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Tuesday, November 9, 2021

ठकठक गैंग की चपत

 लुत्ती झा भोर से ही गरमाए हुए थे। अभी उनका गुस्सा घर की महरी पर इसलिए उतर रहा था कि वह समय से पहले आ गई थी। महरी जितने आराम से उनकी बातें सुन रही थी उससे साफ पता चलता था कि या तो उसने अपने कानों में रुई ठूंस रखी है या फिर उसे लुत्ती झा के गुस्से से जरा भी डर नहीं लगता है। वैसे उनके गुस्से से अब घर में किसी को डर नहीं लगता है, क्योंकि हर किसी को पता है कि वह कभी भी बिलावजह रौद्र रूप धारण कर सकते हैं। जब बाद में कोई इस बात का ध्यान दिलाता है तो लुत्ती झा ब्लड प्रेशर का मरीज होने के नाते सहानुभूति वोट लेकर जीतने की पूरी कोशिश करते हैं।

अभी पिछले दो तीन दिनों से उन्हें अपना गुस्सा और अपना महत्व दिखाने का पूरा मौका मिल रहा था जो कि किसी भी रिटायर्ड आदमी के लिए यदा कदा ही आता है। दिवाली बीत चुकी थी और अब भाई दूज की समाप्ति के बाद छठ पूजा की तैयारी का समय था। दिवाली में सारा फूटेज घर के बच्चे खा जाते हैं और भाई दूज के अधिकतर रस्मो-रिवाज में महिलाओं का ही काम होता है। छठ का व्रत अक्सर बुजुर्ग महिलाएँ करती हैं और बुजुर्ग पुरुषों से अपेक्षा की जाती है कि तैयारी में अपने अनुभव का पूरा पूरा इस्तेमाल करें।

लुत्ती झा की धर्मपत्नी पार्वती झा पिछले पचासेक वर्षों से छठ पूजा कर रही हैं। अब जब कि उनके पोते पोती और नाती नातिन माइनर से मेजर हो चुके हैं, बहू-बेटियाँ अधेड़ावस्था में प्रवेश कर चुकी हैं और खुद पार्वती झा की हड्डियों के एक एक जोड़ जवाब दे रहे हैं वे अभी भी वह सारी पीड़ा उठाने को तैयार रहती हैं जो किसी भी कठिन साधना के लिए जरूरी होती है। आज टेलिविजन, इंटरनेट और नेताओं की वोट बैंक पॉलिटिक्स के कारण भारत के हर हिस्से के लोग छठ पूजा के बारे में थोड़ा बहुत जानने लगे हैं। लेकिन बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों को छोड़कर बहुत कम ही लोगों को इस पूजा से जुड़ी कठिनाईयों के बारे में मालूम होगा। कुछ लोगों को अखबारों की हेडलाइन पढ़कर यह पता चल जाता होगा कि खरना के बाद लगभग छत्तीस घंटे का निर्जला व्रत करना पड़ता है। लेकिन सबका ज्ञान बढ़ाने के लिए यह बताना जरूरी है कि छठ का प्रसाद अधिकतर वही महिला बनाती है जो व्रत करती है। यानि नहाय खाय से लेकर सांझ के अर्घ्य वाले दिन तक कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती है। उसके साथ बुढ़ापे से जुड़ी मुसीबतें काम को और भी मुश्किल कर देती हैं।

बहरहाल, पार्वती झा तो व्रत से जुड़े वैसे कामों में व्यस्त थीं जो कि घर में करने होते हैं। लुत्ती झा सुबह से कम से कम पाँच बार हाउसिंग सोसाइटी के बाहर स्थित शॉपिंग आर्केड में जा चुके थे। उनकी आदत ये नहीं है कि एक बार लिस्ट बना ली और एक ही बार सबकुछ ले आए। कहते हैं कि इसी बहाने थोड़ा चलना फिरना हो जाता है जो कि पच्चीसवीं मंजिल की फ्लैट में आसमान में टंगे टंगे संभव नहीं हो पाता है। लगभग सभी सामान आ चुके थे, लेकिन कुछ ऐसी चीजों की खरीददारी बाकी थी जिसके लिए बाजार जाना जरूरी था। बिहार में तो छठ पूजा के लिए कुछ खास चीजें हर गली नुक्कड़ पर मिल जाती हैं, लेकिन दिल्ली एनसीआर के क्षेत्र में उसके लिए कम से कम बीस किलोमीटर दूर जाना पड़ता है जो लुत्ती झा के अकेले के वश का नहीं है।

लुत्ती झा को पता था कि यह तभी संभव हो पाएगा जब उनका बेटा और दामाद शाम में अपने अपने काम से फारिग होकर लौटेंगे। दोनों ने आधे दिन की छुट्टी ले ली थी इसलिए तीन बजते बजते दोनों घर पहुँच चुके थे। पहले तय प्लान के हिसाब से उन्हें चार बजे बाजार के लिए निकलना था। लेकिन लुत्ती झा को श्रृंगार करने में वक्त लगता है। लगभग पाँच बजे जब लुत्ती झा बाजार के लिए कूच करने लगे तो पूरे सजे धजे लग रहे थे। बालों में सुगंधित नवरत्न तेल की महक एक किलोमीटर दूर दूर तक फैल रही थी। आज तो बालों के साथ साथ मूँछें भी अमावस की रात की तरह काली लग रही थीं। लेवाइस की जींस के ऊपर मलमल के झीने बुशशर्ट के अंदर से यह साफ दिख रहा था कि वीआईपी की बनियान भी नई थी। जब सोसाइटी की गेट के बाहर पहुँचे तो पता चला कि अभी तक उनका बेटा कार लेकर बेसमेंट पार्किंग से बाहर नहीं निकला था। समय का सदुपयोग करने के खयाल से इस बीच लुत्ती झा और उनके दामाद ने पान की दुकान की बिक्री बढ़ाने का मन बना लिया। जबतक कार बाहर आई तबक दोनों ससुर दामाद पान की लाली से अपने अधरों को रंगे हुए क्लब के पास पहुँचे। जैसे ही कार रुकी दामाद ने लुत्ती झा को थोड़ा निराश इसलिए कर दिया कि वह लपक कर आगे वाली सीट पर बैठ गया। बेचारे लुत्ती झा अपना मन मारकर दो बड़े बड़े झोले अपनी बगल में दबाए हुए कार की पिछली सीट पर दाखिल हो गए।

सोसाइटी से बाहर निकलकर कार हाइवे पर पहुँची और फिर यू-टर्न लेकर उस कट की ओर जाने लगी जहाँ से दाहिने मुड़ने पर शहर की ओर रास्ता जाता है। लुत्ती झा का बेटा ड्राइविंग सीट पर था, बगल वाली सीट पर दामाद और पीछे लुत्ती झा। तीनों म्यूजिक सिस्टम पर बज रहे छठ के पारंपरिक गीतों का आनंद ले रहे थे। बीच बीच में बेटा बता भी रहा था कि पुराने बस अड्डे के पास वाली सब्जी मंडी में छठ की पूजा के लिए सभी चीजें मिल जाएंगी, जैसे कि कच्ची हल्दी, नारियल, माला, पीला सिंदूर, गन्ना, आदि। लुत्ती झा अपने हाथ में लिए लिस्ट की जाँच पड़ताल कर रहे थे कि कहीं कुछ छूटा तो नहीं।

अभी वे लोग दाहिने वाले कट से कुछ पहले ही थे कि एक बाइक ने उनकी कार को बाएँ से ओवरटेक किया। उस बाइक पर बैठे दो युवक उनकी ओर हाथ से इशारे कर रहे थे जैसे कुछ बताना चाह रहे हों। उनके इशारे से लगा कि कार में कुछ गड़बड़ थी। लुत्ती झा के बेटे ने गाड़ी को किनारे कर के रोक दिया। वह गाड़ी से नीचे उतरा और बाकी लोग भीतर ही बैठे रहे। जब उसे आगे झुककर गंभीर मुद्रा में कार का मुआयना करते हुए देखा तो दामाद को लगा कि कोई गंभीर समस्या है इसलिए वह भी नीचे उतर गया और इंसपेक्शन की उस प्रक्रिया में शामिल हो गया।

कार के सामने वाली ग्रिल से कोई गाढ़ा काला चिपचिपा तरल टपक रहा था। तब तक आसपास दो तीन लोग जमा  हो चुके थे।

“अरे भाई साहब, गाड़ी तो बिलकुल नई लग रही है।“

“हाँ भई, अभी दो महीने पहले ही खरीदी है।“

“लगता है लंबा खर्चा गिरेगा, गाड़ी महंगी वाली लग रही है।“

नहीं, अभी वारंटी में है।“

“भाई साहब, बोनट खोलकर देखो।“

जैसे ही लुत्ती झा के बेटे ने बोनट खोलने के लिए कार का गेट खोला वह जोर जोर से खांसने लगा और उसकी आँखों और नाक से पानी गिरने लगा। पूछने पर पता चला कि कार के भीतर अजीब सी गंध आ रही थी। फिर से चेक करने के खयाल से बाईं तरफ से दामाद ने भी गेट खोला और अपना मास्क उतारकर गहरी सांस ली। वह भी जोर जोर से खांसने लगा और उसकी आँखों और नाक से भी पानी गिरने लगा। दोनों ने लुत्ती झा को इशारा किया तो वे भी गाड़ी से बाहर आ गये।

गाड़ी के आसपास जो छोटी मोटी भीड़ जमा हो चुकी थी उसमें से किसी ने कहा कि बगल में ही कोई मैकेनिक है उसको दिखा लें। दामाद ने कहा कि शीशे उतारकर गाड़ी वापस ले ले ताकि वह अपनी कार लेकर बाजार जाएगा। लेकिन तीनों को डर लग रहा था कि किसी जहरीली गैस के कारण रास्ते में ही बेहोश हो गए तो क्या होगा। आखिरकार तय यह हुआ कि पास के मैकेनिक से गाड़ी को दिखवा लेने में ही भलाई है।

मैकेनिक फौरन हाजिर हो गया। उसने बोनट के नीचे झाँका और गंभीर मुद्रा में ऐसे मुआयना करने लगा जैसे कोई अनुभवी डॉक्टर अपने मरीज की नब्ज टटोल रहा हो। फिर उसने गाड़ी के अंदर से एक लंबा तार जैसा कुछ निकाला, उसके सिरे पर लगे चिपचिपे द्रव को छुआ और उसे सूंघने लगा। उसके बाद उसने बोनट के आगे की ग्रिल पर लगे द्रव को सूंघा और एक विजयी मुद्रा में बताया, “सर, दोनों तेलों की गंध अलग-अलग है। मतलब आपकी गाड़ी में कोई लीकेज नहीं है। हो सकता है किसी ने बाहर से डाल दिया हो। अब तो केबिन में बदबू भी नहीं आ रही है। गाड़ी बिलकुल टंच है। आप आराम से जाइए।“

लुत्ती झा ने अपनी जेब से सौ का एक नोट निकालकर उस मैकेनिक की ओर बढ़ाया तो मैकेनिक ने हाथ जोड़कर उसे लेने से मना कर दिया और बोला कि उतने छोटे मोटे काम के पैसे लेना उसकी शान के खिलाफ होगा। उसके बाद उसे थैंक यू बोलकर तीनों गाड़ी में बैठे ओर आगे बढ़ लिए। अभी वे थोड़ी दूर ही चले होंगे कि लुत्ती झा से पता चला कि खरीददारी के लिए जो झोले लिए थे वे गायब थे। उसके बाद गाड़ी फिर से रुक गई। झटपट मुआयना करने पर पता चला कि लुत्ती झा का मोबाइल फोन गायब था, उनके बेटे के दो में से एक फोन गायब था। दामाद ने अपनी जेब टटोली तो राहत की सांस ली क्योंकि उसका पर्स और मोबाइल दोनों अपनी जगह पर सही सलामत थे। बेटे क बटुआ भी सही सलामत था और लुत्ती झा तो पैसों के लिए आश्वस्त थे क्योंकि वह ऐसे मौकों पर रुपए पैसे अपनी अंडरवियर में बने चोर पॉकेट में रखते थे। एक बर टटोलकर देख भी लिया और निश्चिंत हो गए क्योंकि नोटों का बंडल अभी भी अपनी जगह पर ही था।

उसके बाद दोनों के चेहरे लटक चुके थे। दोनों को अहसास हो चुका था कि आज वे ठकठक गैंग का शिकार बन चुके थे। लुत्ती झा को जितने याद थे उतने श्राप उन्होंने उस ठकठक गैंग वाले को दे दिए। उसके बाद गाड़ी में पूरी खामोशी थी और गाड़ी अपनी पूरी रफ्तार से बाजार की तरफ बढ़ रही थी। बीच बीच में लुत्ती झा की हिचकी साफ सुनाई दे जाती थी। शायद वह जर्दे के ओवरडोज से हो रहा था या फिर उस दुर्घटना का पोस्टमार्टम करने की वजह से हो रहा था।

Saturday, July 18, 2020

Lockdown Stories

Dear Readers,
You have always appreciated the stories which I have been posting on my blog from time to time. A collection of short stories is now available on Amazon Kindle. You can have a look at this book:

Saturday, June 20, 2020

कहानियाँ लॉकडाउन की


आपने मेरी लिखी कहानियों को बहुत पसंद किया है और उन्हें सराहा भी है। लॉकडाउन एक ऐसी बला है जिससे आरा पूरी दुनिया परेशान है। हर किसी की तरह मैने भी ऐसी कई परेशानियाँ झेली हैं। अपने और दूसरों के अनुभव से प्रेरणा लेते हुए मैंने कई नई कहानियाँ लिखी हैं। इन कहानियों का संकलन अब अमेजॉन पर किंडल फॉर्मैट में उपलब्ध है।

आप इस नई किताब की एक झलक पाने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक कर सकते हैं।

कहानियाँ लॉकडाउन की

Wednesday, December 26, 2018

ऑर्गेनिक खेती


किसी गाँव में बुझावन नाम का एक किसान रहता था। उसके पास थोड़ी सी जमीन थी जिससे अच्छी बारिश होने पर इतनी उपज तो हो जाती थी जिससे उसके छोटे से परिवार का गुजारा हो सके। कभी कभार फसल का कुछ हिस्सा बेचने का भी मौका उसे मिल जाता था, लेकिन ऐसा चार पाँच साल में कभी कभार ही हो पाता था। इस साल आषाढ़ का महीना बीतने वाला था लेकिन मानसून की आहट लाने वाले बादलों का कोई अता पता नहीं था। खेतों में मिट्टी की ऊपरी परत इतनी सूख चुकी थी कि उनमें बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गई थीं और लगता था कि आप धरती नहीं बल्कि मंगल ग्रह की सतह पर चल रहे हों। उसपर से धूल भरी आँधी चलने से तो माहौल बिलकुल ही मंगलमय हो जाता था। फर्क सिर्फ इतना था कि यह मंगलमयमाहौल किसी मंगलकारी बात को नहीं बल्कि मंगल ग्रह की भयावह निर्जनता को दिखाता था।

बुझावन के माथे पर जो बल पड़ रहे थे उन्हें वह अपनी हथेलियों से दबाकर और भी उजागर कर रहा था। ऐसा वह किसी को दिखाने के लिए नहीं बल्कि अपनी चिंता कम करने के लिये कर रहा था। इस बार बारिश बहुत कम हुई थी और सूखा पड़ जाने के कारण उपज न के बराबर हुई थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अब इस अधेड़ उम्र में कौन सा नया रोजगार शुरु करे। अब खेतीबाड़ी के सिवा उसे कुछ आता भी तो नहीं था। आजकल के लड़कों की तरह वह दिल्ली या पंजाब भी नहीं जा सकता था ताकि बेहतर कमा खा सके। गाँव में रहकर वह अपनी जोरू का और उसकी जोरू उसका बेहतर खयाल रख सकते थे। साथ में उसे अपनी पाँच बकरियों का भी खयाल रखना होता था। उसके दो बेटे अपनी बीबियों के साथ पाँच साल पहले दिल्ली गये थे कमाने। वहाँ उनका मन इतना रम गया था कि गाँव की सुध लेने की उन्हें फुर्सत ही नहीं मिलती थी। हाँ कभी कभार फोन से अपने माँ-बाप का हाल चाल जरूर ले लिया करते थे। जब कभी बुझावन कुछ रुपए पैसे भेजने की बात करत तो पता चलता था कि मोबाइल के नेटवर्क में कुछ गड़बड़ी आ जा ती और फिर उनकि बात पूरी नहीं हो पाती थी। पिछले साल बारिश अच्छी हुई थी तो फसल उम्मीद से अच्छी हो जाने के कारण बाजार में भाव गिर गये थे जिससे उसे भारी नुकसान हुआ था। इस साल तो लगता था कि उसके खेतों की उपज से उसके परिवार का गुजारा होना भी मुश्किल था। उसके ऊपर महाजन के तकादे का बोझ उसकी हालत को और भी बदतर करने के लिए काफी था। बुझावन अभी गहरी सोच में अपने खेतों को एक हताशा भरी नजर से और भी गौर से निहारना ही चाहता था कि उसके कानों में रामखेलावन की आवाज गूँजी।

“अरे भाई, ऐसे सोच सोच कर अपनी जान देने से क्या मिलेगा? सुना है कि आज पंचायत में ब्लॉक ऑफिस से कौनो साहेब आने वाले हैं। बता रहे थे कि खेतीबारी के नये तरीके बतायेंगे। हो सकता है वही कौनो नया रस्ता दिखा दें।“

शाम में तय समय के हिसाब से गाँव के सभी वयस्क पुरुष पंचायत भवन के नीचे खड़े इंतजार कर रहे थे। सूरज ढ़लने ही वाला था और ज्यादातर लोगों ने यह मान लिया था कि ब्लॉक ऑफिस के साहब अब नहीं आयेगे। अधिकतर लोगों द्वारा इस बात की पुष्टिकरण हो रही थी कि सरकारी अफसर ऐसे ही होते हैं जो कभी भी समय पर नहीं आते हैं। कुछ लोग हताश होकर अब दूसरे मुद्दों पर चर्चा करने लगे थे। कुछ लोगों ने तो अपने घरों की तरफ वापस जाना भी शुरु कर दिया था। बचे हुए कुछ लोगों ने ताश के पत्ते फेंटना भी शुरु कर दिया था। तभी सड़क पर दूर से एक लालबती वाली गाड़ी आती दिखाई दी। थोड़ी ही देर में उस गाड़ी से एक साहब उतरे। साहब की उम्र को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता था कि अभी हाल ही में कोई कम्पिटीशन पास करके नौकरी में आये थे। उनकी उमर पच्चीस छब्बीस से अधिक नहीं रही होगी। गाँव के मुखिया ने गेंदे की माला पहनाकर उनका स्वागत किया और उनके सामने समोसे की प्लेट पेश कर दी। लेकिन उस सरकारी अफसर ने उन सब बातों को अनदेखा करते हुए आनन फानन में अपना लैपटॉप निकाला और उसके स्क्रीन पर प्रेजेंटेशन दिखाने लगे। किसी को भी कुछ समझ में नहीं आ रहा था, लेकिन हरे भरे खेतों की सुंदर सुंदर तसवीरें देखने में सबको मजा आ रहा था। साथ में बैकग्राउंड म्यूजिक भी बज रहा था। काफी देर तक गौर करने के बाद बुझावन और रामखेलावन की समझ में मुद्दे की बात आ गई। वे सरकारी अफसर ऑर्गेनिक खेती की बात कर रहे थे। उनके हिसाब से ऑर्गेनिक खेतीकिसी वरदान की तरह साबित होने वाली थी, जिससे भरपूर उपज मिलती और पर्यावरण भी सुरक्षित रहता। रात के लगभग आठ बजते बजते वहाँ का मजमा खतम हो चुका था और लोग अपने अपने घरों को जा चुके थे।

रात का खाना खा चुकने के बाद बुझावन और रामखेलावन दलान पर लगी अपनी अपनी खटिया पर बैठ कर बीड़ी के सुट्टे लगा रहे थे। बुझावन ने पूछा, “ई बात समझ में नाहीं आवा कि ई ऑर्गेनिक खेती से आने वाली पीढ़ी को फायदा कैसे होगा। ईहाँ तो अपनी ही पीढ़ी की जान के लाले पड़े हुए हैं।“

रामखेलावन ने तारों भरी आकाश की ओर देखते हुए कहा, “अब ई सब तो हमरी समझ में नहीं आ रहा है। अरे हाँ, मेरा बेटा रामबहादुर अभी इंटर कर रहा है ऊ भी साइंस से। हो सकता है उहे कुछ बता पाये।“

रामखेलावन के हाँक लगाने पर उसका बेटा रामबहादुर दौड़कर वहाँ पहुँच गया। जब उससे ऑर्गेनिक खेती का मतलब पूछा गया तो उसने बताया, “अरे बाबा, ये तो बड़ा ही आसान है। जैसे ऑर्गेनिक केमिस्ट्री वैसे ही ऑर्गेनिक खेती। हमारे सिलेबस में ऑर्गेनिक केमिस्ट्री की पूरी की पूरी किताब है। बहुत मजा आता है पढ़ने में। आज जो कुछ भी आधुनिक सामान हम देख रहे हैं, सब ऑर्गेनिक केमिस्ट्री की देन है। और हाँ ऑर्गैनिक खेती जरूर अच्छी चीज होगी। अभी हाल ही में मैंने पुराने जमाने के हिंदी फिल्म स्टार धर्मेंद्र को टी वी पर देखा था ऑर्गेनिक खेती की बड़ाई करते हुए। और वो इंग्लैंड के राजकुमार हैं। पता नहीं इतने बूढ़े हो गये हैं फिर भी राजकुमार ही कैसे हैं। सुना है वे भी ऑर्गेनिक खेती करते हैं। जब इतने बड़े-बड़े लोग कर रहे हैं तो अच्छा ही होगा।“

रामखेलावन ने अपने बेटे को दो चार चुनिंदा गालियाँ देकर वहाँ से भगा दिया। फिर उसने बुझावन से कहा, “तुम ही ठीक किये कि अपने बेटों को पढ़ाया लिखाया नहीं। कम से कम दिल्ली में अपना परिवार तो पाल रहे हैं। ई निकम्मा भी मजूरी करने दिल्ली पंजाब ही जायेगा। कहता है कि इंग्लैंड के राजकुमार खेती कर रहे हैं तो अच्छा ही होगा। अब इंग्लैंड के राजकुमार के भला इतने बुरे दिन आ गये। सुना है अंग्रेजों ने हमपर दो सौ सालों तक राज किया था।“

बुझावन के विचार थोड़े अलग थे। उसने कहा, “हो सकता है तुम्हरे बेटे की किताब में ऑर्गेनिक खेती के बारे में कुछ न लिखा हो। लेकिन उसके पास बड़ा वाला फोन तो है, जिसपर ऊ दुनिया भर के वीडियो देखता रहता है। ऊ का कहते हैं, अरे ......बड़ा अच्छा नाम है, ………. अरे हाँ याद आया ........इंदरनेत्र। उसको बोलो कि इंदरनेत्र पर देखकर पता कर दे कि ऑर्गेनिक खेती कैसे करते हैं। फिर हम लोग सीख कर शुरु करेंगे।“

रामखेलावन को भी लगा कि अगर ब्लॉक के साहब बता गये हैं तो कुछ तो अच्छा ही होगा। थोड़ी इधर उधर की बातें करने के बाद दोनों को नींद आ गई। अगले दिन रामबहादुर ने इंटरनेट पर ऑर्गेनिक खेती के बारे में सर्च करना शुरु किया। उसके लिये यह बड़ा ही बोर करने वाला काम था। लेकिन अपने अगल बगल बुझावन और रामखेलावन को लाठी लिये बैठे देखकर उसके पास कोई चारा भी नहीं था। बीच बीच में वह कागज पर कुछ कुछ लिखता भी जा रहा था। काफी मशक्कत के बाद जब रामबहादुर का सर्च पूरा हुआ तो उसने दोनों लट्ठधारियों को ऑर्गेनिक खेती के बारे में समझाना शुरु किया। बुझावन और रामखेलावन पूरे ध्यान से उसे सुन रहे थे। रामबहादुर का लेक्चर लगभग एक घंटे चला होगा। वह मन ही मन अपनी पीठ ठोंक रहा था और किसी इनाम की लालसा भी पाल रहा था।

रामबहादुर के चुप होने के बाद बुझावन और रामखेलावन ने एक सुर में कहा, “धत्त, अरे इस तरह से तो हमरे दादा परदादा के जमाने में होता था। गोबर को सड़ाकर खाद बनाओ, और उसके अलावा कोई खाद न डालो। कोई कीटनाशक नहीं, कुछ भी नहीं। लेकिन उससे तो दस बीघे में जितनी उपज होती थी आज एक बीघे में उतनी हो जाती है। हमरे बाबा कहते थे कि हरित क्रांति आने के बाद से तो खेती का तरीका ही बदल गया। पहले तो बड़ा किसान भी इतना नहीं उपजा पाता था कि अपना परिवार पाल सके। अब तो हम जैसे किसान भी जिस साल अच्छी फसल हो जाये तो थोड़ा बाजार में भी बेच ही लेते हैं। अब ई ऑर्गेनिक खेतीनया फैशन है। बड़े लोगों के चोंचले हैं। अब उस धर्मेंद्र को क्या है। अकूत पैसा है। बुड्ढ़ा हो गया है। कुछ खास करने को है नहीं तो टाइम पास करने के लिए चला है ऑर्गेनिक खेती करने। वहीं स्टाइल देकर मेरे देश की धरती सोना उगलेगाने लगता होगा।“

एकाध दिन बीतने के बाद पंचायत में पता चला कि ब्लॉक ऑफिस में सरकार की तरफ से ऑर्गेनिक खेती के लिये मुफ्त ट्रेनिंग दी जायेगी। उसमें रजिस्ट्रेशन के लिये मुखिया के पास आधार कार्ड की फोटो कॉपी के साथ एक फोटो जमा करनी थी। उस गाँव के कुछ अन्य लोगों की तरह बुझावन और रामखेलावन ने भी उस ट्रेनिंग के लिये अपना रजिस्ट्रेशन करवा लिया। तय तारीख को दोनों तड़के ही अपने घर से ब्लॉक ऑफिस के लिये चल पड़े। घर से ही पोटली में ढ़ेर सारे पराठे और सूखी सब्जी भी बाँध लिये ताकि बाहर खरीद कर खाना न पड़े। उस गाँव से ब्लॉक कोई दस किलोमीटर होगा इसलिए साइकिल से पहुँचने में आधा घंटे से थोड़ा ही ज्यादा समय लगा होगा।

ब्लॉक आफिस के बाहर पूरी गहमा गहमी थी। बकायदा शामियाना लगा दिया गया था और दरियाँ बिछा दी गई थीं। सबसे आगे सफेद कपड़ों से ढ़की हुई कुर्सियाँ और मेजें लगी हुई थीं। बीच वाली मेज पर एक बड़ा सा गुलदस्ता भी रखा था जिसमें रंग-बिरंगे फूल रखे गये थे। माहौल देखकर लग रहा था कि कम से कम बीडीओ साहब उस कार्यक्रम का उद्घाटन करने जरूर आयेंगे। लेकिन थोड़ी देर में जिंदाबाद जिंदाबाद के नारे लगने शुरु हुए। लोगों ने आवाज की तरफ गरदन मोड़कर देखा तो पाया कि वहाँ का विधायक अपने गुर्गों के साथ विजयी मुस्कान के साथ बलेरो गाड़ी से उतर रहा था। डील डौल और शकल सूरत से वह बड़ा ही भयानक लगता था, लेकिन असलियत में वह उससे भी अधिक भयानक था। उस इलाके के लोग उसके नाम से थर थर काँपते थे। किसी की हिम्मत नहीं थी कि उसके खिलाफ चुनाव में खड़ा हो जाये। बहरहाल, विधायक जी ने अपने कर कमलों से फीता काटकर और फिर दो शब्दबोलने के नाम पर एक घंटे का भाषण देकर उस ट्रेनिंग की शुरुआत की। उसके बाद ट्रेनिंग का काम उसी अफसर ने किया जो पिछले दिनों बुझावन के गाँव गया था। यहाँ पर बड़ी सी स्क्रीन पर प्रेजेंटेशन देखने के चक्कर में गाँववालों का उत्साह भी देखते बनता था। लेकिन वह उत्साह अधिक नहीं टिक पाया। ट्रेनिंग एक सप्ताह तक चलने वाली थी, लेकिन तीसरे दिन कोई चार पाँच लोग ही वहाँ पहुँचे। इसलिए उस दिन ये बता दिया गया आगे ट्रेनिंग जारी नहीं रह पायेगी। लोगों को कुछ रंगबिरंगे बुकलेट दिये गये ताकि वे खुद से सीखने की कोशिश करें।

शाम होने से पहले ही बुझावन और रामखेलावन वापस अपने गाँव पहुँच चुके थे। अहाते में साइकिल लगाने के बाद वे अपनी-अपनी खटिया पर बैठ गये और बुझावन ने अपनी बीबी को चाय बनाने के लिये आवाज लगाने के बाद एक बीड़ी सुलगा ली। एक कश लेने के बाद उसने वह बीड़ी रामखेलावन की ओर बढ़ा दी ताकि वह अपनी बीड़ी भी सुलगा ले। उसके बाद एक गहरी कश लेने के बाद बुझावन ने कहा, “अरे भइया, कुछ नहीं बदलेगा। नलकूप लगेगा लेकिन उसमें पानी नहीं आयेगा। बिजली के खंभे लगेंगे लेकिन उनपर तार नहीं लगेंगे। अगर तार लग गये तो उसमें बिजली नहीं आयेगी। सरकार समर्थन मूल्य की घोषणा करेगी लेकिन उसपर बेचने के लिये हमारे जैसे लोगों का नम्बर कभी नहीं आयेगा। नई सरकार आते ही कर्जा माफी करेगी लेकिन उससे हमारा क्या होगा। हम जैसों को तो कोई भी बैंक कर्जा नहीं देता है। सब माया है। ऊँच नीच तो जीवन का नियम है। इस साल फसल नहीं होगी तो क्या होगा। अगले साल की उम्मीद तो रख ही सकते हैं।“