शाम में मैं अपने अपार्टमेंट
के बाहर टहल रहा था तभी मेरी पत्नी अचानक से लगभग चिल्ला उठी, “अरे देखो, लगता है किसी नये गोलगप्पे वाले ने वहाँ पर अपना ठेला लगाना
शुरु किया है।“
मैंने देखा कि आगे तिराहे पर एक नया ठेला नजर आ रहा था। उस ठेले
के इर्द गिर्द आठ दस लोग खड़े थे। गोलगप्पे वाला उन सबों को बारी बारी से गोलगप्पे खिला
रहा था। मैंने कहा, “अरे वाह, ये तो अच्छी बात है। यहाँ आसपास
बड़ी मुश्किल से कोई भी खाने की चीज मिल पाती है। अंदर शॉपिंग कॉम्पलेक्स में जो गोलगप्पे
वाला है वह बहुत ही घटिया गोलगप्पे बनाता है। चलो इसके गोलगप्पे खाकर देखते हैं।“
उस नये गोलगप्पे वाले के गोलगप्पे खाकर मजा आ गया। गोलगप्पे
बिलकुल करारे थे और उसका पानी तो लाजवाब था। सबसे बड़ी बात ये कि उसने दस्ताने भी पहन
रखे थे। फिर मैंने अपने बेटे और उसकी दादी के लिए गोलगप्पे पैक करवाये और वापस अपने
फ्लैट में आ गया।
लगभग एक सप्ताह बीतते बीतते उस गोलगप्पे वाले की निकल पड़ी। रोज
शाम के चार बजे वह वहाँ पर पहुँच जाता था। उसके गोलगप्पे खाने के लिए मेरे अपार्टमेंट
से लोगों का हुजूम निकलने लगा। आठ बजते-बजते उसके सारे गोलगप्पे बिक जाते थे। दरअसल
यह अपार्टमेंट शहर के बहुत बाहर बना है और आसपास के इलाके में अभी भी ग्रामीण माहौल
है। अपार्टमेंट में एक छोटा सा शॉपिंग कॉम्पलेक्स है जिसमें जरूरत की चीजें मिल जाती
हैं। वहाँ पर कुछ किराना स्टोर्स, दवा की दुकानें, एक स्टेशनरी
की दुकान और एक नाई की दुकान है। इसके अलावा कुछ सब्जी वाले बैठते हैं जो बहुत ही घटिया
सब्जियाँ रखते हैं। एक गोलगप्पे वाला है जो घटिया गोलगप्पे बेचने के अलावा बहुत ही
बदतमीज किस्म का इंसान है। कुछ समोसे या नूडल या मोमो की दुकानें बीच बीच में खुलती
हैं लेकिन खराब क्वालिटी होने के कारण उनकी दुकानें महीने भर भी नहीं चल पाती हैं।
कोई भी अच्छी चीज लाने के लिए यहाँ रहने वाले लोगों को पास के ही एक बाजार जाना पड़ता
जो यहाँ से पाँच किलोमीटर दूर है। ऐसी स्थिति में स्वादिष्ट और साफ सफाई वाले गोलगप्पे
मिलना यहाँ रहने वाले लोगों के लिए किसी वरदान से कम नहीं था।
लेकिन उस गोलगप्पे वाले को किसी की नजर लग गई। लगभग पंद्रह दिन
बीते होंगे कि उसका ठेला वहाँ से गायब हो गया। इसका पता मुझे तब लगा जब मैं किसी शाम
को गोलगप्पे खाने के लिए उस तिराहे की ओर गया। आसपास के फलवालों और सब्जी वालों से
पूछने पर पता चला कि वह सड़क के उस पार स्थित गाँव का रहने वाला था। ये भी पता चला कि
उसने अब अपने गाँव में ही ठेला लगाना शुरु किया था। अब शाम में उस गाँव में जाने की
मेरी हिम्मत नहीं थी इसलिए मैने सोचा कि उसके बारे में अगले दिन पता करूँगा।
अगले दिन मैं अपनी बाइक से उस गाँव में गया। थोड़ी ही देर में
मुझे उस गोलगप्पे वाले का पता चल गया। उसका ठेला एक बरगद की पेड़ के नीचे लगा था। कुछ
इक्का दुक्का ग्राहक उसके पास खड़े थे। मैने उससे पूछा, “अरे भैया,
क्या हुआ? यहाँ क्यों चले आये? वहाँ तो ज्यादा बिक्री हो रही थी।”
गोलगप्पे वाले ने कुछ उदास सुर
में कहा, “क्या बताऊँ साहब, उस अपार्टमेंट
के पास कुछ लोगों की रंगदारी चलती है। शॉपिंग कॉम्पलेक्स में जो गोलगप्पे की दुकान
लगाता है वह कुछ दबंगों के साथ मेरे पास आया। उन्होंने पहले तो मुझसे गाली गलौज की
और वहाँ से ठेला हटाने को कहा। उनके कहने के बावजूद जब मैंने अगले दिन भी अपना ठेला
लगाया तो उन्होंने मेरे साथ मारपीट भी की। कहने लगे कि उस अपार्टमेंट में उनकी मर्जी
के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता।“
मैने उससे कहा, “हाँ भैया, अब उनसे झगड़ा
तो नहीं कर सकते। खैर छोड़ो, आज के लिए मेरे लिये पचास रुपए के
गोलगप्पे पैक कर दो।“
मैं वापस अपने घर में आ गया। गोलगप्पे खाते हुए मैने अपनी पत्नी
से कहा, “अजीब जमाना आ गया है। एक गरीब आदमी को लोग नई दुकान भी नहीं खोलने देते।“
मेरी पत्नी ने कहा, “इसमें अजीब क्या है? जहाँ जिसकी चलती है वह वहीं पर अपनी ताकत दिखाता है। देखते नहीं किस तरह से
दिल्ली के ऑटो वालों और टैक्सी वालों ने ओला कैब के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। अब तो
मुख्यमंत्री भी ओला कैब के खिलाफ कानून बना रहे हैं। पता नहीं ये लोग कौन होते हैं
ये फैसला करने वाले कि मुझे किस टैक्सी से जाना चाहिए या किस दुकान से सामान खरीदना
चाहिए?”