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Monday, November 14, 2016

चर्बी से इलाज या चर्बी का इलाज

पंचतंत्र की सभी कहानियाँ मजेदार हैं और सबसे कोई न कोई शिक्षा जरूर मिलती है। पंचतंत्र की कहानियाँ आज भी लोकप्रिय हैं क्योंकि उनका रेलिवेंस आज भी है। इन्हीं में से एक कहानी है एक बंदर और उसके झुंड की।

किसी राज्य में बंदरों का एक झुंड किसी राजा के राजमहल के प्रांगन में रहता था। बंदरों के झुंड का नेता बड़ा समझदार हुआ करता था। उस राज्य के राजकुमार को जानवरों से बहुत प्यार था। इसलिए बंदरों को कोई परेशान नहीं करता था। बंदर बेरोकटोक कहीं भी आते जाते थे और अपनी मनपसंद चीजों पर हाथ साफ किया करते थे। कभी कभी वे राजमहल की रसोई में भी धावा बोल देते थे और कुछ न कुछ उड़ाकर उसका मजा लिया करते थे। उसी रसोई में एक बकरा भी घुस जाया करता था। बकरा बहुत शरारती था और खाने के अलावा चीजों को तहस नहस भी करता था। राजा के रसोइए अक्सर उस बकरे को भगाने के लिए हाथ में जो कुछ आता उसे उठाकर बकरे की ओर फेंक देते थे।
बंदर के नेता ने एक दिन अपने झुंड के बंदरों से कहा, “यह रसोई उस बकरे की वजह से खतरनाक हो सकती है। इसलिए हमें रसोई के भोजन को भूलना पड़ेगा। हमारे खाने के लिए फलों से लदे इतने वृक्ष हैं कि उनसे हमारा काम चल सकता है। मेरी बात मानो तो रसोई से दूर ही रहो।“

बंदरों का नेता बूढ़ा हो चुका था। जैसा कि अक्सर होता है उस बूढ़े की बातों पर उस झुंड के जवान बंदरों ने ध्यान नहीं दिया। एक जवान बंदर ने तो यहाँ तक कह दिया, “अरे दद्दू तुम बुढ़ापे के कारण डरपोक हो गये हो। भला रसोई में क्या खतरा हो सकता है। और हम ठहरे बंदर। हम तो बिजली की तेजी से कहीं से भी भाग सकते हैं।“

इस तरह से झुंड के जवान बंदरों ने रसोई में हमला बोलना जारी रखा। एक दिन वह बकरा जब रसोई में चीजें उलट पुलट रहा था तो किसी रसोईए ने जलती हुई लकड़ी बकरे को दे मारी। लकड़ी ठीक निशाने पर लगी और बकरे की खाल में आग लग गई। बकरा अपनी जान बचाने के लिये वहाँ से भागा। भागते भागते वह घोड़ों के अस्तबल में पहुँचा। घोड़े के अस्तबल में रखे पुआल में आग लग गई। आग इतनी तेजी से फैली कि घोड़ों को भागने का मौका ही न मिला। जब तक आग बुझाई जा सकी तब तक कई घोड़े जलने से मर गये। जो जिंदा बचे ते वे बुरी तरह जल चुके थे।

जिंदा बचे घोड़ों के इलाज के लिए राजवैद्य को बुलाया गया। राजवैद्य ने कहा, “घोड़ों के घावों को जल्दी से भरने का एक ही उपाय है। इसके लिए जो मलहम बनाना पड़ेगा उसके लिए बंदरों की चर्बी की जरूरत पड़ेगी।“

फिर क्या था, राजा के सैनिकों ने बंदरों को मौत के घाट उतारना शुरु किया। बंदरों का नेता पहले ही अपनी जान बचाकर भाग चुका था। उसके साथ कुछ बूढ़े बंदर तो भाग गये लेकिन जवान बंदर अभी भी वहीं डटे हुए थे। इस तरह से ज्यादातर बंदरों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।


यह कहानी मुझे भारत की नोटबंदी पर कुछ अलग तरह से सोचने को मजबूर करती है। ज्यादातर लोग उन बंदरों की तरह हैं। इन लोगों को किसी की रसोई में से माल पर हाथ साफ करने में कोई परहेज नहीं है। लेकिन उसी रसोई से कई मोटे बकरे भी लाभांवित होते रहते हैं। सरकार उन रसोइयों की तरह है जो सजा की वार्निंग देकर बकरे को डराने का काम करती है। एक दिन जब बात सिर के ऊपर से गुजरने लगी तो रसोइए ने जलती लकड़ी दे मारी। यह नोट बंदी का आदेश उसी जलती लकड़ी की तरह है। मोटे बकरे तो बचने में सफल हो गये हैं। लेकिन ज्यादातर आम लोग उन बंदरों की तरह बैंकों के बाहर लाइन में लगकर अपनी चर्बी निकलवा रहे हैं। पूरे दिन लाइन में लगेंगे तो पूरे दिन का काम डिस्टर्ब होगा। काम नहीं करेंगे तो कमायेँगे क्या और खाएंगे क्या। अभी जो नोट हाथ में हैं उनसे खा ही नहीं सकते। जब खाएंगे नहीं तो चर्बी अपने आप निकल जाएगी। 

Sunday, November 13, 2016

PINK REVOLUTION

This revolution has nothing to do with the power of women; as Amitabh Bacchan may be dreaming. This revolution is about the revolution which is being created by the introduction of pink coloured notes of 2000 denomination. The main idea behind introduction of these 2000 notes was to remove black money and corruption from India. These new notes are going to replace old notes of 500 and 1000 denomination and are sure to create a kind of economic and social revolution in India.

People of India are lapping up this revolution with great zeal. People are so enthusiastic that every citizen of India is running to banks and ATM right from 2 AM in the night. Nobody wants to miss the chance to be a part of this revolution and to be a part of history. People are happy which is evident from numerous sound-bytes from general public often saying, “This is a masterstroke indeed.”  Every such person is in the eternal hope of getting the proverbial 15 seconds of fame.

People are so happy that some of them just shove others to squeeze through half open grills of the banks. People are so happy that many of them join the queue without bothering for their daily chores, breakfast and even their jobs. Some people become so happy that they get vertigo and fall on the pavement because they become senseless. Some people have even died because of an overdose of happiness because of this revolution. They are sure to get bravery award during next year’s Republic Day parade at Rajpath.

Some of them who were lucky enough to get hold of the new notes on the first day could not conceal their glee and gave the proof in the form of numerous ‘selfies with the new note’ on social media.

The offices are empty. The farms are empty. The factories are empty. The shops are empty. Shopkeepers are still present in their shops but all the customers are in queue. Shopkeepers are eagerly waiting like expectant mothers for their customers to come with new currency notes. The association of school buses in Mumbai has already announced that they are going to stop plying school buses from 16th November. Children of Delhi’s schools erupted in joy because they are hoping of similar announcement from Delhi’s schools. So, this revolution is going to make all the school going children happy. Every child becomes happy with announcement of holidays in schools.


Every coin has two faces. This revolutionary happiness is not going to last forever. The PM has announced that he needs just 50 days to change everything. So, this happiness is going to last only for 50 days. After that, everything would come to its old mundane ways. All the happiness, zeal and enthusiasm would be gone forever. 

बैचलर किरायेदार

हर पुरुष कभी न कभी बैचलर की तरह जिंदगी जीता है। इनमे से कुछ लोग तो चिर कुँवारे होते हैं और कुछ फोर्स्ड बैचलर भी होते हैं। मैं भी कभी बैचलर था। उस जमाने में सबसे ज्यादा परेशानी होती थी किराये का मकान लेने में। मकान मालिक ऐसी निगाह से देखता था जैसे मैं उसकी बिटिया को भगा के ले जाउँगा। ज्यादातर केस में मार्केट रेट से अधिक किराया देकर मकान लेना पड़ता था। एक बार मैं एक मकान मालिक से किराये की बात कर रहा था। मैने उससे पूछा, “अंकल, आपको बैचलर को किराया देने में कोई परेशानी तो नहीं है?”

उसने जवाब दिया, “बेटा मुझे कोई परेशानी नहीं है। शराफत से रहोगे तो रहने दिये जाओगे नहीं तो मुहल्ले वाले जमकर धुनाई करेंगे और भगा देंगे।“

खैर लगभग दस सालों तक बैचलर की तरह रहने में ऐसी नौबत कभी नहीं आई कि मुहल्ले वालों को कोई मेहनत करनी पड़े। शादी होने के कुछ दिनों बाद मैं दिल्ली आ गया। मैं जिस बिल्डिंग में रहता था उसमे कोई भी बैचलर नहीं रहता था। मतलब यदि कोई कुँवारा लड़का रहता भी था तो अपने माँ बाप के साथ। सबकुछ ठीक ठाक चल रहा था कि हमारी एक पड़ोसन अपने पति के साथ ऑस्ट्रेलिया चली गईं। उनका बेटा ऑस्ट्रेलिया में रहता है। बीच में मकान की देखभाल के लिए उन्होंने अपने किसी रिश्तेदार के लड़के को अपने मकान में रहने के लिए छोड़ दिया। वह लड़का मेरी पड़ोसन की ही तरह किसी रईस घराने का लगता था। एक दो दिन बाद ही उसने ऐसे ऐसे कारनामे करने शुरु किये कि बिल्डिंग के लोगों के होश उड़ गये। बेसमेंट की पार्किंग के बाहर दो तीन बड़ी बड़ी गाड़ियाँ खड़ी हो जाती थीं जिससे अन्य लोगों को गाड़ी निकालने में काफी परेशानी होती थी। घंटों बेल बजाने के बाद ही वह अपने कमरे से निकलता था; वो भी अर्धनग्न अवस्था में। ऐसा लगता था कि उस पर हर समय ड्रग्स का नशा छाया होता था। अंदर से कई लड़के लड़कियों की शरारती हँसी भी सुनाई देती थी। यह सब लगभग छ: महीने चला। जब पड़ोसन वापस लौटकर आईं तो बिल्डिंग वालों ने उनसे जमकर शिकायत की। उन्होंने सबसे माफी मांगी। उसके बाद वह जब भी ऑस्ट्रेलिया जाती थीं तो बाहर ताला ही लटका मिलता था।

अभी हाल ही में मैंने एनसीआर के एक गेटेड सोसाइटी में शिफ्ट किया है। यहाँ जगह जगह बोर्ड लगा हुआ है कि बैचलर किरायेदार मना हैं। यहाँ पहले से रह रहे लोगों से पता चला कि पहले यहाँ काफी बैचलर किरायेदार रहते थे। आस पास कई इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कॉलेज होने की वजह से किराये पर रहने वाले लड़के लड़कियों की कमी नहीं थी। लेकिन जितने भी वैसे किरायेदार आये सबने अन्य लोगों का जीना दुश्वार कर दिया था। लोग बताते हैं कि रात रात भर तेज म्यूजिक बजता था। लिफ्ट और कॉरिडोर में बीयर और शराब की खाली बोतलें फेंकी हुई मिलती थी। पार्क में तो लड़के लड़कियों ने माहौल इतना खराब कर दिया था कि सोसाइटी के अन्य लोगों ने पार्क में जाने से तौबा कर ली थी।

यहाँ आने के बाद अखबारों में मैंने ऐसे कई आर्टिकल पढ़े हैं जिसमें बैचलर किरायेदार को मना करने की परिपाटी को रेसिज्म के तौर पर बताया गया है। वैसे आर्टिकल शायद एक खास उम्र के लोग लिखते होंगे और उसी उम्र के लोग पढ़ते होंगे।

जब मैं बैचलर था तो मुझे भी तकलीफ होती थी जब कोई मुझे किराये पर मकान देने से मना करता था। अब जब मेरा अपना परिवार है तो मुझे किसी भी बैचलर पड़ोसी से तकलीफ होती है। ये और बात है कि मुझे कभी भी किसी मकान मालिक ने बैचलर होने के कारण धक्के मारकर बाहर नहीं निकाला। ऐसा शायद इसलिए संभव हुआ कि मैने मुहल्ले के अन्य लोगों के जीवन में कोई खलल नही डाला।


अमेरिका में अब तक 44 राष्ट्रपति हुए हैं और अब पैंतालीसवाँ चुनकर आया है। सबसे कमाल की बात है कि इनमे से कोई भी बैचलर नहीं था। लेकिन भारत कुछ मामलों में अधिक प्रगतिशील है। इसलिए यहाँ बैचलर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री भी चुने जाते हैं। अमेरिकी लोगों की मान्यता है कि जो आदमी अपना परिवार नहीं संभाल सकता है वह देश कैसे संभालेगा। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री भी इस बात को साबित करते हैं। उन्हें पता ही नहीं है कि एक आम आदमी परिवार कैसे चलाता है। उन्हें पता ही नहीं है कि दो हजार या चार हजार रुपए में आज की महंगाई में कोई एक सप्ताह भी गुजारा नहीं कर सकता है। बैंकों के बाहर अपने पैसे लेने के लिए लोगों की जो लंबी कतार है उस कतार में शायद ही कोई घोटालेबाज अपने 4000 रुपए बदलवाने आया होगा। उनमें से कितनों के घरों में चूल्हा नहीं जला होगा। कितने लोग पुलिस की लाठियों से घायल हो चुके हैं। कितने लोग डिप्रेशन का शिकार हो गये हैं। कई लोग तो मर भी चुके हैं। उस लाइन में शादीशुदा भी हैं और बैचलर भी। वे लाइन में इसलिए लगे हैं ताकि वे अपनी मूलभूत आवश्यकता को पूरा करने के लिए पैसे ले सकें। हो सकता है कि भारत के लोगों को थोड़ी अकल आ जाये और वे भविष्य में किसी बैचलर किरायेदार को प्रधानमंत्री निवास में रहने से रोकें। 

Saturday, November 12, 2016

नमक का दारोगा 2016 में

यह कहानी प्रेमचंद की मूल कहानी नमक का दारोगा से थोड़ी बहुत प्रेरित है। लेकिन उससे अधिक यह कहानी अभी अभी फैली नमक की कमी की अफवाह से प्रेरित है। आपने न्यूज सुना होगा कि कैसे दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और कई अन्य राज्यों में शाम में एकाएक अफवाह फैल गई कि नमक पर बैन लगने जा रहा है। बस लोग पागल हो गये। दौड़ दौड़कर लोग नमक खरीदने लगे। थोड़ी ही देर में नमक 50 रुपए किलो के भाव से बिकने लगा। कहीं कहीं तो नमक के 450 रुपए किलो भी बिकने की बात सुनी जा रही है।

मुझ जैसे लोग जो उस भीड़ का हिस्सा नहीं बन पाये शायद यह सोच रहे होंगे कि कुछ लोग कितने मूर्ख हो सकते हैं। अब नमक ऐसी चीज तो है नहीं कि महीने भर में एक किलो की जगह दस किलो खपत हो जाये। कुछ लोग टीवी पर किसी आदमी को नमक की दस किलो की बोरी के साथ जाता देख कर भी हँसे होंगे। ऐसे लोग नमक की शक्ति को उसी तरह नजरअंदाज कर रहे थे जैसे कि अंग्रेजों ने किया था। अंग्रेजों को लगा था कि नमक जैसी तुच्छ चीज को किसी आंदोलन का मुद्दा बनाकर गांधीजी कुछ नहीं कर पाएँगे। लेकिन गांधीजी जनता की नब्ज को भलीभाँति जानते थे। उन्हें नमक की शक्ति के बारे में पूरी तरह से पता था। यह सब गांधीजी के नमक आंदोलन की सफलता से जाहिर होता है।

सरकार के कुछ मंत्री भी गांधीजी के ज्ञान का महत्व शायद समझते हैं। इसलिए सरकार के नुमाइंदे झटपट टीवी पर आकर नमक की कमी का खंडन करने लगे और जनता से धैर्य रखने की अपील करने लगे। ऊपर वाले का लाख लाख शुक्रिया कि नमक के लिये यह पागलपन थोड़ी देर तक ही चला और फिर सबकुछ सामान्य हो गया। लेकिन इस बीच पूरे देश में करोड़ों रुपए के नमक की बिक्री तो जरूर हो गई होगी। मामला बहुत संगीन हो गया था और उसकी गंभीरता का आकलन इस बात से लगाया जा सकता है कि टीवी पर कई जिलों के जिलाधिकारियों को इस मुद्दे पर बयान देते हुए दिखाया गया।

अब नमक के अप्रत्याशित उछाल और जिलाधिकारियों के बयान में क्या संबंध है यह शोध का विषय हो सकता है। इसकी कुछ बानगी मेरे मुहल्ले में लोगों से पता चली। मुहल्ले के पास स्थित थाने में एक दारोगा जी पदस्थापित हैं। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि ऐसे दारोगा तो हर थाने में होते हैं। अब ये दारोगा कोई नमक के दारोगा तो नहीं हैं जैसा कि मुंशी प्रेमचंद के जमाने में होते थे। नमक के दारोगा की कमी को इस दारोगा ने दूर करने की भरपूर कोशिश की। उसने तुरंत अपने सिपाहियों को बुलाया और उनसे कहा, “सुनने में आया है कि कल शाम मुहल्ले के किराना वालों ने जमकर नमक बेचा है; वो भी ऊँचे दामों पर। जब से नोट बंदी हुई है तब से कोई चढ़ावा भी नहीं दे गया। अभी मौका है। फौरन जाओ और उनसे वसूली करके ले आओ।“

सिपाहियों ने एक सुर में कहा, “यस सर।“

सिपाही जैसे ही बाहर की ओर दौड़ने लगे तो दारोगा जी ने कहा, “ध्यान रहे, किसी से 500 या 1000 के नोट मत ले लेना। खपाने में मुश्किल होगी। फिर इनकम टैक्स वाले भी अपना हिस्सा माँगने लगेंगे।“

सिपाहियों ने फिर कहा, “यस सर।“

दारोगा जी ने भी लगता है प्रेमचंद की नमक का दारोगा वाली कहानी पढ़ी थी। वे उस कहानी के नायक से प्रभावित नहीं थे। वे तो उस नमक के दारोगा के पिता से अधिक प्रभावित थे। आपको याद दिलाने के लिए बता दूँ कि नमक के दारोगा के पिताजी ने बताया था कि वेतन तो पूर्णमासी का चाँद होता है जो दिन प्रतिदिन घटता जाता है। ऊपरी आमदनी तो बहते झरने के समान होती है जिसमें कोई जब चाहे अपनी प्यास बुझा लेता है।

लगभक एक घंटे बाद दारोगा जी के सिपाही विजयी मुसकान के साथ वापस आये। प्रति दुकानदार पचास हजार रुपए के दर से उन्होंने दस लाख रुपये की उगाही की थी। दारोगा जी ने प्रति सिपाही दस दस हजार रुपये बाँट दिये। इस तरह से पचास हजार रुपये सिपाहियों में बँट गये। फिर दारोगा जी ने अपनी जेब में एक लाख रुपये रख लिए। ऐसा देखकर एक सिपाही ने पूछा, “साहब, इतना कम।“


इस पर दारोगा जी ने एक ठंडी सांस ली और कहा, “अबे गदहों, मालूम नहीं है कि ऊपर तक पहुँचाना होता है।“ 

Friday, November 11, 2016

छुट्टा घटता गया कारवां बनता गया

आपने वह मशहूर शेर जरूर सुना होगा, “हम तो अकेले चले थे मंजिले जानिब, लोग आते गये कारवां बनता गया।“ इस शेर का भावार्थ जो मेरी समझ में आता है वह ये है कि यदि आप कोई अच्छा काम करते हैं तो लोग अपने आप ही आपके पीछे चले आते हैं।
लेकिन क्यू के इस युग में इस शेर का अर्थ बेमानी साबित होता है। आप जहाँ भी जाएँ आपको कतार में खड़े होना पड़ता है। स्कूल में एडमिशन से लेकर फिल्म के टिकट लेने तक और यहाँ तक कि शमशान तक भी लाइन में ही लगना पड़ता है। आजकल तो कई बार मोबाइल पर कॉल करने में भी पुराने जमाने के एसटीडी कॉल का संदेश “आप कतार में हैं” सुनाई पड़ता है। जरूरी नहीं कि हर बार आप कोई अच्छा काम ही कर रहे हों या आप ही कतार में सबसे आगे खड़े हों। किसी मशहूर कवि ने क्यू युग पर लिखी एक कविता में कहा भी था कि जब वह आत्महत्या करने के लिए कुतुब मीनार से कूदने ही वाला था तो पीछे वाले ने कहा कि भाई साहब लाइन से आइए।

अभी भारत में जिसे देखो वही कतार में लगने दौड़ा चला जा रहा है। ऐसा इसलिए हुआ है कि हर किसी के पास छुट्टे का अकाल पड़ गया है। छुट्टे का क्या रुपए का ही अकाल पड़ गया है। अब तो कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता होगा, “कीप द चेंज”। बेचारे वेटर या टैक्सी वाले अब इस शब्द को सुनने के लिए तरस जाते होंगे। बल्कि सोशल मीडिया पर तो एक टैक्सी वाले की इसलिए बड़ाई हो रही है कि उसने पैसेंजर से कहा, “कीप द चेंज”।

बहरहाल रुपए चेंज करवाने के लिए क्यू में किस तरह लगते हैं इसका पूरा विवरण टीवी वाले पूरे दिन दे रहे हैं। हालत इतनी खराब हो गई कि देश के अघोषित युवराज भी कल पूरे लाम लिफाफे के साथ क्यू में लगे नजर आये। क्यू में लगने के लिए कितनी तैयारी करनी पड़ती है यह तो शायद राहुल गांधी या मोदी जी की समझ में नहीं आयेगा। उनके लिए तो कई लोग आसानी से क्यू में आगे लगने की जगह दे देंगे। मैं तो सामजिक व्यवस्था के पायदान के निकट हूँ इसलिए मेरी वैसी किस्मत कहाँ। मैं जिस टावर में रहता हूँ वहाँ की बालकनी से सड़क के सामने वाला बैंक दिखाई नहीं देता है। इसलिए मैने अपने एक मित्र को फोन किया जो आगे वाले टावर में रहता है। उसकी बालकनी से सामने वाला बैंक दिखाई देता है। उसने बताया कि वहाँ पर सुबह से ही लाइन लगना शुरु हो गई थी। उसने बताया कि कोई दो सौ आदमी लाइन में होंगे। अभी सुबह के आठ ही बजे थे इसलिए मैने जल्दी से जाकर लाइन में लगना ठीक समझा। मेरी कारवां शुरु करने की महात्वाकांछा धरी रह गई। मैने सभी पहचान पत्रों की फोटो कॉपी और ओरिजिनल एक थैले में डाली और चल पड़ा बैंक की ओर।

जैसे ही मैं अपने दरवाजे से बाहर निकलने को हुआ तो मेरी बीबी ने पूछा, “अरे चाय तो पीते जाओ। नाश्ते में क्या बनाऊँ?”

मैने कहा, “पास में बेकार नोट है और तुम्हें चाय की पड़ी है। मैं तुम्हारा आईडी कार्ड भी ले जा रहा हूँ। नहा धोकर तुम भी आ जाना। साथ में अल्मुनियम फॉयल में ब्रेड जैम लपेट लेना और हो सके तो एक फ्लास्क में चाय ले आना। दोनों लोग रहेंगे तो आठ हजार तो चेंज हो ही जायेगा। उन पैसों से एक महीना चला लेंगे।“

मेरी बीबी ने कहा, “हाँ तब तक उम्मीद है कि बड़े लोगों का पेट भर चुका होगा और फिर आम लोगों के लिए बैंकों में कैश की कमी नहीं होगी।“

लिफ्ट से नीचे उतरने के बाद मैंने बैंक की तरफ दौड़ लगा दी। सोचा इसी बहाने सुबह की जॉगिंग भी हो जायेगी। जब तक मैं पहुँचा तब तक कतार में कोई पाँच सौ आदमी पहले से लगे हुए थे। महिलाओं की लाइन अलग लगी थी। उधर से कोलाहल भी अधिक हो रहा था और आगे बैंक के अधखुले ग्रिल से अंदर घुसने के लिए धक्कामुक्की भी हो रही थी। बैंक के बाहर जो एटीएम लगा था उसके बाहर सन्नाटा था। यहाँ पर रहने वाले लोगों को पता है कि यह एटीएम अच्छे दिनों में भी शायद ही काम करता है इसलिए परेशानी के दिनों में इसके काम करने का कोई मतलब ही नहीं था। मेरी लाइन में मुझसे तीन चार नंबर आगे एक जवान आदमी व्हीलचेयर पर बैठा था। जवान होने के कारण वह बुजुर्गों वाली लाइन में नहीं जा सकता था। बैंक वालों के पास इतनी फुरसत कहाँ कि किसी दिव्यांग” के बारे में सोचते। फिर बैंक के अधखुले ग्रिल से वह अंदर कैसे जाता।

महिलाओं वाली लाइन में मुझे कई परिचित पड़ोसनें दिखाई पड़ीं। उनमें से एक से मैने पूछा, “भाभी जी, अगर कोई प्रॉब्लम न हो तो मेरी बीबी के लिए अपने पीछे वाली जगह बुक कर देंगी?”

पड़ोसन ने जवाब में अपना खिला चेहरा दिखाया और कहा, “मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है लेकिन मेरे पीछे जो महिलाएँ खड़ी हैं वे तो मुझे मार ही डालेंगी।“

लोगों को पता था कि उनका नम्बर आने में घंटों लग जाएँगे। इसलिए टाइम पास करने के लिए सब लोग इस ज्वलंत मुद्दे पर अपने अपने विचार प्रकट कर रहे थे। मेरे आगे खड़े सज्जन ने कहा, “भाई साहब, मान गये प्रधानमंत्री को। क्या मास्टरस्ट्रोक है। इससे कालाबाजारियों की हवा निकल जायेगी।“

वे सज्जन पास में ही एक दवा की दुकान चलाते हैं। मैंने उनसे कहा, “अच्छा, और आप जो कल पाँच सौ से कम की दवा देने को मना कर रहे थे वो कालाबाजारी नहीं तो और क्या थी।“

उन सज्जन ने जवाब दिया, “भाई साहब मैने जब किसी भी सामान का प्रिंटेड रेट से अधिक नहीं लिया तो कालाबाजारी कैसे हुई। अब आप बताइए कि मैं छुट्टे कहाँ से लाऊँ? आज से सब को उधार दे रहा हूँ सो अलग।

मैने पूछा, “जहाँ तक इतने सालों से मैने आपको देखा है तो मुझे तो आप केजरीवाल के सपोर्टर लगते हैं। आज पाला कैसे बदल लिया।“

उन सज्जन ने जवाब दिया, “भाई साहब, अब तो डर लगने लगा है। इस भीड़ में अगर बीजेपी के खिलाफ कुछ कहा तो पब्लिक कूट देगी। जिधर की हवा चले बस उधर ही मुँह कर लेने में भलाई है।“

लगभग एक घंटे के बाद मेरी बीबी भी ब्रेड जैम और चाय लेकर आ गई। मेरे हाथ में चाय और नाश्ता पकड़ाकर वह महिलाओं वाली लाइन में खड़ी हो गई। उसका नंबर मुझसे कम से कम पचास साठ नंबर पीछे था। मुझे लग रहा था कि आज पूरे दिन उपवास करना पड़ेगा। एक दो कचौड़ी सब्जी वाले वहाँ पर इस उम्मीद में आये कि कुछ बिक्री हो जाये। लेकिन छुट्टे की कमी के कारण बेचारे थोड़ी देर इंतजार करने के बाद मुँह लटका कर चले गये।


मैने अपने बेटे को फोन लगाया और बोला, “बारह बजे के आसपास यहाँ आ जाना और लाइन में मेरी जगह खड़े हो जाना। मैं घर जाकर मैगी खा लूँगा और तुम्हारी मम्मी के लिए भी बना लूँगा। फिर मेरे आने के बाद तुम वापस चले जाना।“ 

नोट कैसे बदलें?

नब्बे के दशक तक भारत के लोग अभाव में जीने में माहिर थे। लेकिन आर्थिक उदारवाद के परिणाम आने के बाद से लोगों की जीवन शैली काफी बदल गई है। अब ज्यादातर लोग सुविधा भोगी हो गये हैं। 500 और 1000 के नोट बंद करने के फैसले से लोगों को फिर से एक बार अभाव में जीना पड़ेगा; कुछ दिनों के लिए ही सही।

अभी नोटों के बदलने का सिलसिला शुरु हुए दो दिन भी नहीं बीते हैं। दोनों दिन सुबह सुबह मैं 
सड़क के दूसरी तरफ के बैंक में जा चुका हूँ। लेकिन वहाँ लगी भीड़ को देखकर मेरी हिम्मत नहीं हुई है कि लाइन में लग जाऊँ। इसके कई अन्य कारण भी हैं। मुहल्ले के किराने वाले अभी भी पुराने नोट ले रहे हैं; हाँ उसके बदले में कम से कम चार सौ रुपए की खरीददारी करनी पड़ती है। आठ तारीख की रात को मैंने अपनी कार और बाइक की टंकी फुल करवा ली थी। अब एक लेखक होने के कारण मुझे कहीं आने जाने की जरूरत कम ही पड़ती है इसलिए इतना पेट्रोल मेरे लिये महीने भर से भी अधिक के लिए काफी होगा। स्कूल की फीस भी जमा हो चुकी है क्योंकि स्कूल वाले पुराने नोट लेने को तैयार हो गये। दीवाली से पहले ही मैंने लगभग दो महीने का राशन खरीद लिया था इसलिए उसकी कोई चिंता नहीं है। हाथ में थोड़े बहुत छोटे नोट हैं जिससे उम्मीद है कि काम चल जायेगा। शायद नोटों की कम जरूरत होने के कारण मुझे अभी बैंक में जाकर लाइन लगने की जरूरत नहीं है। मेरा एटीएम कार्ड अभी हाल ही में ब्लॉक हो गया था इसलिए उसे इस्तेमाल करने का सवाल ही नहीं उठता। अब नोट बदलने के चक्कर में बैंक वाले मेरा एटीएम कार्ड शायद ही समय पर भेजें। इस तरह से नोट बदलवाने के लिए लाइन में लगने में होने वाली परेशानियों के बारे में मेरे पास कोई अनुभव नहीं है। लेकिन मेरे पास नब्बे के दशक तक लंबी लाइनों में लगने का पुराना अनुभव है इसलिए उनके बारे में तो लिख ही सकता हूँ। मेरे जमाने के लोग शायद इन अनुभवों से जरूर रूबरू हुए होंगे।
सबसे पहले बात करते हैं दूध की। आज आप जब चाहें किसी भी किराना दुकान से दूध खरीद सकते हैं। उस जमाने में पैकेट वाला दूध नया नया आया था। उसके पहले हर घर में अनिकस्प्रे या एवरीडे का पैकेट जरूर होता था। दूध फट जाने की स्थिति में या बिन बुलाये मेहमान के आने की स्थिति में अनिकस्प्रे से चाय तो बन ही जाती थी। जब पैकेट वाला दूध आया तो उसे लेने के लिए मुझे सुबह पाँच बजे ही जाकर लाइन में लगना पड़ता था। सात बजे के आस पास दूध की गाड़ी आती थी और तब दूध लेने के लिए बड़ी धक्कामुक्की करनी पड़ती थी। यदि किसी तीज त्योहार में अधिक दूध की जरूरत होती थी तो उसके लिये दूधवाले को एक दिन पहले पूरा एडवांस देना होता था। उसके बावजूद भी यदि जरूरत के मुताबिक दूध मिल जाता था तो हम अपने आप को खुशकिस्मत समझते थे।

आपने शायद सुना होगा कि उस जमाने में मोटरसाइकिल या स्कूटर खरीदने के लिए कम से साल भर के लिये नंबर लगाना पड़ता था। उससे पहले खरीदने के लिए ब्लैक मार्केट का सहारा लेना पड़ता था। मैने भी एक प्रिया स्कूटर खरीदा था 1989 में। ब्लैक में मिलने की वजह से वह स्कूटर किसी दूसरे व्यक्ति के नाम से था। उस समय प्रिया स्कूटर का दाम शायद 8,000 रुपए था और उसपर मुझे 1,500 रुपए ब्लैक के देने पड़े थे; जो कीमत का लगभग 16% होता है। फिर उस स्कूटर का रजिस्ट्रेशन नंबर लेने और उसे अपने नाम से करवाने में मुझे जो परेशानी हुई थी मुझे आज तक याद है। ट्रांसपोर्ट ऑफिस के चक्कर लगाते लगाते मेरे तलवे घिस गये थे। ये बात और है कि साथ में दलाल को भी पैसे देने पड़े थे।

उस जमाने में गैस सिलिंडर की भी भारी किल्लत हो जाती थी। यह शायद 1990 की बात है। गैस सिलिंडर की भारी किल्लत चल रही थी। पता चला कि गैस एजेंसी में नम्बर लगाने के लिए सुबह सुबह ही लाइन में लगना पड़ेगा। गैस एजेंसी के बाहर लगभग छ: सात घंटे लाइन में लगने के बाद नम्बर लग पाया। वहाँ बताया गया कि ठीक दस दिन के बाद थाने में रसीद कटवाने के लिए लाइन लगेगी। ठीक दस दिन बाद हमलोग नगर थाने के पास पहुँच गये। मुहल्ले के जितने उन्नीस बीस साल के लड़के लड़की थे सब जाकर लाइन में लग गये। लड़कियों को इस उम्मीद में ले जाया गया कि महिलाओं के लिये शायद छोटी लाइन हो। लेकिन वहाँ तो महिलाओं की लाइन पुरुषों की लाइन से ज्यादा लंबी थी। शायद सब लोग बुद्धिमान हो चुके थे और मेरी तरह ही सोच रहे थे। सुबस से ही लाइन लगी थी। बीच बीच में एक दो लड़के घर जाकर सबके लिये नाश्ते का पैकेट ले आते थे। इस तरह से लाइन में मेहनत करने के बाद लगभग एक बजे दोपहर को हमारा नंबर आया और गैस की रसीद कटी। उसके बाद हम पाँच लड़कों ने अपनी अपनी साइकिल निकाली। हर साइकिल की बगल में दो दो खाली सिलिंडर लटकाये गये। लड़कियों को घर जाने की इजाजत मिल गई। उसके बाद सारे लड़के गैस गोदाम की तरफ रवाना हुए। गैस गोदाम हमारे मुहल्ले से कोई सात आठ किमी की दूरी पर था। सड़क खराब होने के कारण ज्यादातर समय साइकिल को हाथ से ही खींचकर ले जाना पड़ा। गनीमत ये थी कि गैस गोदाम में भरा सिलिंडर लेने में बहुत देर नहीं लगी। जब हम शाम में भरे सिलिंडर लेकर पहुँचे तो हमारा स्वागत वैसे ही हुआ जैसे हम क्रिकेट का कोई टूर्नामेंट जीतकर पहुँचे हों।


अब तो नब्बे के दशक को बीते हुए दो दशक पूरे होने को हैं। अब ना तो गैस की मारामारी है ना ही टेलिफोन कनेक्शन की। अब तो मिडल क्लास भी कार चढ़ने लगा है। लगता है कि लोगों की सुख शांति हमारे शासक वर्ग से देखी नहीं गई। इसलिए सबसे पहले तो सुरक्षा के नाम पर करोड़ों लोगों के एटीएम ब्लॉक हो गये। उसके बाद नोट बंद करने का एक बड़ा धमाका किया गया। मुझे पूरी उम्मीद है कि जब शासक वर्ग के लोग टीवी पर लोगों को बैंकों के बाहर धक्कामुक्की करते देखते होंगे तो आपस में कहते होंगे, “ये है प्रजा की असली हकीकत। प्रजा को प्रजा की तरह रहना चाहिए। समय समय पर इन्हें याद दिलाते रहना चाहिए कि असली बॉस कौन है।“ 

Wednesday, November 9, 2016

काले से सफेद

सेठजी बड़े चिंतित लग रहे थे। जैसे ही 500 और 1000 रुपए के नोट को बंद करने की खबर आई सेठ जी ने तुरंत दुकान का शटर गिरवा दिया था। उसके बाद उन्होंने अपने सभी स्टाफ को नोटों की गिनती के काम में लगा दिया था। साथ में सेठ जी भी अपने टेबल पर नोटों के बंडल गिन रहे थे। जब उन्होंने अपने बैंक के मैनेजर को फोन करके पूछा था तो उसने बताया था कि चिंता की कोई जरूरत नहीं क्योंकि करेंट एकाउंट में कोई भी राशि जमा की जा सकती है। लेकिन सेठ जी को इस बात की चिंता खाये जा रही थी कि नॉर्मल सेल से यदि बहुत ज्यादा रकम जमा की जाए तो समस्या खड़ी हो सकती थी। साथ में बैंक वालों को नोट की गिनती के लिए दी जाने वाली कमीशन की राशि को लेकर भी वे उधेड़बुन में लगे हुए थे। बैंक के मैनेजर ने बताया था कि जैसे ही बैंक खुलेगा तो बैंक में भारी भीड़ होगी। लोग नोट बदलवाने आयेंगे। इसलिए उसने नोट गिनती करने का कमीशन का रेट दोगुना कर दिया था।

अभी सेठ जी इस अचानक से आई समस्या से निपटने की तैयारी कर ही रहे थे कि उनके मोबाइल फोन की घंटी बजी। जब उन्होंने देखा कि वह फोन बाबू भैया का था तो सेठ जी के माथे पर पसीने की बूँदे छा गईं। बाबू भैया उसी शहर के एक खुर्राट नेता हैं। वे एक दबंग किस्म के नेता हैं जिनके खिलाफ हत्या, लूटपाट, चार सौ बीसी और बलात्कार के कितने मुकदमे चल रहे हैं। लेकिन बाबू भैया इतने स्मार्ट नेता हैं कि हमेशा सत्ताधारी पार्टी में ही रहते हैं। भविष्य सूंघने के मामले में वे रामविलास से कम नहीं हैं इसलिए हमेशा ही किसी न किसी मंत्रीपद पर आसीन रहते हैं।

सेठ जी ने जेब से मुड़ा तुड़ा और बदबूदार रूमाल निकाला और उससे अपने माथे का पसीना पोंछते हुए फोन कॉल रिसीव किया, “नमस्कार बाबू भैया। कहिए कैसे याद किया? ………जी जी मैं अच्छा हूँ। .......जी जी बस आपकी दया दृष्टि बनी रहे।“

उधर से बाबू भैया ने खून जमाने वाली आवाज में फरमान सुनाया, “आठ बजे जो न्यूज आया है उसे देखा ही होगा। मैं आज रात तुम्हारे पास पाँच करोड़ भिजवाउँगा। सारे 500 या 1000 के नोट हैं। चार दिन के अंदर मुझे उसके बदले में नये नोट चाहिए।“

सेठ जी ने हकलाते हुए कहा, “लेकिन बाबू भैया, इतनी जल्दी कैसे हो पाएगा? शुरु में तो बैंकों के बाहर लंबी लाइन लगी रहेगी। मामला लाइन पर आने में कम से कम एक हफ्ता तो लगेगा। फिर मैं उन 500 और 1000 के नोटों का क्या करूंगा?”

बाबू भैया ने कहा, “तुम क्या करोगे ये मेरी प्रॉब्लेम नहीं है। अगले दो महीने में चुनाव होने हैं। पार्टी फंड के लिए पैसा चाहिए।“

सेठ जी ने कहा, “बाबू भैया, कुछ मोहलत दे देते तो ठीक होता। इतनी जल्दी तो मैं बरबाद हो जाउंगा।“

बाबू भैया ने कहा, “यदि मेरा काम नहीं हुआ तो तुम वैसे भी बरबाद हो जाओगे। एक बार फिर से सरकार बन जाने दो फिर तुम्हारे नुकसान की भरपाई हो जाएगी। तुम्हें शहर का मेयर बनवा दूँगा। फिर कमा लेना जितना चाहो।“


सेठ जी ने थूक निगलते हुए कहा, “जैसा आप ठीक समझें बाबू भैया।“