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Wednesday, September 20, 2017

अब जमाना बदल चुका है

मौसम बदलने लगा था। अब सूरज जल्दी से ढ़लने लगा था और ठंड भी पड़ने लगी थी। दिन भर बंठू धूप में खेलने का मजा लेता था लेकिन रात होते ही दुबक कर गुफा के किसी कोने में अपनी दादी से चिपका रहता था। इस बीच उसकी माँ मोरी खाना बनाती रहती थी। उसका पिता मतलू तब तक मशाल की रोशनी में गुफा की दीवार पर अपनी कला के नमूने उकेरता रहता था।

ऐसी ही एक रात को मतलू गुफा की दीवार पर मैमथ और बारहसिंघे की तसवीर में गेरू के रंग भर रहा था। तभी मोरी ने अलाव पर माँस के टुकड़े को पलटते हुए कहा, “बंठू अब इतना बड़ा हो गया है कि उसे भी आग जलाने का तरीका सिखाना पड़ेगा। यही सही समय है। तुम्हें क्या लगता है?”

मतलू ने गुफा की दीवार पर अपनी हथेलियों की छाप लेते लेते जवाब दिया, “सही कह रही हो। अभी से नहीं सिखाया तो देर हो जायेगी। ऐसे भी आग जलाना तो हर किसी को पता होना चाहिए। बिना आग के हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते।“

इस बीच बंठू के दादा भी उस महत्वपूर्ण बहस में कूद पड़े, “अरे आग जलाना कौन सी बड़ी बात है। कल ही मैं इसे आग जलाना सिखा दूँगा।“

मतलू ने अपने पिता को टोकते हुए कहा, “अरे नहीं बाबा। अब जमाना बदल गया है। अब सिखाने पढ़ाने का तरीका आपके जमाने का नहीं रहा। अब तो नये नये तरीकों का इस्तेमाल होने लगा है। पिछले वसंत में मैं जब दूर के कबीले से मिलने गया था तो मुझे उन नये तरीकों के बारे में पता चला जिससे बच्चे को अच्छे तरीके से सिखाया पढ़ाया जाता है। मैने तो बकायदा उस कबीले से उसकी ट्रेनिंग भी ली थी। आप मुझपर छोड़ दीजिए। वैसे भी आप बूढ़े हो चुके हैं।“

अगले दिन तड़के ही बंठू को नहला धुलाकर बाजरे की रोटी और बकरी के दूध का नाश्ता कराया गया। उसके बाद मतलू उसे लेकर गुफा के बाहर चला गया ताकि उसे आग जलाने की ट्रेनिंग दे सके। बंठू भी बहुत उत्साहित लग रहा था। उसे पता था कि एक बार वह आग जलाना सीख ले तो फिर बड़े से बड़े जानवर को मात दे सकता था।

उन्हें गुफा के बाहर जाता देख बंठू के दादा ने पूछा, “अरे बेटा मतलू, ये कौन सी ट्रेनिंग देने जा रहे हो। साथ में ना तो चकमक पत्थर है और ना ही बरमा और टेक। फिर आग जलाना कैसे सिखाओगे?”

मतलू ने बिना पीछे मुड़े जवाब दिया, “अरे बाबा, आप बस देखते जाओ।“

गुफा के बाहर पहुँचकर मतलू जमीन पर पालथी लगाकर बैठ गया। उसके सामने बंठू भी उसी मुद्रा में बैठ गया। मतलू ने सबसे पहले सरकंडे का लगभग आधे फुट का टुकड़ा लिया और उसके एक सिरे को चाकू से नुकीला कर दिया। उसके बाद मतलू ने जमीन पर उस सरकंडे की कलम से बरमा और टेक की आकृति बनाई। फिर मतलू शुरु हो गया, “देखो बेटा, सबसे पहले हम सीखेंगे कि आग क्या है और उससे क्या क्या फायदे हैं।“

बंठू उत्साहित होकर बोला, “बाबा, आग सुर्ख लाल फूल होता है जो पेड़ों पर नहीं लगता बल्कि इसे हम इंसान पैदा करते हैं। आग से बहुत फायदे ............”

मतलू ने उसे चुप होने का इशारा करते हुए कहा, “जब मैं पढ़ाने लगूं तो बीच में मत बोला करो। ध्यान से मेरी बात सुनों। तुम मुझसे ज्यादा नहीं जानते।

बंठू ने मुंह बना लिया। मतलू आगे बढ़ा, “हाँ, तो आग एक फूल होता है जो सुर्ख लाल रंग का होता है। लेकिन यह फूल पेड़ों पर नहीं लगता। इसे हम इंसान पैदा करते हैं। कभी कभी आसमान से भी आग पैदा होती है और धरती पर गिरती है। आग में बहुत शक्ति होती है। इस शक्ति को नियंत्रित करने की कला भगवान ने केवल इंसानों को दी है। आग से हम अपनी गुफा को सुरक्षित करते हैं। आग से हम भयानक जानवरों को दूर भगा देते हैं। आग पर हम खाना भी पकाते हैं। आग से ही हम जंगल साफ करते हैं ताकि खेती के लिए जमीन बना सकें।“

बंठू को उस लंबे प्रवचन से नींद आने लगी थी। ऐसा देखकर मतलू ने जोर से उसके कान खींच लिये ताकि नींद भाग जाये।

खैर, लगभग एक पहर बीतने के बाद आग के गुण और अवगुण वाला वह पाठ आखिरकार समाप्त हो गया। बंठू ने भी चैन की सांस ली। लेकिन अभी उसका दिन और भी लंबा होने वाला था। मतलू ने उसके बाद बरमा और टेक की संरचना का वर्णन करना शुरु किया, “देखो बेटा, ये बरमा है। यह मजबूत लेकिन लचीली लकड़ी का बना होता है और कुछ कुछ धनुष जैसा दिखता है। लेकिन आकार में यह धनुष से छोटा होता है। इसमें भी धनुष की तरह ही मजबूत डोर चढ़ी होती है लेकिन थोड़ी ढ़ीली होती है। यह लकड़ी का जो चौकोर टुकड़ा देख रहे हो, उसे टेक कहते हैं। इसके बीचोबीच एक छोटा सा गड्ढ़ा बना रहता है। बरमा की डोरी को बीच में लपेट कर उसमें से लकड़ी की एक पतली लेकिन मजबूत डंडी को फँसाते हैं। डंडी के निचले सिरे को टेक के गड्ढ़े में टिकाकर बरमा को दाएँ बाएँ करते हैं जिससे डंडी अपनी धुरी पर घूमने लगे। इन सब औजारों को बनाने के लिये अच्छी लकड़ी का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण होता है। बरमा को तेजी से अगल बगल चलाते हैं ताकि डंडी तेजी से घूमे। डंडी को जोर से पकड़ना होता है ताकि यह टेक के गड्ढ़े में बनी रहे। गड्ढ़े के आस पास सूखी घास फूस रखते हैं। जब डंडी तेजी से घूमती है तो उससे घर्षण पैदा होती है। घर्षण से गर्मी पैदा होती है। यह गर्मी जब अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है तो सूखी घास फूस में आग लग जाती है। उसके बात मुँह से फूँक फूँक कर उस आग को बढ़ाया जाता है। उसके बाद उस आग से लकड़ी में आग लगाई जाती है।“

उस पाठ के समाप्त होते होते दोपहर भी बीत गई। बंठू का भूख और नींद के मारे बुरा हाल था। मतलू ने कहा, “आज के लिए इतना काफी है। आज रात में इस पाठ को रटकर याद कर लेना। कल इस पर सवाल पूछूँगा। एक भी गलत जवाब दिया तो तुम्हारी खैर नहीं।“

जब बंठू अपने पिता के साथ खाना खाने गुफा के अंदर गया तो उसके दादा ने पूछा, “और बंठू, कितनी लकड़ियों में आग लगाई। कहीं अपनी लंगोट तो नहीं जला ली तुमने।“

मतलू ने बहुत रूखे स्वर में कहा, “अरे बाबा, आज तो केवल पहला दिन था। कम से कम एक सप्ताह तो इसकी थ्योरी की क्लास लूँगा। उसके बाद डमी पर प्रैक्टिकल होगा तब कहीं जाकर असली बरमा को हाथ लगाने का मौका मिलेगा इसे। आपको पता नहीं है, सुरक्षा कितनी जरूरी होती है।“

मतलू के पिता जोर से हँसे और बोले, “पता है, जब तुम बंठू की उमर के थे तभी मैंने एक ही दिन में तुम्हे आग जलाना सिखा दिया था। उम्मीद है तुम आज भी नहीं भूले होगे।“


मतलू ने कहा, “बाबा, आपका जमाना अलग था। अब जमाना बदल चुका है।“ 

Monday, August 28, 2017

फालतू का फोन

मोबाइल फोन आने से जिंदगी बिलकुल बदल गई है। अब आप जब चाहें, जिससे चाहें, जहाँ से चाहें; बातें कर सकते हैं। इससे लोगों के बीच के रिश्ते पहले से शायद ज्यादा मजबूत भी हुए हैं। लेकिन कुछ ऐसे रिश्ते भी जरूरत से ज्यादा मजबूत होने लगे हैं, जिसे शायद बहुत कम लोग मजबूत करना चाहते हों। जैसे बॉस और उसके मातहतों के बीच का रिश्ता। मोबाइल फोन के ढ़ेर सारे फायदे हैं लेकिन कुछ नुकसान भी हैं। उनमें से एक नुकसान है वक्त बेवक्त आने वाले फालतू के फोन कॉल से जिनके द्वारा आपको कुछ न कुछ बेचने की कोशिश की जाती है। कभी कोई वाटर प्यूरिफाय्रर बेचने लगता है, तो कोई मकान बेचने लगता है। कोई इंश्योरेंस बेचने लगता है तो कोई क्रेडिट कार्ड देने लगता है। सब यही जताने की कोशिश करते हैं कि आप उन सबसे लकी लोगों में से हैं जिन्हें उस अभूतपूर्व ऑफर के लिये चुना गया है। कभी कभी तो ऐसे कॉल आधी रात के समय भी आ जाते हैं। जब कोई आदमी धड़कते हुए दिल से किसी अशुभ समाचार की आशंका में फोन उठाता है तो उसे कम से कम ये तसल्ली जरूर मिल जाती है कि चिंता की कोई बात नहीं है, क्योंकि वह कोई सेल्स कॉल होता है। मेरे पास भी ऐसे ढ़ेरों फोन कॉल आते रहते है। मैंने डीएनडी (डू नॉट डिस्टर्ब) में अपना नम्बर भी रजिस्टर्ड करवाया हुआ है लेकिन उसका कोई फायदा नजर नहीं आता। ऐसे अधिकतर कॉल्स को मैं बड़े ही कड़े अंदाज से खारिज कर देता हूँ। इस काम में मेरी भारी आवाज काफी मदद करती है। लेकिन कभी कभी जब मैं खाली होता हूँ तो ऐसे कॉल करने वाले से बात भी कर लेता हूँ। इससे मेरा भी दिल बहलता है और कॉल करने वाले का भी। ऐसा ही एक कॉल आज मेरे पास आया। कॉल में जो बातचीत हुई वह कुछ इस तरह से है।

“हलो, हाँ जी बताइए आप कौन बोल रहे हैं?”

उधर से किसी पुरुष की आवाज थी जो कोई तीसेक साल का युवक लग रहा था। आवाज में थोड़ा सा अनगढ़पना था जो ट्रेनिंग की कमी जाहिर कर रहा था। वैसे भी पाँच छ: हजार पाने वाले वैसे लोग जो हिंदी वाले कॉल सेंटर में काम करते हों, उनके लिये शायद ही कोई कम्पनी ट्रेनिंग पर खर्च करती होगी। उस व्यक्ति ने कहा, “नमस्कार, सर मैं निदान डायग्नोस्टिक से बोल रहा हूँ। क्या मैं आपकी उम्र जान सकता हूँ?”

मैंने कहा, “भैया, जब तुमने फोन नम्बर पा लिया तो उम्र के बारे में भी पता कर लेते।“

उधर से जवाब आया, “सर, हमारी कम्पनी फुल बॉडी टेस्ट पर आकर्षक डिस्काउंट दे रही है।“
“अच्छा किस तरह के टेस्ट करवाते हैं आप?”

“सर, केवल दो हजार रुपए में हम आपकी किडनी, लिवर, डायबिटीज, हार्ट, थायरायड, रेटिना, आदि लगभग पचास टेस्ट कर देंगे।“

मैंने अपनी आवाज में झूठा उत्साह दर्शाते हुए कहा, “अच्छा, ये तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन इन टेस्ट को करवाने से मेरा क्या फायदा होगा?”

“सर जब टेस्ट की रिपोर्ट आयेगी तो आपको पक्का यकीन हो जायेगा कि आपको डॉक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं है।“

मैंने कहा, “अरे भैया, ऊपरवाले की दया से मैं बिलकुल फ़िट फ़ाट हूँ। फिर मुझे ऐसे भी डॉक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ती है।“

सर, एक बार हमारी टेस्ट रिपोर्ट आपको मिल जायेगी तो फिर गारंटी होगी कि आपको डॉक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।“

मैंने कहा, “भैया, मुझे तो अब तक ये पता था कि किसी बीमारी से छुटकारा पाने के लिए दवाइयाँ लेनी पड़ती हैं। आज तो तुमने मेरी आँखें ही खोल दीं। आज पता चला कि केवल टेस्ट करवा लेने से ही बिमारी भाग जाती है। कमाल है।

“सर, आपने बिलकुल ठीक समझा। तो आप अपना पता नोट करवा दें, ताकि मैं अपने कलेक्शन स्टाफ को आपके घर भेज दूँ, सारे सैंपल लेने के लिए।“

अब मेरा धैर्य जवाब देने लगा था। मैंने कहा, “भाई, तुम पहले तो अपना ज्ञान दुरुस्त कर लो। टेस्ट करवाने से केवल यह पता चलता है कि कोई बीमारी है या नहीं। टेस्ट से इलाज नहीं होता। अपनी कम्पनी के साहबों से बताओ कि तुम्हें ठीक से ट्रेनिंग दिया करें, उसके बाद ही किसी को कॉल करना।“


उसकी आवाज से लगता है कि उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उसने किसी तरह से लड़खड़ाती आवाज में कहा, “ठीक है सर, थैंक यू सर, हैव अ गुड डे सर।“ 

Tuesday, August 15, 2017

नागिन डांस

जैसे ही ई-रिक्शा दरवाजे के सामने रुका, उसपर लदे हुए लोगों और सामान को देखकर मधुरेश कुछ ज्यादा ही खुशी जाहिर करते हुए जोर से बोला, “आइए, आइए, आपकी ही बाट जोह रहा था। उम्मीद है मकान खोजने में परेशानी नहीं हुई होगी। गुड्डू ने ईरेल पर देखकर बताया था कि आपकी ट्रेन चार घंटे लेट चल रही थी।“

अपने सामान और परिवार को बरामदे पर पहुँचाते हुए नरेंद्र सिन्हा अपनी बत्तीसी दिखाने की असफल कोशिश करते हुए बोले, “अरे नहीं, मेरा बचपन तो इसी समस्तीपुर में बीता था। अपनी स्कूली शिक्षा मैंने यहीं से प्राप्त की थी। अभी भी बहुत कुछ वैसा ही है। हाँ भीड़-भाड़ बढ़ गई है। पहले जो गाँव जैसे इलाके थे अब वहाँ भी शहर पहुँच चुका है।“

सामान उठाने में मदद करते हुए मधुरेश ने कहा, “मैं खुद ही आ रहा था, आपको स्टेशन से लिवा लाने के लिए। लेकिन क्या करूँ, शादी ब्याह का घर है कोई न कोई काम निकल ही जाता है।“

नरेंद्र सिन्हा ने कहा, “अरे इसकी क्या जरूरत है? आपने बड़ी जिम्मेदारी ली है अपने ऊपर। किसी की की शादी सही ढ़ंग से सम्पन्न करा देना कोई हँसी मजाक थोड़े ही है। इतना बिजी होने के बावजूद भी आपने मेरे परिवार के लिए अलग से ठहरने का इंतजाम कर दिया। ...”

मधुरेश ने बरामदे से लगे कमरे का दरवाजा खोलते हुए कहा, “अरे, ये तो मेरा कर्तव्य था। आपके पुराने अहसान हैं हमपर। और फिर मुझे आपकी बेटी पूनम की शादी भी तो करवानी है।“

नरेंद्र सिन्हा ने बैग और सूटकेस कमरे के अंदर पटकते हुए कहा, “हाँ, आजकल अच्छे लड़के बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। आपके बताये लड़के को देखने के खयाल से ही तो हम इस शादी में शरीक होने आए हैं। नहीं तो मै तो अपने लड़के के हाथों ही शगुन भिजवा देता। आजकल टाइम कहाँ मिल पाता है। ऊपर से अगर साल में तीन चार शादियों में न्योता करना पड़े तो पूरा बजट बिगड़ जाता है। वैसे, जिस लड़के की बात आपने की है, वो इस शादी में शामिल तो होगा ना?”

मधुरेश ने कहा, “अरे जिनके यहाँ शादी है उनके और इस लड़के के परिवार को समझिये जनम जनम का नाता है। ये लोग हमेशा से एक दूसरे के सुख दुख में शरीक होते रहे हैं। और तो और, यह लड़का तो समझिये कि मेरी जेब में है। है तो मेरे दूर के रिश्ते का भांजा लेकिन आस पास रहने की वजह से मेरे मुँह लगा है। आप तो तब उछल पडेंगे जब आपको पता चलेगा कि यह कमरा जहाँ मैंने आपके ठहरने का इंतजाम किया है, यह उन्हीं के मकान का हिस्सा है।“

यह सुनकर नरेंद्र सिन्हा की मुसकान रोके न रुक रही थी। उन्होंने कहा, “अच्छा है, पूनम और उसकी माँ भी आराम से घरेलू माहौल में लड़के को देख लेगी। आजक्ल अच्छा लड़का तो बड़ा महँगा आता है। आपको हमारी माली हालत का पता ही है। हम उतना दहेज देने की स्थिति में नहीं हैं। हाँ बेटी को बड़े जतन से पढ़ाया है, बरौनी के डीएवी स्कूल में टीचर है। अच्छी खासी तनख्वाह मिलती है। उम्मीद है कि कमाउ लड़की देखकर लड़के वाले थोड़ा पसीज जाएँ।“

मधुरेश ने कहा, “आप अब नहाधो लीजिए और तैयार हो जाइए। आज शाम को तिलक है, वहीं लड़के को देख भी लीजिएगा। परसों बारात जानी है, और उसके तीसरे दिन रिसेप्शन है। उसके बाद वाले दिन की तारीख ले लेता हूँ मैं लड़के के पापा से। लड़का अकेला भाई है और उसकी एक ही बहन है जिसकी शादी हो चुकी है। लड़के के पापा का अपना मकान है जिसमें आप अभी विराजमान हैं। और कुछ तो नहीं है लेकिन बीच शहर में मेन मार्केट में अपना मकान होना ही बहुत बड़ी बात होती है। लड़की की शादी हो चुकी है इसलिए कोई बोझ भी नहीं है। अब आजकल के कायस्थों के पास इससे अधिक की आप उम्मीद भी नहीं कर सकते।“

मधुरेश के जाने के बाद नरेंद्र सिन्हा ने कमरे का मुआयना किया। उस कमरे में एक पलंग और एक तखत बिछी हुई थी। एक पुराना सा जर्जर सोफा सेट भी था जिसपर लाल रंग के मखमल का कवर चढ़ा हुआ था। उन तीन जनों के रुकने के लिए वह कमरा काफी लग रहा था। उस कमरे का भीतरी दरवाजा आंगन में खुलता था। आंगन में एक कोने में हैंडपंप लगा था। हैंडपंप के पास ही एक दरवाजा था जिसपर लगी नमी से यह अंदाजा लगाया जा सकता था कि वह गुसलखाना था। थोड़ी देर में अंदर से एक अधेड़ महिला दाखिल हुईं। नरेंद्र सिन्हा और उनकी पत्नी को नमस्ते करने के बाद उस महिला ने उन्हें गुसलखाने का रास्ता बता दिया। उसने ये भी बता दिया कि नरेंद्र सिन्हा उसे अपना ही घर समझें और बेहिचक जो जरूरत पड़े मांग लें। उसने ये भी बताया कि नरेंद्र सिन्हा को अपने घर में ठहराने का जो सौभाग्य उसे प्राप्त हुआ था उससे वह बहुत प्रसन्न थी।

राहुल उतना ही बाँका नौजवान है जितना उसकी उमर के लड़के हुआ करते हैं। पतला दुबला छरहरा शरीर जिसपर एक छोटी सी तोंद यह बता रही थी कि लड़का दो तीन साल से नौकरी कर रहा था और अपनी जिंदगी से काफी संतुष्ट था। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों के ऊपर गिर आये उसके काले-काले बाल किसी भी युवती को मोहित करने का दम रखते थे। राहुल और मधुरेश के बीच गहरी दोस्ती थी, क्योंकि उन दोनों के बीच उम्र का फासला कम ही था। मधुरेश रिश्ते में उसका मामा लगता था लेकिन राहुल के बहुत सी राज का राजदार था। राहुल किसी प्राइवेट कम्पनी में बतौर सेल्स रिप्रेजेंटेटिव काम करता था इसलिए लड़की वाले उसके घर की तरफ झाँकते भी नहीं थे। इसलिए उसे अपने मुँहबोले मामा की पैरवी करनी पड़ती थी ताकि कोई लड़की वाला उसकी तरफ भी निगाह डाल सके। मधुरेश कभी कभी उससे बड़े ज्ञान की बातें करता था। एक बार मधुरेश ने कहा था, “पता है, हमारे देश में लिंग अनुपात बड़ा खराब है। हर एक हजार पुरुष पर केवल नौ सौ चालीस के आस पास स्त्रियाँ हैं। अगर तुम्हारी किस्मत खराब हुई तो तुम्हारा रॉल नम्बर नौ सौ चालीस के बाद आयेगा और फिर तुम रह जाओगे आजीवन कुँवारे।“

इस बार राहुल को बहुत उम्मीद थी। मधुरेश ने बताया था कि लड़की दिखने में ठीक ठाक है और साथ में नौकरी भी करती है। लड़की के पिताजी के पास धन संपदा नाम की कोई चीज नहीं थी, इसलिए वहाँ आशा की जा सकती थी। राहुल को तो किसी तरह से एक लड़की चाहिए थी जो उसकी बीबी बने और आगे के सफर में साथ दे। उसे या उसके परिवार वालों को एक बहू मिल जाए यही बहुत था, दहेज के बारे में तो वो कबकी उम्मीद छोड़ चुके थे।

शाम को तिलक समारोह में नरेंद्र सिन्हा और उनकी बीबी उतना ही सजे धजे जितना उनकी उम्र पर फब सकता था। बेटी को सजाने में उसकी माँ ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उधर राहुल भी ब्लू जींस और लाल टी-शर्ट पहनकर आया था। राहुल के दोस्तों ने घर के पिछवाड़े में एक पेड़ की ओट में एक खटारा सी मारुति कार में पूरा इंतजाम कर रखा था। राहुल ने इशारा पाते ही उस पेड़ की तरफ कूच कर दिया। पता चला कि जिस लड़के की शादी थी उसके छोटे भाई ने व्हिस्की और रम का भरपूर इंतजाम किया था। राहुल और उसकी उम्र के लड़के तो बस वहीं डेरा जमाए हुए थे। थोड़ी अधिक उम्र के पुरुष बीच बीच में आकर गटागट एक एक पेग गटककर चले जाते थे। जब तक सोमरस का स्टॉक समाप्त हुआ तबक राहुल और उसके दोस्तों पर शुरूर पूरी तरह से छा चुका था। उसके बाद वे लड़के डांस के लिए बने स्टेज पर पहुँच गये और उसपर कब्जा कर लिया। उसके बाद बाकी लोगों को डांस फ्लोर छोड़कर जाना पड़ा। राहुल ने गजब का डांस दिखाया। बॉलीवुड के लेटेस्ट नम्बर की हूबहू नकल उतारने में उसका कोई सानी नहीं था। जब सभी लेटेस्ट डांस का दौर खतम हुआ तो बारी आई उस डांस की जिसकी पॉपुलरिटी के आगे बाकी के हार डांस पीछे रहते हैं; खासकर शादियों के मौसम में। जी हाँ, मैं नागिन डांस की बात कर रहा हूँ। राहुल पहले तो नागिन बनकर डांस करता रहा। फिर संपेरा बन गया। नागिन से संपेरा और संपेरे से नागिन बनने का दौर जो शुरु हुआ वह खतम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। उस डांस पर जवान लोग तो सीटियाँ बजा रहे थे। लेकिन बुजुर्ग और महिलाएँ अपने नाक भौं सिकोड़ रही थीं। तिलक का भोज खाने के बाद सारे मेहमान चले गये लेकिन राहुल और उसकी मंडली का प्रोग्राम तबतक चलता रहा जबतक वो लोग निढ़ाल होकर गिर नहीं गये।

इसी तरह बारात में भी उन लड़कों जमकर मजा किया और हंगामा किया। उनका मूड बनाने के लिए व्हिस्की और रम की सप्लाई सुचारु रूप से चलती रही। फिर दुल्हन की विदाई हुई और उसके बाद रिसेप्शन भी हुआ। रिसेप्शन के बाद वह दिन आ गया जिसका राहुल और उसके मम्मी पापा को बेसब्री से इंतजार था।

राहुल के पापा ने खुद जाकर बाजार से गुलाब जामुन, नमकीन और जिंदा रोहू मछली लाई। राहुल की मम्मी ने बड़े जतन से मछली बनाई। उनके घर में पहली बार कोई लड़की वाला रिश्ते की बात करने आ रहा था। इसलिए वे उनकी खातिर में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। अब अगर आप मिथिला में रहते है तो किसी को मछली भात खिलाने से बड़ी खातिर और क्या हो सकती है। मछली देखना और खाना तो यहाँ शुभ माना जाता है।

लंच का वक्त होने को आ रहा था लेकिन नरेंद्र सिन्हा का कहीं अता पता नहीं था। दोपहर के तीन बजने वाले थे तभी मधुरेश आता दिखाई दिया। मधुरेश के चेहरे को देखकर लग रहा था कि मामला कुछ ठीक नहीं है। राहुल के पापा ने पूछा तो मधुरेश ने बताया कि नरेंद्र सिन्हा के प्रोग्राम में थोड़ा बदलाव हुआ था। उनको अचानक बरौनी में कोई काम पड़ गया था इसलिए वे बता रहे थे कि एक दो महीने बाद ही आएँगे। इतना सुनने के बाद राहुल और उसकी मम्मी पापा के चेहरे बुझ गये। 

राहुल के पापा अपनी भड़ास निकालने लगे, “पहले ही कहता था कि किसी कंपिटीशन की तैयारी करो। अरे, अगर बैंक में क्लर्क भी हो जाते तो लड़की वालों की लाइन लग जाती। दिमाग खराब हुआ था कि चले थे प्राइवेट नौकरी करने। अभी भी उम्र नहीं बीती है। दो साल मैं तुम्हें पाल सकता हूँ। ठीक से तैयारी करोगे तो बैंक क्लर्क का कंपिटीशन निकालने के लिये दो साल बहुत होते हैं।“

उन्हें बीच में ही टोकते हुए मधुरेश ने कहा, “अरे नहीं जीजाजी, वो बात नहीं है। वे लोग तो इस नालायक के दारू पीने की वजह से भड़क गये हैं। और करो नागिन डांस। अरे अब उम्र हो गई है। अभी इंप्रेशन खराब हो गया तो आस पास के सौ किलोमीटर से कोई लड़की वाला झाँकने तक नहीं आयेगा।“

मधुरेश ने आगे कहा, “जैसे ही नरेंद्र सिन्हा ने अपनी बीबी को राहुल के बारे में बताया वो फौरन भड़क उठी। कहने लगी कि उसी दारू के चक्कर में उनकी जिंदगी नरक हो गई। वो अपनी बेटी को आजीवन कुँवारी रखेंगी लेकिन किसी बेवड़े के हाथ में कभी नहीं देंगी।“

राहुल के पापा ने कहा, “ठीक ही तो कह रही थीं। नरेंद्र सिन्हा को मैं कोई आज से जानता हूँ? उसकी रेलवे की नौकरी उसी दारू के चक्कर में छूट गई थी। फिर उसके चाचा ने पैरवी करके बरौनी रिफाइनरी में रखवाया था, वहाँ से भी भगा दिया गया था।“

मधुरेश ने कहा, “हाँ नरेंद्र सिन्हा तो कह ही रहे थे कि लड़का थोड़ जॉली नेचर का है। उमर है इसलिए खाता पीता है। एक बार शादी हो जाएगी तो रास्ते पर आ जायेगा। लेकिन उनकी बीबी ने अपना वीटो लगा दिया।“

उसके बाद मधुरेश ने राहुल से कहा, “बेटा, एक बात गाँठ बाँध लो। आज के बाद नागिन डांस बंद। कभी पीने पिलाने का प्रोग्राम हो तो छुपाकर ही करना। तभी कोई तुम्हारी शादी कराने का बीड़ा लेगा।“


राहुल ने नजरें झुकाकर कहा, “मामा, मैं वादा करता हूँ कि आज के बाद नागिन डांस बिलकुल बंद। अब तो मेरी शादी भी हो जायेगी तब भी नागिन डांस नहीं करूँगा।“ 

Tuesday, July 25, 2017

SMS from School

Text messages are still the rage with marketing guys, and it is evident from numerous messages which I get from numerous marketers. While normal mortals like me and you have long switched over to Whatsapp; private and government organizations still rely on text messages to sell their products or ideas to us. Recently, there was a flood of messages from the Income Tax Department urging all and sundry to pay taxes before 31st July. Private schools have also come on this bandwagon and have started sending messages to parents. Messages from schools generally include notice about due date for fees payment, on PTMs, examination schedules, Olympiads, etc. Some messages can be quite useful, e.g. if a child does not reach school then the parents may come to know that the child has bunked his classes and has landed up at the cinema hall instead of the classroom. Some messages can be plain boring while some can be hilarious. Recently, I got a text message from the school about which I am yet to understand whether it is serious or hilarious. Following is the message:

“Dear Parents,

This is to inform you all that dengue viral is going on. So, please use coconut oil below your knees till your footsteps. It is antibiotic. Dengue mosquito cannot fly higher than knees. Please keep this in mind and start using it. Spread this message as much as you can. Your one message can save many lives. Herbal tips: Kindly keep kapur, long and elaichi in your pocket too. “

This message is apparently a useful one because it is giving a warning about dengue. It appears to be on time; unlike delayed anti-dengue initiatives which the government authorities take. Chief Ministers and Health Ministers usually get a wakeup call only after news of dengue-related deaths start appearing in newspaper and on television.

This message urges the parents to apply coconut oil. Hopefully, school teachers must have conveyed the same message to their students in classrooms.

This message says that coconut oil is an antibiotic. Thanks to copy & paste culture prevalent even among teachers, coconut oil has been declared as an antibiotic. But an antibiotic is of no use against virus; which dengue parasite is. To the best of my knowledge, mosquitoes belong to the class Insecta of phylum Arthropoda. An antibiotic is not going to act against an insect. So, what is the use of applying coconut oil?

I searched Google to find answer. You will land up on hundreds of sites which write shenanigans about naturopathy and Ayurveda; in the name of promoting and conserving the ancient culture of India. All these sites give lot of information without an iota of credibility, i.e. without proper reference.

Mosquito repellant creams and some other concoctions work by masking the body odour of humans. But coconut oil is unable to do this.

This message also urges to stuff the pocket of a student with spices; as if the student is going to cook biryani in the school. I fear that the school may start selling packets of assorted prices and may make it mandatory for all parents to buy the packets for their wards. Schools will charge very high price for such packets, and parents will not be allowed to buy spices from the market. This will be a new revenue stream for the school; that too in the lean season. Schools have already made hefty amount of money at the beginning of academic session; by selling books, notebooks and uniforms for all occasions. But earning more money in the mid of the academic season must be the brainchild of school management with great business acumen.

A school is the place where we send our children to study and to learn certain aspects of life. All modern schools are expected to instill knowledge through scientific methods. They are not expected to brainwash the students with myths about whatever culture they believe in.


As an instant reaction to this message, I planned to meet the class-teacher. I wanted to argue with her about futility of sending such messages. But my wife advised me against doing so, because she fears that this will hamper the scores of my son. I had no other way than to surrender to my wife’s commands. 

Saturday, July 22, 2017

तुलसी किसके आँगन की?

रेखा आज बहुत खुश लग रही थी। आखिरकार उसे किराये के मकान से निजात मिल ही गई थी। कल ही उसने अपने पति और दो बच्चों के साथ अपने मकान में  शिफ्ट किया था। कहने को तो ये टू बी एच के फ्लैट था लेकिन था बड़ा ही छोटा। लेकिन मकानों की आकाश छूती कीमतों और अपने बजट को देखते हुए रेखा और उसके पति (राकेश) को वही फ्लैट पसंद आया। वह फ्लैट राजधानी दिल्ली की सीमा पर उस इलाके में था जिसे एन सी आर कहते हैं। आस पास के ग्रामीण परिवेश में बहुमंजिला इमारतों यह कतार ऐसी लगती थी जैसे किसी ने जबरदस्ती खेतों के बीच में कंक्रीट का एक विशाल बिजूका खड़ा कर दिया हो। बहरहाल, रॉयल सिटी नामक उस टाउनशिप में लगभग हर वह सुविधा थी जिससे किसी मिडल क्लास परिवार का जीवन सामान्य ढ़ंग से चल सके। उस टाउनशिप के अंदर बने शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में जरूरत की लगभग हर चीजें मिलती थीं।

उनका फ्लैट ग्राउंड फ्लोर पर था जिसके कारण उन्हें दोनों कमरों के आगे अच्छी खासी जगह मिल गई थी। ऊपर की मंजिलों पर तीन फीट की चौड़ाई वाली बालकनी में दो लोग भी बड़ी मुश्किल से खड़े हो पाते थे। लेकिन ग्राउंड फ्लोर की तथाकथित बालकनी में इतनी जगह थी की चार पाँच कुर्सियों के साथ साथ एक खटिया भी लगाई जा सकती थी। उस जगह में कपड़े सुखाने के लिए भी काफी जगह थी जो कि आजकल के सिमटे हुए फ्लैटों में किसी लक्जरी से कम नहीं थी।

सुबह सुबह नहाने धोने के बाद रेखा ने जल्दी से नाश्ता बनाकर अपने पति और बच्चों को खिलाया। राकेश ने घर का सामान ढ़ंग से रखवाने के खयाल से चार दिनों की छुट्टी ले ली थी। बच्चों के लिए इस नये इलाके में स्कूल एडमिशन का काम अभी बाकी था। नाश्ते का स्वाद लेते हुए राकेश को लगा कि रेखा थोड़ी परेशान लग रही थी। उसने जब रेखा से पूछा तो रेखा ने बताया, “नहीं, कुछ खास नहीं। सोच रही हूँ कि एक नया गमला लेकर उसमें तुलसी का पौधा लगा दूँगी। सुबह की पूजा ठीक से हो जायेगी।“

राकेश ने कहा, “अरे गमले की क्या जरूरत है। सामने जो पार्किंग स्पेस है, उसके आगे फूलों और डेकोरेटिव प्लांट्स की कतारें लगी हैं। उसी में कहीं जगह देखकर तुलसी का पौधा लगा दो। पौधे को फलने फूलने के लिये भरपूर जगह मिलेगी। फिर तुम भी खुश और तुलसी भी खुश।“

अगले दिन रेखा ने अपने फ्लैट के सामने वाली तथाकथित ग्रीन बेल्टमें तुलसी का पौधा लगा दिया। फिर रोज सुबह नहा धोकर तुलसी को पानी का अर्ध्य देना और उसकी पूजा करने का सिलसिला शुरु हो गया। महीने दो महीने बीतते बीतते वह तुलसी का पौधा काफी मशहूर हो गया। उस हाउसिंग सोसाइटी की कई महिलाएँ सुबह सुबह नहा धोकर तुलसी को जल चढ़ाने आने लगीं। कुछ महिलाएँ तो देर दोपहर को तुलसी को जल चढ़ाने आया करती थीं। यह सब देखकर रेखा को आत्मसंतुष्टि का अनुभव होता था।

छ: महीने बीतते बीतते वह तुलसी का पौधा काफी फैल चुका था। तीज त्योहारों के मौकों पर शाम की आरती के लिए वहाँ कई महिलाएँ इकट्ठी हुआ करती थीं। भजन कीर्तन का आयोजन भी होने लगा। इसी बहाने वहाँ पर अक्सर शाम को अच्छी खासी चहल पहल होने लगी। कुछ लोगों ने उस तुलसी के आस पास देवी देवताओं की छोटी-छोटी मूर्तियाँ भी रख दी थीं। इस तरह से वह स्थान एक पवित्र स्थलमें बदल चुका था।

अब रेखा को अक्सर तुलसी पर जल चढ़ाने के लिए अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता था। उसे लगता था कि उस तुलसी के पौधे पर उसका पहला अधिकार था क्योंकि उसी ने उस पौधे को लगाया था। लेकिन वह चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती थी। रेखा को यह बात अंदर से खाने लगी। वह अब हमेशा की तरह पूजा करने के बाद खुश नहीं होती थी। उसे अब कभी कभी सर दर्द का दौरा भी पड़ने लगा था। राकेश उसे अक्सर समझाने की कोशिश करता था, “तुम्हें तो खुश होना चाहिए। तुम्हारे कारण कितने लोगों को पूजा करने के लिए एक निश्चित स्थान मिल गया। भगवान तो सबके होते हैं। उन पर किसी की मोनोपॉली नहीं होती। इसमें इतना परेशान होने की बात ही नहीं है।“

इस बीच रेखा को सर दर्द के इलाज के लिए कई डॉक्टरों से दिखाया गया। लेकिन किसी भी दवा का उसपर कोई असर नहीं होता था। अब तो सर दर्द के और भी नये नये कारणों का जन्म होने लगा था। कभी कोई वहाँ पर भंडारे का आयोजन करा देता। भंडारे के समय जो खलबली मचती थी कि रेखा अपने घर में भी शांति से बैठ नहीं पाती थी। उससे भी ज्यादा जुल्म तब होता था जब कोई मंडली वहाँ पर माता के जागरण का अनुष्ठान कर देती थी। फिर तो रेखा और उसके परिवार को रात भर जाग कर ही बिताना पड़ता था। एकाध बार रेखा ने रेजिडेंट वेलफेअर एसोशियेशन में इसकी शिकायत की तो जवाब मिला कि धार्मिक मामलों में वे कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते। लगभग दो साल बीतने का बाद एक दिन उस हाउसिंग सोसाइटी के हर टावर के नोटिस बोर्ड पर एक नोटिस लग गया।

“बड़े हर्ष के साथ यह सूचना दी जाती है कि गंगा टावर के सामने जो पूजा स्थल है, वहाँ पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराने का फैसला लिया गया है। मंदिर बनाने में जो खर्च आयेगा उसका पचास प्रतिशत वहन करने का वादा बिल्डर के द्वारा किया गया है। बाकी की राशि चंदे के माध्यम से इकट्ठी की गई है। गंगा टावर के ग्राउंड फ्लोर के दो फ्लैट में रहने वाले परिवारों को फ्लैट खाली करने होंगे। बदले में उनके लिये सबसे ऊपरी मंजिल यानी एक्कीसवीं मंजिल पर नये फ्लैट बनाकर दिये जाएँगे। चूँकि वहाँ पर सबसे पहला तुलसी का पौधा रेखा जी ने लगाया था इसलिए उन्हें मंदिर का ट्रस्टी नियुक्त किया जायेगा। रॉयल सिटी के निवासी रेखा जी के सदैव आभारी रहेंगे।“


उस नोटिस को पढ़ने के बाद रेखा की समझ में नहीं आ रहा था कि हँसे या रोये। हाँ वह इस बात से जरूर खुश थी कि नये फ्लैट में शिफ्ट करने के बाद रोज रोज के कोलाहल से मुक्ति जरूर मिलेगी। 

Sunday, July 2, 2017

टिंकू जी ससुराल चले

टिंकू जी कोई पहली बार ससुराल नहीं जा रहे हैं। वे तो ससुराल जाने से बचना चाहते हैं। ऐसी ससुराल में जाने से क्या फायदा जहाँ बूढ़े सास ससुर के अलावा और कोई न रहता हो। टिंकू  जी की दो दो सालियाँ हैं लेकिन टिंकू  जी के ससुर ने टिंकू  जी पर शक करते हुए टिंकू  जी की दोनों सालियों को इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए दिल्ली भेज दिया है। दिल्ली के जिस हॉस्टल में वे रहती हैं वहाँ पुरुषों का प्रवेश पूरी तरह से वर्जित है। ये अलग बाद है कि उस हॉस्टल के गार्ड, वार्डन और रसोइया पुरुष ही हैं। वैसे भी टिंकू जी की शादी को इतने साल बीत चुके हैं कि उनकी दो बेटियाँ अब स्कूल जाने लगी हैं। फिर टिंकू  जी को अपनी किराने की दुकान से फुरसत ही नहीं मिलती कि दुकान और घर के सिवा कहीं और का रुख कर सकें।

गरमी की छुट्टियों के पहले से ही टिंकू जी की पत्नी के पास फोन आया था जिसके द्वारा उन्हें अपनी बेटियों समेत मायके में छुट्टियाँ बिताने का निमंत्रण मिला था। टिंकू जी बकायदा अपनी बीबी और बेटियों को अपने ससुराल छोड़ने भी गये थे। उसके बाद वो फौरन लौट आये थे ताकि दुकान ठीक ठाक चलती रहे।

अब जून का महीना बीतने वाला था जिसके बाद स्कूल खुलने वाले थे। स्कूल का खुलना तो एक बहाना था, टिंकू जी तो पत्नी वियोग में इतने सूख गये थे कि उनकी चालीस इंच की तोंद घटकर अड़तीस इंच की रह गई थी। इसलिए वह भी चाहते थे कि जल्दी से जल्दी अपनी बीबी को वापस ले आएँ। पिछ्ले बीस पच्चीस दिनों में पेट की भूख तो उन्होंने मैगी से शांत कर ली थी लेकिन बीबी के बिना उनका और उनके घर का हाल बेहाल हो चुका था।

उनके ससुराल जाने का रास्ता बड़ा ही कठिन है, इसलिए टिंकू जी ने पूरी प्लानिंग करके पटना से कटिहार का टिकट कटवाया। वहाँ तक का सफर ट्रेन से तय करने के बाद उन्हें आगे लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर का सफर बस से तय करना था और फिर आखिर के चंद किलोमीटर रिक्शे से। आने वाले सफर की संभावित कठिनाइयों को ध्यान करते करते जब टिंकू जी के सामने उनकी बीबी का चेहरा आ जाता था तो उनका सारा डर खतम हो जाता था।

आज टिंकू जी ने सुबह सुबह अपना बैग पैक कर लिया था। दुकान के स्टाफ को जरूरी बातें बताकर वे दोपहर तक घर वापस आ गये थे। उनकी ट्रेन रात को नौ बजे पटना जंक्शन से छूटने वाली थी। तैयार होने के बाद वे टाइम पास करने के लिए अखबार के पन्ने उलट रहे थे तभी उनकी नजर एक विज्ञापन पर पड़ी। लेवाइस जींस पर 50% की छूट वाला वह विज्ञापन टिंकू  जी को ललचा रहा था। उसमें लिखा था कि एक जुलाई से जीएसटी लागू होने को देखते हुए यह छूट दिया जा रहा था। टिंकू जी ने सोचा कि ऐसे तो लेवाइस की जींस या टी शर्ट उनकी पहुँच के बाहर थी लेकिन 50% छूट के सहारे वे भी उन ब्रांडेड कपड़ों को पा सकते थे। टिंकू जी उस दृश्य की कल्पना करके रोमांचित हो रहे थे जब उनके यार दोस्त उन्हें, उनकी बीबी को और उनकी बेटियों को लेवाइस की जींस पहनकर जल भुन रहे होंगे। बस फिर क्या था, टिंकू  जी ने अपने कंधे पर बैग टांगा, एक रिक्शे पर सवार हुए और चल पड़े लेवाइस के शोरूम की ओर।

लेवाइस के शोरूम में ऐसा लग रहा था जैसे डकैती हो रही हो। लोग कपड़े पसंद करने के चक्कर में एक दूसरे से धक्कामुक्की कर रहे थे। रैकों पर एक भी कपड़े नजर नहीं आ रहे थे। सारे कपड़े फर्श पर इधर उधर बिखरे पड़े थे। लोग फर्श पर घुटनों के बल बैठ रहे थे, चल रहे थे, लुढ़क रहे थे ताकि अपनी पसंद के कपड़े छाँट सकें।

टिंकू  जी ने पहले तो अंदाजे से अपनी बेटियों और बीबी के लिए जींस और टीशर्ट ले लिये। उसके बाद उन्होंने अपने लिए पाँच छ: जींस छाँट कर किनारे किये। तभी उनके मोबाइल का अलार्म बजने लगा। वह अलार्म उन्हें यह याद दिलाने के लिए था कि अब समय आ गया था कि वे स्टेशन के लिए रवाना हो जाएँ। लेकिन टिंकू  जी ने अलार्म को अनसुना कर दिया और वे अपनी बगल में जींस को दबाये ट्रायल रूम की ओर चल पड़े।

ट्रायल रूम के बाहर लंबी सी लाइन लगी हुई थी। इससे लंबी लाइन तो नोटबंदी के समय एटीएम के बाहर ही दिखा करती थी। लगभग आधे घंटे के इंतजार के बाद टिंकू जी का नम्बर आया। ट्रायल लेने के बाद उन्होंने अपने लिए तीन जींस छाँट लिए।

बिल चुकता करते करते पौने आठ बज चुके थे। घड़ी देखते ही टिंकू जी के होश उड़ गये। अब तो शेयर ऑटो से जाने से ट्रेन न पकड़ पाने की शत प्रतिशत गारंटी थी। टिंकू जी रोड के किनारे खड़े होकर किसी खाली ऑटो का इंतजार करने लगे ताकि रिजर्व कराकर जा सकें। लगभग दस मिनट तक कोशिश करने के बाद भी एक भी खाली ऑटो नहीं मिला। हारकर टिंकू जी ने ओला कैब बुक किया। उसके आते आते दस मिनट और बीत चुके थे। लगभग आठ बजकर पाँच मिनट पर टिंकू जी टैक्सी में सवार हुए और भगवान भगवान करने लगे। टिंकू जी केवल इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि उनकी ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर एक से खुलती है इसलिए वो ट्रेन में समय रहते चढ़ पाएँगे। ओला का ड्राइवर उस शहर के लिए नया लगता था क्योंकि बार बार वह नैविगेशन मैप पर देख रहा था। टिंकू जी उसे दाएँ या बाएँ मुड़ने का इशारा करते थे लेकिन वह उन लोगों में से था जो मॉडर्न टेक्नॉलोजी पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करते हैं। बहरहाल, टिंकू जी की टैक्सी ठीक नौ बजे पटना जंक्शन के गेट के पास पहुँच चुकी थी। टिंकू जी भगवान से मना रहे थे कि ट्रेन चार पाँच मिनट बाद छूटे जब वे ट्रेन में चढ़ जाएँ। टैक्सी का बिल चुकता करने के बाद टिंकू जी ने प्लेटफॉर्म की ओर दौड़ लगा दी। उनकी बीबी ने प्यार से घी चुपड़े पराठे जो उन्हें इतने वर्षों में खिलाये थे, उनका असर टिंकू जी की तोंद और उनकी रफ्तार पर पूरा दिख रहा था। टिंकू जी जैसे ही प्लेटफॉर्म पर पहुँचे उनकी ट्रेन ने सरकना शुरु कर दिया था। गार्ड की बोगी से बाहर लहराती हुई हरी झंडी टिंकू जी को मुँह चिढ़ा रही थी। टिंकू जी मन मसोसकर रह गये। जब वो कॉलेज में पढ़ते थे तो कई बार दौड़कर ट्रेन में चढ़े थे, लेकिन अब उनमें वो बात रही नहीं। भारतीय रेल जो कि अपनी लेट लतीफी के लिए मशहूर है, आज समय की पाबंद हो चुकी थी। उस ट्रेन को भी टिंकू  जी से ही दुश्मनी थी।

टिंकू जी कुछ देर तो वहीं अवाक खड़े रहे और फिर अपने आप को संयत किया। अपने स्मार्टफोन पर उन्होंने रेलवे का वेबसाइट खोला तो पता चला कि कटिहार के लिए अभी दो ट्रेनें जानी और बाकी थीं। लेकिन दोनों ट्रेनें पटना से न होकर हाजीपुर से जाती थीं। एक साढ़े दस बजे रात में जानी थी और दूसरी सवा ग्यारह बजे। अब नौ साढ़े नौ बजे अगर पटना से टैक्सी से चला जाए और गांधी सेतु पर कोई जाम न मिले तो दस बजते बजते हाजीपुर पहुँचा जा सकता है। टिंकू जी ने आनन फानन में टैक्सी बुक की और चल पड़े हाजीपुर की ओर। टैक्सी ड्राइवर भी शायद समझ चुका था कि टिंकू जी अपनी बीबी को लाने जा रहे हैं इसलिए उसने पाँच सौ रुपए प्रीमियम माँगे थे। टिंकू जी ने कोई मोलभाव नहीं किया और टैक्सी में बैठ गये।

जबतक टिंकू जी हाजीपुर स्टेशन पहुँचते तबतक साढ़े दस बजे वाली ट्रेन निकल चुकी थी। अभी भी टिंकू  जी के लिए एक आखिरी उम्मीद बची थी। वे काउंटर पर गये और जेनरल क्लास का एक टिकट खरीदा। उसके बाद उस प्लेटफॉर्म पर पहुँचे जिसपर उनकी ट्रेन आने वाली थी। अब जब टिंकू जी समय से पहले पहुँच चुके थे तो भला फिर ट्रेन को क्यों जल्दबाजी होने लगी। ट्रेन के ड्राइवर और गार्ड को तो अपनी बीबी को लाने जाना नहीं था। सिग्नल वाले स्टाफ को तो एक ही जगह रहना था। इसलिए किसी को भी इस बात की परवाह नहीं थी कि टिंकू जी समय से पहले स्टेशन पहुँच चुके थे।

बीच बीच में पब्लिक एड्रेस सिस्टम पर बताया जा रहा था कि ट्रेन दस मिनट देरी से चल रही है, ट्रेन आधे घंटे देरी से चल रही है, ट्रेन एक घंटे ........................, यात्रियों की असुविधा के लिए खेद है, आदि, आदि। लेकिन रेलवे के कुछ स्टाफ जिस आराम से चहलकदमी कर रहे थे उसे देखकर लगता था कि यात्रियों की असुविधा के लिए किसी को भी खेद नहीं था। लगभग चार घंटे के इंतजार के बाद टिंकू  जी की ट्रेन आ ही गई और लगभग ढ़ाई पौने तीन बजे रात में टिंकू जी ट्रेन में सवार हुए। जेनरल बोगी की भीड़ को देखते हुए किसी भी साधारण मनुष्य के लिए उसमें सवार होने के बारे में सोचना भी दुष्वार होता है। इसलिए टिंकू जी एसी थ्री टियर में सवार हो गये और जाकर सात नंबर बर्थ पर बैठ गये। उनका ज्ञान उन्हें बताता था कि वह बर्थ टीटी की होती है। थोड़ी देर में जब टीटी आया तो उसने टिंकू  जी से साफ साफ कह दिया कोई भी बर्थ खाली नहीं था। टिंकू जी धीरे से टीटी के कान में कुछ फुसफुसाये और फिर अपने हाथ में कुछ छुपाकर टीटी की जेब में सरका दिया। फिर क्या था, टीटी की मुसकान ऐसे खिल गई जैसे वह टिंकू जी का वो जुड़वाँ भाई था जो कुंभ के मेले में बिछड़ गया था। टिंकू जी आराम से सात नंबर बर्थ पर लेट गये और अपने बैग को अपना तकिया बना लिया। थोड़ी ही देर में टिंकू जी के भयानक खर्राटों से पूरा कंपार्टमेंट गूंजने लगा।

जब कोई ट्रेन एक बार लेट हो जाती है तो उसके और भी लेट होने की संभावना में गुणात्मक रूप से वृद्धि होती है। यह नियम कई लोगों के भारतीय रेलवे के प्रति संचयित ज्ञान से प्रतिपादित हुआ है। टिंकू  जी की ट्रेन भी जितना हो सकता था लेट होती चली गई। जिस ट्रेन को सुबह के सात बजे कटिहार पहुँचना था वह दोपहर के तीन बजे जाकर कटिहार पहुँची।

टिंकू जी की नींद पूरी हो चुकी थी। स्टेशन से बाहर आकर उन्होंने रिक्शा लिया और बस अड्डे की तरफ चल पड़े। बस में खिड़की के पास वाली सीट मिलने से थोड़ी राहत मिली। खिड़की के पास वाली सीट से कई फायदे होते हैं। आपको ठंडी हवा का आनंद प्राप्त होता है। इसके अलावा आप जब जाहें तब पान या गुटके की पीक बाहर फेंक सकते हैं। अपनी सीट पर बैठते ही टिंकू जी ने अपना मुँह खोला और उसमें गुटके की एक पुड़िया खाली कर दी।

लगभग तीन घंटे चलने के बाद बस रुक गई। टिंकू जी ने खिड़की के बाहर झाँका तो पाया कि बस तो हाइवे पर ही रुकी हुई थी। कंडक्टर ने बताया कि अचानक हुई तेज बारिश से आगे की सड़क बह गई थी और आगे कोई भी गाड़ी नहीं जा रही थी। टिंकू जी बस से नीचे उतरे ताकि आगे जाने का मार्ग पता कर पाएँ। पता चला कि आस पास के गाँव के कुछ लोग, अपने कंधों पर बिठाकर जलभरे कटाव को पार करवा रहे थे। इसके बदले में वे हर व्यक्ति से दो सौ रुपए चार्ज कर रहे थे। टिंकू जी की बड़ी सी तोंद देखकर उन्होंने अपनी फीस तीन सौ रुपए बताई। टिंकू जी के पास और कोई चारा नहीं था, इसलिए उन्होंने तीन सौ रुपए दिये और आगे बढ़ गये।

उस कटाव को पार करने के बाद रिक्शेवाले खड़े दिखाई दिये। वे रिक्शेवाले भी मांग और आपूर्ति के बैलेंस के नियम के एक्स्पर्ट लग रहे थे। टिंकू जी की ससुराल पहुँचाने के लिए रिक्शेवाले ने पाँच सौ रुपए माँगे। टिंकू जी रिक्शे पर बैठ गये और मानसून की नम हवाओं का आनंद लेते हुए अपनी बीबी और बेटियों से मिलने की कल्पना में खो गये।

आखिरकार जब टिंकू जी नौ बजे रात में अपने ससुराल पहुँचे तो उनकी दोनों बेटियाँ दौड़कर उनसे लिपट गईं। उस ग्रामीण माहौल में बीबी से लिपटने के लिए उन्हें रात होने का इंतजार करना था। जब टिंकू  जी चाय पी रहे थे तो अपनी बीबी को अपना यात्रा वृत्तांत सुनाने लगे। उनकी रामकहानी सुनकर उनकी बीबी धीरे से मुसकाई और बोलीं, “मुझे नहीं पता था कि आपको मुझे लिवाने के लिए इतनी बेचैनी हो रही होगी। बीबी से मिलने के लिए इतनी परेशानी तो शायद तुलसीदास ने भी न झेली होगी।“


टिंकू जी हौले से मुसकाए और कहा, “अब ये न कहना कि जाओ पहले रामचरितमानस लिख कर आओ फिर अपना मुँह दिखाना।“ 

Friday, June 30, 2017

What is GST?

Midnight is quite important for all of us. This is the time when you become one day older. This is the time when a famous author may have decided to write about ‘Midnight’s Children’. This is the time when India had its first ‘Tryst With Destiny’. As they say that postman always rings twice; our modern-day great PM has come up with another episode of ‘Tryst with Destiny’ for a billion plus people on the largest contiguous mass of land.

GST has been hogging the limelight and newspaper headlines for a long time. Given the long term exposure to this important tax reform it is natural to expect the people of India to know all about GST. We decided to do a reality check and hence promptly sent our investigative reporters to confirm from the real people what and how much they know about GST. Our reporters shoved the mike to unsuspecting public and threw a simple and unloaded question, “What is GST?’ We got numerous kinds of reply. It is not possible to mention each reply in the limited attention span of internet visitors, so here are some examples.

Public 1: Hmm, GST is the short form of Gross Sales Tax.

Public 2: GST is one nation one tax. It will unite our country like never before. They way the original Iron Man of India unified the country after independence, the modern day Iron Man will further cement that unification. Long live the iron man of India.

Public 3: I am a housewife. I seldom get time from household chores. You can ask my husband. He appears to be an expert on solving various political and economic problems of the world. I have heard him discussing important topics with his friends. When he speaks, everyone else listens because I supply the tea and snacks for the motley group of his friends.

Public 4: GST is a tool to bring all these crooked businessmen to fall in line. The local kirana store always cheats while weighing the goods. He never gives discount the way I get from Big Bazar. Have you seen the palatial house the store owner has built near the Mohall clinic?

Public 5: OMG, what are you asking? Actually, I am a student of science stream; preparing for entrance tests for engineering and medical. I don’t have time for topics on commerce stream. You should ask this question to a commerce guy. Why don’t you go to Lakshmi Nagar. You will definitely get an answer because so many CA institutes are there.

Public 6: GST stands for the Great Super Tax. India is great. Modi is Great. Bharat Mata Ki Jai. I love my India. (His voice suddenly started sounding similar to the TV anchor who presents a show on crime investigation.)

Public 7: I have been preparing for the IAS since 10 years. As I am on the verge of expiry date, GST will prove to be a boon for me. I will start preparations for GST Administrative Services. I am hopeful that the PM will come with Pradhanmantri Rojgar Yojna on the line of Pradhanmantri Awas Yojna. Every youth will get employment under this scheme. This is what you call the action PM.

Public 8: GST is nothing but a sellout to the neo-colonial forces. The way East India Company made us slave, the US MNCs will start ruling us. They have already started that process. Can you survive today without Google or Facebook? You cannot. I can tell you with authority because I am a research scholar doing my PHD from JNU. I want azadi from GST.

Public 9: Why are you asking this question to a poor golgappa seller? My turnover is nowhere near the limit set for GST. This metro station has good number of footfalls. I do brisk business on most of the days. But I hardly cross 2 lakh’s turnover in a year. Why should I bother about these high sounding words?

Public 10: This appears to be good for the business. I have already started charging more premium on pan masala, guthka and cigarette. This is the beauty of selling these essential items. Nobody bats an eyelid while paying some premium. I must have earned at least 5000 extra in the last week; thanks to all the rumours on GST. I love our super PM. He surely knows how to uplift the business spirit.

Chintu aka Chintaswamy has almost become bald because he has pulled off most of his hairs. He has been trying to understand the real meaning of GST. He owns a small business with a turnover of about ten lakh per annum. After deducting operational expenses he somehow manages to earn about 50,000 per month; barely enough to maintain the middle class status. He had applied for GST number about a month back but is still waiting for the number. He is making back of the envelope calculation to understand the costs involved in hiring the services of an accountant for filing GST details thrice in a month. He cannot even file his IT return without the help of an accountant. He even went to a local Kali Baba to ward off evils of GST but it was of no avail.