल (गोंडा), विजय
(बहराइच), जैकब (सुलतानपुर), खोकुन और संजीव (रायबरेली)
और जहीर (जौनपुर)।
अक्सर एक शहर में किसी एक
कम्पनी का एक ही एमआर रहता है इसलिए वह अपने आप को उतना ही बड़ा राजा समझता है
जितना कि महारानी की मौत से पहले प्रिंस चार्ल्स अपने आप को समझते रहे होंगे।
इसलिए अगर कोई एमआर किसी ऐसी कम्पनी में काम करता है जहाँ उसकी उम्मीद से बहुत
ज्यादा तनख्वाह मिलती है तो फिर उसके अहम का अंदाजा आप आसानी से लगा सकते हैं।
लेकिन दिन रात बाजार की खाक छानने के चक्कर में उसकी इतनी रगड़ाई हो चुकी होती है
कि उसे यह भलीभाँति पता होता है कि कहाँ अपने डौले शौले दिखाने हैं और कहाँ दुम
दबाकर रखना है।
एक बार की बात है, पूरी
टीम को एक कॉन्फ्रेंस के सिलसिले में हैदराबाद जाना था। किसी नई दवाई को बाजार में
उतारना था जिसके लिए उनकी ट्रेनिंग होनी थी। वह नई दवा दिल की बिमारी के लिए थी और
शायद इसलिए कम्पनी के आला अधिकारियों ने बहुत सोच विचारकर उस दवा का मान रखा था दिल
की बूटी। यह बात और है कि उनमें से सबकी रुचि ट्रेनिंग से ज्यादा इस बात में
रहती थी कि कॉन्फ्रेंस में क्या क्या सुविधाएँ मिलेंगी, मसलन
होटल कितना आलीशान होगा, लंच और डिनर का मेन्यू कैसा रहेगा, किस
ब्रांड की शराब परोसी जाएगी, कम्पनी की तरफ से साइट सीइंग ट्रिप होगा या नहीं, वगैरह, वगैरह।
वे सभी लोग जिन जिन शहरों
में पोस्टेड थे उनमें से किसी जगह से भी हैदराबाद के लिए कोई रेलगाड़ी नहीं चलती
थी। एक शहर तो ऐसा भी था जहाँ से किसी भी महानगर के के लिए कोई ट्रेन नहीं चलती
थी। इसलिए तय यह हुआ था कि सबलोग लखनऊ स्टेशन पर मिलेंगे और वहाँ से नई दिल्ली
जाने वाली ट्रेन में सवारी करेंगे। नई दिल्ली के बाद हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से
उन्हें राजधानी एक्सप्रेस से हैदराबाद जाना था। टिकट कटाने की जिम्मेदारी टीम के
कप्तान यानि निर्मल साहब की थी जो उन्होंने समय रहते पूरी कर ली थी।
पहले से जैसा तय हुआ था उस
हिसाब से सब लोग ट्रेन के छूटने से काफी समय पहले लखनऊ के चारबाग स्टेशन पर
पहुँचना शुरु हुए। जब सब लोग एक जगह इकट्ठा हुए तो निर्मल साहब ने पूछा, “हाँ
भई, कैसी तैयारी है सबकी। बहुत अहम लॉन्च मीटिंग है। दिल की बिमारी
की दवाओं का बाजार बहुत बड़ा है और हमारी कम्पनी पहली बार उस सेगमेंट में उतरने जा
रही है। इसलिए इतना प्रेशर आने वाला है कि तुम्हारा ब्लड प्रेशर बढ़ जाएगा। समय
बहुत कठिन होने वाला है। कमर कस के तैयार हो जाओ।“
साहब की बात सुनकर हर किसी
ने अपनी अपनी तैयारी का बखान करना शुरु किया। विजय ने बताया कि उसने व्हिस्की की
दस बोतलें, सोडा और डिस्पोजेबल ग्लास खरीद लिए थे। पुतुल ने
बताया कि उसने चिप्स, नमकीन और दालमोठ के पैकेट भरपूर मात्रा में खरीद
लिए थे। सुमित ने बताया कि उसकी बीबी ने पचास साठ पराठे बनाकर पैक कर दिए थे। अनिल
ने बताया कि उसने इतना सारा गुश्तबा बनाकर पैक कर लिया था कि पूरे रास्ते किसी को
कम नहीं पड़ने वाला था। जहीर ने बताया कि उसकी अम्मी ने रास्ते के लिए बड़ी से देग
भर के बिरयानी दे दी थी। खोकुन ने बताया था कि उसके पास तली हुई मछलियाँ थीं।
संजीव और जैकब ने हाथ खड़े कर दिए। कहने लगे कि उन्हें खिचड़ी भी पकानी नहीं आती थी
इसलिए खाली हाथ चले आए थे।
यह सुनकर निर्मल साहब ने
कहा था, “अबे,
तुम्हारी तैयारियों को सुनकर लगता
है कि लॉन्च मीटिंग की बजाय किसी बारात में जा रहे हो जहाँ खाना खिलाने का ठेका
तुम सबको मिला है। तैयारी से मेरा मतलब था ठीक से पढ़ाई की या नहीं, मार्केट
सर्वे किया या नहीं और तुम लोग बस पिकनिक की बातें कर रहे हो। मुझे तुम सबका
भविष्य साफ साफ दिख रहा है। छोड़ूँगा नहीं किसी को।“
इस तरह बातचीत में समय बीत
गया और फिर उनकी ट्रेन आकर प्लेटफॉर्म पर लग गई। ट्रेन में बैठते ही सबने एक बर्थ
पर गिलासें सजाई, पेग बनाए और चखने में खाने की चीजें निकाली और अपनी
महफिल रंगीन करने में मशगूल हो गए। सेकंड एसी कोच के एक सेक्शन में कुल छ: बर्थ
होते हैं तो इस तरह से डेढ़ सेक्शन पर उनका कब्जा था। जहीर और जैकब शराब जैसी मादक
चीजों की लत से कोसों दूर रहते थे इसलिए उनके खाने की चीजों के प्लेट अलग किए गए
और उन्हें दूसरे सेक्शन में भेज दिया गया। ट्रेन अभी कानपुर भी नहीं पहुँची होगी
कि एक यात्री आया और उनसे कहने लगा,
“आपलोग दिखने में तो पढ़े लिखे लगते
हैं। आपको मालूम होना चाहिए कि ट्रेन में शराब पीना सख्त मना है। इससे सहयात्रियों
को परेशानी होती है।“
उसकी बातें सुनकर खोकुन, संजीव
और पुतुल जैसे नए रंगरूट थोड़ा घबराए लेकिन पुराने लोगों के कानों पर जूँ तक नहीं
रेंगी क्योंकि उन्हें इस नौकरी में इतने दिन बीत चुके थे कि उनकी चमड़ी मोटी हो
चुकी थी। निर्मल साहब ने उस आदमी से ऐसा सवाल पूछा जिसकी उसने सपने में भी उम्मीद
न की होगी। निर्मल साहब ने कहा,
“अरे भाई साहब क्यों नाराज होते
हैं। आप बुरा ना मानें तो आपके लिए एक पेग बनाऊँ? अबे, अनिल
देख क्या रहे हो? भाई साहब के लिए गिलास निकालो। हाँ भाई साहब, सोडे
के साथ या पानी के साथ।“
उस आदमी की बाँछें खिल गईं
और फिर वहीं बैठ कर उन लोगों का हमप्याला बन गया।
उनकी पार्टी देर रात तक
चलती रही। जब कुछेक लोगों पर इतना नशा छा गया कि उनके आपे से बाहर होने का खतरा
मंडराने लगा तो निर्मल साहब के आदेश पर दुकान बंद की गई और फिर सब लोग अपनी अपनी
बर्थों पर सोने चले गए।
विजय को सुबह जल्दी जागने
की आदत है। ट्रेन में तो वह और भी सबेरे जागता है क्योंकि उसका मानना है कि ट्रेन
के टॉयलेट का तभी इस्तेमाल कर लेना चाहिए जब तक कि बाकी लोग जा जा कर उसे नर्क न
बना दें। नित्य क्रिया से निबटने के बाद उसने अनिल को जगाया और बोला, “जरा
खिड़की से देखकर बताओ कि हमलोग कहाँ तक पहुँचे हैं। मेरे लिए तो ये सब नए इलाके हैं, अभी
तो ठीक से शहरों के नाम भी याद नहीं हुए हैं। पता नहीं क्यों, लेकिन
मुझे आशंका हो रही है कि हमारी ट्रेन बहुत देरी से चल रही है।“
अनिल ने खिड़की से देखा तो
कोहरे के कारण कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। उसके बाद वह गेट के पास आकर देखा तो
बताया कि विजय का शक सही था। फिर उसने हर किसी को जगा दिया। ट्रेन इतनी देरी से चल
रही थी कि हर किसी का नशा एक झटके में उतर गया। निर्मल साहब ने इधर उधर टटोलकर
अपने तकिये के नीचे से चश्मा निकाला और उसे पहनने के बाद ऐसी राहत की साँस ली जैसे
पूरी तरह से जाग चुके हों। निर्मल साहब ने कहा, “अब तो बड़ा भारी पंगा हो
जाएगा। अभी हमलोग कानपुर से कुछ ही आगे आए हैं। मतलब नई दिल्ली पहुँचते पहुँचते दस
ग्यारह तो बज ही जाएँगे। हजरत निजामुद्दीन से राजधानी एक्सप्रेस के छूटने का समय
साढ़े सात बजे सुबह का है। अब तो ट्रेन भी छूट जाएगी और पैसे भी बरबाद हो जाएँगे।“
यह सुनकर बाकी के आठ लोग
एक सुर से कहने लगे, “क्या बात करते हैं? ऐसे कैसे पैसे बरबाद हो
जाएँगे? दिल्ली पहुँचकर टिकट कैंसिल करा देंगे तो थोड़ा बहुत काटकर बाकी
के पैसे वापस मिल जाएँगे।“
निर्मल साहब का कहना था, “वो
तो ठीक है, लेकिन अगर हैदराबाद समय पर नहीं पहुँचे तो मुसीबत
हो जाएगी। आजकल जो नया एमडी बना है वह बहुत ही खुर्राट है। एक झटके में हम सबकी की
नौकरी खा जाएगा। कुछ सोचना पड़ेगा।“
बाकी के आठ लोग एक सुर में
गिड़गिड़ाने लगे, “हाँ हाँ,
सोचिए। आप नहीं सोचेंगे तो फिर
हमारे बारे में कौन सोचेगा? आप ही हमारे सब कुछ हैं। आप ही हमारे माई बाप हैं।“
निर्मल साहब ने सबको
डाँटकर चुप कराया, “ठीक है,
ठीक है। अब इतना भी झाड़ पर ना
चढ़ाओ। ऐसा करते हैं कि हमलोग टुंडला उतर जाते हैं। मुझे लगता है कि सात बजे तक
हमलोग टुंडला पहुँच जाएँगे। उसके बाद टुंडला से झाँसी चलते हैं। जरा टाइम टेबल में
देखो कि राजधानी एक्सप्रेस झाँसी कितने बजे पहुँचती है। टुंडला से कोई ट्रेन मिली
तो ठीक है, नहीं तो हम टैक्सी ले लेंगे।“
लेकिन टुंडला पहुँचते
पहुँचते सुबह के आठ बज चुके थे इसलिए यह तय हुआ कि झाँसी जाने का कोई फायदा नहीं
था और अब दिल्ली जाकर ही कोई रास्ता ढ़ूँढ़ना होगा। रास्ते में कई तरह के प्लान बनाए
गए। किसी का कहना था कि नई दिल्ली से हैदराबाद के लिए जो भी सबसे पहली गाड़ी मिलेगी
उसमें सवार हो जाएँगे। किसी ने कहा कि हैदराबाद के लिए दो टैक्सी बुक कर लेंगे।
निर्मल साहब का कहना था कि दिल्ली से हैदराबाद जाने और दिल्ली से नोएडा जाने में
बहुत अंतर होता है। दूरी इतनी है कि टैक्सी से जब तक पहुँचेंगे तब तक लॉन्च मीटिंग
समाप्त हो चुकी होगी। उनका कहना था कि उतनी लंबी यात्रा के लिए साधारण डिब्बे में
जाना बहुत ही दुश्वार होगा इसलिए ऐसे ही किसी ट्रेन में कैसे सवार हो सकते थे। उसके
बाद यह तय हुआ कि दिल्ली से हैदराबाद के लिए हवाई जहाज सही रहेगा। उस जमाने में
हवाई जहाज से यात्रा करना आज की तरह सस्ता नहीं था कि हर कोई ऐरा गैरा नत्थू खैरा
किसी भी हवाई अड्डे से उड़ान भरने लगे। निर्मल साहब की सलाह के हिसाब से सबने हिसाब
लगाना शुरु किया कि किसके पास कितने रुपए थे। हर कोई एक सप्ताह से कुछ अधिक की
यात्रा पर निकला था और हर किसी को हैदराबाद में मोतियाँ खरीदनी थीं इसलिए हर किसी
के पास प्रचुर मात्रा में कैश था। लेकिन जोड़ने पर मालूम हुआ कि उतना भी कैश नहीं
था कि हर किसी का हवाई टिकट खरीदा जा सके। फिर निर्मल साहब ने एक और रास्ता
सुझाया। उनका कहना था, “ऐसा करेंगे कि दिल्ली स्टेशन पर उतर के मैं और अनिल
अपनी कम्पनी के रीजनल ऑफिस में जाएँगे और उनसे बात करेंगे कि हवाई जहाज के टिकट की
व्यवस्था करा दें। मेरी हेड ऑफिस में अच्छी पकड़ है। एक फोन करूँगा तो मंजूरी मिल
जाएगी।“
यह सब सुनने के बाद सुमित
ने पान मसाले की पुड़िया फाड़ी, पान मसाला अपनी हथेली पर डाला, उसमें
बड़े जतन से तम्बाकू मिलाया और फिर उस मिश्रण को अपने मुँह में डाल लिया। फिर कोई
दो तीन मिनट तक जुगाली करने के बाद जब निकोटिन उसके दिमाग की नसों में गया तो उसने
अपना गला साफ किया और बोला, “हम्म,
रीजनल ऑफिस जाएँगे तो कोई नहीं
मिलेगा। रीजनल मैनेजर तो अपनी सेक्रेटरी के साथ कब के हैदराबाद की फ्लाइट में सवार
हो चुके होंगे।“
यह सुनकर सब एक साथ हँसने
लगे और बेचारे निर्मल साहब चुपचाप उन्हें हँसते हुए देखने लगे।
कोई बारह साढ़े बारह बजे
उनकी ट्रेन नई दिल्ली पहुँची। उसके बाद दो लोगों को सामान की रखवाली पर लगाकर बाकी
लोग उस ओर दौड़ पड़े जिधर रिजर्वेशन काउंटर थे। उनमें से तीन लोगों में से एक एक
आदमी अलग अलग काउंटर के सामने लाइन में खड़ा हो गया। यह तय हुआ कि जिसका नम्बर पहले
आता वह टिकट कैंसल कराने का काम करवा लेता। एक काउंटर पर अनिल, एक
पर खोकुन और एक पर संजीव को लाईन मे खड़ा कर दिया गया। पुतुल, विजय
और सुमित वहाँ से थोड़ी दूर खड़े होकर निर्मल साहब से गप्पें लड़ा रहे थे। कोई आधे
घंटे के बाद सुनील काउंटर की खिड़की तक पहुँच चुका था। खिड़की पर पहुँचने के कुछ ही
सेकंड बाद वह चिल्ला चिल्ला कर सबको बुलाने लगा। पास पहुँचने पर बताया कि किसी ने
उनके साथ ठगी कर ली थी। काउंटर क्लर्क ने कम्प्यूटर में देखकर बताया था कि उनका
टिकट पहले ही कैंसल हो चुका था। अब सबके चेहरे ऐसे उतर चुके थे जैसे उनके घुटनों
से जा लगेंगे। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कैसे हो सकता था। उस जमाने
में ऑनलाइन रिजर्वेशन या ऑनलाइन कैंसिलेशन जैसी चिड़िया के बारे में किसी ने सुन भी
नहीं रखा था।
अनिल अपने बालों को नोच
रहा था। थोड़ी देर में उसने अपनी कमीज उतार दी क्योंकि कड़ाके की सर्दी में भी उसे
गर्मी का अहसास हो रहा था। उसकी सफेद बनियान से बाहर निकलती हुई उसकी पतली पतली
बाँहों पर मांस नाममात्र को ही था इसलिए वैसे में वह किसी बिजूके की तरह दिख रहा
था जिसे खेतों में चिड़ियों को डराने के लिए रखते हैं। अनिल अब गुस्से में जोर जोर
से बोल रहा था, “अरे,
मैं दिल्ली वालों को अच्छी तरह
जानता हूँ। कॉलेज की पढ़ाई मैंने यहीं से की है। पूरे मुल्क से एक से एक
प्रतिभाशाली लोग यहीं पहुँचते हैं और अगर उनमें अच्छे लोग होते हैं तो कुछ महाठग
भी होते हैं। मुझे पक्का यकीन है कि अंदर के लोगों ने ही हमारे पैसे गोल कर लिए
हैं। लगता है अब घी निकालने के लिए अंगुली टेढ़ी करनी पड़ेगी।“
इतना कहकर अनिल चिल्लाया
और उस हॉल के एक कोने में बने एक दरवाजे को धकियाते हुए भीतर घुस गया। उसके
पीछे-पीछे उसके साथी भी अंदर घुस चुके थे। अनिल भीतर बैठे कर्मचारियों को एक से एक
चुनिंदा गालियाँ दे रहा था। वह ऐसे नाटक कर रहा था जैसे सबकी धुनाई करके ही
मानेगा। पीछे से विजय, सुमित और पुतुल ने उसे पकड़ रखा था जैसे उसे मारपीट
करने से रोक रहे हों। भले ही वह पतला दुबला था लेकिन अनिल की छ: फीट से भी कुछ
ज्यादा लंबाई को देखकर रिजर्वेशन वाले कर्मचारी घबराये हुए लग रहे थे। पहले तो वे
कर्मचारी मानने को तैयार नहीं हो रहे थे लेकिन एक साथ इतने लोगों का रौद्ररूप
देखकर उनके कदम पीछे हटने लगे। मौके की नजाकत देखकर निर्मल साहब आगे बढ़े और उनसे
मोलभाव करने लगे। इस मामले में उनका कोई सानी नहीं था। यह बात उस समय भी सिद्ध हो
गई जब उन्होंने प्रति टिकट पचास रुपए के भाव से उन्हें रिश्वत खिलाने की बात पर
अपना काम करवा लिया और फिर अपने पैसे वापस ले लिए।
उसके बाद वे लोग हैदराबाद
जाने वाली एक ट्रेन के लिए टिकट बुक कराने की प्रक्रिया में लग गए। बड़ी मुश्किल से
उस ट्रेन में फर्स्ट क्लास में चार टिकट मिले। जाना जरूरी था इसलिए तय हुआ कि बाकी
के पाँच लोग बिना टिकट यात्रा करेंगे। फर्स्ट क्लास के कोच के बर्थ बहुत चौड़े होते
हैं इसलिए यह सोचा गया कि एक कूपे में सबलोग एक साथ काम चला लेंगे। जब काउंटर से
वापस लौटने के बाद वे लोग बाकी के दो लोगों के पास पहुँचे तो सामान की रखवाली करने
वाले जैकब और जहीर ने पूछा, “अगर बिना टिकट गए तो बहुत परेशानी होगी। यह तो गैर
कानूनी है।“
यह सुनकर निर्मल साहब ने
कहा, “आना फ्री, जाना फ्री,
और पकड़े गए तो खाना फ्री।‘
यह सुनकर सबलोग एक साथ
हँसने लगे।
उनकी हैदराबाद जाने वाली
ट्रेन रात के नौ बजे हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से छूटती थी। नई दिल्ली से किसी
ईएमयू ट्रेन में बैठकर सबलोग हजरत निजामुद्दीन पहुँचे और फिर वहाँ से हैदराबाद
जाने वाली गाड़ी में सवार हो गए।
उस टीम के ज्यादातर लोगों
को डर सता रहा था कि अगर रास्ते में टिकट चेकर सख्त हुआ तो पता नहीं क्या होगा।
अपने इलाके में बिना टिकट चलने के मौके कई बार आए थे। लेकिन उन रास्तों पर उनका
इतना आना जाना होता था कि ज्यादातर टिकट चेकर से जान पहचान हो चुकी थी। कई बार जब
फाइन भरने की नौबत आती थी तो तो भी ज्यादा दर्द नहीं होता था क्योंकि कम दूरी होने
के कारण फाइन की राशि कम ही होती थी। हर महकमे में अच्छी खासी जान पहचान होने से
यह भी भरोसा रहता था कि कहीं कोर्ट कचहरी का चक्कर लगाना पड़ जाए तो भी कोई परेशानी
आने वाली नहीं थी। लेकिन अब जब वे लखनऊ से बहुत आगे और बल्कि दिल्ली से भी काफी
आगे जा रहे थे तो उनके आत्माविश्वास में भारी कमी आ रही थी। जैसे जैसे उनकी
रेलगाड़ी विंध्याचल की पहाड़ियों से आगे बढ़ती जा रही थी उनका डर भी बढ़ता जा रहा था।
उधर उनके निर्मल साहब इत्मिनान से मदिरापान कर रहे थ और एक मोटे से उपन्यास में
ऐसे खोए हुए थे जैसे उन्हें इन बातों की तनिक परवाह नहीं थी।
ग्वालियर के आसपास एक टिकट
चेकर आया और उनका टिकट चेक करने की मंशा से उनकी बगल में आकर बैठ गया। निर्मल साहब
ने कनखियों से उस टिकट चेकर की छाती पर लगे बैज को पढ़ लिया और बोले, “अरे
माथुर साहब, बड़े दिनों के बाद दर्शन दिए। आप रेलवे कॉलोनी में
रहते हैं ना। मैने एक नजर में पहचान लिया था। अबे, विजय देख क्या रहे हो? माथुर
साहब के लिए पेग बनाओ।“
विजय ने फौरन अपने बॉस की
आज्ञा का पालन किया और माथुर साहब के सामने व्हिस्की का एक पेग पेश किया। माथुर
साहब थोड़ा सकुचाए लेकिन अपने आप को रोक नहीं सके और उसके हाथ से गिलास लिया, सबके
साथ चीयर्स किया और शुरु हो गए। माथुर साहब ने जल्दी जल्दी दो पेग गटके और यह कहते
हुए उनसे विदा लिया कि आगे भी टिकट चेक करने थे।
माथुर साहब के जाने के बाद
सबलोग एक दूसरे को देखकर मुसकरा रहे थे। उधर माथुर साहब याद करने की कोशिश कर रहे
थे कि उस टीम के कप्तान यानि निर्मल साहब से उसके पहले कब मिले थे। लेकिन उन्हें
कुछ भी याद नहीं आ रहा था। अब माथुर साहब को कौन समझाता कि उनके बैज से उनके नाम
का पता तो कोई भी कर सकता था। रेलवे में अगर कोई टिकट चेकर की नौकरी करता हो तो इस
बात की प्रबल संभावना होती है कि वह रेलवे कॉलोनी में ही रहता होगा। कहाँ की रेलवे
कॉलोनी, यह तो निर्मल साहब ने नहीं बताया था।
इसी तरह उस दो हजार
किलोमीटर की यात्रा के दौरान माथुर साहब के बाद कोई जोगलेकर साहब आए और फिर कोई
रेड्डी साहब आए। हर टिकट चेकर की वैसी ही खातिरदारी की गई जैसी माथुर साहब की हुई
थी। ऐसे ही खाते पीते, उपन्यास पढ़ते,
गप्पें मारते और ताश शतरंज खेलते
हुए वे आठ एमआर और उनके बॉस हैदराबाद पहुँच गए।
हैदराबाद स्टेशन पहुँचने
के बाद सबको इस बात की चिंता हो रही थी कि स्टेशन से बाहर कैसे निकलेंगे। चार
लोगों को कोई डर नहीं था, लेकिन बाकी के पाँच लोगों को डर हो रहा था कि अगर
स्टेशन के बाहर निकलने वाले गेट पर खड़े टिकट चेकर ने पकड़ लिया तो फिर सारी मेहनत
पर पानी फिर जाएगा।
कहते हैं भगवान भी उसी की
मदद करता है जो खुद हिम्मत करता है। हैदराबाद स्टेशन पर भगवान ने अपने दूत को उनकी
कम्पनी के कर्मचारियों के रूप में भेज दिया था। जब भी सेल्स वालों की कोई बहुत बड़ी
कॉन्फ्रेंस होती है तो उसके लिए ताम झाम की पूरी व्यवस्था होती है। उनका स्वागत
ऐसे होता है जैसे लड़की वाले बारातियों का स्वागत करते हैं। हैदराबाद स्टेशन पर
बाहर से आने वाले एमआर की आगवानी करने के लिए स्थानीय स्टाफों की पूरी पलटन को
ड्यूटी पर लगा दिया गया था। एक आदमी सबसे आगे चल रहा था। उसने सूट बूट पहन रखे थे
और उसके हाथ में एक बड़ा सा डंडा था जिसके ऊपर फहराते झंडे पर बड़े बड़े अक्षरों में
लिखा था, “वेलकम टू दिल की बूटी।”
उसके पीछे पीछे निर्मल साहब
एंड कम्पनी चल रही थी। सबके कपड़े लत्ते और महंगे महंगे सूटकेसों को देखकर कोई शक
भी नहीं कर सकता था कि ऐसे लोग बिना टिकट यात्रा करने के बारे में कभी सोच भी सकते
थे।
कोई भी टिकट चेकर इतने
बाजे गाजे के साथ पूरी पलटन को आते हुए देखेगा तो भला उनके टिकट चेक करने का खयाल
उसके मन में कैसे उठेगा।
इस तरह फैजाबाद के एरिया
मैनेजर की वह टीम सकुशल उस होटल में पहुँच गई जहाँ उनके ठहरने का इंतजाम था।