High level satire on political and social happenings in India. Get to read funny stories in Hindi & English.
Tuesday, August 2, 2016
Monday, August 1, 2016
बुझावन माँझी
बुझावन माँझी बिहार के किसी
छोटे से गाँव में रहता था। वह मुसहर जाति का था। बिहार की जाति व्यवस्था में मुसहर
अति दलितों में आते हैं। मुसहरों के पास अपनी जमीन नहीं होती है लिहाजा ये दूसरों
के खेतों में काम करते हैं। पुराने जमाने में कई छोटे बड़े जमींदारों ने इन्हें
अपने रैयत के रूप में बसाया था और थोड़ी सी जमीन दी थी ताकि ये अपनी झोपड़ियाँ बना
सकें। बुझावन माँझी जिस गाँव में रहता था उस गाँव में यादव सबसे अधिक आबादी में
थे। उनके अलावा उस गाँव में कुछ मुसलमान, पासवान, चमार और एक घर कायस्थ का था। कायस्थ जाति के लोग चालीस पचास
के दशक से ही खेती बारी छोड़कर नौकरीपेशा बनने लगे थे और शहर की ओर पलायन करने लगे
थे। लिहाजा उस गाँव के कायस्थ के घर में हमेशा ताला ही लगा होता था। उस घर का
इकलौता वारिस पास के ही शहर में किसी सरकारी नौकरी में था। उस गाँव के यादवों के
पास संख्याबल के अनुपात में जमीन भी अधिक थी इसलिए उस गाँव और आसपास के कई गाँवों में
यादवों की दबंगई चलती थी।
बुझावन को मुसहर होने के कारण गाँव में कोई इज्जत नहीं मिलती
थी। ज्यादातर लोग उसे बुझावन कहने की बजाय बुझौना कहकर बुलाया करते थे। उसी गाँव
में यादवों को उनके नाम के आगे ‘बाबू’ कहकर बुलाया
जाता है क्योंकि ‘बाबू’ शब्द सम्मान का
सूचक होता है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि ऐसा अक्सर होता है कि हम संपन्न
लोगों के नाम के आगे जी या नाम के पहले मिस्टर कहकर बुलाते हैं। आपने भी शायद ही
कभी अपने मुहल्ले में झाड़ू लगाने वाले के नाम के आगे जी या मिस्टर लगाया होगा। अकसर
किसी पान की दुकान वाले को हम उतना सम्मान नहीं देते जितना कि पास वाले किसी
डिपार्टमेंटल स्टोर के मालिक को। किसी भी आदमी को उसके समाज में मिलने वाला सम्मान
उसकी आर्थिक स्थिति के समानुपाती होता है। हाँ, कभी कभी शिक्षा
का स्तर भी सम्मान दिलाने में मदद करती है, लेकिन फिर भी हम
किसी कॉलेज के लेक्चरर को जितना सम्मान देते हैं शायद उतना किसी स्कूल के टीचर को
नहीं।
चलिये फिर से अपने बुझावन यानि बुझौना की सुध लेते हैं। एक
बार उसी गाँव के कन्हैया यादव को एक बोरी चीनी मंगवाने की जरूरत पड़ी। यह वह जमाना
था जब चीनी केवल राशन की दुकानों में मिलती थी। थोड़ी भी ज्यादा मात्रा में चीनी
खरीदने के लिए सरकार के सप्लाई डिपार्टमेंट से परमिट लेना पड़ता था। कन्हैया के घर
किसी की शादी थी इसलिये उसे ज्यादा चीनी की जरूरत थी। कन्हैया को ध्यान आया कि उसी
गाँव के कायस्थ पास के ही शहर में सरकारी नौकरी करते थे। उसे पक्का यकीन था कि वे
चीनी की परमिट दिलाने में उसकी मदद जरूर करेंगे। कन्हैया ने इस काम के लिये बुझौना
को बुलवा भेजा।
बुझौना भागा भागा आया और कन्हैया के घर के आगे खड़ा हो गया। कन्हैया
अपने चार फीट ऊँचे बरामदे पर खड़ा था। उसने सफेद धोती और मटमैली बनियान पहन रखी थी। उसके
बालों में इतना अधिक तेल चुपड़ा हुआ था कि कुछ बूँदें उसकी कनपटी से टपक रही थीं। उसने
अपनी तलवार छाप मूँछों को भी तेल पिला रखी थी। उसका बाँया हाथ कमर पर था और दाएँ हाथ
में दो अंगुलियों के बीच बीड़ी दबी हुई थी। उसने बीड़ी का एक लंबा कश खींचा और बोला, “अरे
बुझौना, आज ही तुमको सहर जाना होगा। वहाँ अपने गाँव के लालाजी
रहते हैं; टुनटुन बाबू, उनके डेरा पर
तो गये ही होगे। (बिहार में कायस्थों को लाला भी कहा जाता है)।“
बुझौना एक फटी पुरानी लुंगी पहने था जिसपर कई जगह पैबंद लगे
थे। उस लुंगी को छोड़कर उसके तनपर कोई कपड़ा नहीं था। हाथ में एक लाठी जरूर थी। वह अपने
साथ हमेशा लाठी इसलिए रखता था कि पता नहीं कब किसी धनी किसान का आदेश आ जाए और खेत
में घुस आई किसी बकरी या भैंस को भगाने की जरूरत पड़ जाये। बुझौना की बाँई हथेली पर
खैनी थी जिसे वह दाहिने अंगूठे से मल रहा था। खैनी को खूब अच्छी तरह मलने के बाद उसने
अपनी दाहिनी हथेली से कन्हैया के सामने पेश किया और बोला, “हाँ
मालिक, हम कई बार गए हैं उनका सामान लेकर।“
कन्हैया ने खैनी लेते हुए कहा, “हम
तुमको एगो चिट्ठी दे देते हैं। ई चिट्ठी दे देना बस ऊ सब बूझ जाएँगे। ऊ साहब तुमको
एक बोरी चीनी दिलवा देंगे बस उसी को लाना है। ठीक से लाना, पानी
में भीगना नहीं चाहिए। कुछो गड़बड़ किया तो खाल उधेड़ देंगे।“
बुझौना ने कहा, “ठीक है मालिक। कुछ पैसा मिल जाता जाने के
लिए तो ठीक रहता।“
फिर कन्हैया ने उसे सफर के लिए पैसे दिये और शहरी बाबू के
नाम एक चिट्ठी भी दी।
बुझौना अपने घर गया और एक साफ सुथरी लुंगी और एक कमीज निकाली।
यह ड्रेस उसे कभी टुनटुन बाबू के घर से मिली थी। वे लोग अकसर अपने पुराने कपड़े गाँव
के गरीबों में बाँट दिया करते थे। फिर बुझौना ने अपने सिर में प्रचुर मात्रा में सरसों
का तेल लगाया और एक टूटी हुई कंघी से बाल सँवारने लगा। उसकी पत्नी और बच्चे उसे बड़े
गौर से निहार रहे थे। उसके बड़े बेटे ने पूछा, “बाबू, ई लगता है कि सहर
जा रहे हो। हमरे लिए एक ठो लट्टू ले आना। पुरनका लट्टू कब्बे टूट गवा।“
बुझौना की पत्नी ने उसे एक झिड़की दी, “सूझ नहीं
रहा है कि तुम्हरे बाबू कौनो जरूरी काम से सहर जा रहा है। अब ऊँहा एतना फुरसत थोड़े
मिलेगा कि तुम्हरा लट्टू खरीदे।“
बुझौना कुछ नहीं बोला। वह बस मंद मंद मुसका रहा था। उसे भी शायद
शहर जाने का मौका मिलने की खुशी हो रही थी।
बुझौना जब शहर पहुँचा तो वहाँ उसे कुछ अलग ही माहौल मिला।
जिन साहब से उसे मिलना था, बुझौना सीधा उनके दफ्तर में पहुँचा। उसे
देखकर उन साहब ने कहा, “अरे बुझावन, यहाँ
कैसे? गाँव में सब कुशल मंगल तो है? सुबह
सुबह ही चले होगे। भूख भी लगी होगी।“
फिर उन साहब ने अपने चपरासी को कुछ पैसे दिये और उससे कहा, “रामखेलावन,
ये आदमी मेरे गाँव से आया है। इसे मारवाड़ी बासा में ले जाओ और भरपेट
खाना खिला दो।“
उसके बाद उन साहब ने कन्हैया यादव के लिए चीनी की परमिट का
इंतजाम किया। उसके बाद बुझौना को चीनी की बोरी के साथ बस स्टैंड तक किसी सरकारी
जीप से पहुँचवा दिया। उन्होंने बुझौना को बख्शीश के तौर पर कुछ रुपए भी दिये।
बुझौना जब बस में चढ़ा तो उसके खलासी ने कहा, “अरे रे,
ई बोरिया कहाँ अंदर घुसा रहा है। बोरिया बस के अंदर रखने का परमिसन नहीं
है। चल उसको छत्ते पर डाल दे।“
बुझौना बोला, “मालिक इसमें बड़ा जरूरी समान है। छत पर पानी
उनी से भीग भाग गया तो जुलुम हो जाएगा। जिसका चिन्नी है ऊ हमको बहुत मार मारेगा।“
खलासी ने कहा, “जिसको देखो जरूरी समान ही लेके आता है। अरे,
जब बोरिया अंदर डालेंगे तो पसिंजर केन्ने बईठेगा, तुम्हरे कपार पर।“
उसके बाद चीनी की बोरी को बकायदा छत पर डाल दिया गया। बेचारे
बुझावन की किस्मत कुछ ज्यादा ही खराब थी। जब वह अपने गाँव पहुँचकर बस से उतरा तो देखा
तो चीनी की बोरी बस की छत पर थी ही नहीं। लगता है कोई उस बोरी को लेकर रास्ते में ही
चंपत हो गया था।
बेचारा बुझावन बुझे मन से कन्हैया के पास पहुँचा और चुपचाप खड़ा
हो गया। उसे देखकर कन्हैया ने कहा, “का बात है रे? अईसे मुँह
काहे लटकाया है? कौनो तुम्हरी मेहरारू को लेके भाग गया का?
का हुआ बोलोगे भी।“
जब बुझावन ने उसे सारी बात बताई तो कन्हैया आपे से बाहर हो गया।
उसने गाँव के अन्य यादवों को वहाँ बुला लिया। भीड़ लगती देखकर मुसहर की बस्ती से भी
कुछ लोग आ गये। बुझावन की बीबी और बच्चे भी वहाँ पहुँच गये। कन्हैया जोर जोर से बोल
रहा था, “अरे भाई लोग, ई देखो। ई बुझौना खाली बईठ कर टाइम पास
कर रहा था तो हम सोचे कि कुछ कमाई धमाई का मौका दे दें। इसको टुनटुन बाबू के पास भेजा
चिन्नी लाने। चिन्नी का पईसा तो दिया ही साथ में कुछ अलग से भी पइसा दिया कि ठीक से
सहर घूम ले। लेकिन ई साला तो जालसाज निकला। पूरा चिन्नी का बोरी डकार लिया और बोलता
है कि बस से चोरी हो गया। हम छोड़ेंगे नहीं इसको। चिन्नी का हिसाब तो लेके रहेंगे।“
बुझौना धीरे से बोला, “मालिक, हम पूरा हिसाब
दे देंगे। अगला बार गेहूँ के कटनी में हम मजूरी नहीं लेंगे। उससे चिन्नी का हिसाब बराबर
हो जायेगा।“
कन्हैया ने उसे कई चुनिंदा गालियाँ दीं और बोला, “अभी जो
हमरे घर में ब्याह है उसमें मिठाई कईसे बनेगा। तुम तो हमरा इज्जत ले लिया। बराती को
क्या जवाब देंगे?”
कन्हैया ने फिर कहा, “ई बुझौना हमरा इज्जत ही माटी में मिला रहा
है। अभी हम भी इसका इज्जत माटी में मिलाएँगे। बस हो जाएगा हिसाब बराबर। क्यों भाई,
सही इंसाफ है कि नहीं?”
वहाँ पर मौजूद यादवों ने एक सुर में कहा, “हाँ बिलकुल
सही है। इसका लुंगी उतार दो। तब इसको पता चलेगा इज्जत का मतलब।“
फिर कन्हैया ने आव देखा न ताव और भरी भीड़ के सामने बुझावन की
लुंगी उतार दी। बेचारा बुझावन चुपचाप सिर झुकाए वहीं जमीन में बैठ गया। उसकी बीबी और
बच्चे उसके पास बैठकर बड़ी देर तक विलाप करते रहे। उसके बाद उसकी बीबी ने वहाँ पड़ी लुंगी
उठाई और बुझावन के कमर पर लपेट दिया। फिर वे धीरे-धीरे अपने घर की ओर चले गये।
इस घटना को हुए दो तीन दिन बीत चुके थे कि बुझौना किसी
दोपहर को फिर से उन साहब के पास हाजिर हो गया। उसे देखकर साहब ने पूछा, “अरे
बुझावन, क्या हुआ? तुम फिर आ गये। लगता
है कन्हैया को और भी चीनी की जरूरत है।“
बुझावन ने कुछ नहीं कहा और फफक फफक कर रोने लगा। काफी ढ़ाढ़स
बँधाने के बाद उसने कहा, “मालिक हमरे साथ जुलुम हो गया। ऊ का हुआ कि
जब हम ईहाँ से बस से जा रहे थे तो बस का खलासी चिन्नी का बोरा बस के छत पर रख
दिया। जब हम गाँव पहुँचे तो देखा कि बस के छत पर चिन्नी का बोरिया नहीं था। लगता
है कोनो उसको चुरा लिया। फिर कन्हैया हमको बहुत मारा पीटा। हम बहुत चिरौरी किये
लेकिन भरल गाँव के सामने ऊ हमरा लुंगी उतार दिया। हमरा परिवार के सामने हमरा इज्जत
चला गया। ऊ कन्हैया बोला है जहाँ से हो चिन्नी लेकर आने को। आब आप ही हमरी नैया
पार लगा सकते हैं। चिन्नी लेके नहीं गये तो कन्हैया हमरा बीबी बच्चा को भी
मारेगा।“
उन साहब ने कोई जवाब नहीं दिया और मन ही मन सोच रहे थे, “पता
नहीं मेरा गाँव कब बदलेगा। बेचारे गरीब लोग, कब तक इस तरह
अत्याचार सहते रहेंगे।“
फिर उन साहब ने दोबारा चीनी की बोरी का इंतजाम करवाया। इस
बार वे खुद बुझौना को छोड़ने बस स्टैंड गये। बस के कंडक्टर को पाँच रुपए अलग से
दिये और सख्त हिदायत दी की चीनी सही सलामत गाँव पहुँच जानी चाहिए। बस का कंडक्टर
आस पास के ही गाँव का था इसलिए उनको जानता था। आखिरकार कन्हैया को चीनी की बोरी
मिल गई और उसे अपनी मूँछों पर ताव देने का एक और मौका मिल गया।
Saturday, July 30, 2016
जेनरल क्लास का टिकट
एक बार मैं वारणसी से फैजाबाद
वापस आ रहा था। साइकल मीटिंग खत्म होने के बाद अगली सुबह को मैं ट्रेन पकड़ने के लिए
वारणसी स्टेशन पहुँचा। काउंटर से एक जेनरल क्लास का टिकट खरीदा और जाकर स्लीपर क्लास
में बैठ गया। वह ट्रेन शायद सरयू यमुना एक्सप्रेस थी। जेनरल क्लास में इतनी भीड़भाड़
होती है कि उसमें यात्रा करना किसी भी नॉर्मल आदमी के लिए संभव नहीं होता। समय कम होने
के कारण मुझे इतना मौका नहीं मिला कि मैं पहले से रिजर्वेशन करवा लूँ। वैसे भी छोटी
दूरी की यात्रा के लिए हमलोग शायद ही रिजर्वेशन करवाते हैं।
जब ट्रेन वाराणसी से चल पड़ी
तो थोड़ी ही देर में काला कोट पहने हुए टीटी आया जो टिकट चेक कर रहा था। चूँकि वह ट्रेन
दरभंगा से आ रही थी इसलिए वह केवल उन्हीं लोगों के टिकट चेक कर रहा था जो वाराणसी से
ट्रेन में चढ़े थे। मुझे दो बातों से हमेशा ताज्जुब होता है। पहला कि गर्मी के मौसम
में भी ये टीटी कोट क्यों पहनते हैं। अब तो भारत को आजाद हुए एक लंबा अर्सा बीत चुका
है और इसलिए कॉलोनियल हैंगओवर से मुक्ति मिलनी चाहिए। दूसरी बात ये कि ये टीटी ये कैसे
जान लेते हैं कि केवल वैसे ही लोगों के टिकट चेक करने हैं जिन्हें मुर्गे की तरह हलाल
किया जा सके।
टिकट चेक करते-करते वह टीटी
मेरे पास पहुँचा। जब मैंने उसे अपना टिकट दिखाया तो उसके मुँह से निकला, “ये तो जेनरल क्लास का टिकट है।“
मैंने रूखे अंदाज में जवाब दिया, “पता है।“
टीटी फिर बोला, “लेकिन आप तो स्लीपर क्लास में
बैठे हैं।“
मैंने कहा, “वो भी पता है।“
टीटी ने कहा, “आपको पता होना चाहिए कि जेनरल
क्लास का टिकट लेकर स्लीपर क्लास में यात्रा करना गैरकानूनी है।“
मैने कहा, “मुझे ये पता है कि बर्थ खाली
होने पर टीटी को जेनरल क्लास के टिकट को स्लीपर क्लास में कंवर्ट कर देना चाहिए। आप
मेरे टिकट को कन्वर्ट कर दीजिए और उसकी रसीद बना दीजिए।“
टीटी ने फिर मेरे चमड़े वाले
डिटेलिंग बैग को देखा और कहा, “लगता है आप एमआर हैं।“
बिहार और उत्तर प्रदेश में लोग
मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव को प्यार से एमआर बुलाते हैं।
मैंने कहा, “हाँ आपने ठीक समझा है।“
फिर टीटी ने कहा, “लगता है बनारस किसी मीटिंग में
आये थे और अब वापस जा रहे हैं। अरे भाई साहब, मैं भी कभी एमआर हुआ करता था। फिर बाद में रेलवे की नौकरी ज्वाइन कर ली।“
इतना कहने के बाद वह टीटी वहाँ से चला
गया। लगभग एक घंटे के बाद वह दोबारा मेरे पास आया और पास में ही बैठ गया। फिर उसने
मुझसे एमआर की नौकरी की तत्कालीन दशा और दुर्दशा के बारे में पूछा और अपने बीते दिनों
को याद किया। उसके बाद उसने मेरे सामने एक सिगरेट का पैकेट बढ़ाया और पूछा, “आप सिगरेट का शौक फरमाते हैं?”
मैं सिगरेट नहीं पीता हूँ लेकिन
किसी डॉक्टर या किसी केमिस्ट से ऑर्डर लेने के चक्कर में सिगरेट के कश लेने में कभी
परहेज नहीं करता था। मैंने उसके हाथ से एक सिगरेट ली और फिर धुँआ उड़ाने लगा। काफी देर
तक इधर उधर की बातचीत के बाद वह टीटी मुद्दे की बात पर आना चाहता था, “तो बताएँ, आगे क्या करना है?”
वह शायद मुझसे कुछ पैसे ऐंठने के चक्कर में था। मैं भी ठहरा
पुराना चावल, जिसने घाट घाट का पानी पी रखा था। मैंने उससे कहा, “अब इसमें कहने सुनने के लिए रखा ही क्या है। आपने खुद बताया कि आप भी एमआर
थे। अब न तो मुझे ये अच्छा लगेगा कि आपसे कुछ कहूँ सुनूँ और न ही आपको ये अच्छा लगेगा
कि आप उसी धंधे के आदमी से कुछ कहें सुनें जिस धंधे में कभी आप भी हुआ करते थे।“
वह टीटी मेरा इशारा समझ गया। उसने एक फीकी मुसकान के साथ मुझे
देखा और फिर बिना कुछ दान दक्षिणा लिए वहाँ से चला गया।
बाघ ने गाय को क्यों मारा?
बाघ अपनी गुफा के आगे चिंतित मुद्रा में बैठा हुआ था। तभी
सामने से उसका पुराना चमचा चंदू सियार आया। चंदू सियार ने बाघ से पूछा, “मालिक,
क्या बात है? आप बड़ी चिंता में लग रहे हैं।
सुबह से कोई शिकार नहीं मिला?”
बाघ धीरे से गुर्राया, “अरे, तुम्हारे जैसे
चमचों के रहते मुझे शिकार रोज ही मिल जाता है। उसकी कोई चिंता नहीं है।“
चंदू सियार ने फिर पूछा, “तो फिर मालकिन ने कुछ कह
दिया होगा। तभी सुबह सुबह मूड खराब है। चलिये तालाब के पास चलते हैं। सुना है वहाँ
पर कई जवान बाघिन आई हैं।“
बाघ ने एक लंबी साँस लेते हुए कहा, “नहीं
दरअसल बात ये है कि आजकल कुछ मनुष्य राष्ट्रीय पशु के ओहदे से मुझे हटाने की साजिश
रच रहे हैं। उनमें से ज्यादातर लोग धार्मिक प्रवृत्ति के हैं और कहते हैं कि गाय
को राष्ट्रीय पशु का ओहदा मिलना चाहिए।“
चंदू सियार ने कहा, “इससे क्या फर्क पड़ता है, गाय के राष्ट्रीय पशु बनने के बाद ऐसा तो नहीं हो जायेगा कि आप बाघ से
गदहे बन जाएँगे। या फिर कोई भी गाय आएगी और आपको डराकर चली जाएगी।“
बाघ ने कहा, “तुम जूठन चाटने वाले सियार क्या समझोगे कि
इज्जत की कितनी कीमत होती है। जब मैगजीन के कवर पर, डाक टिकट
पर तस्वीर छपती है तो बहुत अच्छा लगता है। भला किसी ने राष्ट्रीय खेलों के लिए बाघ
को छोड़कर कभी किसी सियार को मैस्कॉट बनाया गया है। तुम नहीं समझोगे।“
सियार ने कहा, “इसके लिए आपने जंगल के राजा शेर से बात की?
हो सकता है वो आपकी मदद करें।“
बाघ ने कहा, “अरे कहाँ का राजा? बस
मुट्ठी भर बचे हैं गुजरात के जंगलों में और अपने आप को राजा समझते हैं। भला किसी
ने ‘सेव लायन’ करके कोई कैंपेन किया
है। उसके लिए भी लोगों को ‘सेव टाइगर’
का ही खयाल आता है।“
सियार ने अपनी बत्तीसी दिखाते हुए कहा, “ठीक
कहा मालिक, वैसे भी आजकल कई गुजराती मनुष्य अपने आप को शेर
समझने लगे हैं। असली शेरों का अब वो रौब नहीं रहा।“
बाघ ने कहा, “अब अपनी पदवी बचाने के लिए मुझे ही कुछ
करना पड़ेगा। सोच रहा हूँ कि एक एक करके इन मनुष्यों का वध कर दूँ।“
सियार ने कहा, “लेकिन ऐसा संभव नहीं है मालिक। बाघों की
संख्या तो पूरे हिंदुस्तान में दो हजार से कुछ कम ही होगी। और पता है आपको कि
मनुष्य कितने हैं? पूरे एक सौ बीच करोड़। सब ने मिलकर यदि एक
साथ बाघों को घुड़की भी दे दी तो फिर यह पूरी धरती बाघों से विहीन हो जाएगी।“
बाघ ने कहा, “अब तुम ही बताओ क्या करना चाहिए।“
सियार ने कहा, “आप आज से भोजन के लिये गायों का शिकार
करना शुरु कर दीजिए। जहाँ दस बीस गायेँ मरेंगी लोग डर के मारे गाय पालना ही छोड़
देंगे। जब लोग डर जायेंगे तो गायें अपने आप डर जायेंगी। वे तो ऐसे भी गऊ होती हैं,
मतलब बिलकुल सीधी सादी।“
उसके बाद बाघ ने एक लंबी दहाड़ ली। वह वहाँ से उठकर पास के
गाँव गया। उसके सामने सबसे पहले जो गाय आई उसने उसे वहीं मार गिराया। लोगों का
शोरगुल सुनकर मरी हुई गाय को वहीं छोड़कर वह बाघ दुम दबाकर जंगल की ओर भागा।
Friday, July 29, 2016
गुरुग्राम में भारी बारिश
अर्जुन की तरक्की और कृष्ण
की लोकप्रियता को देखकर इंद्र को लगने लगा कि उनकी गद्दी खतरे में है। इंद्र को
छोटी छोटी बातों से ही हमेशा अपनी गद्दी खतरे में लगने लगती थी। इंद्र ने इस
सिलसिले में कई बार यह भी ट्वीट कर डाला था, “कृष्ण और अर्जुन मेरी हत्या करवाना चाहते हैं।
मेरे पास इसके पुख्ता सबूत हैं। उचित समय आने पर मैं इसका खुलासा करूँगा।“
लेकिन इंद्र की बातों पर
कोई ध्यान नहीं देता था क्योंकि वे ऐसे ऊलजलूल ट्वीट के लिये बदनाम थे। बहरहाल, इंद्र ने बारिश के देवता वरूण से इस बारे में बात की। वरुण
देवता इंद्र की सहायता के लिए तैयार हो गये लेकिन बदले में स्वर्ग की कुछ टॉप
क्वालिटी की अप्सराएँ माँग बैठे। इंद्र झटपट तैयार हो गये और अपनी सबसे फेवरीट
अप्सरा उर्वशी तक को वरुण के हवाले कर दिया। अब गद्दी बचाने के लिए छोटी मोटी
कुर्बानी देनी ही थी।
जुलाई का महीना चल रहा था। मानसून अपने पूरे उफान पर था।
वरुण देवता ने सभी बादलों को आदेश दिया कि पूरे भारतवर्ष को छोड़कर केवल गुरुग्राम
में बारिश करवाएँ। बस फिर क्या था, गुरुग्राम में मूसलाधार बारिश होने लगी।
बृहस्पतिवार की सुबह जो बारिश शुरु हुई तो फिर पूरे दिन और पूरी रात होती ही रही।
साथ में बादल भी गरज रहे थे और बिजली भी कड़क रही थी। ऐसा लग रहा था कि गुरुग्राम
में महाप्रलय आने वाला है। गुरुग्राम में हाल के वर्षों में तेजी से विकास हुआ था।
इसकी शुरुआत हुई थी आम आदमियों के लिए बने एक रथ की फैक्ट्री खुलने के साथ। फिर
पूरे गुरुग्राम में तो फैक्ट्रियों की बाढ़ आ गई थी। एक से एक देशी और विदेशी नामी
गिरामी कंपनियों ने गुरुग्राम में अपने दफ्तर खोल दिये थे। इसके साथ ही रईसों,
सामंतों और व्यापारियों के बड़े-बड़े भवन भी बन गये थे। उन सबकी सेवा
करने के लिये मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग के लोगों के भी मकान बहुतायत से बन चुके
थे। इससे गुरुग्राम की नाली प्रणाली पर बहुत दवाब पड़ रहा था। उधर हस्तिनापुर के
राजा ने गुरुग्राम से आने वाली नालियों का मार्ग बंद कर रखा था। उनका कहना था कि
भारतवर्ष की राजधानी होने के नाते हस्तिनापुर में किसी अन्य सूबे की गंदगी नहीं
आनी चाहिए क्योंकि इससे हस्तिनापुर की सुंदरता को खतरा था।
भारी बारिश से जो पानी इकट्ठा हुआ वो उचित निकासी न मिलने
के कारण गुरुग्राम में ही अटक गया और फिर पूरा गुरुग्राम शहर जलप्लावित हो गया। हर
गली, हर चौराहे और यहाँ तक की राजमार्गों पर जलजमाव हो गया। इससे यातायात बुरी
तरह प्रभावित हुआ। अर्जुन का रथ जब मेहरौली गुरुग्राम रोड से होते हुए गुरुग्राम
के पास पहुँचा तो आगे भीषण जाम लगा हुआ था। कई रथों के पहिये कमर भर पानी में डूबे
हुए थे। कई अन्य रथों के पहिये गड्ढ़ों में फँस गये थे। कृष्ण ने किसी सिपाही से
पूछा, “तुम्हें पता नहीं है कि इस समय राजकुमार अर्जुन का रथ
यहाँ से गुजरता है? फिर यहाँ पर इतना जाम क्यों लगा हुआ है?”
सिपाही ने जवाब दिया, “क्षमा करें भगवान, आगे
इतने रथ, बैलगाड़ियाँ, हाथी, ऊँट, आदी फँसे हुए हैं कि इस जाम को छुड़वाना मेरे वश
का नहीं है।“
अर्जुन ने कहा, “आज मैं अपने क्लास में पहुँच पाऊँ इसकी
कोई संभावना नहीं दिखती। ऐसा करते हैं किसी हरकारे को भेजकर गुरू द्रोणाचार्य को
संदेश भिजवा देते हैं कि आज मैं नहीं आ पाऊँगा। वे आज की क्लास को अगले सप्ताह के
लिए टाल सकते हैं।“
जब एक हरकारे से बात की गई
तो उसने कहा, “क्षमा करें राजकुमार, मैं आगे जाने
में असमर्थ हूँ। मेरे भी बीबी बच्चे हैं और उनको मैं अनाथ नहीं छोड़ सकता। सुबह से
कई हरकारे बिना मौसम बने गड्ढ़ों में डूबकर अपनी जान गवाँ चुके हैं। जो जीवित हैं, वे
जहाँ तहाँ फँसे हुए हैं और भूख प्यास से उनका बुरा हाल है।“
इतना सुनकर अर्जुन ने कहा, “हे कृष्ण, अब आप ही मेरी नैया पार लगा सकते हैं, मतलब रथ को
पार पहुँचा सकते हैं। आपके पास तो एक से एक आधुनिक अस्त्र हैं। किसी उचित अस्त्र
का उपयोग करके आप इस जल को सुखा दीजिए।“
कृष्ण ने मंद मुसकान के साथ जवाब दिया, “हे
पार्थ, अब तुम्हारी खातिर मैं इंद्र या वरुण को नाराज तो
नहीं कर सकता।“
फिर अर्जुन ने कहा, “फिर ऐसा करते हैं कि वापस हस्तिनापुर की
ओर चलते हैं।“
इसपर कृष्ण ने कहा, “ऐसा करना असंभव प्रतीत होता है। आगे यू
टर्न पर भी कई रथ फँसे हुए हैं। कोई भी एक इंच भी नहीं हिल पा रहा है। अब हमारे
पास कोई चारा नहीं है। हमें तब तक यहीं रुकना पड़ेगा जब तक यहाँ पर का जलजमाव
समाप्त न हो जाए।“
उसके बाद कृष्ण और अर्जुन का रथ वहीं रुका रहा। न वे आगे बढ़
सकते थे न ही वापस मुड़ सकते थे। तभी अर्जुन को ध्यान आया कि उनके रथ में ऐसी स्थिति
में टाइम पास करने के लिए कई उपयोगी वस्तुएँ हुआ करती हैं। उन्होंने अपनी सीट के नीचे
देखा तो वहाँ सोमरस से भरी सुराही, कुछ नमकीन और गिलास दिखे। बस फिर क्या था,
वे दोनों वहीं बैठकर सोमरस का पान करने लगे। बीच बीच में कृष्ण अपनी
बाँसुरी बजाते थे और अर्जुन उस पर एक से एक नृत्य पेश करते थे। बृहन्नला बनने के लिए
उन्होंने कई शास्त्रीय नृत्य सीखे थे जो आज उनके काम आ रहे थे। जब सोमरस का असर सर
चढ़ कर बोलने लगा तो अर्जुन को नींद आ गई। लगभग आधे घंटे के बाद वे हड़बड़ाकर उठे। उनका
माथा पसीने से नहाया हुआ था और धड़कन तेज चल रही थी। उनकी ऐसी हालत देखकर कृष्ण ने पूछा,
“हे पार्थ क्या हुआ? लगता है कोई बुरा सपना देख
लिया है।“
अर्जुन ने कहा, “हे कृष्ण, मैंने वाकई
एक भयानक सपना देखा। मैने देखा कि एकलव्य अपनी नाव से क्लास में पहुँच चुका है। वहाँ
पर किसी और से कंपिटीशन न मिलने के कारण उसने मछली की आँख बेधने वाले लेसन में टॉप
स्कोर किया है। अब उसके फुल मार्क्स के कारण गुरु द्रोणाचार्य ने द्रौपदी के स्वयंवर
में उसे ही भेजने की सिफारिश की है। महाराज भी इस बात के लिए तैयार हो गये हैं। उनका
कहना है कि इस तरह की महत्वपूर्ण प्रतिस्पर्धा में हस्तिनापुर जैसे राज्य के लिये जीतना
बहुत जरूरी है। इसलिए फुल मार्क्स लाने वाले प्रतियोगी को ही द्रौपदी के स्वयंवर में
भेजा जाएगा।“
Thursday, July 28, 2016
भंडार घर
मैं दरवाजे के बाहर बरामदे
पर बैठा धूप सेंक रहा था कि सामने से रिक्शा आकर मेरे घर के पास रुका। रिक्शे पर
ब्रजेश मामा, मामी और उनके तीन
बच्चे (दो बेटे और एक बेटी) बैठे हुए थे। रिक्शे पर इतना सामान लदा था जैसे मामा
तीन चार दिन नहीं बल्कि महीने दो महीने के लिये आ रहे हों। शायद दीदी की शादी के
बाद भी उनका रुकने का इरादा था। मामा को प्रणाम करने बाद मैने अम्मा को आवाज लगाई, “अम्मा,
देखो तो मामाजी आये हैं।“
मामा का नाम सुनते ही अम्मा दौड़ी-दौड़ी आ गईं। अपने चहेते
भाई को देखकर उनकी खुशी का ठिकाना न रहा और बोलीं, “अरे भैया आ गये।
तुम्हारा ही इंतजार था। तुम तो बिलकुल दिन गिनकर मेहमान की तरह आये हो। कुछ दिन और
पहले नहीं आ सकते थे।“
ब्रजेश मामा ने कहा, “अरे नहीं दीदी, थोड़ा
कोर्ट कचहरी के चक्कर में दरभंगा का चक्कर ज्यादा लग रहा था इसलिए नहीं आ पाया।“
अम्मा ने कहा, “चलो अब आ गये हो तो जल्दी से काम पर लग
जाओ। ये लो चाबी और भंडार घर की जिम्मेदारी संभालो।“
ब्रजेश मामा ने कहा, “अब मैं आ गया हूँ, सब
सँभाल लूँगा।“
अम्मा ने कहा, “अरे गाँव घर का मामला है। तुम इस गाँव के
लोगों को तो जानते ही हो। सब मौके की तलाश में रहते हैं। जरा सा ध्यान नहीं भटका
कि कोई डालडे का टिन गायब कर देता है तो कोई चीनी की बोरी। आजकल के लौंडे तो इस
फिराक में रहते हैं कि दाल में जमालगोटा मिला दें।“
ब्रजेश मामा ने कहा, “मुझे शादी ब्याह में भंडार घर सँभालने का
पुराना तजुर्बा है। मेरे रहते कोई चिड़िया भी पर नहीं मार सकती। तुम निश्चिंत होकर
और मेहमानों का खयाल रखो।“
उसके बाद मामा जी का सामान उतारा गया। मामाजी ने भंडार घर
के ही एक कोने में अपने और अपने परिवार के लिए फर्श पर गद्दे लगवा दिये। फिर मामा
जी ने मामी से कहा, “अब इस भंडार घर को अपना ही घर समझो। जो जी आये खाओ और अपने
बच्चों को खिलाओ। तुम हमेशा ताने देती रहती हो कि मैं तुम्हें ठीक से रईसी नहीं
करवाता हूँ।“
मामी ने हँसते हुए कहा, “अब आप तो ठहरे निठल्ले।
ऊल जलूल केस मुकदमों में अपना समय बर्बाद करते रहते हैं। कोई काम धँधा कर लेते तो
मेरी भी परिवार में कुछ इज्जत होती। चलो भंडार के बहाने ही सही थोड़ी इज्जत तो मिल
जाती है।“
परिवार में जितनी भी शादियाँ होती हैं, मामा
जी निठल्ले होने के कारण वहाँ सबसे पहले पहुँच जाते हैं और भंडार घर पर कब्जा जमा
लेते हैं। उसके बाद तो वे घर वालों को भी कोई सामान देने में इतना मीन मेख निकालते
हैं कि पूछो मत। हाँ इस बीच मामा जी और उनके बाल बच्चों की अच्छी कटती है। उन्हें
लगभग एक सप्ताह तक तर माल पर हाथ साफ करने का मौका जो मिल जाता है।
अगले दिन झंझारपुर वाले फूफा जी अपने परिवार समेत पधारे। घर
का छोटा दामाद होने के नाते उनकी बड़ी शान है। फूफा जी को बुआ और उनके बच्चों के
साथ एक अलग कमरा दिया गया। नहा धोकर फूफा जी ने नाश्ता किया और सबसे पहले भंडार घर
के पास मुआयना करने पहुँच गये। वहाँ पर देखा कि बाहर दरवाजे पर पहले से ही ब्रजेश
मामा एक स्टूल पर विराजमान थे। यह देखकर फूफा जी का पारा सातवें आसमान पर पहुँच
गया। उन्होंने अम्मा से कहा, “भाभी ये बताइए कि घर में आदमी होते हुए भी
आपने एक बाहरी आदमी को भंडार की जिम्मेदारी कैसे दे दी। अरे मैं ठहरा इस घर का
सबसे छोटा दामाद और आपके भाई तो इस घर के सदस्य भी नहीं हैं। आपको न तो मेरी इज्जत
का खयाल रहा न ही अपनी इज्जत का।“
अम्मा ने स्थिति को सँभालने की कोशिश की, “अरे
जमाई जी, अब ब्रजेश पहले ही आ गया था तो मैं क्या करती। फिर
यह ठहरा मेरा मुँहलगा छोटा भाई सो इसकी बात मैं कैसे टाल सकती थी। मैं तो धर्मसंकट
में पड़ गई थी। फिर आप ठहरे घर के दामाद सो आपसे कोई काम करवाना तो अधर्म हो जाता।“
मैं जब शाम में बाजार से खरीददारी करके वापस आया तो देखा कि
फूफा जी बरामदे पर मुँह लटकाए बैठे थे। मैने उनसे पूछा, “फूफा
जी, तबीयत तो ठीक है। कुछ जलजीरा या ईनो पियेंगे। शादी ब्याह
के मौके पर तो आपको अकसर गैस की शिकायत हो जाती है।“
फूफा जी ने जवाब दिया, “क्या बकते हो। अरे जब कुछ ठीक से खाउँगा
तभी तो गैस बनेगी। आज दोपहर को सोचा था कि भंडार से ढ़ेर सारी तली मछलियाँ लेकर
तुम्हारी बुआ और उनके बच्चों को खिलाउँगा लेकिन उस ब्रजेश के बच्चे ने तो पहरा लगा
रखा है। बता रहा था कि मछलियाँ रात के खाने के लिए बनी हैं इसलिए दिन में किसी को
नहीं लेने देगा। उसे पता ही नहीं है कि घर के दामाद की क्या इज्जत होती है। उसकी
बिटिया की शादी होगी तब पता चलेगा।“
फूफा जी बड़े गुस्से में लग रहे थे। अनहोनी को टालने के लिए
मैने अम्मा से पैरवी करवाकर मामा जी से पंद्रह बीस पीस तली हुई मछलियाँ निकलवाई और
फिर फूफा जी के आगे पेश कर दिया। तब जाकर फूफा जी के कलेजे को ठंडक मिली। जब मैं
मछलियाँ लेने भंडार घर के अंदर गया तो देखा कि मामी और उनके बच्चे तो तबतक कोने
में काँटों के ढ़ेर लगा चुके थे।
अगले दिन तिलक के समय पता चला कि फूफा जी नदारद थे। मैं
फूफा जी को ढ़ूँढ़ने उनके कमरे में गया तो देखा कि वे लुंगी और बनियान में ही लेटे हुए
थे। मैने पूछा, “फूफा जी क्या हुआ? सब लोग वहाँ तिलक के
लिए आपका इंतजार कर रहे हैं। क्या मछली ज्यादा हो गई थी? ईनो
की जरूरत है?”
फूफा जी भड़क उठे, “तुम्हें क्या लगता है कि मैं गैस का सिलिंडर हूँ। मेरी तो कोई इज्जत ही नहीं है इस घर में। जब तक तुम्हारे दादा जीवित थे तब बात कुछ और थी। अरे कल मेरे बेटे पिंकू को उस ब्रजेश के बच्चे ने कान उमेठ कर भगा दिया। बेचारा पिंकू तो केवल एक कटोरी गुलाबजामुन लेने गया था। मैने सोच लिया है कि कल सुबह वाली बस से ही मैं झंझारपुर के लिए निकल जाउँगा।“
जब अम्मा को ये बात पता चली तो उन्होंने फौरन पापा को बाजार
भेजकर पिंकू और उसके पिताजी के लिए रसमलाई मँगवाई। तब जाकर फूफा जी का गुस्सा शाँत
हुआ और वे तिलक में शरीक हुए।
अगले दिन जब मैं शामियाना की सजावट की जाँच पड़ताल कर रहा था
तो देखा कि मामा जी एक कोने में चुपचाप बैठे थे। मैने उनसे पूछा, “मामाजी
क्या हुआ? अभी भंडार घर में कोई काम नहीं है?”
मामा जी ने उदास सुर में कहा, “कल रात जब मैं सो रहा था
तो मेरी जनेऊ में बँधी चाबी को तुम्हारे फूफा जी ने चुरा ली। कहते हैं भंडार का असली
हकदार तो घर का दामाद होता है न कि घर का साला। आज से भंडार घर के नये इनचार्ज तुम्हारे
फूफा ही हैं। मेरी तो कोई इज्जत ही नहीं है इस घर में। अब बहुत हो चुका। इसके बाद तुम्हारी
शादी में तो मैं कतई नहीं आउँगा।“
अंदर जाकर देखा तो भंडार घर के बाहर रखे स्टूल पर फूफा जी विराजमान
थे। मामी और उनके बच्चों को भी भंडार घर से बेदखल कर दिया गया था। फूफा जी के दोनों
बेटे मालपुआ पर अपने हाथ साफ कर रहे थे। बगल में बुआ कटोरी भर कर रबड़ी खा रहीं थीं।
अम्मा ने मामा जी का दिल रखने के लिए उन्हें पैंट शर्ट का कपड़ा
दिया, मामी को सिल्क की नई साड़ी दी और उनके बच्चों को भी नई ड्रेस दी। फिर विदाई
के समय अम्मा ने मामाजी के हाथ में एक हजार एक रुपये भी पकड़ाए और कहा, “भैया, दिल छोटा नहीं करो। परिवार में सबका दिल रखना पड़ता
है। अब वो ठहरे छोटे दामाद सो उनको तो नाराज नहीं कर सकते। साल दो साल में जब लड्डू
की शादी करूँगी तो भंडार की जिम्मेदारी तुम्हें ही दूँगी, बकायदा
स्टांप पेपर पर लिखकर।“
हर हर मोदी से अरहर मोदी
आज कुछ भक्त जन बड़े दुखी लग
रहे हैं। जिस आदमी को वे आजतक सबसे बड़ा उल्लू साबित कर चुके थे उसी आदमी ने उनकी दुखती
रग छेड़ दी। लगभग दो साल पहले उनके स्टार परफॉर्मर का आगाज किसी धूमकेतू की तरह हुआ
था। उस धूमकेतू की आगवानी में कुछ लोगों ने तो एक कमाल का नारा भी बना लिया था, “हर हर मोदी घर घर मोदी।“ वह
धूमकेतू था भी लाजवाब; रोशनी से लबरेज
और पीछे गैस की लंबी लकीर छोड़ता हुआ; जिसे अंग्रेजी में ट्रेलब्लेज कहते हैं। वैसा
ट्रेलब्लेज जैसा रॉकेट अपने लॉंच के समय छोड़ता है। इसपर मुझे एक ट्रेनिंग प्रोग्राम
याद आया जिसका शीर्षक था ट्रेलब्लेज। उस प्रोग्राम में एक वीडियो दिखाया गया था जिसमें
हर बात पर कोई मशहूर अंग्रेजी गायक एक ही लाइन दोहराता था, “बी
ए वारियर, विन द रेस, ट्रेल ब्लेज ट्रेल
ब्लेज।“ लोगों ने बड़ी उम्मीद से उस धूमकेतू को अपने सर आँखों पर उठा लिया था क्योंकि
वे उसके दिखाए सब्जबाग से अच्छे खासे प्रभावित थे। सबको लगता था कि अच्छे दिन जल्दी
ही आ जाएँगे। लेकिन विज्ञान की किताब में मैने पढ़ा है कि धूमकेतू जिस रास्ते पर चलता
है उसका आकार किसी एलिप्स की तरह होता है। मतलब इसकी परिधि की चौड़ाई कम होती है लेकिन
लंबाई बहुत अधिक होती है। इस कारण से जब धूमकेतू धरती के आसपास से गुजरता है तो बड़ी
तेज रोशनी देता है। लेकिन जब यह धरती से बहुत दूर चला जाता है तो फिर यह शक्तिशाली
दूरबीनों से भी नजर नहीं आता है। एक और बात गौर करने लायक है कि धूमकेतू को दोबारा
धरती के पास आने में पचास या सौ वर्षों से भी ज्यादा लग जाते हैं। अब इस धूमकेतू के
साथ भी ऐसा ही हो रहा है। चुनाव जीतने के साथ ही वह हिंदुस्तान की धरती से दूर जाने
लगा। अब उसका ज्यादा समय विदेशों में बीतता है क्योंकि वसुधैव कुटुंबकम की पॉलिसी के
तहत वह दुनिया के अन्य भागों को भी रोशनी पहुँचाना चाहता है। इस बीच हिंदुस्तान में
अँधेरा छाता जा रहा है। कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं गाय के नाम पर तो कहीं जाति के
नाम पर दंगे भड़काए जा रहे हैं। चीजों के दाम सुरसा के मुँह की तरह बढ़ते ही जा रहे हैं।
अब दाल का उदाहरण लीजिए। बचपन में पढ़ा और सुना था कि दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ।
इसका मतलब था कि सस्ता और साधारण खाना खाकर संतोष करना सीखो। लेकिन दाल के दाम इतने
बढ़ गये हैं कि यह गरीब क्या मध्यम वर्ग की थाली से भी गायब होती जा रही है। भारत एक
ऐसा देश है जहाँ ज्यादातर लोग शाकाहारी हैं। जो लोग माँसाहारी हैं वे भी महीने के बीस
से पच्चीस दिन तो शाकाहारी भोजन ही करते हैं। ऐसे में दाल उनके लिए प्रोटीन के एकमात्र
स्रोत का काम करती है। वैसे भी भारत में कार्बोहाइड्रेट से भरपूर भोजन खाने के कारण
भारत दुनिया का डायबिटीज कैपिटल हो गया है। सरकार उसे रोकने के लिए ‘फैट टैक्स’ लगाने के बारे में भी सोच रही है लेकिन दाल
की कीमतों के बारे में कुछ भी नहीं सोच रही है। अब इससे मुट्ठी भर बचे कांग्रेसियों
को यदि ये लगता है कि मोदी जी के मुँह से कुछ उगलवाने के लिए कोई रैली करवानी पड़ेगी
तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। राहुल गाँधी; जिन्हें ज्यादातर
लोग पप्पू के नाम से जानते हैं; को भी लगता है आटे दाल का भाव
पता चल गया तभी तो वे एक नए नारे, “अरहर मोदी” की बात कर रहे
हैं। लेकिन राहुल गाँधी के इस बढ़ते ज्ञान के पीछे किसी और नहीं बल्की मोदी सरकार का
हाथ है। इस सरकार ने पिछले दो साल में अपने किसी भी चुनावी वादे को पूरा नहीं किया।
कच्चे तेल की कीमत घटने के बावजूद पेट्रोल के दाम नहीं घटे। दाम यदि घटाए जाते हैं
तो एक दो रुपए और बढ़ाए जाते हैं तो तीन चार रुपए। इस स्थिति में फैसला आप का है कि
आप ‘हर हर मोदी’ बोलते हैं या ‘अरहर मोदी’।
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