फाइजर की लॉंच मीटिंग के मजे
ज्यादातर लोगों को वर्षों तक याद रहते हैं। ये कहानी मैग्नेक्स लॉंच की है जो आगरा
में हुई थी। जिस होटल में हम ठहरे थे वह अपने आप में एक छोटे से मुहल्ले की तरह ही
आकार लिए हुए था। उस मीटिंग में फाइजर की हर बड़ी मीटिंग की तरह कवाब और शराब का लुत्फ
सबों ने उठाया था इसलिए मैं उस का विवरण यहाँ पर नहीं करूँगा।
मीटिंग के आखिरी दिन
हमारे पास ट्रेन पकड़ने से पहले कुछ समय था। उस समय का सदुपयोग करने के लिए पहले तो
हम ताजमहल घूमने गए और उसके बाद शॉपिंग करने। वहाँ के लोकल पीएसओ हमारे साथ थे ताकि
हमें शॉपिंग में कोई परेशानी न हो। हमारी टीम के सभी लोगों ने कई जोड़ी जूते खरीदे।
उसके बाद सबने वह चीज खरीदी जो शायद ताजमहल के बाद आगरा की दूसरी मशहूर चीज है। जी
हाँ आपने ठीक समझा; आगरे का पेठा।
मैं उस समय कुँवारा था इसलिए मैंने केवल एक किलो सूखे पेठे खरीदे। मुझ जैसी अकेली जान
के लिए वही काफी था। जो लोग शादीशुदा थे उन्होंने अधिक मात्रा में पेठे खरीदे थे ताकि
उसका पूरे परिवार के साथ मजा ले सकें। हमारे मैनेजर साहब ने तो सबसे ज्यादा मात्रा
में पेठे खरीदे थे। सूखे पेठों के अलावा उन्होंने चाशनी वाले पेठे भी खरीदे थे। टीम
के बॉस होने के नाते भी उनके लिए लाजिमी था कि उनके पेठों का पैकेट सबसे बड़ा हो।
बहरहाल, शाम में हमारी टीम के सभी लोगों ने आगरा स्टेशन
से मरुधर एक्सप्रेस ट्रेन पकड़ी। यह ट्रेन वाराणसी तक जाती है। हमारे मैनेजर साहब और
चार पीएसओ को फैजाबाद उतरना था। उनमे से दो लोगों को मैनेजर साहब के साथ फैजाबाद में
ही रहना था और बाकी दो में से एक को गोंडा और दूसरे को बहराइच जाना था। उसके बाद दो
सज्जन को सुल्तानपुर उतरना था। आखिर में मुझे जौनपुर उतरना था।
ट्रेन में हमारा रिजर्वेशन एसी थ्री में था और एक ही जगह हमारे
आठ बर्थ थे। चूँकि टिकट एक ही था और सबमें आपस में तालमेल अधिक था इसलिए पहले आओ पहले
पाओ की पॉलिसी अपनाते हुए बोगी में पहले अंदर जाने वाले छ: लोगों ने बीच के छ: बर्थ
पर अपना कब्जा जमा लिया। मैनेजर साहब को उनकी पोजीशन के कारण नीचे वाले बर्थ पर बैठने
की सुविधा दी गई। उनके सामने फैजाबाद में लंबे समय से काम करने वाले एक पीएसओ को बर्थ
दी गई। मैं और सुलतानपुर के पीएसओ बोगी में सबसे पीछे गए थे। इसलिए हम दोनों को साइड
वाली बर्थ दी गई। चूँकि मुझे सबसे आगे तक जाना था इसलिए मुझे साइड की ऊपर वाली बर्थ
दी गई।
ट्रेन चलते ही हमारी दुकान शुरु हो गई। यदि आप फाइजर में लंबे
अर्से से काम करते हैं तो आपको ‘दुकान शुरु’ होने का मतलब
तो पता ही होगा। लगभग रात के दस बजे कुछ अन्य यात्रियों द्वारा शिकायत आने के बाद हमने
अपनी दुकान बंद कर दी और अपने-अपने बर्थ पर सोने चले गये।
सबने मेरी बर्थ पर अपने-अपने
पेठों के पैकेट रख दिये क्योंकि उनका मानना था कि साइड बर्थ पर वे सुरक्षित रहेंगे।
उन पैकेटों के ऊँचे ढ़ेर के कारण मुझे सोने में थोड़ी तकलीफ हो रही थी। मैंने जब सोचा
कि किसी और के बर्थ पर कुछ पैकेट रखवा दूँ तो पाया कि तब तक सभी खर्राटे ले रहे थे।
मेरे पास अब कोई चारा नहीं था और मैं उसी स्थिति में सोने की कोशिश कर रहा था। रात
के लगभग तीन बजे मुझे जोरों की भूख लगी। मेरे पास चिंता की कोई वजह नहीं थी क्योंकि
मेरे पास पेठों का भरपूर स्टॉक था। मुझे लगा कि बॉस की चीजों पर किसी पीएसओ का पूरा
अधिकार होता है। इसलिए मुझे उनके पैकेट से ही पेठे खाना उचित लगा। मैंने उनका वो पैकेट
खोला जिसमें चाशनी वाले पेठे रखे हुए थे। वे वाकई स्वादिष्ट थे। वैसे तो मेरी खुराक
बहुत ही कम है लेकिन कभी किसी से शर्त लगे तो बात कुछ और होती है। मैं अपने आप को रोक
नहीं पाया और चाशनी वाले पेठे के एक पूरे पैकेट को सफाचट कर दिया। फिर मैंने उसे जैसे
का तैसा पैक करके उसकी जगह पर करीने से रख दिया।
सुबह होते-होते फैजाबाद स्टेशन आया और कुछ लोग वहाँ उतर लिए।
आखिरकार मेरा भी सफर समाप्त हुआ और मैं अपनी मंजिल पर पहुँच गया।
इस बात को बीते कुछ ही दिन हुए थे कि हमारी साइकिल मीटिंग फैजाबाद
में हुई। जैसे ही मैं सुबह सुबह तैयार होकर मीटिंग हॉल में पहुँचा तो हमारे मैनेजर
साहब ने जो पहला सवाल पूछा वो आप किसी भी मैनेजर से साइकिल मीटिंग में उम्मीद नहीं
कर सकते हैं। उन्होंने न तो पिछले क्वार्टर की सेल के बारे में पूछा और न ही किसी पेंडिंग
पेमेंट के बारे में पूछा। उन्होंने छूटते ही सवाल दागा, “अबे,
ये बताओ कि आगरा से वापस लौटते वक्त साइड की ऊपर वाली बर्थ पर तो तुम
ही थे?”
मैंने उन्हें कहा, “हाँ! क्या हुआ?”
उन्होंने फिर पूछा, “मेरे पेठों के पैकेट में से एक पैकेट पूरा
खाली था; वो भी चाशनी वाले पेठों का। ऐसा कैसे हुआ?”
मैंने देखा कि अब छुपाने से कुछ नहीं होने वाला। वैसे भी वे
पेठे तो कब के हजम हो चुके थे। मैंने बिलकुल निर्दोष सा चेहरा बनाते हुए कहा, “मैंने
सोचा कि आपने वे पेठे तो अपने परिवार के लिए खरीदे थे। हम लोग भी तो आपके परिवार जैसे
ही हैं। मुझे भूख लगी थी और वे पेठे वाकई स्वादिष्ट थे। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने
पूरा पैकेट साफ कर दिया।“
मेरी बात समाप्त होते ही वहाँ बैठे बाकी लोग जोर-जोर से हँसने
लगे। हमारे मैनेजर साहब का चेहरा तो बस देखते ही बनता था।