पंचतंत्र की सभी कहानियाँ मजेदार
हैं और सबसे कोई न कोई शिक्षा जरूर मिलती है। पंचतंत्र की कहानियाँ आज भी लोकप्रिय
हैं क्योंकि उनका रेलिवेंस आज भी है। इन्हीं में से एक कहानी है एक बंदर और उसके झुंड
की।
किसी राज्य में बंदरों का एक
झुंड किसी राजा के राजमहल के प्रांगन में रहता था। बंदरों के झुंड का नेता बड़ा समझदार
हुआ करता था। उस राज्य के राजकुमार को जानवरों से बहुत प्यार था। इसलिए बंदरों को कोई
परेशान नहीं करता था। बंदर बेरोकटोक कहीं भी आते जाते थे और अपनी मनपसंद चीजों पर हाथ
साफ किया करते थे। कभी कभी वे राजमहल की रसोई में भी धावा बोल देते थे और कुछ न कुछ
उड़ाकर उसका मजा लिया करते थे। उसी रसोई में एक बकरा भी घुस जाया करता था। बकरा बहुत
शरारती था और खाने के अलावा चीजों को तहस नहस भी करता था। राजा के रसोइए अक्सर उस बकरे
को भगाने के लिए हाथ में जो कुछ आता उसे उठाकर बकरे की ओर फेंक देते थे।
बंदर के नेता ने एक दिन अपने
झुंड के बंदरों से कहा, “यह रसोई उस बकरे की वजह से खतरनाक हो सकती है। इसलिए हमें रसोई
के भोजन को भूलना पड़ेगा। हमारे खाने के लिए फलों से लदे इतने वृक्ष हैं कि उनसे हमारा
काम चल सकता है। मेरी बात मानो तो रसोई से दूर ही रहो।“
बंदरों का नेता बूढ़ा हो चुका
था। जैसा कि अक्सर होता है उस बूढ़े की बातों पर उस झुंड के जवान बंदरों ने ध्यान नहीं
दिया। एक जवान बंदर ने तो यहाँ तक कह दिया, “अरे दद्दू तुम बुढ़ापे के कारण डरपोक हो गये हो। भला
रसोई में क्या खतरा हो सकता है। और हम ठहरे बंदर। हम तो बिजली की तेजी से कहीं से भी
भाग सकते हैं।“
इस तरह से झुंड के जवान बंदरों
ने रसोई में हमला बोलना जारी रखा। एक दिन वह बकरा जब रसोई में चीजें उलट पुलट रहा था
तो किसी रसोईए ने जलती हुई लकड़ी बकरे को दे मारी। लकड़ी ठीक निशाने पर लगी और बकरे की
खाल में आग लग गई। बकरा अपनी जान बचाने के लिये वहाँ से भागा। भागते भागते वह घोड़ों
के अस्तबल में पहुँचा। घोड़े के अस्तबल में रखे पुआल में आग लग गई। आग इतनी तेजी से
फैली कि घोड़ों को भागने का मौका ही न मिला। जब तक आग बुझाई जा सकी तब तक कई घोड़े जलने
से मर गये। जो जिंदा बचे ते वे बुरी तरह जल चुके थे।
जिंदा बचे घोड़ों के इलाज के
लिए राजवैद्य को बुलाया गया। राजवैद्य ने कहा, “घोड़ों के घावों को जल्दी से भरने का एक ही उपाय है।
इसके लिए जो मलहम बनाना पड़ेगा उसके लिए बंदरों की चर्बी की जरूरत पड़ेगी।“
फिर क्या था, राजा के सैनिकों ने बंदरों को मौत के घाट उतारना शुरु किया।
बंदरों का नेता पहले ही अपनी जान बचाकर भाग चुका था। उसके साथ कुछ बूढ़े बंदर तो भाग
गये लेकिन जवान बंदर अभी भी वहीं डटे हुए थे। इस तरह से ज्यादातर बंदरों को अपनी जान
से हाथ धोना पड़ा।
यह कहानी मुझे भारत की नोटबंदी पर कुछ अलग तरह से सोचने को मजबूर
करती है। ज्यादातर लोग उन बंदरों की तरह हैं। इन लोगों को किसी की रसोई में से माल
पर हाथ साफ करने में कोई परहेज नहीं है। लेकिन उसी रसोई से कई मोटे बकरे भी लाभांवित
होते रहते हैं। सरकार उन रसोइयों की तरह है जो सजा की वार्निंग देकर बकरे को डराने
का काम करती है। एक दिन जब बात सिर के ऊपर से गुजरने लगी तो रसोइए ने जलती लकड़ी दे
मारी। यह नोट बंदी का आदेश उसी जलती लकड़ी की तरह है। मोटे बकरे तो बचने में सफल हो
गये हैं। लेकिन ज्यादातर आम लोग उन बंदरों की तरह बैंकों के बाहर लाइन में लगकर अपनी
चर्बी निकलवा रहे हैं। पूरे दिन लाइन में लगेंगे तो पूरे दिन का काम डिस्टर्ब होगा।
काम नहीं करेंगे तो कमायेँगे क्या और खाएंगे क्या। अभी जो नोट हाथ में हैं उनसे खा
ही नहीं सकते। जब खाएंगे नहीं तो चर्बी अपने आप निकल जाएगी।