माँझी फिल्म को बहुत सराहा
गया था और उसके पीछे की एक वजह थी नवाजुद्दीन सिद्दीकी की गजब की ऐक्टिंग। यदि
आपने इस फिल्म को देखा होगा तो उसका एक सीन याद कीजिये। इस सीन में दशरथ माँझी बड़ा
हो जाता है और धनबाद की कोल माइंस से कमाकर अपने गाँव लौट रहा होता है। गाँव में
पहुँचते ही उसे पता चलता है कि सरकार ने ऐलान कर दिया है कि अब उँची जाति और नीची
जाति के लोगों में कोई भेदभाव नहीं है। उस गाँव के दलित लोग इस बात का जश्न मनाने
लगते हैं। दशरथ माँझी भी अपनी भावनाओं में बह जाता है और जाकर मुखिया के बेटे के
गले लग जाता है। अब कानून बनाने से समाज की कुरीतियाँ तो खत्म नहीं हो जातीं।
इसलिए बदले में दशरथ माँझी की जमकर पिटाई की जाती है। उसका दोष इतना है कि एक दलित
होते हुए भी उसने एक सवर्ण के गले लगने की कोशिश की थी। बेचारा दशरथ माँझी अपमान
का घूँट पी जाता है और अपने घर पहुँचकर अपने लोगों के साथ नाचने लगता है।
नवाजुद्दीन सिद्दीकी को
दशरथ माँझी की जगह रखकर यदि यह सीन लिखा जाये तो कम दिलचस्प नहीं होगा। नवाजुद्दीन
सिद्दीकी बुढ़ाना के रहने वाले हैं। बुढ़ाना में यूँ तो हिंदू और मुस्लिम दोनों
धर्मों के लोग रहते हैं लेकिन इन दोनों समुदायों के बीच की खाई पिछले कुछ वर्षों
में और भी चौड़ी हो गई है। नवाजुद्दीन सिद्दीकी की मुसीबतें एक नहीं रही होंगी
बल्कि कई होंगी। कल्पना कीजिये कि नवाजुद्दीन सिद्दीकी को बचपन से ही कितने ताने
झेलने पड़े होंगे।
आँखों में सपने और दिल में
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अपना नाम रोशन करने के जज्बे से जब नवाजुद्दीन सिद्दीकी
मुम्बई पहुँचे होंगे तो लोगों ने उनपर फब्तियाँ कसी होंगी। काला कलूटा, पतला दुबला और बदसूरत सा लड़का भला कैसे बॉलीवुड स्टार बनने
के बारे में सोच सकता है। जब शुरु में छोटे मोटे रोल मिले होंगे तो हताशा भी हुई
होगी।
फिर भी अपनी प्रतिभा और लगन के दम पर नवाजुद्दीन सिद्दीकी
ने हिंदी फिल्म जगत में अपनी पहचान बना ही ली। कुछ लोग शायद ये भी आरोप लगाएँ कि
चूँकि बॉलीवुड पर मुसलमान कलाकारों का वर्चस्व है इसलिये नवाजुद्दीन सिद्दीकी को
इतने मौके मिले। लेकिन वे शायद ये भूल जाते हैं कि फिल्मों में सफल होना पूरी तरह
जनता पर निर्भर होता है। यदि ऐसा नहीं होता तो आज कुमार गौरव और अभिषेक बच्चन सुपर
स्टार होते। यदि ऐसा नहीं होता तो शाहरुख खान और रणवीर सिंह जैसे लोगों का नाम कोई
भी नहीं जानता।
बहरहाल; नाम और पैसा कमाने के बाद नवाजुद्दीन
सिद्दीकी अपने गाँव लौट रहे हैं। वे माँझी की तरह बस की छत पर बैठकर नहीं आ रहे
हैं बल्कि अपने पैसों से खरीदी हुई महँगी कार में आ रहे हैं। गाँव से कुछ दूर पहले
जब वे एक ढ़ाबे पर रुकते हैं तो वहाँ बैठे कई लोग उन्हें पहचानने की कोशिश करते हैं
लेकिन पहचान नहीं पाते हैं। अब ऊपर वाले ने शकल ही इतनी खराब बनाई है कि कोई इतनी
आसानी से उन्हें स्टार नहीं मान पाता। आखिर में एक पंद्रह सोलह साल का लड़का एक
फिल्मी मैगजीन में छपी फोटो से मिलान करने के बाद इस बात की पुष्टि कर देता है साक्षात
नवाजुद्दीन सिद्दीकी ही उनके सामने बैठे हैं। फिर ढ़ाबे वाला मुफ्त में कोल्ड
ड्रिंक बाँटता है और उसके बाद नवाजुद्दीन के साथ सेल्फी लेने का दौर चलता है।
गाँव में पहुँचते ही नवाजुद्दीन के स्वागत में तोरण द्वार
सजे हुए हैं। एक बड़ी भीड़ फूल मालाओं से उनका स्वागत करती है। उस भीड़ में ज्यादातर
नेता टाइप के लोग हैं। इसलिए आम जनता की भीड़ छतों से ही नवाजुद्दीन की झलक लेने की
कोशिश कर रही है।
शाम में नवाजुद्दीन अपने घर के बाहर के दलान में बैठे हैं।
उनके चारों ओर चाटुकारों की पूरी फौज है। नवाजुद्दीन सिद्दीकी थोड़ा गंभीर होकर कहते
हैं, “भैया, ऊपर वाले की दया से मुझे अपना मुकाम मिल गया।
अब सोचता हूँ कि अपने गाँव के लिये कुछ करूँ।“
वहाँ बैठे लोगों में से एक सख्श कौतूहल भरे स्वर में पूछता
है, “वाह क्या बात कही है। क्या गाँव में सिनेमा हॉल खोलना चाहते हो?”
नवाजुद्दीन थोड़ा मुसकरा कर कहते हैं, “अब
पाइरेटेड मूवी के जमाने में कौन जाता है सिनेमा हॉल। बचपन से ही एक अरमान था कि
गाँव की रामलीला में कोई रोल मिल जाता। अब मेरी सूरत देख ही रहे हो। इस सूरत पर
राम का क्या रावण का रोल भी न मिले। इसलिये जो भी कोई छोटा मोटा रोल मिल जायेगा
वही करके तसल्ली हो जायेगी।“
गाँव के सरपंच भी वहीं बैठे हैं। वे कहते हैं, “भैया
बात तो तुमने लाख टके की कही है। लेकिन इसमें एक अड़चन है। तुम तो ठहरे एक मुसलमान
और रामलीला तो हिंदुओं की होती है। भला तुमको कोई रामलीला में रोल कैसे देगा।“
नवाजुद्दीन ने कहा, “क्या बात करते हो चाचा। दिल्ली में तो
कितने ही मुस्लिम कलाकार रामलीला में काम करते हैं। मैंने सुना है कि दिल्ली की एक
रामलीला में रावण का रोल कोई मुसलमान करता है।“
सरपंच ने कहा, “भैया, ये दिल्ली
नहीं है। मैने अपने बाल धूप में सफेद नहीं किये हैं। अब तो सुना है कि दिल्ली की
भी हवा बदली बदली सी लगती है।“
नवाजुद्दीन ने कहा, “अरे चाचा, आपकी तो
पूरे गाँव में बहुत इज्जत है। आप चाहें तो रामलीला कमेटी वालों से मेरे लिये बात
चला सकते हैं।“
सरपंच ने कहा, “ठीक है, मैं कोशिश
करूँगा। लेकिन याद रखना, अपनी जान माल की सुरक्षा की जिम्मेदारी
तुम्हें खुद लेनी होगी।“
उस छोटी सी मीटिंग के बाद अगले दिन सरपंच रामलीला कमेटी से
मिलने गये। सरपंच की बात सुनकर तो रामलीला कमेटी में जैसे भूकंप आ गया। रामलीला
कमेटी के एक सदस्य ने कहा, “आप हमरे बड़े बुजुर्ग हैं इसलिए आप अभी तक
जीवित हैं। आप तो पूरे गाँव का धर्म भ्रष्ट करने पर तुले हुए हैं। आप ये मत भूलें
कि रामकथा जिस जमाने की है उस जमाने में मुसलमान जैसा अपवित्र शब्द तो हमारे
शब्दकोश में भी नहीं था।“
सरपंच थोड़ा सकते में थे फिर भी कुछ हिम्मत जुटाकर बोले, “अरे
भैया, दूरदर्शन पर जो रामायण सीरियल आता था उसमें तो कितने
ही मुसलमान कलाकारों ने काम किया था। इसमें कौन सी आफत आ जायेगी।“
रामलीला कमेटी का एक सदस्य बोला, “वो
जमाना और था। अब वक्त बदल चुका है। अब हमारी आँखें खुल चुकी हैं। औरंगजेब की
औलादों को हम एक एक करके उनके असली मुल्क तक खदेड़ न दें तब तक चैन से नहीं
बैठेंगे।“
सरपंच ने देखा कि भैंस के आगे बीन बजाने से कोई फायदा नहीं।
इसलिये वे वहाँ से उठकर चल दिये। उनमें इतनी भी हिम्मत नहीं बची थी कि यह खबर
नवाजुद्दीन को सुनाएँ।
अगले दिन जब नवाजुद्दीन सुबह सुबह उठकर अपने दलान में आये
तो देखा कि बाहर बहुत बड़ी भीड़ लगी थी। सब लोग नारेबाजी कर रहे थे। लोग मांग कर रहे
थे कि नवाजुद्दीन तुरंत अपना बोरिया बिस्तर समेट कर मुम्बई के लिये कूच कर जाएँ। गनीमत
ये थी कि उनकी सुरक्षा के लिये जिला प्रशासन की ओर से एक पुलिस बल वहाँ आ पहुँचा था।
नवाजुद्दीन ने फौरन अपनी गाड़ी निकाली और उसे स्टार्ट कर वहाँ से निकल लिये। उनके आगे
पीछे पुलिस की एस्कॉर्ट चल रही थी। मुम्बई पहुँचकर उन्हें एक पुरानी कहावत याद आ गई, “जान बची
तो लाखों पाये, लौट के बुद्धु मुम्बई आये।“