मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव को भारत
के हिंदी बेल्ट में लोग एमआर के नाम से जानते हैं। ज्यादातर लोगों को लगता है कि ये
प्राइवेट नौकरी करने वाले लोग होते हैं जिन्हें काम भर का पैसा मिल जाता है अपना गुजारा
करने के लिए। इसलिए कई नातेदार रिश्तेदार तो ये भी पूछ बैठते हैं, “अरे बंटी अभी तक एमआर ही हो? कोई नौकरी क्यों नहीं कर लेते? भागलपुर
वाले फूफा जी से बात करो। उनकी बड़ी पहुँच है। वे तुम्हें कम से कम शिक्षा मित्र की
नौकरी तो लगवा ही देंगे।“
एमआर के बारे में लोगों की धारणा सच्चाई से बहुत दूर भी नहीं
होती है क्योंकि अधिकांश कंपनियों में सैलरी और एक्सपेंस मिलाकर इतना ही मिल पाता है
कि बेचारा एमआर किसी तरह से जिंदगी काट सके। बहरहाल, कुछ बड़ी कंपनियों में बहुत
ही अच्छा पे पैकेज होता है जिसके बारे में बहुत ही कम लोगों को पता होता है। इसी धारणा
से संबंधित एक मजेदार वाकया याद आता है जिसका बयान आगे है।
हमलोग फैजाबाद में किसी स्त्री रोग विशेषज्ञ की कॉल करने के
लिए उसके क्लिनिक में इंतजार कर रहे थे। मेरे साथ कैडिला, ग्लैक्सो,
कोपरान, इंडोको, रैनबैक्सी,
आदि कंपनियों के एमआर भी बैठे थे। अभी हमारी बारी आने में देर थी इसलिए
हम गप्पें लड़ाकर टाइम पास कर रहे थे। जाड़े का मौसम था इसलिए लगभग सभी एमआरों ने कोट
और टाई पहन रखे थे और कुछ ज्यादा ही बने ठने दिख रहे थे। हमारी बगल में एक चालीस की
उम्र के सज्जन बैठे हुए थे। वे एक पतलून और चेकवाली शर्ट पहने हुए थे। उसके ऊपर बाजार
में बिकने वाले सस्ते ऊन का हाथ से बुना स्वेटर पहन रखा था। साथ में गले में मफलर भी
था जो कुछ कुछ अरविंद केजरीवाल की स्टाइल में कानों को ढ़के हुए था। उन सज्जन की दो
तीन दिन की दाढ़ी भी बढ़ी हुई थी। कुल मिलाकर वे किसी सरकारी दफ्तर के बाबू लग रहे थे।
पता चला कि उनकी पत्नी अंदर डॉक्टर से जाँच करवाने गईं थीं।
वे सज्जन भी हमारी गप्प में रुचि ले रहे थे और बीच बीच में एक
दो एक्सपर्ट कमेंट कर दिया करते थे। फिर थोड़ी देर बाद जब वे अपनी जिज्ञासा पर काबू
नहीं कर पाए तो उन्होंने हमसे पूछा, “आप लोग तो प्राइवेट नौकरी करते हैं। यदि बुरा
ना मानें तो एक सवाल पूछूँ?”
हममें से कैडिला वाले ने कहा, “हाँ हाँ पूछिए।“
उन सज्जन ने पूछा, “आपको इस काम के लिए सैलरी मिलती है या कमीशन?”
इस पर इंडोको वाले ने जवाब दिया, “सर,
हमलोगों को सैलरी मिलती है और टार्गेट से ज्यादा सेल करने पर इंसेंटिव
भी मिलता है।“
कोपरान वाले ने बीच में अपनी बात रखी, “वैसे
आप इंसेंटिव को एक तरह का कमीशन समझ सकते हैं।“
उसके बाद उन सज्जन ने अपना अगला सवाल पूछा, “अच्छा
ये बताइए कि काम भर का पैसा तो मिल ही जाता होगा जिससे गुजारा हो सके।“
उनकी बात पर कैडिला वाले ने जवाब दिया, “हाँ हमलोगों
को इतना तो मिल ही जाता है जिसमे गुजारा हो सके। अब क्या करें, सरकारी नौकरी तो आसानी से मिलती नहीं। सोचा समय रहते नौकरी शुरु कर देंगे तो
कम से कम कुछ कमाएँगे तो सही।“
उन सज्जन ने कहा, “हाँ ठीक ही कहा आपने। अरे आप मेहनत ही तो कर
रहे हैं। कोई चोरी तो नहीं कर रहे हैं। भगवान पर भरोसा रखिए। एक दिन आपलोगों की भी
माली हालत ठीक हो जाएगी।“
उसकी ये बात सुनकर शायद कोपरान वाले को गुस्सा आ गया, “हमारी
माली हालत ठीक ही है। उसकी चिंता आप न करें।“
फिर उसने फाइजर वाले की तरफ यानि मेरी तरफ इशारा करके कहा, “इन्हें
देख रहे हैं कितने इतमीनान से बैठे हैं। ये बहुत बड़ी कंपनी में काम करते हैं। पता है
इनको कितना मिल जाता है? अरे एक महीने में इन्हें कम से कम 80
से 90 हजार रुपए तो मिल ही जाते होंगे।“
उसका ऐसा कहना था कि वे सज्जन कुछ देर के लिए चुप हो गए। फिर
वे वहाँ से उठकर बाहर चले गए। हमलोगों ने गौर किया कि बाहर जाकर वे ठहाके लगा कर हँस
रहे थे। शायद उन्हें लग रहा था कि कोपरान वाले ने लंबी फेंक दी।